Wednesday, July 29, 2015

‘राजनीति’ फिर वापस पटरी पर आएगी इस ब्रेक के बाद

‘राजनीति’ वापस आएगी इस ब्रेक के बाद

  • 2 घंटे पहले
कलाम श्रद्धांजलि
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, याक़ूब मेमन और पंजाब के गुरदासपुर के एक थाने पर हुए हमले के कारण मीडिया का ध्यान कुछ देर के लिए बंट गया.
इस वजह से मुख्यधारा की राजनीति कुछ देर के लिए ख़ामोश है.
दो-तीन रोज़ में जब सन्नाटा टूटेगा तब हो सकता है कि मसले और मुद्दे बदले हुए हों, पर तौर-तरीक़े वही होंगे.

मॉनसून सत्र का हंगामा

हंगामा, गहमागहमी और शोर हमारी राजनीति के दिल-ओ-दिमाग़ में है.
एक धारणा है कि इसमें संजीदगी, समझदारी और तार्किकता कभी थी भी नहीं. पर जैसा शोर, हंगामा और अराजकता आज है, वैसी पहले नहीं था.
क्या इसे राजनीति और मीडिया के ‘ग्रास रूट’ तक जाने का संकेतक मानें?
लोकसभा, मानसून सत्र
शोर, विरोध और प्रदर्शन को ही राजनीति मानें? क्या हमारी सामाजिक संरचना में अराजकता और विरोध ताने-बाने की तरह गुंथे हुए हैं?
संसद के मॉनसून सत्र के शुरुआती दिनों में अनेक सदस्य हाथों में पोस्टर-प्लेकार्ड थामे टीवी कैमरा के सामने आने की कोशिश करते रहे.
कैमरा उनकी अनदेखी कर रहा था, इसलिए उन्होंने स्पीकर के आसपास मंडराना शुरू किया या जिन सदस्यों को बोलने का मौक़ा दिया गया उनके सामने जाकर पोस्टर लगाए ताकि टीवी दर्शक उन्हें देखें.
हमने मान लिया है कि संसद में हंगामा राजनीतिक विरोध का तरीक़ा है और यह हमारे देश की परम्परा है. इसलिए लोकसभा टीवी को इसे दिखाना भी चाहिए.
लोकतांत्रिक विरोध को न दिखाना अलोकतांत्रिक है.
पिछले हफ़्ते कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा था कि लोकसभा में कैमरे विपक्ष का विरोध नहीं दिखा रहे हैं. सिर्फ़ सत्तापक्ष को ही कैमरों में दिखाया जा रहा है.
उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि मोदी सरकार विपक्ष की आवाज़ दबा देना चाहती है.

मेरा बनाम तेरा भ्रष्टाचार

अधीर रंजन, लोकसभा, मानसून सत्र
कांग्रेस की प्रतिज्ञा है कि जब तक सरकार भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे नेताओं को नहीं हटाएगी, तब तक संसद नहीं चलेगी.

कैसा होगा टेक्नोट्रॉनिक दौर का युद्ध?

युद्ध की अनुपस्थिति माने शांति. दुनिया में पहले शांति आई या युद्ध? पहले शांति थी और बाद में युद्ध शुरू हुए तो क्यों? युद्ध क्यों होते हैं? क्या हथियारों और सेना की वजह से लड़ाइयाँ होती हैं? इन्हें खत्म कर दिया जाए तो क्या अमन-चैन कायम हो जाएगा? ऐसा नहीं है. जब से दुनिया बनी है इंसान युद्ध कर रहा है. उसे अपनी खुशहाली के लिए भी युद्ध करना पड़ता है, शांति के लिए भी.

लड़ाई की विनाशकारी प्रवृत्तियों के बावजूद तीसरे विश्व-युद्ध का खतरा हमेशा बना रहेगा. अमेरिकी लेखक पीटर सिंगर और ऑगस्ट के ताजा नॉवेल ‘द गोस्ट फ्लीट’ का विषय तीसरा विश्व-युद्ध है, जिसमें अमेरिका, चीन और रूस की हिस्सेदारी होगी. उपन्यास के कथाक्रम से ज्यादा रोचक है उस तकनीक का वर्णन जो इस युद्ध में काम आई. यह उपन्यास भविष्य के युद्ध की झलक दिखाता है. आने वाले वक्त की लड़ाई में शामिल सारे योद्धा परम्परागत फौजियों जैसे वर्दीधारी नहीं होंगे. काफी लोग कम्प्यूटर कंसोल के पीछे बैठकर काम करेंगे. काफी लोग नागरिकों के भेस में होंगे, पर छापामार सैनिकों की तरह महत्वपूर्ण ठिकानों पर हमला करके नागरिकों के बीच मिल जाएंगे. काफी लोग ऐसे होंगे जो अराजकता का फायदा उठाकर अपने हितों को पूरा करेंगे.

