इस बारे में दो राय
नहीं हैं कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में दशा खराब है, यह भी सच है कि बड़ी
संख्या में किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है, पर यह भी सच है कि इन समस्याओं
का कोई जादुई समाधान किसी ने पेश नहीं किया है। इसकी वजह यह है कि इस संकट के कारण
कई तरह के हैं। खेती के संसाधन महंगे हुए हैं, फसल के दाम सही नहीं मिलते, विपणन,
भंडारण, परिवहन जैसी तमाम समस्याएं हैं। मौसम की मार हो तो किसान का मददगार कोई
नहीं, सिंचाई के लिए पानी नहीं, बीज और खाद की जरूरत पूरी नहीं होती।
नब्बे के दशक में
आर्थिक उदारीकरण के बाद से खासतौर से समस्या बढ़ी है। अचानक नीतियों में बदलाव
आया। कई तरह की सब्सिडी खत्म हुई, विदेशी कम्पनियों का आगमन हुआ, खेती पर न तो
पर्याप्त पूँजी निवेश हुआ और तेज तकनीकी रूपांतरण। वामपंथी अर्थशास्त्री सारा देश
वैश्वीकरण के मत्थे मारते हैं, वहीं वैश्वीकरण समर्थक मानते हैं कि देश में आर्थिक
सुधार का काम अधूरा है। देश का तीन चौथाई इलाका खेती से जुड़ा हुआ था। स्वाभाविक
रूप से इन बातों से ग्रामीण जीवन प्रभावित हुआ। राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था में अचानक
खेती की हिस्सेदारी कम होने लगी। ऐसे में किसानों की आत्महत्या की खबरें मिलने
लगीं।