Wednesday, May 21, 2014

राहुल की हँसी और केजरीवाल की पहलकदमी


आज के अखबारों में स्वाभाविक रूप से नरेंद्र मोदी का भावुक भाषण छाया है। कल शाम सारे चैनलों में इस विषय पर ही विमर्श हो रहा था। सरकार के सामने क्या काम हैं और सरकार किस तरह की बन रही है, ये सवाल कल शाम तक पटल पर नहीं थे। एकाध दिन यह और चलेगा। इसके बाद गाड़ी देश के सामने खड़े महत्वपूर्ण सवालों पर आएगी। आज की खबरों में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की फिर से सरकार बनाने की पहलकदमी की खबर महत्वपूर्ण है। 'आप' के निहायत अपरिपक्व नेता अब अलोकप्रियता के शिखर पर जल्द से जल्द पहुँचने को आतुर हैं। उन्हें मान लेना चाहिए कि उनकी गाड़ी छूट चुकी है। जिस विधानसभा को भंग करने के लिए वे अदालत में जा चुकें हैं, उसे फिर से जगाने की कोशिश वे क्यों कर रहे हैं? यह सम्भव भी तभी है, जब कांग्रेस इसमें उनका साथ दे। क्या कांग्रेस उनका साथ देगी? आप अब रक्षात्मक मुद्रा में है। तीन महीने पहले उन्हें लगता था कि दुबारा चुनाव हुआ तो उन्हें पूर्ण बहुमत मिलेगा। पर अब उनका आत्मविश्वास डोल गया है। उन्होंने यों भी सिद्धांततः मान लिया है कि भ्रष्टाचार से ज्यादा बड़ी लड़ाई साम्प्रदायिकता के खिलाफ है। अब इस लड़ाई को तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहिए। बहरहाल देखिए क्या होता है। लखनऊ में सपा और बसपा ने चुनाव हारने के बाद कुछ लोगों को सज़ा देने का फैसला किया है। बसपा का यह फैसला रोचक है कि अब केवल मायावती जिन्दाबाद के अलावा किसी दूसरे नेता की जिन्दाबाद नहीं हो सकेगी। भारतीय लोकतंत्र प्रौढ़ होता जा रहा है। कुछ कतरनों पर गौर कीजिए।

पिताजी जीता कौन? हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून। इस कार्टून का संदर्भ नीचे की तस्वीर से समझा जा सकता है। 

कोलकाता के टेलीग्राफ ने मंगलवार को यह तस्वीर छापी जिसमें राहुल गांधी की दो मुद्राएं दिखाई गई हैं। पिछले शुक्रवार को कांग्रेस की पराजय की खबरें आने के बाद संक्षिप्त से संवाददाता सम्मेलन में राहुल गांधी मुस्कराते हुए आए थे। इसके विपरीच सोमवार को कांग्रसे कार्यसमिति की बैठक में वे लगातार गुमसुम बैठे रहे। शायद अभी वे खुद को मौके के हिसाब से प्रतिक्रिया देने में सफल नहीं हो पाए हैं। 






Tuesday, May 20, 2014

मोदी-आंधी बनाम ‘खानदान’ गांधी

मंजुल का कार्टून
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इस्तीफों की पेशकश नामंजूर कर दी गई। इस पेशकश के स्वीकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गांधी परिवार के बगैर अब कांग्रेस का कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस को जोड़े रखने का एकमात्र फैविकॉल अब यह परिवार है। संयोग से कांग्रेस की खराबी भी यही मानी जाती है। कांग्रेस के नेता एक स्वर से कह रहे हैं कि पार्टी फिर से बाउंसबैक करेगी। 16 मई को हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल और सोनिया ने कहा था कि हम अपनी नीतियों और मूल्यों पर चलते रहेंगे। बहरहाल अगला एक साल कांग्रेस और एनडीए दोनों के लिए महत्वपूर्ण होगा। मोदी सरकार को अपनी छाप जनता पर डालने के लिए कदम उठाने होंगे, वहीं कांग्रेस अब दूने वेग से उसपर वार करेगी।  

अभी तक कहा जाता था कि वास्तविक सार्वदेशिक पार्टी सिर्फ कांग्रेस है। सोलहवीं लोकसभा में दस राज्यों से कांग्रेस का एक भी प्रतिनिधि नहीं है। क्या यह मनमोहन सिंह की नीतियों की पराजय है? एक मौन और दब्बू प्रधानमंत्री को खारिज करने वाला जनादेश? पॉलिसी पैरेलिसिस के खिलाफ जनता का गुस्सा? या नेहरू-गांधी परिवार का पराभव? क्या कांग्रेस इस सदमे से बाहर आ सकती है? शुक्रवार की दोपहर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने एक संक्षिप्त संवाददाता सम्मेलन में अपनी हार और उसकी जिम्मेदारी स्वीकार की। पर पाँच मिनट के उस एकतरफा संवाद से ऐसा महसूस नहीं हुआ कि पार्टी अंतर्मंथन की स्थिति में है या उसे कोई पश्चाताप है। फिलहाल चेहरों पर आक्रोश दिखाई पड़ता है। पार्टी के नेता स्केयरक्रोयानी मोदी का डर दिखाने वाली अपनी राजनीति के आगे सोच नहीं पा रहे हैं। वे अब भी मानते हैं कि उनके अच्छे काम जनता के सामने नहीं रखे जा सके। इसके लिए वे मीडिया को कोस रहे हैं।