Sunday, July 26, 2015

यह गतिरोध किसका हित साधेगा?

देश की जनता विस्मय के साथ यह समझने की कोशिश कर रही है कि किस मुकाम पर आकर राष्ट्रीय-हित और पार्टी-हित एक दूसरे से अलग होते हैं और कहाँ दोनों एक होते हैं। मॉनसून सत्र के पहले चार दिन शोर-गुल में चले गए और लगता नहीं कि आने वाले दिनों में कुछ काम हो पाएगा। यह समझने की जरूरत भी है कि तकरीबन एक साल तक संसदीय मर्यादा कायम रहने और काम-काज सुचारु रहने के बाद भारतीय राजनीति अपनी पुरानी रंगत में वापस क्यों लौटी है? क्या कारण है कि मैं बेईमान तो तू डबल बेईमान जैसा तर्क राजनीतिक ढाल बनकर सामने आ रहा है?

भूमि अधिग्रहण कानून की अटकती-भटकती गाड़ी

पिछले एक साल की सकारात्मक संसदीय सरगर्मी के बाद गाड़ी अचानक ढलान पर उतर गई है। भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के विधेयक सहित 64 विधेयक संसद में विभिन्न स्तरों पर लटके पड़े हैं। आर्थिक सुधारों से जुड़े तमाम विधायी काम अभी अधूरे पड़े हैं और सन 2010 के बाद से अर्थ-व्यवस्था की गाड़ी कभी अटकती है और कभी झटकती है। 
फिलहाल भूमि अधिग्रहण विधेयक एनडीए सरकार के गले की हड्डी बना है। राहुल गांधी ने एक ‘इंच जमीन भी नहीं’ कहकर ताल ठोक दी है। शायद इसी वजह से केंद्रीय मंत्रिमंडल अपनी तरफ से विधेयक में कुछ परिवर्तनों की घोषणा करने पर विचार करने लगा है। हालांकि इस बात की आधिकारिक रूप से पुष्टि नहीं हुई है, पर लगता है कि सरकार इस कानून के सामाजिक प्रभाव को लेकर नए उपबंध जोड़ने को तैयार है। इन्हें इस विधेयक में इसके पहले पूरी तरह हटा दिया गया था। पर क्या इतनी बात से मामला बन जाएगा?

Saturday, July 25, 2015

पांच सौ अक्षरों में कैद बहस

रोहित धनकर

नई शिक्षा नीति के निर्माण में आम जन की भागीदारी स्वागतयोग्य है, मगर ट्विटर मार्का बहस सुसंगत निष्कर्षों तक नहीं पहुंचा सकती.
केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति बनाने की ओर अग्रसर है. मानव संसाधन मंत्रालय ने इसके लिए आम जनता से सुझाव मांगे हैं. उसकी दलील है कि पहली बार जनता को शिक्षा नीति के निर्माण में हिस्सेदार बनाया जा रहा है. ऊपरी तौर पर यह बात आकर्षक लगती है. लेकिन इस कवायद के पीछे की असलियत को जनाना भी जरूरी है. इस सिलसिले में 21 जुलाई को 'द हिन्दू' अखबार में प्रकाशित शिक्षाविद रोहित धनकर का आलेख पठनीय है. इसका अनुवाद आशुतोष उपाध्याय ने किया है.
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अप्रैल के महीने में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने नई शिक्षा नीति के निर्माण के लिए आम जनता को आमंत्रित करने के फैसले की जानकारी दी. उन्होंने बताया कि सरकार ने mygov वेबसाइट के जरिये "पहली बार आम नागरिक को नीतिनिर्माण के काम में हिस्सेदार बनाने का प्रयास किया है, जो अब तक चंद लोगों तक सीमित था." सरकार के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि एक लोकतंत्र के भीतर नीतिनिर्माण में लोगों की ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी से ही बेहतर नीतियां बनती हैं. कम से कम सिद्धांत रूप में यह बात सही है.
      लेकिन वेबसाइट मेंलोगों की टिप्पणियों को 500 अक्षरों और चंद पूर्वनिर्धारित मुद्दोंतक सीमित कर दिया गया है. इस तरह आंशिक रूप से सेंसर की गयी रायशुमारी से ज्यादा से ज्यादा विखंडित और विरोधाभासी सुझाव ही जनता की ओर से मिल पाएंगे. हालांकि विरोधाभासी दृष्टिकोण स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान हैं, फिर भी उन्हें तर्कपूर्ण व व्यवस्थित किए जाने की जरूरत पड़ती है. दूसरे शब्दों में- अगर उन्हें शिक्षा पर एक व्यापक आधार वाले संवाद के उद्देश्य से एकत्र किया जा रहा है तो उन्हें सुविचारित तर्कके रूप में प्रकट करना होगा.