इस हफ्ते 4 जून से
शुरू हो रहे संसद के पहले सत्र में नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों पर रोशनी
पड़ेगी. संसद के संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति का अभिभाषण इस सरकार का पहला
नीतिपत्र होगा. सरकार के सामने फिलहाल तीन बड़ी चुनौतियाँ हैं. महंगाई, आर्थिक
विकास दर बढ़ाने और प्रशासनिक मशीनरी को चुस्त करने की. मंहगाई को रोकने और विकास
की दर बढ़ाने के लिए सरकार के पास खाद्य सामग्री की सप्लाई और विदेशी निवेश बढ़ाने
का रास्ता है. सरकार एफसीआई के पास पड़े अन्न भंडार को निकालने की योजना बना रही
है. इस साल मॉनसून खराब होने का अंदेशा है, इसलिए यह कदम जरूरी है.
Tuesday, June 3, 2014
तेलंगाना में झगड़े अभी और भी हैं
छोटे राज्य बनने से विकास का रास्ता
खुलेगा या नहीं यह बाद में देखा जाएगा अभी आंध्र के विभाजन की पेचीदगियाँ सिर दर्द
पैदा करेंगी। तेलंगाना का जन्म अटपटे तरीके से हुआ है। झारखंड, छत्तीसगढ़ और
उत्तराखंड का जन्म जितनी शांति से हुआ वैसा यहाँ नहीं है। कांग्रेस ने तेलंगाना
बनाने का आश्वासन देकर 2004 का चुनाव तो जीत लिया, पर अपने लिए गले की हड्डी मोल
ले ली, जिसने उसकी जान ले ली। एक माने में यह देश की सबसे पुरानी माँग है। अलग
राज्य तेलंगाना बनाने की माँग देश के पुनर्गठन का सबसे महत्वपूर्ण कारक बनी थी।
1953 में पोट्टी श्रीरामुलु की आमरण अनशन से मौत के बाद तेलुगुभाषी आंध्र का
रास्ता तो साफ हो गया था, पर तेलंगाना इस वृहत् आंध्र योजना में
जबरन फिट किया गया। भाषा के आधार पर देश का पहला राज्य आंध्र ही बना था, पर उस राज्य को एक बनाए रखने में भाषा मददगार
साबित नहीं हुई। राज्य पुनर्गठन आयोग की सलाह थी कि हैदराबाद को विशेष दर्जा देकर
तेलंगाना को अलग राज्य बना दिया जाए और शेष क्षेत्र अलग आंध्र बने। नेहरू जी भी
आंध्र और तेलंगाना के विलय को लेकर शंकित थे। उन्होंने शुरू से ही कहा था कि इस
शादी में तलाक की संभावनाएं बनी रहने दी जाएं। और अंततः तलाक हुआ।
हड़बड़ी में बना राज्य
पन्द्रहवीं लोकसभा के आखिरी सत्र के
आखिरी दिन तक इसकी जद्दो-जेहद चली। शोर-गुल,
धक्का-मुक्की मामूली बात थी। सदन में
पैपर-स्प्रे फैला, किसी ने चाकू भी निकाला। टीवी ब्लैक आउट किया गया। और अभी तय
नहीं है कि शेष बचे राज्य का नाम सीमांध्र होगा या कुछ और। उसके मुख्यमंत्री
चंद्रबाबू नायडू 8 जून को कहाँ शपथ लेंगे, विजयवाडा में या गुंटूर में। कर्मचारियों
के बँटवारे का फॉर्मूला इस रविवार को ही बन पाया है। दोनों राज्यों की सम्पत्ति,
जल तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों का बँटवारा समस्याएं पैदा करेगा।
हैदराबाद शहर दोनों राज्यों की राजधानी
का काम करेगा, पर इससे तमाम समस्याएं खड़ी होंगी। नई राजधानी बनाने के लिए दस साल
का समय है, पर उसके पहले भौगोलिक समस्याएं हैं। व्यावहारिक रूप से हैदराबाद
तेलंगाना में है। तेलंगाना के समर्थक हैदराबाद को अपनी स्वाभाविक राजधानी मानते
हैं, क्योंकि भौगोलिक और ऐतिहासिक रूप से यह शहर
तेलंगाना की राजधानी रहा है। शेष आंध्र या सीमांध्र किसी भी जगह पर हैदराबाद से
जुड़ा नहीं है। उसकी सीमा हैदराबाद से कम से कम 200 किलोमीटर दूर होगी। हैदराबाद
राज्य का सबसे विकसित कारोबारी केन्द्र है। अब किसी नए शहर का विकास करने की कोशिश
होगी तो उसमें काफी समय लगेगा। अविभाजित आंध्र प्रदेश का तकरीबन आधा राजस्व इसी शहर
से आता है। सीमांध्र के पास इस किस्म का औद्योगिक आधार बनाने का समस्या है। यहाँ
के कारोबारियों में ज्यादातर लोग गैर-तेलंगाना हैं।
प्राकृतिक साधनों का झगड़ा
केवल हैदराबाद की बात नहीं है,
छोटे-छोटे गाँवों और कस्बों के लेकर भी विवाद हैं। तेलंगाना के शहरों में रहने
वाली बड़ी आबादी की भावनाएं सीमांध्र से जुड़ी हैं। भविष्य की राजनीति में यह तत्व
