Sunday, November 13, 2022

कौन देगा दुनिया को बचाने की कीमत?


मिस्र के शर्म-अल-शेख में 6 नवंबर से शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र के कांफ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ (कॉप27) सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी वैश्विक चिंताएं जुड़ी हैं। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से लड़ने के लिए संयुक्त राष्ट्र का यह सबसे बड़ा सालाना कार्यक्रम है। इस वैश्विक-वार्ता के केंद्र में एक तरफ जहरीली गैसों के बढ़ते जा रहे उत्सर्जन की चिंता है, तो दूसरी तरफ आने वाले वक्त में परिस्थितियों को बेहतर बनाने की कार्य-योजना। इन सबसे ऊपर है पैसा और इंसाफ। गरीब देश, अमीर देशों से जहर-मुक्त भविष्य की ओर जाने के लिए आर्थिक-सहायता मांग रहे हैं। वे उस नुकसान की भरपाई भी चाहते हैं जो वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के कारण हो रहा है, जिसमें उनका कोई हाथ नहीं है। पिछले पौने दो सौ साल के औद्योगीकरण के कारण वातावरण में जो जहरीली गैसें गई थीं, वे अभी मौजूद हैं।

अधूरे वादे-इरादे

वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में हुए कॉप-15 में विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में विकासशील देशों की मदद करने के लिए संयुक्त रूप से 2020 तक प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर जुटाने की प्रतिबद्धता जताई थी। यह लक्ष्य कभी पूरा नहीं हुआ। वित्तीय मदद देने के इस कोष को ग्रीन क्लाइमेट फंड यानी जीसीएफ कहते हैं। इसका उद्देश्य अक्षय ऊर्जा की व्यवस्था करने वाले देशों की मदद करना और तपती दुनिया को रहने लायक बनाने से जुड़ी परियोजनाओं को वित्तीय मदद देना है। किसान ऐसे बीज अपनाएं, जो सूखे का सामना कर सकें या लू की लपेट से बचने के लिए शहरों में ठंडक पैदा करने के लिए हरियाली पैदा की जाए वगैरह।

वित्तीय लक्ष्य

भारत सहित विकासशील देश, अमीर देशों पर नए वित्तीय-लक्ष्य पर सहमत होने के लिए दबाव डाल रहे हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा प्रकाशित फैक्टशीट के अनुसार 2020 में, विकसित देशों ने 83.3 अरब डॉलर जुटाए,। उसके एक साल पहले यह राशि 2019 में 80.4 अरब डॉलर थी। 100 अरब डॉलर का वादा 2023 तक पूरा होने की आशा नहीं है। मिस्र में, एकत्र हुए देश 2024 के लिए और बड़े वित्तीय-लक्ष्य तय करना चाहते हैं। सम्मेलन का समापन 18 नवंबर को होगा। देखना है कि इस सम्मेलन में लक्ष्य क्या तय होता है। सकारात्मक बात यह है कि लॉस एंड डैमेज फंडिंग को वार्ता के एजेंडा में शामिल कर लिया गया है। ज़ाहिर है कि क्लाइमेट-फाइनेंस और क्षति की भरपाई के लिए अमीर देशों पर दबाव बढ़ने लगा है, पर जितनी देर होगी, उतनी लागत बढ़ती जाएगी।

पेरिस समझौता

2015 के पेरिस समझौते के तहत दुनिया के सभी देश पहली बार ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने और ग्रीनहाउस-गैस उत्सर्जन में कटौती पर सहमत हुए थे। जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों के इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के मुताबिक 1850 से लेकर अब तक दुनिया का तापमान औसतन 1.1 सेंटीग्रेड बढ़ चुका है। इस बदलाव की वजह मौसम से जुड़ी प्रतिकूल घटनाएं अब जल्दी-जल्दी सामने आ रही हैं। जीवाश्म ईंधन जैसे कोयले और पेट्रोल के अधिक इस्तेमाल से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसें बढ़ती जा रही हैं। पिछले डेढ़ सौ से ज्यादा वर्षों से ये गैसें धरती के वातावरण में घुल जा रही हैं, जिसकी वजह से तापमान बढ़ रहा है। उत्सर्जन की एक सीमा का सामना करने की क्षमता प्रकृति में हैं, पर जहरीली गैसें वह सीमा पार कर चुकी हैं। इससे पश्चिम एशिया के देशों में खेती की बची-खुची जमीन रेगिस्तान बनने का खतरा पैदा हो गया है। डर है कि प्रशांत महासागर के अनके द्वीप समुद्र स्तर बढ़ने से डूब जाएंगे। अफ्रीकी देशों को भयावह खाद्य समस्या का सामना करना पड़ सकता है।

