Thursday, August 14, 2014

फटा सुथन्ना पहने हरचरना किसके गुन गाता है?

कुछ तो कहती हैं जनता की खामोशियाँ

राष्ट्रगीत में  भला कौन  वह/ भारत भाग्य विधाता है/ फटा सुथन्ना पहने जिसका/ गुन हरचरना गाता है।
मख़मल टमटम बल्लम तुरहीपगड़ी छत्र चँवर के साथ/ तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर/ जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पच्छिम से आते हैं/ नंगे-बूचे नरकंकाल/ सिंहासन पर बैठा,उनके/ तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन/ अधिनायक वह महाबली/ डरा हुआ मन बेमन जिसका/ बाजा रोज़ बजाता है।
हमारे तीन राष्ट्रीय त्योहार हैं।15 अगस्त है जन-जन की आज़ादी का दिन। गणतंत्रका दिन है 26 जनवरी। गण पर हावी तंत्र। देश का मन गांधी के सपने देखता है, सो 2 अक्तूबर चरखा कातने का दिन है। मन को भुलाने का दिन। जन और मन की जिम्मेदारी थी कि वह गण को नियंत्रण में रखे। पर जन खामोश रहा और मन राजघाट में सो गया। व्यवस्था ने उसके नाम से गली-चौराहों के नाम रख दिए, म्यूजियम बना दिए और पाठ्य पुस्तकों पर उसकी सूक्तियाँ छाप दीं। इन्हीं सूक्तियों को हमने गीतों में ढाल दिया है। फटा सुथन्ना पहनने वाला हरचरना और उसकी संतानें सालहों-साल राष्ट्रगान बजते ही सीधे खड़े हो जाते हैं। रघुवीर सहाय की ऊपर लिखी कविता हर साल स्वतंत्रता दिवस पर ताज़ा रहती है, जैसे अभी लिखी गई हो। सबसे महत्वपूर्ण है इसका आखिरी सवाल। वह जन-गण-मन अधिनायक कौन है, जिसका बाजा हमारा डरा हुआ मन रोज बजाता है?
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जॉर्ज पंचम के लिए कविता लिखी या भारतीय जन-गण के लिए लिखी इस बहस को फिर से ताज़ा करने का इरादा नहीं है। दिलचस्पी हरचरना के हसीन सपनों में है। उसे 1947 में ही बता दिया गया था कि अच्छे दिन आने वाले हैं। 67 साल गुजर गए हरचरना के नाती-पोते इंतज़ार कर रहे हैं। दशकों पहले काका हाथरसी ने लिखा, जन-गण-मन के देवता, अब तो आँखें खोल/ महँगाई से हो गया, जीवन डांवांडोल/ जीवन डांवांडोल, ख़बर लो शीघ्र कृपालू/ कलाकंद के भाव बिक रहे बैंगन-आलू। काका को भी जन-गण-मन के किसी देवता से शिकायत थी। काका ने जब यह लिखा तब टमाटर आठ रुपए किलो मिलते थे। अब अस्सी में मिल जाएं तो अच्छे भाग्य समझिए।

धारदार, साखदार है तभी अख़बार, वर्ना है काग़ज़ का टुकड़ा


हर सुबह अखबार के साथ रंगीन आर्ट पेपर पर छपे इश्तहारों के टुकड़े भी आते हैं। उनकी सजावट के मुकाबले अखबार कुछ भी नहीं होते, पर आप पहले अखबार उठाते हैं। उन्हें भी पढ़ते हैं, पर वे आप तक अखबार की वजह से आते हैं, अखबार के साथ। पिछले चार सौ साल से ज्यादा वक्त हो गया अखबार निकलते। वे पहला औद्योगिक उत्पाद माने जाते हैं। उनका विकास दुनिया में लोकतंत्र के विकास का इतिहास है। तमाम किस्म के अंतर्विरोध अखबार के साथ छिपे हैं। अखबारों ने वैश्विक सामाजिक-राजनीतिक जीवन में अपनी जगह बनाई, जो अभी तक बनी है। अब ऐसा लगता है कि अखबार की कहानी कुछ दशकों की रह गई है। सम्भव है कागज़ के पर्चे के रूप में अखबार हमारे जीवन से चला जाए, पर पत्रकारिता की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। आज रांची के दैनिक प्रभात खबर ने अपनी तीसवीं वर्षगाँठ मनाई है। इस अखबार की खासियत है कि यह आधुनिक भारत के उस दौर से शुरू हुआ जब देश नई करवट ले रहा था। राजीव गांधी के नेतृत्व में इक्कीसवीं सदी की बातें प्रभात खबर के आने के बाद शुरू हुईं हैं। इस अखबार ने सामाजिक जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं का साथ नहीं छोड़ा है। इसने समय के साथ बहुत कुछ बदला है, पर तमाम बातों को छोड़ा नहीं है। यानी नया जोड़ा है, पर पुराना नहीं छोड़ा। इसकी तीसवीं वर्षगाँठ पर अखबार के विशेष पेज पर छपा मेंरा लेख। इस लेख के साथ एनके सिंह का लेख भी है, जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के रुझानों पर है। 

कुछ साल पहले पंजाब के एक हिंदी अख़बार के पहले सफे पर चार तस्वीरों के साथ एक खबर छपी थी जिसका शीर्षक था मुझे घर जाने दो नहीं तो जान दे दूँगी. खबर एक छोटे शहर की थी जहाँ की पुलिस सार्वजनिक स्थानों पर घूमते जोड़ों की पक़ड़-धकड़ कर रही थी. खबर के साथ लगी पहली तीन तस्वीरों में एक लड़की पुलिस वालों से बात करती नजर आती थी. मुख्य शीर्षक के ऊपर शोल्डर था मोरल पुलिसिंग! प्रेमी जोड़ों पर कार्रवाई के दौरान छात्रा हुई प्रताड़ित, फिर आ गई ट्रेन के नीचे. खबर में चौथी तस्वीर रेल की पटरियों के बीच पड़ी लाश की थी. पुलिस की कार्रवाई, लड़की का घबराना और अख़बार में खबर का ट्रीटमेंट तीनों को बदलते वक्त की रोशनी में देखना चाहिए.
मीडिया तकनीक और कवरेज में बदलते वक्त का आइना दिखाई देता है. एक अख़बार ने महिलाओं की किटी पार्टी की कवरेज में विशेषज्ञता हासिल कर ली. पंजाब और दिल्ली का एक अख़बार संयुक्त परिवारों पर विशेष सामग्री छापता है. ऐसे ज़माने में जब परिवार छोटे हो रहे हैं, यह द्रविड़ प्राणायाम अलग किस्म का नयापन लेकर आया है. एक और अख़बार सीनियर सिटिज़न यानी वयोवृद्धों पर अलग से पेज छापता है. युवाओं पर अलग पेज तो तकरीबन सभी अखबारों ने शुरू किए हैं. धर्म और धार्मिक कर्मकांड भी हिंदी अखबारों का एक अनिवार्य हिस्सा है. वैसे ही जैसे विज्ञान-तकनीक और गैजेट्स का पेज.   

रॉबिन जेफ्री की किताब इंडियाज़ न्यूज़पेपर रिवॉल्यूशन सन 2000 में प्रकाशित हुई थी. इक्कीसवीं सदी के प्रवेश द्वार पर आकर किसी ने संज़ीदगी के साथ भारतीय भाषाओं के अखबारों की ख़ैर-ख़बर ली. रॉबिन जेफ्री ने किताब की शुरुआत करते हुए इस बात की ओर इशारा किया कि अखबारी क्रांति ने एक नए किस्म के लोकतंत्र को जन्म दिया है. उन्होंने 1993 में मद्रास एक्सप्रेस से आंध्र प्रदेश की अपनी एक यात्रा का जिक्र किया है. उनका एक सहयात्री एक पुलिस इंस्पेक्टर था. बातों-बातों में अखबारों की जिक्र हुआ तो पुलिस वाले ने कहा, अखबारों ने हमारा काम मुश्किल कर दिया है. पहले गाँव में पुलिस जाती थी तो गाँव वाले डरते थे. पर अब नहीं डरते. बीस साल पहले यह बात नहीं थी. तब सबसे नजदीकी तेलुगु अख़बार तकरीबन 300 किलोमीटर दूर विजयवाड़ा से आता था. सन 1973 में ईनाडु का जन्म भी नहीं हुआ था, पर 1993 में उस इंस्पेक्टर के हल्के में तिरुपति और अनंतपुर से अख़बार के संस्करण निकलते थे.

