Tuesday, August 16, 2011

जीवंत पत्रकारिता के सवाल


रांची के दैनिक प्रभात खबर की स्थापना करने वाले पत्रकारों के मन में जोशो-खरोश कितना था, इसका आज अनुमान भर लगाया जा सकता है। कारोबारी चुनौतियाँ इस अखबार को खत्म कर देतीं, क्योंकि सिर्फ जोशो-खरोश किसी कारोबार को बनाकर नहीं रखता। अखबार को पूँजी चाहिए। बहरहाल प्रभात खबर का भाग्य अच्छा था और उसे चलाने वाले कृत-संकल्प संचालक और काबिल सम्पादक मिले। मेरे विचार से हरिवंश उस परम्परा के आखिरी बचे चिरागों में से एक हैं, जिनके सहारे हिन्दी पत्रकारिता की राह रोशन हो रही है। वे एक अंतर्विरोध को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। क्या है वह अंतर्विरोध?

हरिवंश ने इस अंतर्विरोध का जिक्र 14 अगस्त के अपने आलेख में किया है, जिसकी इन पंक्तियों पर गौर किया जाना चाहिएः- एक 20 पेज के सभी रंगीन पेजों के अखबार की लागत कीमत 15 रुपए है. हॉकरों-एजेंटों का कमीशन अलग। पाठकों को ऊपर से पुरस्कार चाहिए। कहा भी जा रहा है कि अखबार उद्योग पाठकों को पढ़ने का पैसा दे रहे हैं। इस पर समाज की मांग कि सात्विक अखबार निकले, पवित्र पत्रकारिता हो। अखबार उपभोक्तावादी समाज, गिफ्ट के लोभी और मुफ्त अखबार चाहनेवाले पाठकों के लिए लड़े? अखबारों की इकोनॉमी, विज्ञापनदाताओं के कब्जे में रहे, पर अखबार समाज के लिए लड़े, यह कामना? क्या इन अंतरविरोधी चीजों पर चर्चा नहीं होनी चाहिए। पाठकों और समाज को इस दोहरे चिंतन पर नहीं सोचना चाहिए। साधन यानी पूंजी पवित्रता से आएगी, बिना दबाव बनाए या बड़े सूद या बड़ा रिटर्न (सूद) की अपेक्षा के, तब शायद साधन यानी पत्रकारिता भी पवित्र होगी। साधन और साध्य के सवाल को अनदेखा कर सही पत्रकारिता संभव है?’

Monday, August 15, 2011

किससे करें फरियाद कोई सोचता भी तो हो


सैंकड़ों नाले करूँ लेकिन नतीजा भी तो हो।
याद दिलवाऊँ किसे जब कोई भूला भी तो हो।



हर साल पन्द्रह अगस्त की तारीख हमें घर में आराम करने और पतंगें उड़ाने का मौका देती है। तमाम छुट्टियों की सूची में यह भी एक तारीख है। सरकारी दफ्तरों, स्कूलों, सार्वजनिक संस्थाओं में औपचारिक ध्वजारोहणों के साथ मिष्ठान्न वितरण की व्यवस्था भी होती है। 26 जनवरी और पन्द्रह अगस्त साल के दो दिन हमने राष्ट्र प्रेम के नाम सुरक्षित कर दिए हैं। तीसरा राष्ट्रीय पर्व 2 अक्टूबर है। एक अलग किस्म की औपचारिकता का दिन। एक बड़ा तबका नहीं जानता कि देश की उसके जीवन में क्या भूमिका है। और देशप्रेम से उसे क्या मिलेगा? करोड़ों अनपढ़ों और गैर-जानकारों की बात छोड़िए।  पढ़े-लिखों के दिमाग साफ नहीं हैं।

Friday, August 12, 2011

महत्वपूर्ण है गवर्नेंस की गुणवत्ता


एक ज़माने में भारतीय कम्युनिस्टों पर आरोप लगता था कि जब मॉस्को में बारिश होती है, वे दिल्ली या कोलकाता में अपने छाते खोल लेते हैं। यह बात अब भारत के बिजनेस पर लागू होती नज़र आती है। अमेरिका के क्रेडिट रेटिंग संकट के बाद भारत का शेयर बाज़ार जिस तरह हिला है, उससे लगता है कि हम वास्तविक अर्थव्यवस्था को जानना-समझना चाहते ही नहीं। मीडिया, जिस तरीके से शेयर बाज़ार की गिरावट को उछालता है वह आग में घी डालने का काम होता है। पूरा शेयर बाजार सिर्फ और सिर्फ कयासों पर टिका है। बेशक यह कारोबार देश की अर्थ-व्यवस्था से जुड़ा है। इसमें मध्य वर्ग की मेहनत की कमाई लगी है, जिसे समझदार विदेशी कम्पनियाँ मिनटों में उड़ा ले जाती हैं। हम देखते रह जाते हैं।

यह हफ्ता दो विदेशी और शेष भारतीय घटनाओं के लिए याद किया जाएगा। इनमें आपसी रिश्ते खोजें तो मिल जाएंगे। यों तीनों के छोर अलग-अलग हैं। अमेरिका की घटती साख के अलावा इंग्लैंड में अफ्रीकी और कैरीबियन मूल के लोगों के दंगे सबसे बड़ी विदेशी घटनाएं हैं। अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग घटने से यह अनुमान लगाना गलत होगा कि अमेरिका का डूबना शुरू हो गया है। आज भी डॉलर दुनिया की सबसे साखदार मुद्रा है और इस रेटिंग क्राइसिस के दौरान उसकी कीमत बढ़ी है। कम से रुपए के संदर्भ में तो यह सही है। उसके सरकारी बांड दुनिया में सबसे सुरक्षित निवेश माने जाते हैं। यों मौखिक बात वॉरेन बफेट की है, जिन्होंने कहा है कि हमारे लिए अमेरिका की साख ट्रिपल ए की है, कोई उसे बढ़ाए या घटाए, इससे फर्क नहीं पड़ता। पर यह भावनात्मक बातें हैं। दुनिया पर दबदबा बने रखने की जो कीमत अमेरिका दे रहा है, वह ज्यादा है। इस स्थिति की गोर्बाचौफ के रूस के साथ तुलना करें तो पाएंगे कि संस्थाओं और व्यवस्थाओं में फर्क है, मूल सवालों में ज्यादा फर्क नहीं है।

हम दो बातें एक साथ होते हुए देख रहे हैं। पहली है पूँजी का वैश्वीकरण और दूसरी पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों का खुलना। संकट अमेरिका का हो या ग्रीस का अब जी-20 देशों का समूह इसका समाधान खोजता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था की शक्ति और सामर्थ्य है कि वह अपने संकटों का समाधान खोज लेने में अभी तक सफल है। सोवियत व्यवस्था ने भी अपने अंतर्विरोधों को सुलझाना चाहा था, पर वे विफल रहे। अभी यह संकट सिर्फ अमेरिका का संकट नहीं है, वैश्विक पूँजीवाद का संकट है। वैश्विक पूँजी के और विस्तार के बाद हम इसके वास्तविक अंतर्विरोधों को देख पाएंगे। अमेरिकी व्यवस्था में पिछले कुछ दशक से कॉरपोरेट सेक्टर ने राजनीति की जगह ले ली है। ऐसा ही भारत में करने का प्रयास है। पर क्या यूरोप, चीन और भारत में अंतिम रूप से सफल हो जाएगा?