उबलता यूरोप

इस साल जुलाई में पूरा यूरोप गर्मी में उबलने लगा था। यूरोप ने पिछले 500 साल के सबसे खराब सूखे का सामना किया। जंगलों में लगी आग ने मुश्किलों को और बढ़ा दिया। रूस जैसे ठंडे देशों में भी 2021 में साइबेरिया के जंगलों में आग लगने की घटनाएं हुईं। यूनाइटेड किंगडम से लेकर हर हिस्से में तापमान नए रिकॉर्ड बने है। स्पेन के प्रधानमंत्री पेद्रो सांचेज ने इसे ग्लोबल वॉर्मिंग से जोड़ा और कहा कि जलवायु परिवर्तन लोगों की जान ले रहा है। ठंडे इलाके होने के कारण यहाँ बने लकड़ी के घरों में एसी और पंखों की व्यवस्था नहीं होती। घरों को इस तरह तैयार किया जाता है कि ठंड के मौसम में बाहरी तापमान का असर घर के अंदर नहीं हो। भीषण गर्मी को ध्यान में रखकर घर नहीं बने हैं। ज़ाहिर है कि आने वाले वक्त के लिए यह खतरनाक संकेत है। हाल में पाकिस्तान में आई बाढ़ ग्लोबल वॉर्मिंग का नतीज़ा मानी जा रही है।

Friday, November 11, 2022

क्या ट्रंप के ‘ग्रहण’ से बाहर निकलेगी रिपब्लिकन पार्टी


अमेरिका के मध्यावधि चुनाव परिणाम हालांकि पूरी तरह आए नहीं हैं, पर उनसे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. जैसा अनुमान था इस चुनाव में उस तरह की लाल लहर नहीं थी, पर हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में रिपब्लिकन मामूली बहुमत जरूर हासिल करेंगे. सीनेट में स्थिति कमोबेश पहले जैसी रहेगी, बल्कि रिपब्लिकन्स ने एक सीट खोई है. जॉर्जिया में 6 दिसंबर को फिर से मतदान होगा, जिसके बाद पलड़ा किसी तरफ झुक सकता है.

डेमोक्रेट्स को वैसी पराजय नहीं मिली, जिसका अंदेशा था. इस चुनाव के साथ 2024 के राष्ट्रपति चुनाव का आग़ाज़ भी हो गया है. ऐसा लगता है कि जो बाइडन अगले चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी नहीं होंगे, पर यह स्पष्ट नहीं है कि रिपब्लिकन पार्टी डोनाल्ड ट्रंप को उतारेगी या नहीं. 2020 का चुनाव हारने के बाद से ट्रंप इस बात को कई बार कह चुके हैं कि मैं 2024 का चुनाव लड़ सकता हूँ. इसमें दो राय नहीं कि पार्टी के लिए धन-संग्रह करने की क्षमता ट्रंप के पास है, पर केवल इतने भर से वे प्रत्याशी नहीं बन सकते. मध्यावधि चुनाव के परिणामों से लगता है कि उनके नाम का जादू अब खत्म हो रहा है.  

हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में रिपब्लिकन पार्टी का क्षीण सा ही सही, पर बहुमत हो गया है. सीनेट में बराबरी की स्थिति है. प्रतिनिधि सदन में रिपब्लिकन पार्टी सरकारी विधेयकों में रोड़ा अटकाने की स्थिति में आ गई है. इससे बाइडन प्रशासन पर दबाव बढ़ेगा. अमेरिकी संसद में सभी प्रस्तावों पर दलीय आधार पर वोट नहीं पड़ते, कुछ महत्वपूर्ण मामलों में ही दलीय प्रतिबद्धता की परीक्षा होती है. इसका मतलब है कि बड़े प्रस्तावों पर वोट के समय रिपब्लिकन पार्टी का वर्चस्व संभव है, पर इसके लिए पार्टी को एकजुट रखने के लिए जतन भी करने होंगे.

