बीजेपी ने रामनाथ
कोविंद का नाम राष्ट्रपति पद के लिए घोषित नहीं किया होता तो शायद विरोधी दल मीरा
कुमार के नाम को सामने नहीं लाते। इस मुकाबले की बुनियादी वजह ‘दलित’ पहचान है। यह बात
राजनीति की प्रतीकात्मकता और पाखंड को व्यक्त करती है। अलबत्ता इस घटना क्रम के
कारण ‘महा-एकता’ कायम करने की विपक्षी राजनीति की जबर्दस्त
धक्का भी लगा है। सवाल यह है कि राष्ट्रपति चुनाव के बहाने जन्मी एकता केवल
राष्ट्रपति चुनाव तक सीमित रहेगी या सन 2019 के चुनाव तक जारी रहेगी? दूसरे क्या केवल ‘साम्प्रदायिकता-विरोध’ के आधार पर कायम की गई ‘वैचारिक-एकता’ लम्बी दूरी की राजनीति
का आधार बन सकती है?
लालू प्रसाद यादव का यह कहना कि जेडीयू ने रामनाथ कोविंद
का समर्थन करके ऐतिहासिक भूल की है, एक नई राजनीति का प्रस्थान बिंदु है। बिहार
में इन दोनों पार्टियों के बीच जो असहजता है, वह खुले में आ गई है। दूसरी ओर उत्तर
प्रदेश में सपा और बसपा का एक मंच पर आना भी एक नई राजनीति की शुरुआत है। देखना
होगा कि इस एकता के पीछे कितनी संजीदगी है। मायावती ने स्पष्ट कर दिया था कि यदि विपक्ष
ने दलित प्रत्याशी को नहीं उतारा तो उनके पास रामनाथ कोविंद का समर्थन करने के
अलावा कोई विकल्प नहीं होगा।