आज अमेरिका के तीन हजार अरब डॉलर के सरकारी बॉण्ड चीन के पास हैं। अमेरिका का बजट घाटा चीनी मदद से होता है। आज से तीन दशक पहले चीन के पास तीन हजार डॉलर छोड़, इतने डॉलर नहीं थे कि कायदे से वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार कर पाता। वह विश्व व्यापार संगठन का सदस्य तक नहीं था। सारे डॉलर अमेरिकी व्यवस्था की मदद से ही तो आए। चीन की अर्थ-व्यवस्था अमेरिका और यूरोप के लिए सस्ता माल तैयार करने वाली व्यवस्था है। जापानी अर्थ-व्यवस्था भी इसी तरह बढ़ी थी। पर भारतीय व्यवस्था में तमाम पेच हैं। यह निर्यात आधारित अर्थ-व्यवस्था नहीं है। हमारा मध्य वर्ग तेजी से बढ़ रहा है। हमें स्थानीय उपभोग के लिए औद्योगिक विस्तार करना है। खेतिहर समाज से औद्योगिक समाज में हमारे रूपांतरण को अनेक लोकतांत्रिक परीक्षणों से गुजरना पड़ रहा है। यह हमें अजब-गजब लगता है, पर कम से कम चीन से बेहतर है। वहाँ की सरकारी नीतियाँ इस तरीके के संसदीय परीक्षण से नहीं गुजरतीं। बेशक पार्टी का लोकतंत्र है, पर वह खुला लोकतंत्र नहीं है।

हम चीन के विशाल हाइवे और सुपरफास्ट ट्रेनों से हतप्रभ हैं। वास्तव में यह तारीफ के काबिल उपलब्धियाँ हैं, पर यह बड़े स्तर की शोकेसिंग भी है। और जो कुछ आप वहां देख रहे हैं, वह डॉलर में मिलता है। सार्वजनिक पूँजी का काफी बड़ा हिस्सा इस शोकेसिंग में लगाया गया है। पर जब सुपरफास्ट ट्रेन की दुर्घटना होती है तब पता लगता है कि उस देश के लोग भी कहीं विचार करते हैं। हमें चीन की जनता के विचारों से रूबरू होने का मौका कम मिलता है। चीन को आने वाले वक्त में जबर्दस्त लोकतांत्रिक आंदोलनों का सामना करना होगा। साथ ही यह भी देखना होगा कि वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी कॉरपोरेट सेक्टर की खिदमतगार है या नहीं। यह भी देखना चाहिए कि चीन ने अपने आर्थिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के अलावा शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, आवास और जन कल्याण के दूसरे कामों को किस तरीके से साधन मुहैया कराए हैं। अंततः जनता का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य आने वाले वक्त में राजनैतिक व्यवस्था के स्वास्थ्य को निर्धारित करेगा।

भारतीय शेयर मार्केट पिछले कुछ दिनों से वोलटाइल चल रहे हैं। चीन, सिंगापुर या हांगकांग के शेयर बाजार ऐसा व्यवहार करें तो समझ में आता है। हमारा तो कुल अंतरराष्ट्रीय कारोबार में दो फीसदी हिस्सा है। इसकी एक वजह है कि विदेशी निवेशक आने वाले संकट को समय से पहले भाँप जाते हैं और अपना नफा निकाल कर फुर्र हो जाते हैं। यह हमारी व्यवस्था का दोष भी है। पूँजी बाजार के रेग्युलेशन में अभी और काम होना बाकी है। भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाओं, व्यवस्थाओं के साथ-साथ गवर्नेंस और नियामन में कड़ाई की ज़रूरत है। यदि इतने बड़े स्तर पर बगैर किसी स्थानीय वजह के शेयर बाजार टूटते हैं तो रेग्युलेटरों को देखना होगा कि चूक कहाँ हुई। मॉरीशस लेकर आइल ऑफ मैन तक अर्थ-व्यवस्था के अनेक ब्लैक होल बने हैं।

जो लोग कहते हैं कि शेयर बाज़ार अर्थ-व्यवस्था इंडीकेटर है, उन्हें पहले शेयर बाजार को कारोबार से जोड़ना होगा। कम्पनियाँ एक बार आईपीओ लाकर जनता से पैसा वसूलती हैं, उसके बाद सेकंडरी मार्केट को मैनीपुलेट करती हैं। यह पैसा कम्पनियों के विस्तार पर खर्च नहीं होता। कम्पनियों के परफॉर्मेंस से शेयर बाजार का जो रिश्ता होना चाहिए, वह हमारे यहाँ नहीं है। इसमें कई तरह के स्वार्थी तत्वों ने सेंध लगा रखी है। अभी हम टू-जी के संदर्भ में कॉरपोरेट महारथियों के विवरण पढ़ रहे हैं। कॉरपोरेट क्राइम पर हमारा ध्यान अब गया है।

हाल में उत्तर प्रदेश में तीन सीएमओ की मौतों के बाद सार्वजनिक स्वास्थ्य के घोटालों की ओर हमारी निगाहें घूमी हैं। मोटी बात यह है कि मनरेगा, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था और जन स्वास्थ्य से लेकर कम्पनी कारोबार तक हर जगह हमें गवर्नेंस और नियामन की विफलता नज़र आती है। अनेक परेशानियों के केन्द्र अमेरिका या चीन में होंगे, पर वास्तविक परेशानियाँ हमारे भीतर हैं। एक माने में भारत नई दुनिया है, जिसे अपने आप को खुद परिभाषित करना है। हम प्रायः बात करते हैं तो मानते हैं कि चीन से हमें अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए। हम उसके सामने कहीं नहीं हैं। ठीक बात होगी, पर चीन ने ऐसा तीन दशक में किया है। हम कोशिश करें तो एक दशक में परिस्थितियाँ बदल जाएंगी। बल्कि संसदीय बहस वगैरह बंद कराकर आँख मूँदकर सारे नियमों-कानूनों को पास कराते जाएं तो हमें भी सपनों का देश मिल जाएगा, जिसमें शानदार इमारतें, सड़कें, रोशनी और टीवी शो होंगे। हम अमेरिका जैसा बनना चाहते हैं तो वहाँ के शिक्षा, स्वास्थ्य और जन कल्याण के सार्वजनिक कार्यक्रमों को भी तो लाना होगा। विकास माने खुशहाली है चमकदार सड़कें नहीं। चमकदार सड़कें सबके लिए खुशहाली की सौगात ला सकें उससे बेहतर और क्या होगा।

विदेशी घटनाओं के संदर्भ में इंग्लैंड के दंगे इस हफ्ते की प्रमुख घटना है। मोटे तौर पर ये दंगे अफ्रीकी और कैरीबियन मूल के लोगों और इंग्लैंड के जंकीज़ का उत्पात है। इनमें ज्यादातर अपराधी हैं और मुफ्त की कमाई चाहते हैं। पर गहराई से जाएं तो इनके पीछे पिछले साल आई नई सरकार द्वारा पैदा की गई नई उम्मीदों का मर जाना है। सामान्य दंगे होते तो दो-एक दिन में खत्म हो जाते। इंग्लैंड में यह छुट्टियों का वक्त हैं। छुट्टियाँ रद्द करके महत्वपूर्ण सांसद वापस आ रहे हैं। वहाँ की संसद बैठने वाली है। ब्रिटिश संसद गम्भीर विचार करती है। हमारे लिए संदर्भ सिर्फ इतना है कि ऐसे झगड़ों के कारण कहीं और होते हैं। और अंततः वे नॉन गवर्नेंस पर आकर रुकते हैं। जिस देश में जनता और सरकार समझदार हों वहाँ संकट नहीं होते।    

Tuesday, August 9, 2011

इस प्रगति से इसे क्या मिला?

यह आलेख मेरे पास अरुण चन्द्र रॉय ने भेजा है। इनकी बातों से असहमत होने का कोई अर्थ नहीं. सवाल है स्थितियों को बेहतर कैसे बनाया जाए। नीचे पढ़ें उनका पत्र और आलेख।


प्रमोद जी नमस्कार ! आपके ब्लॉग से आपका परिचय हुआ. और आपका आमंत्रण भी देखा. बढ़िया तो लिखता नहीं फिर भी आपना एक छोटा सा आलेख आपके ब्लॉग हेतु प्रस्तुत कर रहा हूं. यदि ठीक लगे तो उपयोग कीजियेगा.यदि कहीं और उपयोग करना चाहें अपने संपर्क से तो कर सकते हैं... अपने सुझाव भी दीजियेगा कि किस तरह अपने लेखन को इम्प्रूव कर सकता हूँ... सम्प्रति अपनी विज्ञापन एजेंसी चलता हूं... कविता लिखता हूं.... 




अरुण चन्द्र रॉय
संपर्क सूत्र: 9811721147                                                                                                                                    

भारत  :  भुखमरी 



जब आठ साल पहले मनमोहन सिंह जी देश के प्रधानमंत्री बने थे तो पूरी दुनिया में यह पहला  वाकया था कि किसी  विश्व स्तर के  अर्थशास्त्री के हाथों किसी देश की कमान हो. देश को बहुत उम्मीदें थी. जनता को लग रहा था कि महंगाई कम होगी, हर पेट को दाना मिलेगा, जीडीपी घाटा कम होगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. जो हुआ उनमें  टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कामनवेल्थ घोटाला, आदर्श हाउसिंग घोटाला, किसानों  की आत्महत्या और बेहिसाब महंगाई प्रमुख हैं. लेकिन इसमें नया कुछ नहीं है. नया यह है कि कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में हाल में भारत में भुखमरी के अध्ययन  के अर्थशास्त्रियों  ने एक सूचकांक तैयार किया है जिसे इंडिया स्टेट हंगर इंडेक्स नाम दिया है. इस  इंडेक्स का उद्देश्य भारत में भुखमरी और कुपोषण की  स्टडी करना है. इसे इंटरनेशनल फ़ूड रिसर्च इंस्टिटयूट ने तैयार किया है. 

