करीब पाँच दशक तक
तमिलनाडु की राजनीति के शिखर पर रहने वाले एम करुणानिधि के निधन के बाद करीब बीस
महीने के भीतर राज्य की राजनीति में बड़ा ब्रेक आया है. इसके पहले दिसम्बर 2016
में जे जयललिता का निधन पहली बड़ी परिघटना थी. गौर से देखें दोनों परिघटनाओं के
इर्द-गिर्द एक नई तमिल राजनीति जन्म ले रही है. कालांतर में तमिल राजनीति दो
ध्रुवों में बँट गई थी, पर इन दोनों ध्रुवों के नायकों के चले जाने के बाद सवाल
पैदा हो रहे हैं, जिनके जवाब अब मिलेंगे. सन 2019 के चुनाव के लिए होने वाले
गठबंधनों में उनकी तस्वीर नजर आएगी.
इन दो दलों के
नजरिए से देखें तो द्रमुक की स्थिति बेहतर लगती है, क्योंकि करुणानिधि ने विरासत का फैसला जीते
जी कर दिया था, जबकि अद्रमुक में विरासत की लड़ाई जारी है. करुणानिधि ने पार्टी की
कमान एमके स्टैलिन को सौंप जरूर दी है, पर वे उनकी कुव्वत का फैसला वक्त करेगा. वे
अपने पिता की तरह कद्दावर नेता साबित होंगे या नहीं? इससे भी बड़ा
सवाल है कि क्या तमिलनाडु की स्थितियाँ पचास के दशक जैसी हैं, जब द्रविड़ आंदोलन
ने अपने पैर जमाए थे? तमिल-राजनीति को ज्यादा
बड़े फलक पर देखने की जरूरत है. पर उसकी पृष्ठभूमि को समझना भी उपयोगी होगा.