Tuesday, August 12, 2014

नया भारत : अंधेरे को छांटती आशा की किरणें

सन 2009 में ब्रिटेन के रियलिटी शो ‘ब्रिटेन गॉट टेलेंट’ में स्कॉटलैंड की 47 वर्षीय सूज़न बॉयल ने ऑडीशन दिया। पहले दिन के पहले शो से उसकी प्रतिभा का पता लग गया। पर वह 47 साल की थी ग्लैमरस नहीं थी। वह व्यावसायिक गायिका नहीं थी। पूरा जीवन उसने अपनी माँ की सेवा में लगा दिया। चर्च में या आसपास के किसी कार्यक्रम में गाती थी। उसके बेहतर प्रदर्शन के बावज़ूद दर्शकों का समर्थन नहीं मिला। ग्लैमरस प्रस्तोता दर्शकों पर हावी थे। पर सुधी गुण-ग्राहक भी हैं। सूज़न बॉयल को मीडिया सपोर्ट मिला। बेहद सादा, सरल, सहज और बच्चों जैसे चेहरे वाली इस गायिका ने जब फाइनल में ‘आय ड्रैम्ड अ ड्रीम’ गाया तो सिर्फ सेट पर ही नहीं, इस कार्यक्रम को देख रहे एक करोड़ से ज्यादा दर्शकों में खामोशी छा गई। तमाम लोगों की आँखों में आँसू थे। जैसे ही उसका गाना खत्म हुआ तालियों का समाँ बँध गया।

‘आय ड्रैम्ड अ ड्रीम’ हारते लोगों का सपना है। यह करोड़ों लोगों का दुःस्वप्न है, जो हृदयविदारक होते हुए भी हमें भाता है। कुछ साल पहले फेसबुक पर नाइजीरिया के किसी टेलेंट हंट कांटेस्ट का पेज देखने को मिला। उसका सूत्र वाक्य था, आय थिंक आय कैन’। एक सामान्य व्यक्ति को यह बताना कि तुम नाकाबिल नहीं हो। उसकी हीन भावना को निकाल कर फेंकने के लिए उसके बीच से निकल कर ही किसी को रोल मॉडल बनना होता है।

हाल में अमिताभ बच्चन के कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम की आठवीं श्रृंखला का एक प्रोमो देखने को मिला, जिसमें विज्ञापन में अमिताभ बच्चन प्रतिभागी पूर्णिमा से एक प्रश्न पूछते हैं कि कोहिमा किस देश में है? यह सवाल जिस लड़की से पूछा गया है, वह खुद कोहिमा की रहने वाली है। बहरहाल वह इस सवाल पर ऑडियंस पोल लेती है। सौ प्रतिशत जवाब आता है ‘इंडिया।’ अमिताभ ने पूछा इतने आसान से सवाल पर तुमने लाइफ लाइन क्यों ली?  तुम नहीं जानतीं कि कोहिमा भारत में है जबकि खुद वहीं से हो। उसका जवाब था, जानते सब हैं, पर मानते कितने हैं? पिछले दिनों दिल्ली शहर में पूर्वोत्तर के छात्रों का आक्रोश देखने को मिला। जैसे-जैसे अंतर्विरोध खुल रहे हैं वैसे-वैसे नया भारत परिभाषित होता जा रहा है।