Monday, August 8, 2011

काग्रेस में उत्तराधिकार को लेकर इतना सन्नाटा क्यों है?



सरकार, पार्टी और मीडिया में सन्नाटा क्यों है?
राहुल गांधी को सामने आने दीजिए

जिन्हें याद है उन्हें याद दिलाने की ज़रूरत नहीं, पर जो नही जानते उन्हें यह बताने की ज़रूरत है कि 31 अक्टूबर 1984 को श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या का समाचार देश के आधिकारिक मीडिया पर शाम तक नहीं आ पाया था। इसके कारण जो भी रहे हों, पर निजी चैनलों के उदय के बाद से देश में छोटी-छोटी बातें भी चर्चा का विषय बनी रहती हैं। पिछली 4 अगस्त को सारे चैनलों का ध्यान दो खबरों पर था। कर्नाटक में येदुरप्पा का पराभव और कॉमनवैल्थ गेम्स के बारे में सीएजी की रपट। बेशक दोनों खबरें बड़ी थीं, पर श्रीमती सोनिया गांधी के स्वास्थ्य और उनकी अनुपस्थिति में पार्टी की अंतरिम व्यवस्था के बारे में खबरें या तो देर से आईं या इतनी सपाट थीं कि उन्हें समझने में देर हुई। ये खबरें सबसे पहले बीबीसी और एएफपी जैसी विदेशी एजेंसियों ने जारी कीं। सरकार, सरकारी मीडिया और प्राइवेट मीडिया ने इसे बहुत महत्व नहीं दिया। बात ठीक है कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर कयासबाज़ी नहीं होनी चाहिए, पर सामान्य जानकारी देने में क्या कोई खराबी थी? कांग्रेस पार्टी की वैबसाइट तक पर इस विषय पर कोई जानकारी नहीं है। क्या ऐसा जानबूझकर है या इसलिए कि एक जगह पर जाकर पूरी व्यवस्था घबराहट और असमंजस की शिकार है?

Friday, August 5, 2011

फेसबुक लोकतंत्र का वक्त अभी नहीं आया



सन 2008 में यूरोप में आए वित्तीय संकट के केन्द्र में आइसलैंड जैसा छोटा देश था, जहाँ के बैंकों में लोगों ने अपनी बचत का सारा पैसा लगा रखा था। देखते-देखते आइसलैंड के बैंक बैठ गए। वहाँ की मुद्रा क्रोना की कोई हैसियत नहीं रह गई। उस आपाधापी में वहाँ की सरकार गिर गई। विश्व बैंक की मदद से पूरी अर्थव्यवस्था को रास्ते पर लाया गया। बहरहाल करीब सवा तीन लाख की आबादी वाले इस छोटे से देश ने अपनी व्यवस्था को पुनर्परिभाषित करने का निश्चय किया है। पिछले साल यहाँ की संसद ने संवैधानिक व्यवस्था को परिभाषित करने में जनता की सलाह लेने का निश्चय किया। और दुनिया में पहली बार सोशल नेटवर्किंग के सहारे संविधान का एक प्रारूप बनकर सामने आया है, जिसे पिछले शुक्रवार को वहाँ की संसद की अध्यक्ष को सौंपा गया। इस प्रारूप पर अक्तूबर के महीने में वहाँ की संसद विचार करेगी।

Tuesday, August 2, 2011

संसदीय व्यवस्था को प्रभावी बनाना भी हमारी जिम्मेदारी है



अगस्त का महीना भारतीय स्वतंत्रता दिवस और 1942 की अगस्त क्रांति के सिलसिले में याद किया जाता है। या फिर हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए बमों के कारण। लगता है कि इस साल अगस्त के महीने में कुछ और क्रांतियाँ होंगी। इसकी शुरूआत कर्नाटक में मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा के पराभव से हो चुकी है। लोकपाल संस्था प्रभावशाली होगी या नहीं, इसका संकेत कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने दे दिया है। जिन्हें अभी तक अन्ना हजारे के पीछे भाजपा का हाथ लगता था, शायद उनकी धारणा में कुछ बदलाव हो, पर इस मामले को राजनीति के ऊपर ले जाकर देखने की ज़रूरत है।
आज से शुरू होने वाले सत्र में महत्वपूर्ण संसदीय कार्य पूरे होंगे। ज्यादातर निगाहें लोकपाल विधेयक पर हैं इसलिए हम वहीं तक देख पा रहे हैं। पर केवल लोकपाल विधेयक ही कसौटी पर नहीं है। देश की व्यवस्था को परिभाषित करने के लिहाज से हम इस वक्त एक महत्वपूर्ण मुकाम पर खड़े हैं। संसद के इस सत्र में और आने वाले सत्र में अनेक नए कानून और संविधान संशोधन होंगे। दूसरे अगले लोकसभा चुनाव के पहले के राजनैतिक ध्रुवीकरण की शुरुआत अब होगी। और तीसरे तमाम घोटालों, बवालों और झमेलों पर एक सार्थक बहस संसद में होगी, बशर्ते उसे होने दिया जाए। चौथे अन्ना का अनशन हो या न हो, जनता की खुली संसद का दायरा बढ़ने वाला है। 
मूल्य वृद्धि, भ्रष्टाचार, काला धन, तेलंगाना, एयर इंडिया, रिटेल में एफडीआई, भूमि अधिग्रहण कानून, मुम्बई धमाके और विदेश-नीति से जुड़े अनेक मामले कतार में खड़े हैं। इधर ए राजा ने अदालत में पी चिदम्बरम और मनमोहन सिंह पर आरोप लगाकर भाजपा और वाम मोर्चे को अच्छे हथियार दे दिए हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना यूपीए सरकार की टोपी में लगी कलगी की तरह है। पर इस योजना को लागू करने में अनियमितताओं की लम्बी सूची भी विपक्ष के पास है। तो इसलिए बेहद रोचक शो शुरू होने वाला है। राजनीति में टाइमिंग महत्वपूर्ण होती है। देखना यह है कि किसका होमवर्क सटीक है। और इस दौरान कुछ नई बातों का पर्दाफाश भी होगा। येदुरप्पा से छुटकारा पाकर भाजपा नैतिकता के ऊँचे धरातल पर खड़े होने का दावा करेगी। उधर बेल्लारी के रेड्डी बंधु भी कुछ नए रहस्य खोलने वाले हैं। कई व्यक्तिगत और कई सार्वजनिक रहस्यों के खुलने का दौर भी शुरू होगा अब।
शोर-शराबे को संसदीय कर्म मानें तो हमारे यहाँ इसकी कमी नहीं। पर गम्भीर काम-काज के लिहाज से हम काफी पीछे हैं। संसद के पिछले दो सत्रों में हमारी संसद ने सिर्फ पाँच बिल पास किए हैं। दोनों सदनों के पास 81 बिल विचारार्थ पड़े हैं। उम्मीद है कि भूमि अधिग्रहण बिल, डायरेक्ट टैक्सेज कोड बिल, उच्च शिक्षा में सुधार के बाबत विधेयक, महिलाओं को पंचायत में 50 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक, केन्द्रीय शिक्षा संस्थानों में आरक्षण से जुड़ा विधेयक औस तमाम विधेयक है। इनमें से कुछ स्थायी समिति में हैं। कुछ की रिपोर्ट आ गई हैं। उनपर विचार तभी होगा, जब संसद को समय मिलेगा।
लोकपाल विधेयक को पेश करने के पहले स्थायी समिति में भेजा जाएगा। यह मसला राजनैतिक रंग ले चुका है, इसलिए शायद हमारा ध्यान उधर ही रहेगा, पर सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को लेकर अभी कई कानून और हैं। इनमे एक है ह्विसिल ब्लोवर बिल, जिसकी माँग लम्बे अर्से से हो रही है पर जो बन नहीं पा रहा। इसी तरह ज्युडीशियल एकाउंटेबिलिटी बिल है, जिसके आधार पर सरकार न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे से बाहर रखना चाहती है। विदेशी अधिकारियों को भारतीय कम्पनियाँ घूस न देने पाएं इसके लिए भी एक बिल है। अभी हम खाद्य सुरक्षा जैसे कानूनों के बारे में ज्यादा बात ही नहीं कर पाए हैं। बहरहाल, व्यवस्था को पारदर्शी, जिम्मेदार और कुशल बनाने के लिए अनेक कानूनों का प्रस्ताव है। यदि आप संसद के सामने विचाराधीन कानूनों की सूची पर ध्यान दें तो समझ में आएगा कि ये कानून कितने महत्वपूर्ण हैं और इनके बारे में फैसला करने में देरी का अर्थ क्या है। बेशक यह सब राजनैतिक चक्रव्यूहों को पार किए बगैर सम्भव नहीं होगा।
अन्ना हजारे के अनशन के बाद सरकार ने उनके पाँच सदस्यों को शामिल करके एक ड्राफ्टिंग कमेटी ज़रूर बनाई, पर आज उसका कोई मतलब समझ में नहीं आता। अंततः सरकार ने बिल का जो समौदा तैयार किया है, वह संयुक्त समिति का मसौदा नहीं है। तो क्या अन्ना को फिर से अनशन करना चाहिए? या फिर संसद के विवेक पर सब कुछ छोड़ देना चाहिए? कानून तो संसद में ही बनेगा, पर संसद के बाहर की आवाजों को भी भीतर तक सुना जा सकता है। हाल के घटनाक्रम के बाद कम से कम इतना ज़रूर हुआ है कि मूल्य, विचार और नैतिकता की बातें सुनी जाने लगीं हैं। जिस वक्त कैबिनेट में इस मसौदे पर चर्चा हो रही थी थी, मनमोहन सिंह समेत कुछ मंत्रियों ने सुझाव दिया कि इसमें प्रधानमंत्री के पद को भी लोकपाल के दायरे के भीतर लाना चाहिए। उनका कहना था कि ऐसा करके हम जनता को बेहतर संदेश देते हैं। बहरहाल कैबिनेट का फैसला हो चुका है। अब यह कानून देश की राजनीति के पाले में हैं। क्या यह कानून अगले चुनाव का मुद्दा बन सकता है?
शायद कोई अकेला कानून किसी चुनाव का मुद्दा न बने, पर व्यवस्थागत पारदर्शिता बन सकती है। धीरे-धीरे हम विचार के दायरे को फोकस करते जा रहे हैं। इसकी एक शुरुआत आज से होगी, भारतीय संसद में।   

