हाल में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के विकास के लिए एक पहल की घोषणा की, जिसका नाम है ‘दिल्ली@2047’। इस पहल के राजनीतिक-प्रशासनिक निहितार्थ अपनी जगह हैं, महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जब हम अपना 75वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी कर रहे हैं, तब हमारे मन में 100वें वर्ष की योजनाएं जन्म ले रही हैं। ऐसा तब भी रहा होगा, जब हम स्वतंत्र हो रहे थे।
सवाल है कि हम ‘नए भारत के उस सपने’ को पूरा कर पाए? वह सपना क्या था? भव्य
भारतवर्ष की पुनर्स्थापना, जो हमारे गौरवपूर्ण अतीत की कहानी कहता है। क्या हम उसे
पूरा कर पाए? क्या हैं हमारी उपलब्धियाँ और अगले 25 साल में
ऐसा क्या हम कर पाएंगे, जो सपनों को साकार करे?
देश के बड़े उद्यमियों में से एक मुकेश अम्बानी मानते
हैं कि 2047 तक देश अमेरिका और चीन के बराबर पहुंच सकता है। आर्थिक
उदारीकरण के 30 साल के पूरे होने के मौके पर उन्होंने अपने एक
लेख में कहा कि साहसी आर्थिक सुधारों की वजह से भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था
बन चुका है। इस दौरान आबादी हालांकि 88 करोड़ से 138 करोड़ हो गई, लेकिन गरीबी की दर आधी रह गई।
भारत सरकार इस साल ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मना
रही है, पर बातें सपनों की हैं। नरेंद्र मोदी से लेकर
अरविंद केजरीवाल तक के पास भविष्य के सपने हैं। पिछले तीन दशक से हमने तेज आर्थिक
विकास देखा। नए हाईवे, मेट्रो और दूर-संचार क्रांति को आते
देखा। उस इंटरनेट को आते देखा जो सैम पित्रोदा के शब्दों में ‘एटमी ताकत’ से भी
ज्यादा बलवान है। इनके साथ हर्षद मेहता से लेकर, टूजी,
सीडब्ल्यूजी, कोल-गेट से लेकर आदर्श घोटाले तक को
देखा।
आज सोशल मीडिया का जमाना है। लोकतंत्र बहुत
पुरानी राज-पद्धति नहीं है। औद्योगिक क्रांति के साथ इसका विकास हुआ है। इसे सफल
बनाने के लिए जनता को आर्थिक और शैक्षिक आधार पर चार कदम आगे आना होगा। पर जनता और
भीड़ का फर्क भी हमें समझना होगा। हमने अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया है, पर
उसकी व्यवस्था नहीं है। हम महिलाओं को विधायिकाओं में आरक्षण देना चाहते हैं, पर
दे नहीं पाते।
लुटी-पिटी आजादी
15 अगस्त, 1947 को जो भारत आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था। अंग्रेजी-राज ने उसे उद्योग-विहीन कर दिया था और जाते-जाते विभाजित भी। कैम्ब्रिज के इतिहासकार एंगस मैडिसन लिखा है कि सन 1700 में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी। यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई थी। क्या इतिहास के इस पहिए को हम उल्टा घुमा सकते हैं?