Wednesday, November 9, 2022

पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान के रहस्य क्या कभी खुलेंगे?


 देश-परदेस

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि इमरान खान ने अपने ऊपर हुए हमले के बाबत जो आरोप लगाए हैं, उनकी जाँच के लिए आयोग बनाया जाए. इमरान खान ने उनके इस आग्रह का समर्थन किया है. पाकिस्तानी सत्ता के अंतर्विरोध खुलकर सामने आ रहे हैं. पर बड़ा सवाल सेना की भूमिका को लेकर है. उसकी जाँच कैसे होगी? एक और सवाल नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति से जुड़ा है. यह नियुक्ति इसी महीने होनी है.

पाकिस्तानी सेना, समाज और राजनीति के तमाम जटिल प्रश्नों के जवाब क्या कभी मिलेंगे? इमरान खान के पीछे कौन सी ताकत? जनता या सेना का ही एक तबका? सेना ने ही इमरान को खड़ा किया, तो फिर वह उनके खिलाफ क्यों हो गई? व्यवस्था की पर्याय बन चुकी सेना अब राजनीति से खुद को अलग क्यों करना चाहती है?

पाकिस्तान में शासन के तीन अंगों के अलावा दो और महत्वपूर्ण अंग हैं- सेना और अमेरिका. सेना माने एस्टेब्लिशमेंट. क्या इस बात की जाँच संभव है कि इमरान सत्ता में कैसे आए? पिछले 75 साल में सेना बार-बार सत्ता पर कब्जा करती रही और सुप्रीम कोर्ट ने कभी इस काम को गैर-कानूनी नहीं ठहराया. क्या गारंटी कि वहाँ सेना का शासन फिर कभी नहीं होगा?  

अमेरिका वाले पहलू पर भी ज्यादा रोशनी पड़ी नहीं है. इमरान इन दोनों रहस्यों को खोलने पर जोर दे रहे हैं. क्या उनके पास कोई ऐसी जानकारी है, जिससे वे बाजी पलट देंगे? पर इतना साफ है कि वे बड़ा जोखिम मोल ले रहे हैं और उन्हें जनता का समर्थन मिल रहा है.

लांग मार्च फिर शुरू होगा

हमले के बाद वज़ीराबाद में रुक गया लांग मार्च अगले एक-दो रोज में उसी जगह से फिर रवाना होगा, जहाँ गोली चली थी. इमरान को अस्पताल से छुट्टी मिल गई है, पर वे मार्च में शामिल नहीं होगे, बल्कि अपने जख्मों का इलाज लाहौर में कराएंगे. इस दौरान वे वीडियो कांफ्रेंस के जरिए मार्च में शामिल लोगों को संबोधित करते रहेंगे. उम्मीद है कि मार्च अगले 10 से 14 दिन में रावलपिंडी पहुँचेगा.

पाकिस्तानी शासन का सबसे ताकतवर इदारा है वहाँ की सेना. देश में तीन बार सत्ता सेना के हाथों में गई है. पिछले 75 में से 33 साल सेना के शासन के अधीन रहे, अलावा शेष वर्षों में भी पाकिस्तानी व्यवस्था के संचालन में किसी न किसी रूप में सेना की भूमिका रही.

लोकतांत्रिक असमंजस

भारत की तरह पाकिस्तान में भी संविधान सभा बनी थी, जिसने 12 मार्च 1949 को संविधान के उद्देश्यों और लक्ष्यों का प्रस्ताव तो पास किया, पर संविधान नहीं बन पाया. नौ साल की कवायद के बाद 1956 में पाकिस्तान अपना संविधान बनाने में कामयाब हो पाया.

23 मार्च 1956 को इस्कंदर मिर्ज़ा राष्ट्रपति बनाए गए. उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया था, पर 7 अक्तूबर 1958 को उन्होंने अपनी लोकतांत्रिक सरकार ही बर्खास्त कर दी और मार्शल लॉ लागू कर दिया. उनकी राय में पाकिस्तान के लिए लोकतंत्र मुफीद नहीं.