  

Monday, July 25, 2011

फई के अबोध या सुबोध भारतीय भाई


नार्वे में आतंकवादी कार्रवाई के बाद अंदेशा इस बात का था कि इसका रिश्ता कहीं न कहीं अल कायदा या उसकी किसी शाखा से होगा। अंसार-अल-इस्लाम नाम के किसी संगठन ने इसकी ज़िम्मेदारी भी ले ली। और इंटरनेट पर विश्लेषण भी शुरू हो गए कि अल ज़वाहीरी ने हाल में नॉर्वे का नाम भी हमलों के लिए लिया था। बहरहाल बम धमाके और उसके बाद एक सैरगाह पर धुआंधार गोलीबारी करने वाला व्यक्ति इस्लाम-विरोधी आतंकवादी लगता है। क्या ईसाई आतंकवादी भी दुनिया में हैं? क्या नव-नाज़ी कोई बड़ी कार्रवाई करना चाहते हैं? क्या आतंकवादियों का संसार अलग है? ऐसे सवालों पर निगाह जाती है, पर हमारे दिमाग पर मुम्बई धमाके हावी थे, सो हमारा निगाहें भारत-पाकिस्तान रिश्तों की ओर जाती है। बहरहाल अभी हमारे इलाके में गतिविधियों का मौसम है। और इसी बुधवार को होने वाली भारत-पाक वार्ता विचार के केन्द्र में रहेगी।


भारत-पाक वार्ता के एजेंडा से हटकर देखें तो सैयद गुलाम नबी फई के प्रकरण ने कुछ दूसरे कारणों से भारत के लोगों का ध्यान खींचा है। पाकिस्तान सरकार और आईएसआई पिछले दो दशक से कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल (केएसी) को पैसा दे रही थी। कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल एक एनजीओ है। उसका उद्देश्य कश्मीरी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार-सम्बद्ध संघर्ष से अमेरिकी नागरिकों का ज्ञानवर्धन करना है। अमेरिकी कानूनों के अनुसार विदेशी सरकारें अमेरिकी नीतियों को प्रभावित करने के लिए देश में इस प्रकार के प्रचार कार्य के लिए पैसा नहीं लगा सकतीं। पर वस्तुतः केएसी लॉबीइंग कर रही थी। अमेरिका में लॉबीइंग वैध है और तमाम कम्पनियाँ, नेता और अधिकारी इस काम में जुड़े हैं। बाहरी तौर पर यह मामला छोटा लगता है, पर इसमें आईएसआई के ब्रिगेडियर जावेद अज़ीज़ और कुछ दूसरे लोगों का नाम आने के बाद इसकी रंगत बदल गई है। फाई की गिरफ्तारी के बाद पाकिस्तान सरकार बजाय दबाव में आने के और उग्र होकर अमेरिका के खिलाफ बोल रही है। बहरहाल वे अपनी जानें।


पत्रकार के रूप में काम करने वाले व्यक्ति को अक्सर अपनी देशभक्ति की परिभाषा को व्यापक बनाना होता है। और उन तर्कों को सुनना और पेश करना होता है जो हमारे देश के औपचारिक रुख के अनुरूप नहीं होते। क्या इस खाँचे में दिलीप पडगाँवकर, गौतम नवलखा और अरुंधती रॉय को रखकर देखें तो बात सामान्य सी नहीं लगती? सामान्य सी लगती है। और हम मानते हैं कि भारत एक खुला लोकतंत्र है। हम बड़ी हद तक खुले बहस को स्वीकार करते हैं। पिछले दिनों अरुंधती रॉय के मामले में हमने माना भी। पर इस मामले को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से बाहर लेकर जाएं तो कुछ और बातें नज़र आती हैं।

हमारे यहाँ फई प्रकरण का दूसरा पहलू चर्चा का विषय है। गुलाम नबी फई ने भारत के अनेक उदारवादी लेखकों, पत्रकारों और नेताओं से रिश्ते बना रखे थे। वे उन्हें अमेरिका में कश्मीर के बाबत सम्मेलनों और सेमिनारों में बुलाते भी थे। खर्चे-पानी के साथ। इनमें तमाम बड़े नाम हैं, पर सबसे महत्वपूर्ण नाम दिलीप पडगाँवकर का है, जो इन दिनों भारत सरकार की ओर से कश्मीर लोगों से संवाद स्थापित कर रहे हैं। क्या दिलीप पडगाँवकर का फाई के निमंत्रण पर जाना गलत था? गलत नहीं भी था तो क्या भारत सरकार की ओर से कश्मीरियों से उनके संवाद में कोई अड़चन है? साथ ही क्या भारत के उदारवादी जाने-अनजाने फई के जाल में फँस गए थे? या फाई पूर्णतः निर्दोष हैं और वे भारत की राजनयिक साजिश के शिकार हुए हैं, जैसाकि सैयद अली शाह गिलानी कह रहे हैं?


