हालांकि महामारी की तीसरी और चौथी लहरों का खतरा सिर पर है, फिर भी दुनियाभर में स्कूल फिर से खुल रहे हैं। दूसरी तरफ बच्चों के संरक्षकों की चिंताएं बढ़ रही हैं, अदालतों ने कई तरह के एहतियात बरतने के निर्देश दिए हैं, फिर भी बहुत से लोग सवाल कर रहे हैं कि जल्दी क्या है? कुछ समय और रुक जाते, तो क्या हो जाता? बेशक स्कूलों को खोलने के खतरे हैं, पर कम से कम तीन बड़े कारणों से उन्हें अब खोलने की जरूरत है।
स्कूलों के बंद
होने से पूरी एक पीढ़ी समय से पीछे चली गई है, उसे
और पीछे धकेलना ठीक नहीं। दूसरे,
स्कूलों यानी शिक्षा का रिश्ता पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से है। पिछले साल के
शटडाउन के बाद जब शेष व्यवस्था को खोला गया, तो
स्कूलों को भी देर-सबेर खोलना होगा। जितनी देर लगाएंगे, नुकसान
उतना ज्यादा होगा। तीसरे, बड़ी संख्या में बहुत से लोगों की रोजी-रोटी स्कूलों के
साथ जुड़ी हुई है। इनमें शिक्षकों, शिक्षा-सामग्री तैयार करने वालों,
बच्चों की यूनिफॉर्म तैयार करने वालों, रिक्शा
चालकों से लेकर बस ड्राइवरों, आयाओं और ऐसे तमाम लोगों की रोजी-रोटी
का सवाल है। उनका जीवन दूभर हुआ जा रहा है।
एहतियात
की जरूरत
स्कूल खोले
जाएंगे, तब साथ में कई प्रकार की एहतियात भी बरती जाएंगी।
सच यह भी है कि बच्चे अब घरों से बाहर निकलने लगे हैं। मसलन काफी बच्चों ने ट्यूशन
पढ़ना शुरू कर दिया है। अपने अपार्टमेंट, कॉलोनी या गाँव
में वे खेल भी रहे हैं। दूसरी सामूहिक गतिविधियों में भी शामिल होने लगे हैं। पर
औपचारिक स्कूलिंग का अपना महत्व है।
स्कूलों की बंदी का प्रभाव अलग-अलग देशों पर अलग-अलग तरीके से पड़ा है। भारत उन देशों में है, जहाँ स्कूल सबसे लम्बे समय तक बंद रहे हैं। इसका सबसे बड़ा असर ग्रामीण क्षेत्रों पर पड़ा है। उन गरीब घरों के बच्चे कई साल पीछे चले गए हैं, जिन्हें शिक्षा की मदद से आगे आने का मौका मिलता। काफी बच्चों की शिक्षा के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो गए हैं। इस साल जुलाई तक दुनिया के करीब 175 देशों में स्कूल फिर से खुल गए थे। भारत भी कब तक उन्हें बंद रखेगा? कुछ देशों में जैसे कि फ्रांस, डेनमार्क, पुर्तगाल और नीदरलैंड्स में ज्यादातर, खासतौर से प्राइमरी स्कूल उस वक्त भी खुले रहे, जब महामारी अपने चरम पर थी।