Sunday, November 6, 2022

पाकिस्तान पर ‘सिविल वॉर’ की छाया

इमरान खान पर हुए हमले के बाद पाकिस्तान में अराजकता फैल गई है। इमरान समर्थकों ने कई जगह हिंसक प्रदर्शन किए हैं। एइस हमले के पहले पिछले हफ्ते ही इमरान के एक वरिष्ठ सहयोगी ने दावा किया था कि देश में हिंसा की आंधी आने वाली है। तो क्या यह हमला योजनाबद्ध है? इस मामले ने देश की राजनीति के अंतर्विरोधों को उधेड़ना
शुरू कर दिया है। कोई दावे के साथ नहीं कह सकता कि यह कहाँ तक जाएगा। अलबत्ता इमरान खान इस परिस्थिति का पूरा लाभ उठाना चाहते हैं। अप्रेल के महीने में गद्दी छिन जाने के बाद से उन्होंने जिस तरीके से सरकार, सेना और अमेरिका पर हमले बोले हैं, उनसे हो सकता है कि वे एकबारगी कुर्सी वापस पाने में सफल हो जाएं, पर हालात और बिगड़ेंगे। फिलहाल देखना होगा कि इस हमले का राजनीतिक असर क्या होता है।

सेना पर आरोप

गुरुवार को हुए हमले के बाद शनिवार को कैमरे के सामने आकर इमरान ने सरकार, सेना और अमेरिका के खिलाफ अपने पुराने आरोपों को दोहराया है। उनका दावा है कि जनता उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है, लेकिन कुछ लोगों को ऐसा नहीं चाहते। उन्होंने ही हत्या की यह कोशिश की है। उन्होंने इस हमले के लिए प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़, गृहमंत्री राना सनाउल्ला और आईएसआई के डायरेक्टर जनरल (काउंटर इंटेलिजेंस) मेजर जनरल फ़ैसल नसीर को ज़िम्मेदार बताया है। उन्हें हाल में ही बलोचिस्तान से तबादला करके यहाँ लाया गया है। फ़ैसल नसीर को सेनाध्यक्ष क़मर जावेद बाजवा का विश्वासपात्र माना जाता है। इस तरह से यह आरोप बाजवा पर भी है। इस आशय का बयान गुरुवार की रात ही जारी करा दिया था। यह भी साफ है कि यह बयान जारी करने का निर्देश इमरान ने ही दिया था।

हिंसा की धमकी

बेशक पाकिस्तानी सेना हत्याएं कराती रही है, पर क्या वह इतना कच्चा काम करती है? हमला पंजाब में हुआ है, जिस सूबे में पीटीआई की सरकार है। उन्होंने अपनी ही सरकार की पुलिस-व्यवस्था पर सवाल नहीं उठाया है। हत्या के आरोप में जो व्यक्ति पकड़ा गया है, वह इमरान पर अपना गुस्सा निकाल रहा है। क्या वह हत्या करना चाहता था? उसने पैर पर गोलियाँ मारी हैं। हैरत की बात है कि इतने गंभीर मामले पर पुलिस पूछताछ का वीडियो फौरन सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। पीटीआई के नेता फवाद चौधरी का कहना है कि यह साफ हत्या की कोशिश है। एक और नेता असद उमर ने कहा कि इमरान खान ने मांग की है कि इन लोगों को उनके पदों से हटाया जाए, नहीं तो देशभर में विरोध प्रदर्शन होंगे। माँग पूरी नहीं हुई तो जिस दिन इमरान खान बाहर आकर कहेंगे तो कार्यकर्ता पूरे देश में विरोध प्रदर्शन शुरू कर देंगे।

सेना से नाराज़गी

2018 में इमरान को प्रधानमंत्री बनाने में सेना की हाथ था, पर पिछले डेढ़-दो साल में परिस्थितियाँ बहुत बदल गई हैं। इस साल अप्रेल में जब इमरान सरकार के खिलाफ संसद का प्रस्ताव पास हो रहा था, तब से इमरान ने खुलकर कहना शुरू कर दिया कि सेना मेरे खिलाफ है। पाकिस्तान में सेना को बहुत पवित्र और आलोचना के परे माना जाता रहा है, पर अब इमरान ने ऐसा माहौल बना दिया है कि पहली बार सेना के खिलाफ नारेबाजी हो रही है। इमरान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के कार्यकर्ताओं ने पेशावर कोर कमांडर सरदार हसन अज़हर हयात के घर को भी घेरा और नारेबाजी की। पाकिस्तानी-प्रतिष्ठान में सेना के बाद जो दूसरी ताकत सबसे महत्वपूर्ण रही है वह है अमेरिका। इमरान खान ने अमेरिका को भी निशाना बनाया और आरोप लगाया कि उनकी सरकार गिराने में अमेरिका का हाथ है। वे शहबाज़ शरीफ की वर्तमान सरकार को इंपोर्टेड बताते हैं।