चुनाव परिणाम आने के दो दिन पहले से कांग्रेसियों ने एक स्वर से बोलना शुरू कर दिया था कि हार हुई तो राहुल गांधी इसके लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। कमलनाथ ने तो सीधे कहा कि वे सरकार में नहीं थे। कहीं गलती हुई भी है तो सरकार से हुई है, जो अपने अच्छे कामों से जनता को परिचित नहीं करा पाई। यानी हार का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर। पिछले दो साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो हर बार ठीकरा सरकार के सिर फूटता था। और श्रेय देना होता था तो राहुल या सोनिया की जय-जय।

Monday, May 19, 2014

यह राष्ट्रीय रूपांतरण की घड़ी भी है


दिल्ली में सत्ता परिवर्तन का मतलब है कि देश की राजनीतिक ताकतों को अपने काम-काज को नए सिरे से देखने का मौका मिलेगा। ऐसा नहीं कि नरेंद्र मोदी आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं या विदेश नीति के मर्मज्ञ हैं। उनका काम है राष्ट्रीय नीतियों को राजनीतिक दिशा देना। अर्थ-व्यवस्था को चलाने के लिए विशेषज्ञों की टीम है। सरकार के सारे काम करने वाली टीमें हैं। ऐसा नहीं कि बुनियादी नीतियों में कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा। हाँ चूंकि मोदी का व्यक्तिगत आग्रह दृढ़ता और साफ फैसला करने पर है, इसलिए उम्मीद है कि जो फैसले होंगे उनमें भ्रम नहीं होगा। राजनीतिक संशय के कारण अक्सर अच्छे से अच्छे फैसले भी निरर्थक साबित होते हैं। भारत इस वक्त आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूपांतरण की दहलीज पर खड़ा है। अगले दस साल तक हम लगातार तेज विकास करें साथ ही उस विकास को नीचे तक पहुँचाएं तो गरीबी के फंदे से देश को बाहर निकाल सकते हैं। ऐसा होगा या नहीं इसे देखें:-

यह नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत जीत है, पर इसके पीछे छिपे बड़े कारणों की ओर भी हमें देखना चाहिए. चुनाव परिणामों का विश्लेषण काफी लम्बे समय तक चलता है, पर एक बात साफ है कि भारतीय लोकतंत्र का रूपांतरण हो रहा है. इस बात को ज्यादातर पार्टियों ने नहीं समझा. इनमें भाजपा भी शामिल है, जिसे इतिहास में सबसे बड़ी सफलता मिली है. ऐसा कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी ने अपनी जगह भाजपा से भी ऊपर बना ली थी. इसकी आलोचना भी की गई. पार्टी के भीतर भी मोदी विरोधी थे. इतना तय है यह चुनाव यदि मोदी के बजाय लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में लड़ा जाता तो ऐसी सफलता नहीं मिलती. उस स्थिति में पार्टी पुराने मुहावरों को ही दोहराती रहती. बीजेपी केवल कांग्रेस की खामियों के सहारे नहीं जीती, बल्कि उसने देश को एक नया सपना दिया है. भाजपा की जीत के पीछे देश के नौजवानों के सपने हैं. नरेंद्र मोदी ने इन सपनों को जगाया है. अब यह उनकी परीक्षा है कि वे इन सपनों को पूरा करने में सफल हो पाते हैं या नहीं.

दूसरी ओर कांग्रेस ने भी इतिहास से सबक नहीं सीखा. उसे इतिहास की सबसे बड़ी हार मिली है. क्षेत्रीय दलों ने भी समय से कोई खास पाठ नहीं सीखा. मामला केवल कांग्रेस के खिलाफ होता तो इसका फायदा क्षेत्रीय दलों को भी मिलना चाहिए था. देश की नई राजनीति की दशा-दिशा को समझने की कोशिश करनी चाहिए. वोटर ने शासक बदलने का रास्ता देख लिया है. इस बार का वोट केवल पार्टियों के बूथ मैनेजमेंट को नहीं दिखा रहा है. जो पार्टियाँ संकीर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक आधारों के सहारे आगे बढ़ना चाहती है, उन्हें अपनी नीतियों पर फिर से विचार करना होगा.