फई के मामले पर वर्जीनिया की अदालत में कार्यवाही कुछ दिन के लिए टल गई है। यों भी उसके कानूनी पहलू पर गहराई से जाने पर हमें कुछ नहीं मिलेगा। इतना साफ है कि गुलाम नबी फई को भारतीय कश्मीर छोड़े तीन दशक हो गए हैं। कश्मीर के बारे में उनका दृष्टिकोण भारतीय दृष्टिकोण के विपरीत है। कश्मीर के बाबत अलगाववादी दृष्टिकोण में भी दो धाराएं हैं। एक धारा चाहती है कि कश्मीर पाकिस्तानी कब्ज़े में रहे। और दूसरी चाहती है कि कश्मीर स्वायत्त और स्वतंत्र हो। सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों और इंडिपेंडेंस ऑफ इंडिया एक्ट के तहत कश्मीर के स्वतंत्र देश बनने की संभावना नहीं हो सकती। बहरहाल प्रकट रूप में फई एक खुले संवाद की अवधारणा के साथ भारतीय उदारवादियों को ले जाते थे। पर उनका मंच तटस्थ या निष्पक्ष नहीं है। उनका साफ उद्देश्य पाकिस्तानी एजेंडा को पूरा करना है। और अब यह बात भी सामने आ गई है कि इसके लिए वे पाकिस्तान सरकार और आईएसआई से पैसा ले रहे थे। पैसा जमा करने का उनका बेहतरीन तरीका यह था कि वे अमेरिका में पाकिस्तानी कारोबारियों से दान लेते थे। जिसके बदले में उन्हें टैक्स में छूट मिलती थी। ऊपर से पाकिस्तान सरकार उस रकम की भरपाई उन्हें या उनके परिवार को पाकिस्तान में कर देती थी।

यह बात समझ में नहीं आती कि अबोध भारतीय बुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों को फई के एजेंडा का अनुमान नहीं रहा होगा। रिपोर्ट बताती हैं कि फई के सम्पर्कों से यह साफ था कि वे पाकिस्तान सरकार के लिए काम कर रहे थे। पाकिस्तान सरकार का कहना है कि अमेरिका में लोकतांत्रिक पद्धति से लॉबीइंग करना कानूनन सही है। पर कानून के निहितार्थ कुछ और भी हैं। दो दशक से चल रही फई की गतिविधियों की जानकारी अमेरिकी प्रशासन को नहीं थी, यह भी नही माना जा सकता। पर भारतीय बुद्धिजीवियों की समझ एक पहेली है। 


Saturday, July 23, 2011

नॉर्वे में गोलीबारी जेहादी कार्रवाई नहीं?



नॉर्वे के इस 32 वर्षीय नौजवान का नाम है एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक। इसने उटोया के पास एक द्वीप पर बने सैरगाह में यूथ कैम्प पर गोलियाँ चलाकर तकरीबन 80 लोगों की जान ले ली।

शुरूआती खबरों से पता लगा है कि इसने पुलिस की वर्दी पहन रखी थी। और इसके पास एक से ज्यादा बंदूकें थीं। इस घटना के ङीक पहले ओस्लो में प्रधानमंत्री निवास के पास एक इमारत में हुए विस्फोट में 7 लोगों की मौत हे गई। अभी तक की जानकारी यह है कि यह आदमी दक्षिणपंथी विचार का है और इस्लाम के खिलाफ लिखता रहा है। यह अपने आप को राष्ट्रवादी और कंजर्वेटिव ईसाई कहता है।

सवाल है ये दोनों घटनाएं क्या एक-दूसरे से जुड़ी हैं? ब्रीविक ने ट्विटर पर सिर्फ एक बार ट्वीट किया है। 17 जुलाई के उसके ट्वीट में जो कहा है वह अंग्रेज दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल का एक उद्धरण है,  "One person with a belief is equal to the force of 100 000 who have only interests."

उसका फेस बुक अकाउंट कहता है कि वह शिकार, वर्ल्ड ऑफ वॉरक्राफ्ट तथा मॉडर्न वॉरफेयर जैसे खेल पसंद करता है और राजनैतिक विश्लेषण तथा स्टॉक एनलिसिस भी उसके शौक हैं।

 शुरू में ऐसी खबरें थीं कि बम धमाकों की जिम्मेदारी अल कायदा से जुड़े किसी ग्रुप ने ली है। सवाल है कि क्या दोनों घटनाओं के अलग-अलग कारण हैं?


बीबीसी की रपट


गार्डियन की खबर


Not a Jehadi operation

Friday, July 22, 2011

भारत-पाकिस्तान-बर्फ पिघलानी होगी


इसी मंगलवार को पाकिस्तान के कार्यवाहक राष्ट्रपति फारुक एच नाइक ने 34 वर्षीय हिना रब्बानी खार को देश के विदेश मंत्री पद की शपथ दिलाई। संयोग से जिस वक्त उन्होंने शपथ ली उस वक्त राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों देश के बाहर थे। हिना पिछले पाँच महीने से विदेश राज्यमंत्री के स्वतंत्र प्रभार के साथ काम कर रहीं थीं। उन्हें अचानक इसी वक्त शपथ दिलाकर मंत्री बनाने की ज़रूरत दो वजह से समझ में आती है। एक तो वे 22-23 जुलाई को बाली में हो रहे आसियान फोरम में पाकिस्तानी दल का नेतृत्व करेंगी। और शायद उससे बड़ी वजह यह है कि वे 27 जुलाई को भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्ण से बातचीत के लिए दिल्ली आ रहीं हैं। 13 जुलाई के मुम्बई धमाकों के फौरन बाद हो रही भारत-पाकिस्तान वार्ता कई मायनों में महत्वपूर्ण है। 26 नवम्बर 2008 को हुए मुम्बई हमले के बाद से रुकी पड़ी बातचीत फिर से शुरू होने जा रही है। और उन धमाकों के ठीक दो हफ्ते बाद जिन्होंने 26/11 की याद ताज़ा कर दी। पाकिस्तान चाहता तो हिना रब्बानी खार राज्यमंत्री के रूप में भी बातचीत के लिए आ सकतीं थीं। या मुम्बई धमाकों का नाम लेकर बातचीत को कुछ दिन के लिए टाला जा सकता था। पर ऐसा नहीं हुआ। इसका मतलब है कि दोनों देशों ने परिस्थितियों को समझा है।

19 जुलाई को जिस रोज़ हिना शपथ ले रहीं थीं उस रोज दो घटनाएं और हो रहीं थीं, जिनका भारत-पाकिस्तान वार्ता से सीधा रिश्ता न सही, पर पृष्ठभूमि से रिश्ता है। 19 को दिल्ली में भारत-अमेरिका सामरिक वार्ता चल रही थी, जिसके लिए विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन दिल्ली आईं थीं। उसी रोज़ अमेरिका के वर्जीनिया की एक अदालत में अमेरिकी जाँच एजेंसी एफबीआई ने 45 पेज का हलफनामा दाखिल किया, जिसमें कहा गया है कि पाकिस्तान सरकार और आईएसआई पिछले दो दशक से कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल (केएसी) को पैसा दे रही थी। कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल एक एनजीओ है। उसका उद्देश्य कश्मीरी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार-सम्बद्ध संघर्ष से अमेरिकी नागरिकों का ज्ञानवर्धन करना है। अमेरिकी कानूनों के अनुसार विदेशी सरकारें अमेरिकी नीतियों को प्रभावित करने के लिए देश में इस प्रकार के प्रचार कार्य के लिए पैसा नहीं लगा सकतीं। एफबीआई ने सैयद गुलाम नबी फाई नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया है, जो यह कश्मीर सेंटर चलाते थे। एक और पाकिस्तानी का नाम इसमें है, जिसे पकड़ा नहीं जा सका है। बाहरी तौर पर यह मामला छोटा लगता है, पर इसमें आईएसआई के ब्रिगेडियर जावेद अज़ीज़ और कुछ दूसरे लोगों का नाम आने के बाद इसकी रंगत बदल गई है।  

भारत-पाकिस्तान रिश्ते दो दिन में नहीं बदल सकते। लाहौर बस यात्रा से आगरा सम्मेलन तक का हमारा अनुभव यही है। पर वे लगातार खराब भी नहीं रह सकते। मुम्बई धमाकों से मुम्बई धमाकों तक का संदेश भी यही है। रिश्तों को बिगाड़े रखने वाली ताकतें दोनों देशों के भीतर मौजूद हैं, जो एक-दूसरे को प्राण वायु प्रदान करतीं हैं। पर पाकिस्तान में एक पूरा प्रतिष्ठान भारत-विरोध के नाम पर खड़ा है। उसका मूल स्वर है कश्मीर बनेगा पाकिस्तान। पाकिस्तानी राजनीति और सेना ने कश्मीर के मामले को बेहद ऊँचे तापमान पर गर्मा कर रखा है। पाकिस्तान को हर तरह के भारतीय संदर्भों से काट कर एक कृत्रिम देश बसाने की कामना उसे धीरे-धीरे तबाही की ओर ले जा रही है। इस प्रयास में इस देश ने अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान तक को मिटाना शुरू कर दिया है। इसी पाकिस्तान के भीतर दो धारणाएं और काम करतीं हैं। एक है वहाँ उभरती सिविल सोसायटी की, जिसके मन में देश को आधुनिक और प्रगतिशील बनाने की इच्छा है। दूसरी है भारत के साथ सांस्कृतिक, सामाजिक रिश्ते बनाए रखने की कामना। ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि पूरा पाकिस्तान जेहादी मानसिकता का शिकार है। हाँ ऐसी कामना जरूर कुछ लोगों के मन में है कि इस देश को जल्द से जल्द जेहादिस्तान बना दिया जाए। देश की गरीबी और अशिक्षा इस मानसिकता की पैठ बनाए रखने में मददगार है।  