Wednesday, November 2, 2022

बाइडन के सिर पर ‘लाल लहर’ का खतरा


 देश-परदेस

नवंबर के पहले सोमवार के बाद पड़ने वाला मंगलवार अमेरिका में चुनाव दिवस होता है. आगामी 8 नवंबर को वहाँ मध्यावधि चुनाव होंगे. आमतौर पर भारतीय मीडिया की दिलचस्पी वहाँ के राष्ट्रपति चुनाव में होती है, पर अमेरिका की आंतरिक राजनीति में मध्यावधि चुनावों की जबर्दस्त भूमिका होती है. इसके परिणामों से पता लगेगा कि अगले दो साल देश की राजनीति और संसद के दोनों सदनों की भूमिका क्या होगी. 

अमेरिकी प्रतिनिधि सदन (हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स) का कार्यकाल दो साल का होता है और सीनेट के सदस्यों का छह साल का, जिसके एक तिहाई सदस्यों का चक्रीय पद्धति से हर दो साल बाद चुनाव होता है. दोनों सदनों की भूमिका देश का राजनीतिक एजेंडा तय करने की होती है.

हालांकि अभी तक डेमोक्रेटिक पार्टी दोनों सदनों से अपने काम निकाल ले रही थी, पर अब दोनों ही सदनों में उसके पिछड़ने का अंदेशा है. जो बाइडन की लोकप्रियता में भी गिरावट है. ये बातें 2024 के राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम को प्रभावित करेंगी.

लोकप्रियता का पैमाना

राष्ट्रपति का कार्यकाल चार साल का होता है और उसके पद संभालने के दो साल बाद चुनाव होते हैं, इसलिए इन्हें मध्यावधि चुनाव कहा जाता है. मध्यावधि चुनाव एक मायने में राष्ट्रपति की लोकप्रियता का पैमाना होता है. इन चुनावों में मतदान का प्रतिशत कम होता है, पर जब राजनीतिक हवा तेज होती है, तब प्रतिशत बढ़ भी जाता है. इस साल के मतदान प्रतिशत से भी पता लगेगा कि देश का राजनीतिक माहौल कैसा है.

इसबार के चुनाव कुछ और वजहों से महत्वपूर्ण हैं. सामाजिक दृष्टि से देश बुरी तरह विभाजित है और अर्थव्यवस्था मंदी का सामना कर रही है. रिपब्लिकन पार्टी फिर से सिर उठा रही है. मध्यावधि चुनावों के परिणाम आमतौर पर राष्ट्रपति की पार्टी के खिलाफ जाते हैं. इस चुनाव में हिंसा भड़कने की आशंका भी है. चुनाव के मात्र एक सप्ताह पहले 28 अक्तूबर को प्रतिनिधि सदन की स्पीकर नैंसी पेलोसी के पति पर हमला हुआ है.

प्यू रिसर्च सेंटर के सर्वे में देश के 77 फीसदी पंजीकृत वोटरों ने माना कि वोट देते समय आर्थिक मसले सबसे महत्वपूर्ण होंगे. सितंबर के महीने में देश की मुद्रास्फीति की वार्षिक दर 8.2 फीसदी थी. देश की गन पॉलिसी भी चिंता का विषय है. आए दिन गोलियों से होने वाली मौतों के विवरण प्रकाशित होते रहते हैं.

दो सदन, दो व्यवस्थाएं

अमेरिकी संसद के दो सदन हैं. हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव्स में 435 सदस्य होते हैं. और दूसरा है, सीनेट, जिसमें 100 सदस्य होते हैं. हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव्स की सभी 435 सीटों के चुनाव होंगे. सीनेट की चक्रीय व्यवस्था के तहत हर दो साल पर एक तिहाई सीटों पर चुनाव होते हैं. इसबार 34 सदस्यों का चुनाव होगा, जो छह साल के लिए चुने जाएंगे.