महत्वपूर्ण साबित होगा। चंद्रबाबू नायडू के तेलगुदेशम का प्रभाव तेलंगाना में भी
है। पानी के ज्यादातर स्रोत तेलंगाना से होकर गुजरते हैं। कृष्णा और गोदावरी दोनों
नदियां तेलंगाना से आती हैं, जबकि ज्यादातर खेती सीमांध्र में है। तेलंगाना के गठन
के समय सीमांध्र को विशेष पैकेज देने की बात कही गई थी। यह पैकेज कैसा होगा, इसे
लेकर विवाद खड़ा होगा। इधर पोलावरम बाँध को लेकर विवाद शुरू हो गया है। मुख्यमंत्री
के चंद्रशेखर राव ने इस परियोजना के लिए खम्मम जिले के कुछ गांव सीमांध्र को देने
का विरोध किया है, जबकि सरकार ने इन गांवों को लेकर अध्यादेश जारी किया है।
राजस्थान पत्रिका में प्रकाशितSunday, June 1, 2014
भारत के पड़ोस का महत्व
इस
साल मॉनसून के देर से आने का अंदेशा है. बारिश कम हुई या असंतुलित हुई तो
खेती-बाड़ी से जुड़े लोगों के सामने संकट पैदा हो जाएगा और अकाल के कारण पूरी
अर्थ-व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा. यह खतरा सिर्फ भारत के सिर पर नहीं है,
बल्कि पूरे दक्षिण एशिया पर है. खासतौर से भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और
अफगानिस्तान इसके शिकार होंगे. हम आतंकवाद को बड़ा खतरा समझते हैं और एक हद तक वह
है भी. पर हमारे सामने खतरे दूसरे भी हैं. आतंकवाद और कट्टरपंथ भी अशिक्षा, नासमझी
और गरीबी की देन है. इस किस्म के अनेक खतरे हम सब के सामने हैं. पर्यावरण और
प्राकृतिक आपदाएं राजनीतिक सीमाओं को नहीं देखतीं. इन आपदाओं के बरक्स हमारे पास
ऐसे अनुभव भी हैं जब इंसान ने सामूहिक प्रयास से इन पर काबू पाया. पिछले साल भारत
के पूर्वी तट पर आए फाइलिन तूफान के कारण भारी नुकसान का अंदेशा था, पर मौसम
विज्ञानियों को अंतरिक्ष में घूम रहे उपग्रहों की मदद से सही समय पर सूचना मिली और
आबादी को सागर तट से हटा लिया गया. 1999 के ऐसे ही एक तूफान में 10 हजार से ज्यादा
लोग मरे थे. अंतरिक्ष की तकनीक के साथ जुड़ी अनेक तकनीकों का इस्तेमाल चिकित्सा, परिवहन, संचार
यहाँ तक कि सुरक्षा में होता. विज्ञान की खोज की सीढ़ियाँ हैं. पर क्या हम इन
सीढ़ियों पर चलना चाहते हैं?
पीएमओ का सक्रिय होना
सरकार क्या करेगी और कितनी सफल होगी, कहना मुश्किल है, पर पीेमओ अब सक्रिय हुआ है और सरकार को दिशा दे रहा है, इसमें दो राय नहीं। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के रास्ते को त्याग कर सरकार ने अपने काम को पुरानी परम्परा से जोड़ा है। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स की व्यवस्था भी हमें ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से मिली है, पर उस व्यवस्था में ऐसे ग्रुप की ज़रूरत कभी-कभार पड़ती है।यूपीए सरकार ने अपनी छवि सुधारने और प्रेस को ब्रीफ करने जैसे काम के लिए जीओएम बना दिए थे और बाकी काम राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) को दे दिए। इससे सरकार निकम्मी हो गई। इस तरह के ग्रुपों की शुरूआत 1989 में केन्द्र में बहुदलीय सरकार बनने के बाद शुरू ही थी। एनडीए के कार्यकाल में 32 जीओएम बनाए गए और यूपीए-1 के कार्यकाल में 40। यूपीए-2 में बने समूहों की संख्या 200 तक बताते है। तमाम मसलों पर अलग-अलग राय होने के कारण आम सहमति बनाने के लिए मंत्रियों के छोटे ग्रुपों की ज़रूरत महसूस हुई। लगभग इसी वजह से संसदीय व्यवस्था में कैबिनेट की जरूरत पैदा हुई थी। जब तक ताकतवर प्रधानमंत्री होते थे तब तक कैबिनेट प्रधानमंत्री के करीबी लोगों की जमात होती थी। इससे व्यक्ति का रुतबा और रसूख जाहिर होता था। पर यूपीए के कार्यकाल में ये ग्रुप गठबंधन धर्म की मजबूरी और फैसले करने से घबराते नेतृत्व की ओर इशारा करने लगे। फिलहाल वर्तमान सरकार की गति तेज है। पर अभी तक यह कार्यक्रम तय करने के दौर में है। कार्यक्रम बनाना मुश्किल काम नहीं है। उनपर अमल करना दिक्कततलब होता है। कुछ समय बाद इस सरकार के कौशल का पता भी लग जाएगा।