बहरहाल, भारत के साथ रिश्तों का बनना-बिगड़ना पाकिस्तान के अंदरूनी हालात पर भी निर्भर करेगा। यह पहला मौका है जब पाकिस्तान में जम्हूरी सरकार इतने लम्बे दौर तक चली है। यदि यह अपना कार्यकाल पूरा कर लेती है तो एक बड़ी उपलब्धि होगी। देश की राजनैतिक केमिस्ट्री को इसके साथ ही बदलना होगा। इसके आर्थिक बदलाव से भी राजनैतिक अवधारणाओं में बदलाव आएगा। सतत जेहादी माहौल में रहकर आधुनिक किस्म का आर्थिक विकास सम्भव नहीं है। एकबारगी पाकिस्तानी मध्य वर्ग की जड़ें जम जाएंगी तो फैसले बदल जाएंगे। पर इस काम में तकरीबन दस साल और लगेंगे। तब तक कई किस्म के ऊँच-नीच से हमारा सामना होगा। धमाकों के गर्दो-गुबार भी हो सकते हैं और बातचीत के खुशनुमा मौके भी।

पाकिस्तान अपने जन्म के बाद से भारत-विरोध की जिस ग्रंथि से पीड़ित है वह उसे पहले पश्चिमी देशों की ओर ले गई। और अब उसे चीन की ओर ले जा रही है। इस दौरान उसने विदेशी सहायता के सहारे जीना सीख लिया है। पश्चिमी देश तो मुफ्त की मदद दे सकते थे, पर चीन से ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। दूसरे पाकिस्तान को अपनी असुरक्षा ग्रंथि से बाहर आना चाहिए। इस असुरक्षा ने उसे अफगानिस्तान की ओर धकेल दिया है। अफगानिस्तान में विकास के खासे लम्बे दौर की ज़रूरत है। उसके पहले वहाँ राजनैतिक शांति चाहिए। पाकिस्तान वहाँ भारत की उपस्थिति नहीं चाहता। यह नासमझी और इतिहास-विरोधी बात है।

भारत-पाकिस्तान बातचीत में सबसे ज्यादा जिन लफ्ज़ो का इस्तेमाल होता है वे हैं कांफिडेंस बिल्डिंग मैज़र्स(सीबीएम)। इस सीबीएम का रास्ता आर्थिक है। दोनों देशों के बीच आर्थिक मामलों में सहयोग की जबर्दस्त सम्भावनाएं मौजूद हैं, पर पाकिस्तान का कश्मीर कॉज़ व्यापारिक सहयोग में आड़े आता है। हम अक्सर चीनी या प्याज लेते-देते रहते हैं, पर इससे आगे नहीं जाते। दोनों देशों के बीच इस वक्त करीब दो अरब डॉलर का सालाना व्यापार है। इसके मुकाबले दुबई और सिंगापुर वगैरह के रास्ते होने वाला छद्म-व्यापार कम से कम चार अरब का है। भारत-पाकिस्तान वार्ता की सुगबुगाहट पिछले कई महीनों से चल रही है। पिछले अप्रेल में दोनों देशों के विदेश सचिवों की बैठक में कुछ फैसले हुए। दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने के वास्ते पाकिस्तान की ओर से भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने में देर हो रही है। हालांकि अब संकेत हैं कि यह काम हो जाएगा।

दोनों देशों के बीच राजनैतिक धरातल पर रिश्ते कितने ही खराब रहे हों, दोनों देशों के व्यापारियों के रिश्ते बहुत अच्छे हैं। 26/11 के बाद से तमाम वार्ताएं रुक गईं, पर व्यापार किसी न किसी शक्ल में चलता रहा। वह तब जबकि औपचारिक रूप से अड़ंगे लगते रहे। कश्मीर में हालात सामान्य करने में नियंत्रण रेखा पर व्यापार की अनुमति मिली है। अभी हफ्ते में दो दिन व्यापार होता है। दोनों ओर के व्यापारी चाहते हैं कि इसके दिन बढ़ाए जाएं। दोनों के बीच किसी किस्म की बैंकिंग व्यवस्था नहीं है, इसलिए पूरा व्यापार बार्टर के आधार पर होता है। दोनों ओर के व्यापारी इस मामले को राजनैतिक बनने नहीं देते। इसी सोमवार को दोनों देशों के बीच नियंत्रण रेखा के व्यापार को लेकर भी बातचीत हुई है। कश्मीर की समस्या के समाधान का एक व्यावहारिक रास्ता यह है कि धीरे-धीरे नियंत्रण रेखा को पारदर्शी बना दिया जाय। यानी आवागमन में पाबंदिया न रहें। यह काम व्यापार के मार्फत अच्छी तरह से हो सकता है। एकबारगी लोगों के आर्थिक हित जुड़ेंगे तो हिंसा के बादल छँटेंगे।

संयोग है कि पिछले साल जुलाई में भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा की पाकिस्तान यात्रा के दौरान पाकिस्तान के तत्कालीन विदेशमंत्री शाह महमूद कुरैशी के कड़वे वक्तव्य के कारण माहौल खराब हो गया था। दोनों देशों के राजनयिकों ने हालात को सम्हाला। शाह महमूद कुरैशी को इस साल फरवरी में अमेरिका विरोधी वक्तव्यों के कारण हटा दिया गया। उनकी जगह आईं नई विदेश मंत्री शायद रिश्तों में हिना की खुशबू बिखेरने में कामयाब हों। आमीन। 

जनवाणी में प्रकाशित

Monday, July 18, 2011

धमाके दैवीय आपदा नहीं


हमारी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था में छिपे हैं सुरक्षा के खोट
धमाके दैवीय आपदा नहीं

पिछले हफ्ते भारतीय मीडिया पर तीन विषय छाए थे। स्वाभाविक रूप से पहला विषय था भ्रष्टाचार और दूसरा था केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार। और तीसरा विषय था या अभी है-आतंकवाद। इन तीनों में क्या कोई आपसी रिश्ता भी है? आप चाहें तो इनमें कुछ विषय और जोड़ लें जो अक्सर चर्चा में होते हैं। भारत-पाक समस्या, कश्मीर, माओवादी हिंसा, जातीय और साम्प्रदायिक सवाल, बॉलीवुड और मीडिया। मुम्बई धमाकों का इन सब के साथ रिश्ता जोड़ा जा सकता है।

मुम्बई धमाके हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। इनके पीछे कौन है, इसका पता लग भी जाए, पर ऐसा फिर से न होने पाए इसे सुनिश्चित करने वाली मशीनरी बननी चाहिए। पिछले धमाकों की फाइलें ही अधूरी पड़ीं हैं। कोई घटना होते ही हम सबसे पहले अपनी पेशबंदी करते हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री ने पहले दिन ही कह दिया कि यह इंटेलिजेंस फेल्यर नहीं था। तब यह क्या था? धमाके कहीं भी हो सकते हैं। आतंकियों ने अमेरिका जैसे देश की सुरक्षा व्यवस्था को भेदकर दिखा दिया। उन्होंने लंदन, मैड्रिड और मॉस्को तक में धमाके किए। पिछले साल मई में न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में एक कार में बम रखा मिला। कार ही नहीं पकड़ी गई, बम रखने वाला भी पकड़ा गया।  यह कैसे सम्भव हुआ? इसकी वजह यह है कि उन्होंने एकबार किसी संगठन या समूह को पहचान लिया तो उसकी धमनियों, शिराओं और नाड़ियों तक पर नज़र रखना शुरू कर दिया। वे अपनी सुरक्षा के लिए चौकस हैं। अक्सर अमेरिकी सुरक्षा कर्मी अभद्रता करते हैं, पर सुरक्षा चूक नहीं करते।