भारतीय जनता पार्टी हिंदू राष्ट्रवाद की पार्टी है. हालांकि नरेंद्र मोदी ने इस चुनाव में धार्मिक आधार पर कोई अपील नहीं की और संघ परिवार के उन लोगों को झिड़की भी लगाई. बावजूद इसके यह नहीं कहा जा सकता कि नरेंद्र मोदी के ऊपर हिंदुत्व का तमगा नहीं है. उन्हें हिंदुत्व की छवि का प्रचार करने की ज़रूरत ही नहीं थी. वह अच्छी तरह स्थापित है. सवाल है क्या वे अपनी हिंदू छवि के साथ देश के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना चाहते हैं? इसका जवाब समय देगा और मोदी सरकार के काम बताएंगे कि वे करना क्या चाहते है. उनके ऊपर अर्थव्यवस्था को सम्हालने के साथ-साथ देश के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को गति प्रदान करने की जिम्मेदारी है. बीजेपी विरोधी पार्टियों को भी समझना चाहिए कि नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए धर्म निरपेक्षता का इस फूहड़ हद तक सहारा नहीं लेना चाहिए था. चुनाव परिणाम आने के एक दिन पहले दिग्विजय सिंह का यह कहना कि नरेंद्र मोदी को किसी भी कीमत पर सत्ता में आने से रोकना चाहिए. किस कीमत पर? उन्हें अब यह देखना चाहिए कि जनता ने उनकी पार्टी को किस कूड़ेदान में फेंक दिया है.

Sunday, May 18, 2014

मोदी की पहली चुनौती है महंगाई

नरेंद्र मोदी के भीतर वह क्या बात है जिसके कारण वे एक जबर्दस्त आंधी को पैदा करने में कामयाब हुए? मनमोहन सिंह की छवि के विपरीत वे फैसला करने वाले कड़क और तेज-तर्रार राजनेता हैं। उनकी यह विजय उनके बेहतरीन मैनेजमेंट की विजय भी है। यानी अब हमें ऐसा नेता मिला है, जो भ्रमित नहीं है, बड़े फैसले करने में समर्थ है और विपरीत स्थितियों में भी रास्ता खोज लेने में उसे महारत हासिल है। सन 2002 के बाद से वह लगातार हमलों का सामना करता रहा है। उसके यही गुण अब देश की सरकार को दिशा देने में मददगार होंगे।

मोदी की जीत के पीछे एक नाकारा, भ्रष्ट और अपंग सरकार को उखाड़ फेंकने की मनोकामना छिपी है। फिर भी यह जीत सकारात्मक है। दस साल के शासन की एंटी इनकम्बैंसी स्वाभाविक थी। पर सिर्फ इतनी बात होती तो क्षेत्रीय पार्टियों की जीत होती। बंगाल, उड़ीसा और तमिलनाडु में क्षेत्रीय पार्टियों की ताकत जरूर बढ़ी है, पर भारतीय जनता पार्टी ने भी इन राज्यों में प्रवेश किया है। पहली बार भाजपा पैन-इंडियन पार्टी के रूप में उभरी है। इसके विपरीत सोलहवीं लोकसभा में दस राज्यों से कांग्रेस का एक भी प्रतिनिधि नहीं होगा। यानी कांग्रेस अपने पैन-इंडियन सिंहासन से उतार दी गई है और उसकी जगह बीजेपी पैन इंडियन पार्टी बनकर उभरी है।

मोदी के नए भारत का सपना युवा-भारत की मनोभावना से जुड़ा है। उनका नारा है, अच्छे दिन आने वाले हैं। इसलिए नरेंद्र मोदी की पहली जिम्मेदारी है कि वे अच्छे दिन लेकर आएं। देशभर के वोटर ने एक सरकार को उखाड़ फेंकने के साथ-साथ अच्छे दिनों को वापस लाने के लिए वोट दिया है। ऐसा न होता तो तीस साल बाद देश के मतदाता ने किसी एक पार्टी को साफ बहुमत नहीं दिया होता। यह मोदी मूमेंट है। मोदी ने कहा, ये दिल माँगे मोर और जनता ने कहा, आमीन।

इन बुज़ुर्गों से कैसे निपटेंगे मोदी?

हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
भारतीय जनता पार्टी को मिली शानदार सफलता ने नरेंद्र मोदी के सामने कुछ चुनौतियों को भी खड़ा किया है। पहली चुनौती विरोधी पक्ष के आक्रमणों की है। पर वे उससे निपटने के आदी है। लगभग बारह साल से हट मोदी कैम्पेन का सामना करते-करते वे खासे मजबूत हो गए हैं। संयोग से लोकसभा के भीतर उनका अपेक्षाकृत कमज़ोर विपक्ष से सामना है। कांग्रेस के पास संख्याबल नहीं है। बड़ी संख्या में उसके बड़े नेता चुनाव हार गए हैं। तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल और अद्रमुक के साथ वे बेहतर रिश्ते बना सकते हैं। बसपा है नहीं, सपा, राजद, जदयू और वाम मोर्चा की उपस्थिति सदन में एकदम क्षीण है। इस विरोध को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं।