भारतीय राज-व्यवस्था, प्रशासन और
राजनीति के लिए यह साल बड़ी चुनौतियों से भरा है। उम्मीद है कि इस साल देश की
अर्थ-व्यवस्था की संवृद्धि आठ फीसदी की संख्या को या तो छू लेगी या उस दिशा में
बढ़ जाएगी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि संसद के बजट सत्र में क्या होता है। पिछले
दो सत्रों की विफलता के बाद यह सवाल काफी बड़े रूप में सामने आ रहा है कि भविष्य
में संसद की भूमिका क्या होने वाली है। देश के तकरीबन डेढ़ करोड़ नए नौजवानों को
हर साल नए रोजगारों की जरूरत है। इसके लिए लगातार पूँजी निवेश की जरूरत होगी साथ
ही आर्थिक-प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारना होगा। व्यवस्था की डोर राजनीति के हाथों
में है। दुर्भाग्य से राजनीति की डोर संकीर्ण ताकतों के हाथ में रह-रहकर चली जाती
है।
Sunday, January 3, 2016
Thursday, December 31, 2015
ऐसी भी कोई शाम है, जिसकी सहर न हो
सुबह और शाम के रूपक हमें आत्म निरीक्षण का मौका देते हैं. गुजरते साल की शाम ‘क्या खोया, क्या पाया’ का हिसाब लगाती है और अगली सुबह उम्मीदों की किरणें लेकर आती है. पिछले साल दिसम्बर के अंत में यानी इन्हीं दिनों मुम्बई के कुछ नौजवानों ने तय किया कि कुछ अच्छा काम किया जाए. उन्होंने किंग्स सर्किल रेलवे स्टेशन को साफ-सुथरा बनाने का फैसला किया. शुरुआत एक गंदे किनारे से की. देखते ही देखते इस टीम का आकार बढ़ता चला गया. इस टीम ने इस साल इस स्टेशन की शक्ल बदल कर रख दी. उन्होंने न केवल स्टेशन की सफाई की, बल्कि दीवारों पर चित्रकारी की, रोशनी की और 100 पेड़ लगाए. गौरांग दमानी के नेतृत्व में वॉलंटियरों की इस टीम के सदस्यों की संख्या 500 के ऊपर पहुँच चुकी है.
Thursday, December 24, 2015
संसद केवल शोर का मंच नहीं है
संसद के शीत सत्र को पूरी तरह धुला हुआ
नहीं मानें तो बहुत उपयोगी भी नहीं कहा जा सकता. पिछले कुछ वर्षों से हमारी संसद
राजनीतिक रोष और आक्रोश व्यक्त करने का मंच बनती जा रही है. वह भी जरूरी है, पर वह
मूल कर्म नहीं है. शीत सत्र में पहले दो
दिन गम्भीर विमर्श देखने को मिला, जब संविधान दिवस से जुड़ी चर्चा हुई. अच्छी-अच्छी
बातें करने के बाद के शेष सत्र अपने ढर्रे पर वापस लौट आया. सत्र के समापन के एक
दिन पहले जुवेनाइल जस्टिस विधेयक के पास होने से यह भी स्पष्ट हुआ कि हमारी
राजनीति माहौल के अनुसार खुद को बदलती है.
राजनीतिक दलों की दिलचस्पी होमवर्क में नहीं
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
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संसद का शीत सत्र पूरी तरह नाकाम नहीं रहा. एक अर्थ में मॉनसून सत्र से बेहतर रहा पर उसे सफल कहना सही नहीं होगा. सरकार कुछ महत्वपूर्ण विधेयक पास नहीं करा पाई.
सवाल जीएसटी या ह्विसिल ब्लोवर जैसे क़ानूनों के पास न हो पाने का नहीं है. पूरे संसदीय विमर्श में गिरावट का भी है.
इस सत्र में दोनों सदनों ने संविधान पर पहले दो दिन की चर्चा को पर्याप्त समय दिया. यह चर्चा आदर्शों से भरी थी. उन्हें भुलाने में देर भी नहीं लगी.
संसदीय कर्म की गुणवत्ता केवल विधेयकों को पास करने तक सीमित नहीं होती. प्रश्नोत्तरों और महत्वपूर्ण विषयों पर भी निर्भर करती है.
देश में समस्याओं की कमी नहीं. संसद में उन्हें उठाने के अवसर भी होते हैं, पर राजनीतिक दलों की दिलचस्पी होमवर्क में नहीं है.
तमिलनाडु में भारी बारिश के कारण अचानक बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई. उस पर दोनों सदनों में चर्चा हुई. सूखे पर भी हुई.
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महंगाई को 23 मिनट का समय मिला. इन दिनों दिल्ली में प्रदूषण की चर्चा है, पर संसद में कोई खास बात नहीं हुई. विसंगति है कि विधायिका और कार्यपालिका को जो काम करने हैं, वे अदालतों के मार्फ़त हो रहे हैं.
जुवेनाइल जस्टिस विधेयक पास हो गया. इसमें 16 साल से ज़्यादा उम्र के किशोर अपराधी पर जघन्य अपराधों का मुक़दमा चलाने की व्यवस्था है. किशोर अपराध के तमाम सवालों पर बहस बाक़ी है.
कांग्रेस ने लोकसभा में इसका विरोध किया था. अनुमान था कि राज्यसभा उसे प्रवर समिति की सौंप देगी.
इसके पहले शुक्रवार को सर्वदलीय बैठक में जिन छह विधेयकों को पास करने पर सहमति बनी थी उनमें इसका नाम नहीं था, पर मंगलवार को राज्यसभा में इस पर चर्चा हुई और यह आसानी से पास हो गया. कांग्रेस का नज़रिया तेजी से बदल गया.
वजह थी निर्भया मामले से जुड़े किशोर अपराधी की रिहाई के ख़िलाफ़ आंदोलन. यह लोकलुभावन राजनीति है. विमर्श की प्रौढ़ता की निशानी नहीं.
Sunday, December 20, 2015
इतनी तेजी में क्यों हैं केजरीवाल?
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने शुक्रवार को ट्वीट किया कि केंद्र सरकार उन सभी विरोधियों के खिलाफ सीबीआई का इस्तेमाल करने जा रही है जो बीजेपी की बात नहीं मानते। ट्वीट में केजरीवाल ने दावा किया कि यह बात उन्हें एक सीबीआई अधिकारी ने बताई है। प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने इन आरोपों को नकारते हुए कहा, केजरीवाल को सीबीआई के अधिकारी का नाम बताना चाहिए और सबूत देने चाहिए, पर नाम कौन बताता है? यह बात सच हो तब भी यह राजनीतिक बयान है। इसका उद्देश्य मोदी विरोधी राजनीति और वोटों को अपनी तरफ खींचना है।
केजरीवाल धीरे-धीरे विपक्षी एकता की राजनीति की अगली कतार में आ गए हैं। इस प्रक्रिया में एक बात तो यह साफ हो रही है कि केजरीवाल ‘नई राजनीति’ की अपनी परिभाषाओं से बाहर आ चुके हैं। वे अपने अंतर्विरोधों को आने वाले समय में किस तरह सुलझाएंगे, इसे देखना होगा। फिलहाल उनकी अगली परीक्षा पंजाब में है। शायद वे असम की वोट-राजनीति में भी शामिल होने की कोशिश करेंगे।
केजरीवाल धीरे-धीरे विपक्षी एकता की राजनीति की अगली कतार में आ गए हैं। इस प्रक्रिया में एक बात तो यह साफ हो रही है कि केजरीवाल ‘नई राजनीति’ की अपनी परिभाषाओं से बाहर आ चुके हैं। वे अपने अंतर्विरोधों को आने वाले समय में किस तरह सुलझाएंगे, इसे देखना होगा। फिलहाल उनकी अगली परीक्षा पंजाब में है। शायद वे असम की वोट-राजनीति में भी शामिल होने की कोशिश करेंगे।
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