क्या हमारी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था में कोई खोट है जो हमें सख्ती के साथ निपटने से रोकती है? गृहमंत्री चिदम्बरम ने सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों का समर्थन किया है। पर सवाल है कि धमाकों के लिए जिम्मेदार कौन है? कहीं न कहीं किसी किस्म की विफलता है। यह राजनैतिक प्रश्न नहीं प्रशासनिक सवाल है। आमतौर पर होने वाली आतंकी घटनाओं की जाँच होती है और हम कुछ लोगों की पकड़-धकड़ भी करते हैं, पर इस बात की जाँच नहीं होती कि किस खुफिया एजेंसी या सुरक्षा एजेंसी की चूक से ऐसा हुआ। आमतौर पर सरकार ऐसी जाँच कराने से बचती है। जब गृहमंत्री ही एजेंसियों का बचाव कर रहे हैं, तब जाँच की ज़रूर क्या है? 26/11 के बाद महाराष्ट्र सरकार ने अपनी पुलिस व्यवस्था की त्रुटियों की जाँच के आदेश दिए थे, पर केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय एजेंसियों की जाँच नहीं कराई। इस किस्म की गफलत अमेरिका या इंग्लैंड की सुरक्षा एजेंसियां नहीं कर सकतीं। और हम हर बार धमाकों के बाद इसे दैवीय आपदा मान लेते हैं।   

आतंकवादियों पर उनके अड़्डे से नज़र रखी जाती है। अनेक संगठन और उनके प्रमुख कार्यकर्ता जाने-पहचाने हैं। वे किस से मिलते हैं, क्यों मिलते हैं वगैरह की नियमित रूप से जानकारी रखनी होती है। इंटेलिजेंस का काम धीमा और सुस्थिर होता है। उसे जनता के बीच अच्छा सम्पर्क रखना होता है। पर हमारे यहाँ पुलिस की छवि दोस्त की नहीं दुश्मन की है। छवि को बदले बगैर बेहतर इंटेलिजेंस सम्भव नहीं। दूसरे हमारे यहाँ इंटेलिजेंस के तमाम संगठन हैं, जिनके बीच तालमेल लगभग शून्य है। पाकिस्तान को सौंपी गई आतंकियों की सूची का उदाहरण ज्यादा पुराना नहीं है।

मुम्बई हादसे में अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल हुआ। इसके पहले के धमाकों में भी हुआ। अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल खेती में होता है। अमेरिका में फरबरी 1993 में न्यूयॉर्के के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को उड़ाने की कोशिश करने वालों ने अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल किया था। उसके बाद से अमेरिका, कनाडा और अन्य पश्चिमी देशों ने ऐसा नेटवर्क बनाया है कि कहीं भी अमोनियम नाइट्रेट की अस्वाभाविक खरीद-फरोख्त होती है तो अलर्ट मिल जाती है। यों भी उसकी खरीद के नियम बदल गए हैं। क्या हमने खाद विक्रेताओं को आगाह किया है कि कोई गैर-किसान नज़र आने वाला व्यक्ति अमोनियम नाइट्रेट खरीदे तो पुलिस को बताए? क्या पुलिस वालों की ट्रेनिंग इस किस्म की है कि वे खतरे को समझें?

हम जब भ्रष्टाचार की बात करते हैं, तब ऊपरी  सतह से ज्यादा वह निचली सतह पर होता है। जनता जब सबको चोर कहती है तब उसका अपना अनुभव बोलता है। आतंकी खतरों को टालने में इसी जनता के सहयोग की ज़रूरत होती है। पर वह किसे सहयोग दे? जिन्हें सहयोग देना है उनसे वह डरती है। नब्बे के दशक में जब सबसे पहले जैन हवाला मामला सामने आया तब मसला राजनैतिक नेताओं का नहीं सुरक्षा व्यवस्था का था। कश्मीर के आतंकवादियों के लिए हवाला के मार्फत पैसा आ रहा था। आतंकवादियों और राजनेताओं के शक्तिस्रोत जब इतने करीब होंगे तब क्या होगा, यह आप समझ सकते हैं। 1993 की वोहरा कमेटी की रपट हमारे यहाँ लम्बे अर्से तक धूल खाने के बाद सामने भी आई तो क्या हो गया? यह बात तब से कही जा रही है कि हमारी सुरक्षा का वास्ता हमारी व्यवस्था से भी है।   

फिलहाल खबर यह है कि जाँच एजेंसियों ने कुछ व्यक्तियों पर ज़ीरो-इन किया है। शायद किसी का स्केच भी बनाया गया है। अच्छी बात यह है कि यह स्केच अभी सिर्फ जाँचकर्ताओं को दिया गया है। वर्ना तमाम चैनल उसे अपना एक्सक्ल्यूसिव बता कर चला चुके होते। 26/11 के मौके पर चैनलों के धारावाहिक प्रसारण से पाकिस्तान में बैठे लश्करियों को बड़ी मदद मिली थी। हम धीरे-धीरे समझदार हो रहे हैं। हमारे पास बेहतरीन जाँचकर्ता हैं। वे अपराधियों को खोज निकालेंगे। पर वक्त है कि हम सुरक्षा को व्यापक संदर्भों में देखें। 

जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित


Friday, July 15, 2011

मंत्रिमंडल में फेर-बदल क्यों होता है?


संसदीय लोकतंत्र के विशेषज्ञों के लिए यह शोध का विषय है कि प्रधानमंत्री बीच-बीच में अपने मंत्रिमंडल में फेर-बदल क्यों करते हैं। और यह भी कि फेर-बदल कब करते हैं। किसी भी बदलाव का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि पूरी टीम के बीच काम का नया माहौल बनता है, चुस्ती आती है। नए लोग सामने आते हैं और ढीला काम करने वाले बाहर होते जाते हैं। इस फेर-बदल के पीछे सप्लाई और डिमांड का मार्केट गणित भी होता है। यानी कुछ लोग सरकार में शामिल होने के लिए दबाव बनाते हैं और कुछ खास तरह के लोगों की ज़रूरत बनती जाती है। साथ ही मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा भी हो जाती है। इन सब बातों के अलावा राजनैतिक माहौल, विभिन्न शक्तियों के बीच संतुलन बैठाने और यदि गठबंधन सरकार है तो सहयोगी दलों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी बदलाव होते हैं। इतनी लम्बी कथा बाँचने की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि हम केन्द्रीय मंत्रिमंडल के ताजा फेर-बदल का निहितार्थ समझ सकें।

न्यूयॉर्क, लंदन और मैड्रिड सुरक्षित हैं तो मुम्बई क्यों नहीं


मुम्बई में एक बार फिर से हुए धमाकों से घबराने या परेशान होकर बिफरने की ज़रूरत नहीं है। यह स्पष्ट भले न हो कि इसके पीछे किसका हाथ है, पर यह स्पष्ट है कि वह हाथ किधर से आता है। पहला शक इंडियन मुजाहिदीन पर है। सन 2007 में लखनऊ और वाराणसी में हुए धमाकों और 2008 में जयपुर और अहमदाबाद के धमाकों की शैली से ये धमाके मिलते-जुलते हैं। पर इन मुजाहिदीन की मुम्बई के निर्दोष लोगों से क्या दुश्मनी? दहशत के जिन थोक-व्यापारियों की यह शाखा है, उन तक हम नहीं पहुँच पाते हैं।

घूम-फिरकर संदेह का घेरा लश्करे तैयबा और तहरीके तालिबान पाकिस्तान वगैरह पर जाता है। अब यह जानना बहुत महत्वपूर्ण नहीं कि उनके पीछे कौन है। वे जो भी हैं पहचाने हुए हैं। और उनके इरादे साफ हैं। महत्वपूर्ण है उनका धमाके कराने में कामयाब होना। और धमाके रोक पाने में हमारी सुरक्षा व्यवस्था का विफल होना। यह भी सच है कि सुरक्षा एजेंसियाँ अक्सर धमाकों की योजना बनाने वालों की पकड़-धकड़ करती रहतीं है। ऐसा न होता तो न जाने कितने धमाके हो रहे होते। देखना यह भी चाहिए कि मुम्बई में ऐसा क्या खास है कि वह हर दूसरे तीसरे बरस ऐसी खूंरेजी का शिकार होता रहता है। क्या वजह है कि वहाँ का अपराध माफिया इतना पावरफुल है?

