Tuesday, August 29, 2017

आरक्षण पर एक और बहस का आगाज़

केंद्र सरकार ने ओबीसी की केंद्रीय सूची में उप-श्रेणियाँ (सब-कैटेगरी) निर्धारित करने के लिए एक आयोग बनाने का फैसला किया है। प्रत्यक्ष रूप में इसका उद्देश्य यह है कि आरक्षण का लाभ ज़रूरतमंदों को मिले। ओबीसी आरक्षण का लाभ कुछ खास जातियों को ज्यादा मिल रहा है और कुछ को एकदम कम। यानी सम्पूर्ण ओबीसी को एक ही श्रेणी या वर्ग में रखने के अंतर्विरोध अब सामने आने लगे हैं। अब आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था भी एक नई बहस को जन्म देगी। आयोग यह बताएगा कि ओबीसी के 27 फीसदी कोटा को किस तरीके से सब-कोटा में विभाजित किया जाएगा।

सिद्धांततः सम्पूर्ण ओबीसी में उन जातियों को खोजने की जरूरत है, जिन्हें सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों का लाभ कमतर मिला है। इसके साथ यह भी देखने की जरूरत है कि मंडल आयोग ने भले ही ओबीसी को जातीय दायरे में सीमित कर दिया था, सांविधानिक परिभाषा में यह पिछड़ा वर्ग (क्लास) है, जाति (कास्ट) नहीं।

Sunday, August 27, 2017

‘बाबा संस्कृति’ का विद्रूप

बाबा रामपाल, आसाराम बापू और अब गुरमीत राम रहीम के जेल जाने के बाद भारत की बाबा संस्कृति को लेकर बुनियादी सवाल एकबार फिर उठे हैं। क्या बात है, जो हमें बाबाओं की शरण में ले जाती है? और क्या बात है जो बाबाओं और संतों को सांसारिक ऐशो-आराम और उससे भी ज्यादा अपराधों की ओर ले जाती है? उनके रुतबे-रसूख का आलम यह होता है कि राजनीतिक दल उनकी आरती उतारने लगे हैं।

जैसी हिंसा राम रहीम समर्थकों ने की है तकरीबन वैसी ही हिंसा पिछले साल मथुरा के जवाहर बाग की सैकड़ों एकड़ सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए बैठे रामवृक्ष यादव और उनके हजारों समर्थकों और पुलिस के बीच हिंसक भिड़ंत में हुई थी। उसमें 24 लोग मरे थे। रामवृक्ष यादव बाबा जय गुरदेव के अनुयायी थे।

राम रहीम हों, रामपाल या जय गुरदेव बाबाओं के पीछे ज्यादातर ऐसी दलित-पिछड़ी जातियों के लोग होते हैं, जिन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है। इनके तमाम मसले बाबा लोग निपटाते हैं, उन्हें सहारा देते हैं। बदले में फीस भी लेते हैं. इनका प्रभाव उससे कहीं ज्यादा है, जितना सामने दिखाई पड़ता है। इनके दुर्ग बन जाते हैं, जो अक्सर जमीन पर कब्जा करके बनते हैं। 

Friday, August 25, 2017

निजता को लेकर कितने जागरूक हैं हम?

व्यक्ति की निजता पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को हम ज्यादा से ज्यादा आधार कार्ड से जोड़कर देख पाते हैं. बहुत बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है, जो समझ नहीं पा रहे हैं कि हमारी जिंदगी में इस फैसले का क्या असर होगा. इस फैसले का मतलब यह है कि अब हमारे जीवन में सरकार का निरंकुश हस्तक्षेप नहीं हो पाएगा. सिद्धांत रूप में यह अच्छी बात है, पर इसका व्यावहारिक रूप तभी सामने आएगा, जब जनता का व्यावहारिक सशक्तिकरण होगा.

यह मामला केवल व्यक्तिगत जानकारियाँ हासिल करने तक सीमित नहीं है. इसका आशय है कि व्यक्ति को खाने, पीने, पहनने, घूमने, रहने, प्रेम करने, शादी करने या जीवन शैली अपनाने जैसी और बहुत सी बातों में अपने फैसले अपनी मर्जी से करने का अधिकार है. यह जीवन के किन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण साबित होगा, इसका पता भविष्य में लगेगा, इसलिए इसे भविष्य का अधिकार कहना भी गलत नहीं होगा.   

Wednesday, August 23, 2017

सवाल है मुसलमान क्या कहते हैं?