सख़्त ज़मीन पर आया मोदी-रथ

भाजपा की राष्ट्रीय परिषद में नरेंद्र मोदी ने अमित शाह को ‘मैन ऑफ द मैच’ घोषित किया और उसके अगले ही रोज आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा, एनडीए की सरकार बनाने का श्रेय किसी पार्टी या शख्स को नहीं, बल्कि आम जनता को जाता है.'' यह बदलाव तब हुआ जब देश की जनता ने इसका फैसला किया. क्या यह नरेंद्र मोदी को तुर्की-ब-तुर्की जवाब है या अनायास कही गई बात है? भाजपा के शिखर पर मोदी और अमित शाह की जोड़ी नम्बर वन पूरी तरह स्थापित हो जाने के बाद मोहन भागवत का यह बयान क्या किसी किस्म का संतुलन बैठाने की कोशिश है या संघ के मन में किसी किस्म का भय पैदा हो गया है? मोदी की राजनीति के लिए अगला हफ़्ता काफी महत्वपूर्ण साबित होने वाला है, क्योंकि लोकसभा चुनाव की कुछ तार्किक परिणतियाँ इस हफ्ते देखने को मिलेंगी.

आर्थिक नज़र से देखें तो मॉनसून की अनिश्चितता की वजह से खाने-पीने की चीजों की महंगाई बढ़ने वाली है. बावजूद इसके रिज़र्व बैंक को उम्मीद है कि सरकारी नीतियों से आने वाले महीनों में आपूर्ति में सुधरेगी. अलबत्ता उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) पर आधारित खुदरा मुद्रास्फीति जून में लगातार दूसरे महीने कम हुई है. आरबीआई उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति को जनवरी 2015 तक 8 प्रतिशत पर और जनवरी 2016 तक 6 प्रतिशत तक सीमित करने के लक्ष्य के प्रतिबद्ध है. राजनीति के लिहाज से कमोबेश माहौल ठीक है. भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों की निगाहें अब चार राज्यों के विधानसभा चुनावों और उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए 12 उप चुनावों पर हैं. संसद का यह सत्र 14 अगस्त तक है और बीमा विधेयक पर पीछे हटने के बाद मोदी सरकार अब कठोर ज़मीन पर आ गई है.

Sunday, August 10, 2014

मद्धम पड़ते कांग्रेसी चिराग़

कांग्रेस के सामने फिलहाल तीन चुनौतियाँ हैं। पहली नेतृत्व की। दूसरी संसदीय रणनीति की। और तीसरी दीर्घकालीन राजनीति से जुड़ी राजनीति की। जितना समझा जा रहा है संकट उससे भी ज्यादा गहरा है। पार्टी के एक असंतुष्ट नेता जगमीत सिंह बराड़ ने इसका संकेत दे दिया है। हालांकि उन्होंने अपनी बात कह कर वापस भी ले ली। पर राजनीति में बातें इतनी आसानी से वापस नहीं होतीं। जो कह दिया सो कह दिया। उन्होंने राहुल और सोनिया गांधी को दो साल की छुट्टी लेने की सलाह दी थी, जिसे बाद में अपने तरीके से समझा दिया। वे पहले ऐसे कांग्रेसी नेता हैं, जिन्होंने गांधी परिवार को कुछ समय के लिए ही सही लेकिन पद छोड़ने की सलाह दी। उनकी बात का मतलब जो हो, पार्टी आला कमान ने भी पहली बार विरोधों को स्वीकार किया है। नेतृत्व के ख़िलाफ़ उठ रही आवाज़ों के बीच गांधी परिवार के क़रीबी जनार्दन द्विवेदी ने माना कि कार्यकर्ताओं की आवाज़ को तवज्जोह देना चहिए। संवाद दोनों तरफ से हो।

इसे कांग्रेस के आत्म मंथन की शुरुआत तभी माना जा सकता है, जब औपचारिक से विमर्श हो। किसी कार्यकर्ता का बोलना और उसे चुप करा लेना अनुशासन से जुड़ी घटना भर बनकर रह जाता है। कार्यकर्ता के रोष को अनुशासनहीनता माना जा सकता है या विमर्श का मंच न होने की मजबूरी। दिक्कत यह है कि व्यवस्थित विमर्श और अनुशासनहीनता की रेखा खींच पाना भी काफी मुश्किल है। इसीलिए एके एंटनी समिति औपचारिक नहीं है। उसकी सिफारिशों की शक्ल भी औपचारिक नहीं होगी।