Monday, July 11, 2011

लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है



सवालों के ढेर में जवाब खोजिए

पिछले कुछ समय से लगता है कि देश में सरकार नहीं, सुप्रीम कोर्ट काम कर रही है। ज्यादातर घोटालों की बखिया अदालतों में ही उधड़ी है। अक्सर सरकारी वकील अदालतों में डाँट खाते देखे जाते हैं। परिस्थितियों के दबाव में सरकार की दशा सर्कस के जोकर जैसी हो गई है जो बात-बात में खपच्ची से पीटा जाता है। इसके लिए सरकार भी जिम्मेदार है और कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि सरकार का बचाव करना मुश्किल है। पर शासन की यह दुर्दशा शुभ लक्षण नहीं है। हमारी व्यवस्था में सरकार, विधायिका और न्यायपालिका के काम बँटे हुए हैं। जिसका जो काम है उसे वही सुहाता है। पर ऐसा नहीं हो रहा है तो क्यों? और कौन जिम्मेदार है इस दशा के लिए?

Saturday, July 9, 2011

NoW का अंत

न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड यानी Now ऐसा कोई बड़ा सम्मानित अखबार नहीं था। पर 168 साल पुराने इस अखबार को एक झटके में बन्द करने की ऐसी मिसाल नहीं मिलेंगी। रूपर्ट मर्डोक ने युनाइटेड किंगडम की पत्रकारिता को लगभग बदल कर रख दिया। अखबारों की व्यावसायिकता को इस हद तक सम्माननीय बना दिया कि कमाई के नाम पर कुछ भी करने का उनका हौसला बढ़ा। तुर्रा यह कि पत्रकारिता के प्रवचन भी वह लपेट कर देते थे। बहरहाल इंग्लैंड में पत्रकारिता, अपराध और सरकार के रिश्तों पर नई रोशनी पड़ने वाली है। हमारे देश के लिए भी इसमें कुछ संकेत छिपे हैं बशर्ते उन्हें समझा जाए।

Friday, July 8, 2011

इधर कुआं उधर खाई



अगले तीन-चार दिन राष्ट्रीय राजनीति के लिए बड़े महत्वपूर्ण साहित होने वाले हैं। दिल्ली की यूपीए सरकार आंध्र प्रदेश में तेलंगाना की राजनैतिक माँग और जगनमोहन रेड्डी के बढ़ते प्रभाव के कारण अर्दब में  आ गई है। वहाँ से बाहर निकलने का रास्ता नज़र नहीं आता। उधर टू-जी की नई चार्जशीट में दयानिधि मारन का नाम आने के बाद एक और मंत्री के जाने का खतरा पैदा हो गया है। अब डीएमके के साथ बदलते रिश्तों और केन्द्र सरकार को चलाए रखने के लिए संख्याबल हासिल करने की एक्सरसाइज चलेगी। अगले कुछ दिनों में ही केन्द्रीय मंत्रिमंडल में बहु-प्रतीक्षित फेर-बदल की सम्भावना है। राजनीति के सबसे रोचक या तो अंदेशे होते हैं या उम्मीदें। शेष जोड़-घटाना है। संयोग से तीनों तत्वों का योग इस वक्त बन गया है। शायद मंत्रिमंडल में हेर-फेर के काम को टालना पड़े। यह वक्त एक नई समस्या और खड़ी करने के लिए मौज़ूं नहीं लगता।

आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने लगातार दो सेल्फ गोल किए हैं। तेलंगाना मामले को पहले उठाकर और फिर छोड़कर कांग्रेस ने अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है। उधर जगनमोहन रेड्डी से जाने-अनजाने पंगा लेकर कांग्रेस ने आंध्र में संकट मोल ले लिया है। दोनों बातें एक-दूसरे की पूरक साबित हो रहीं हैं। सन 2004 में चुनावी सफलता हासिल करने के लिए कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य बनाने का वादा कर दिया था। संयोग से केन्द्र में उसकी सरकार बन गई। तेलंगाना राष्ट्र समिति इस सरकार में शामिल ही नहीं हुई, यूपीए के कॉमन मिनीमम प्रोग्राम में राज्य बनाने के काम को शामिल कराने में कामयाब भी हो गई थी। नवम्बर 2009 में के चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन को खत्म कराने के लिए गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने राज्य बनाने की प्रक्रिया शुरू करने का वादा तो कर दिया, पर सबको पता था कि यह सिर्फ बात मामले को टालने के लिए है। चिदम्बरम का वह वक्तव्य बगैर सोचे-समझे दिया गया था और इस मसले पर कांग्रेस की बचकाना समझ का प्रतीक था। इस बीच श्रीकृष्ण समिति बना दी गई, जिसने बजाय समाधान देने के कुछ नए सवाल खड़े कर दिए।  इस रपट को लेकर आंध्र प्रदेश की हाईकोर्ट तक ने अपने संदेह व्यक्त किया कि इसमें समाधान नहीं, तेलंगाना आंदोलन को मैनेज करने के बाबत केन्द्र सरकार को हिदायतें हैं।

Monday, July 4, 2011

राजनीति को भी चाहिए सिस्टमेटिक सुधार

प्रधानमंत्री का कहना है कि लोकपाल की व्यवस्था संवैधानिक दायरे में होनी चाहिए।  इसपर किसी को आपत्ति नहीं। संवैधानिक दायरे से बाहर वह हो भी नहीं सकता। होगा तो संसद से पास नहीं होगा। पास हो भी गया तो सुप्रीम कोर्ट में नामंज़ूर हो जाएगा। सर्वदलीय बैठक में इस बात पर सहमति थी कि एक मजबूत लोकपाल बिल आना चाहिए। अब बात बिल की बारीकियों पर होगी। लोकपाल बिल पर जब भी बात होती है अन्ना हजारे के अनशन का ज़िक्र होता है। क्या ज़रूरत है अनशन के बारे में बोलने की? क्या आपको उम्मीद नहीं कि 15 अगस्त तक बिल पेश कर देंगे? चूंकि पूरी व्यवस्था 42 साल से चुप बैठी है इसलिए आंदोलन जैसी बातें होतीं हैं। बिल के उपबन्धों पर बातें कीजिए अनशन पर नहीं। इसे समझने की कोशिश कीजिए कि किस बिन्दु पर किसे आपत्ति है। नीचे पढ़ें जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेखः-

किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है

सियासत की बारादरी में काला बाज़ार

लोकपाल बिल पर सर्वदलीय सम्मेलन शुरू होने के पहले ही देश को इस बात की आशा थी कि इस बैठक में कोई सर्वानुमति नहीं उभरेगी। फिर भी बैठक में ज्यादातर पार्टियों का शामिल होना अच्छी बात थी। यह बैठक अन्ना हजारे ने नहीं सरकार ने बुलाई थी। क्योंकि संसद से प्रस्ताव पास कराने के लिए सरकार की ओर से विधेयक पेश होना जरूरी है। इसलिए इसके निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं। अच्छा हो कि इसका मसौदा ऐसा बनाया जाय कि उसपर बहस की गुंजाइश ही न रहे। क्या ऐसा कभी सम्भव है?

Friday, July 1, 2011

किसने बनाया इस देश को भिंडी बाज़ार?



देश में एक माहौल बना दिया गया है, और यह बात मैं सविनय कहता हूँ, कि अनेक मामलों में मीडिया की भूमिका आरोप लगाने वाले की, अभियोजक की और जज की हो गई है। प्रधानमंत्री ने पाँच सम्पादकों को अपने घर बुलाकर यह बात कही। अंग्रेजी में बोले गए 1884 शब्दों में से केवल 25 शब्दों का आशय ऊपर दिया गया है। इस वाक्य पर प्रधानमंत्री का कितना ज़ोर था, यह वही अनुमान लगा सकता है, जो सामने था। पर एक सहज सवाल उठता है कि क्या सरकार के सामने खड़ी दिक्कतों के लिए मीडिया जिम्मेदार है?
हाल में कुछ केन्द्रीय नेताओं ने स्वीकार किया था कि प्रधानमंत्री को मीडिया से सम्पर्क बढ़ाना चाहिए। सम्पादकों से उनकी मुलाकात इस नई धारणा को बल मिला है कि निगेटिव कवरेज के कारण सरकार की छवि को धक्का लगा है। अन्ना-आंदोलन के सन्दर्भ में सरकार पहले के मुकाबले ज्यादा सतर्क और आक्रामक नज़र आती है। रामदेव के रामलीला-अभियान के विफल होने के बाद अब अगली चुनौती अन्ना का 16 अगस्त से प्रस्तावित अनशन है। पर ऐसा क्यों माना जाय कि अनशन होगा?