सुप्रीम कोर्ट के बहुमत निर्णय के बाद सरकार को एक प्रकार का वैधानिक रक्षा-कवच मिल गया है। कानून बनाने की प्रक्रिया पर अब राजनीति होने का अंदेशा कम है। फिर भी इस फैसले के दो पहलू और हैं, जिनपर विचार करने की जरूरत है। अदालत ने तीन बार तलाक कहकर तलाक देने की व्यवस्था को रोका है, तलाक को नहीं। यानी मुस्लिम विवाह-विच्छेद को अब नए सिरे से परिभाषित करना होगा और संसद को व्यापक कानून बनाना होगा। यों सरकार की तरफ से कहा गया है कि कानून बनाने की कोई जरूरत नहीं, त्वरित तीन तलाक तो गैर-कानूनी घोषित हो ही गया। 

देखना यह भी होगा कि मुस्लिम समुदाय के भीतर इसकी प्रतिक्रिया कैसी है। अंततः यह मुसलमानों के बीच की बात है। वे इसे किस रूप में लेते हैं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये बातें सामुदायिक सहयोग से ही लागू होती हैं। सन 1985 के शाहबानो फैसले के बाद मुस्लिम समुदाय के प्रगतिशील तबके को दबना पड़ा था।

Monday, August 21, 2017

2022 के सपने क्यों?

नज़रिया: कार्यकाल 2019 में खत्म तो 2022 की बात क्यों कर रही है मोदी सरकार?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंहइमेज कॉपीरइट AFP
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी जब जीतकर आई थी, तब उसने 'अच्छे दिन' लाने के लिए पाँच साल माँगे थे. तीन साल गुजर गए हैं और सरकार के पास ऐसी कोई 'चमत्कारिक उपलब्धि' नहीं है, जिसे वह पेश कर सके. पर बड़ी 'एंटी इनकंबैंसी' भी नहीं है. इसी वजह से सरकार भविष्य की ग़ुलाबी तस्वीर खींचने की कोशिश कर रही है.
यह साल बारहवीं पंचवर्षीय योजना का आख़िरी साल था. पिछली सरकार ने इस साल 10 फ़ीसदी आर्थिक विकास दर हासिल करने का लक्ष्य रखा था. वह लक्ष्य तो दूर, पंचवर्षीय योजनाओं की कहानी का समापन भी इस साल हो गया.
अब भारतीय जनता पार्टी ने 'संकल्प से सिद्धि' कार्यक्रम बनाया है, जिससे एक नए किस्म की सांस्कृतिक पंचवर्षीय योजना का आग़ाज़ हुआ है.
नज़रिया: बीजेपी को क्यों लगता है कि जीत जाएगी 2019?
मोदी और शाह: ज़बानें दो, मक़सद एक
'संकल्प से सिद्धि' का रूपक है- 1942 की अगस्त क्रांति से लेकर 15 अगस्त 1947 तक स्वतंत्रता प्राप्ति के पाँच साल की अवधि का. रोचक बात यह है कि बीजेपी ने कांग्रेस से यह रूपक छीनकर उसे अपने सपने के रूप में जनता के सामने पेश कर दिया है. सन 2022 में भारतीय स्वतंत्रता के 75 साल पूरे हो रहे हैं और बीजेपी उसे भुनाना चाहती है.

पाँच साल लंबा सपना

मोदी सरकार ने ख़ूबसूरती के साथ देश की जनता को पाँच साल लंबा एक नया स्वप्न दिया है. पिछले साल के बजट में वित्तमंत्री ने 2022 तक भारत के किसानों की आय दोगुनी करने का संकल्प किया था. उस संकल्प से जुड़े कार्यक्रमों की घोषणा भी की गई है.
बीजपी की रैलीइमेज कॉपीरइट Getty Images
सवाल है कि क्या 2022 का स्वप्न 2019 की बाधा पार करने के लिए है या 'अच्छे दिन' नहीं ला पाने के कारण पैदा हुए असमंजस से बचने की कोशिश है? सवाल यह भी है कि क्या जनता उनके सपनों को देखकर मग्न होती रहेगी, उनसे कुछ पूछेगी नहीं?
मोदी सरकार देश के मध्य वर्ग और ख़ासतौर से नौजवानों के सपनों के सहारे जीतकर आई थी. उनमें आईटी क्रांति के नए 'टेकी' थे, अमेरिका में काम करने वाले एनआरआई और दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद और मुम्बई के नए प्रोफ़ेशनल, काम-काजी लड़कियाँ और गृहणियाँ भी.
पिछले तीन साल में बीजेपी का हिंदू राष्ट्रवाद भी उभर कर सामने आया है. देखना होगा कि गाँवों और कस्बों के अपवार्ड मूविंग नौजवान को अब भी उनपर भरोसा है या नहीं.

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