नेपाल का राजनीतिक संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। पिछले तीन महीने का असमंजस निर्णायक मोड़ पर आता दिखाई पड़ रहा है, पर यह मोड़ क्या होगा, यह साफ नहीं है। तीन-चार संभावित रास्ते दिखाई पड़ रहे हैं। एक, ओली अध्यक्ष पद छोड़ दें और प्रधानमंत्री बने रहें। दूसरे वे अध्यक्ष बने रहें और प्रधानमंत्री पद छोड़ें। तीसरा रास्ता है, पार्टी का विभाजन। पार्टी में विभाजन हुआ, तब देश फिर से बहुदलीय असमंजस का शिकार हो जाएगा और नेपाली कांग्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी। इन सब बातों की पृष्ठभूमि में नेपाल पर भारत और चीन के राजनीतिक प्रभाव की भी परीक्षा है। फिलहाल तो यही लगता है कि नेपाल पर चीन का प्रभाव है। इस हफ्ते भारत के निजी समाचार चैनलों पर रोक लगना भी इस बात की गवाही दे रहा है।
विदेश-नीति के मोर्चे पर प्रधानमंत्री केपीएस ओली की सरपट चाल के उलट परिणाम अब सामने आ रहे हैं। पुष्प दहल के साथ समझौता करके क्या वे अपनी सरकार बचा लेंगे? हालांकि यह बात मुश्किल लगती है, पर ऐसा हुआ भी तो यह स्थायी हल नहीं है। ओली साहब के सामने विसंगतियाँ कतार लगाए खड़ी हैं। संकट को टालने में चीनी राजदूत होऊ यांछी के हड़बड़ प्रयास भी चर्चा का विषय बने हैं। उन्होंने दोनों खेमों के नेताओं से मुलाकात करके समाधान की जो कोशिशें कीं, उससे इतना साफ हुआ कि चीन खुलकर नेपाली राजनीति में हस्तक्षेप कर रहा है। उन्होंने 3 जुलाई को राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी से भी मुलाकात की, जो खुद इस टकराव में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं।
चीन-मुखी नीति को लेकर सवाल
औपचारिक शिष्टाचार के अनुसार ऐसी मुलाकातों के समय विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को भी उपस्थित रहना चाहिए, पर ऐसा हुआ नहीं। पता नहीं उन्हें जानकारी थी भी या नहीं। इसके पहले होऊ ने अप्रेल और मई में भी हस्तक्षेप करके पार्टी को विभाजन के रास्ते पर जाने से बचाया था। चीन ने भारत के विरुद्ध नेपाली राष्ट्रवाद के उभार का भी लाभ उठाया। नक्शा प्रकरण इसका उदाहरण है। ओली की चीन-मुखी विदेश नीति को लेकर भी अब सवाल उठने लगे हैं। मंगलवार को नेपाली कांग्रेस और जसपा की बैठक शेर बहादुर देउबा के निवास पर हुई, जिसमें विदेश नीति के झुकाव और लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण पर नाराजगी व्यक्त की गई।