नई
सरकार कैसी होगी, यह बात एक हफ्ते के कामकाज को देखकर नहीं बताई जा सकती, पर उसकी
गति तेज होगी और वह बड़े फैसले करेगी यह नज़र आने लगा है। नरेंद्र मोदी की सरकार
बनने के पहले ही उसकी धमक दिल्ली की गलियों में सुनाई पड़ने लगी थी। सोमवार को शपथ
ग्रहण समारोह हुआ। मंगलवार को नवाज शरीफ से बातचीत। बुधवार को अध्यादेश की मदद से भारतीय
दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण(ट्राई) के पूर्व अध्यक्ष नृपेंद्र मिश्र को प्रधान
सचिव नियुक्त किया। नई सरकार का यह पहला अध्यादेश था। उसे लेकर राजनीतिक क्षेत्रों
में विरोध व्यक्त किया गया है, पर मोदी सरकार ने इतना स्पष्ट किया कि फैसला किया
है तो फिर संशय कैसा। ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी के भरोसेमंद कई अन्य अफसर पीएमओ
में आएंगे। स्वाभाविक है कि भरोसे के अफसर होने भी चाहिए। अलबत्ता यह याद दिलाया
जा सकता है कि मनमोहन सिंह के पीएमओ के अफसरों की नियुक्ति में भी फैसले उनके नहीं
थे। ऐसा नहीं लगता कि देश की नीतियों मे कोई बुनियादी बदलाव आने वाला है, पर इतना
जरूर लगता है कि काम के तरीके में बुनियादी बदलाव आ चुका है।
Friday, May 30, 2014
हिंदी पत्रकारिता की साख बचाने का सवाल
188 साल की हिंदी पत्रकारिता का खोया-पाया, बता रहे हैं प्रमोद जोशी
Submitted by admin on Fri, 2014-05-30 13:23
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी से जुड़े मसले, पत्रकारिता से जुड़े सवाल और हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियां किसी एक मोड़ पर जाकर मिलती हैं। कई प्रकार के अंतर्विरोधों ने हमें घेरा है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह कारोबार जिस लिहाज से बढ़ा है उस कदर पत्रकारिता की गुणवत्ता नहीं सुधरी। मीडिया संस्थान कारोबारी हितों को लेकर बेहद संवेदनशील हैं, पर पाठकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभा नहीं पाते हैं। इस बिजनेस में परम्परागत मीडिया हाउसों के मुकाबले चिटफंड कंपनियां, बिल्डर, शिक्षा के तिज़ारती और योग-आश्रमों तथा मठों से जुड़े लोग शामिल होने को उतावले हैं, जिनका उद्देश्य जल्दी पैसा कमाने के अलावा राजनीति और प्रशासन के बीच रसूख कायम करना है। हिंदी का मीडिया स्थानीय स्तर पर छुटभैया राजनीति के साथ तालमेल करता हुआ विकसित हुआ है।
हाल के वर्षों में अखबारों पर राजनीतिक झुकाव, जातीय-साम्प्रदायिक संकीर्णता और मसाला-मस्ती बेचने का आरोप है। उन्होंने गम्भीर विमर्श को त्याग कर सनसनी फैलाना शुरू कर दिया है। उनके संवाद संकलन में खोज-पड़ताल, विश्लेषण और सामाजिक प्रश्नों की कमी होती जा रही है। निष्पक्ष और स्वतंत्र टिप्पणियों का अभाव है, बल्कि अक्सर वह महत्वपूर्ण प्रश्नों पर अपनी राय नहीं देता। जीवन, समाज, राजनीति और प्रशासन पर उसका प्रभाव यानी साख कम हो रही है। मेधावी नौजवानों को हम इस व्यवसाय से जोड़ने में विफल हैं।
हिंदी का पहला अखबार 1826 में निकला और एक साल बाद ही बन्द हो गया। कानपुर से कलकत्ता गए पंडित जुगल किशोर शुक्ल के मन में इस बात को लेकर तड़प थी कि बांग्ला और फारसी में अखबार है। हिंदी वालों के हित के हेत में कुछ होना चाहिए। इस बात को 188 साल हो गए। हम ‘उदंत मार्तंड’ के प्रकाशन का हर साल समारोह मनाते हुए यह भूल जाते हैं कि वह अखबार बंद इसलिए हुआ क्योंकि उसे चलाने लायक समर्थन नहीं मिला। पं जुगल किशोर शुक्ल ने बड़ी कड़वाहट के साथ अपने पाठकों और संरक्षकों को कोसते हुए उसे बंद करने की घोषणा की थी। आज इस कारोबार में पैसे की कमी नहीं है। पर पाठक से कनेक्ट कम हो रहा है।
Subscribe to:
Posts (Atom)