मंगलयान अभियान के बारे में मीडिया की अपेक्षाकृत बेहतर
कवरेज के बावजूद बड़ी संख्या में लोग इसके बारे में काफी कम जानते हैं। जानते भी
हैं तो यही कि कब यह धरती की कक्षा से बाहर निकलेगा और किस तरह से मंगल की कक्षा
में प्रवेश करेगा। काफी लोगों को यह समझ में नहीं आता कि इस सब की ज़रूरत क्या है।
मान लिया हमारे यान ने वहाँ मीथेन होने का पता लगा ही लिया तो इससे हमें क्या मिल जाएगा? हम पता नहीं लगाते तो अमेरिका और रूस वाले लगाते। मंगल के
पत्थरों, चट्टानों और ज्वालामुखियों की तस्वीरें लाने के लिए 450 करोड़ फूँक कर
क्या मिला? इससे बेहतर होता कि हम कुछ गरीबों के बच्चों की
पढ़ाई का इंतज़ाम करते। पीने के पानी के बारे में सोचते। भोजन, दवाई का इंतज़ाम
करते। यह सवाल भी उन लोगों के मन में आया है, जिन्हें सचिन तेन्दुलकर की हाहाकारी
कवरेज से बाहर निकल कर कुछ सोचने-समझने की फुरसत है। भारत के बाहर कुछ लोगों को
लगता है कि हमने चीन से प्रतिद्विंदता में यह अभियान भेजा है। देश की राजनीति से
जुड़ा पहलू भी है। शायद यूपीए सरकार ने अपनी उपलब्धियाँ गिनाने के लिए मंगलयान
भेजा है। पिछले साल जुलाई में इस अभियान को स्वीकृति मिली। 15 अगस्त को
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में इसकी घोषणा की और आनन-फानन इसे भेज दिया गया।
दिल्ली में बुधवार 30 अक्तूबर को देश के तकरीबन एक दर्जन राजनीतिक दलों के नेता जमा होकर चुनाव के पहले और उसके बाद के राजनीतिक गठबंधन की सम्भावना पर विचार करने जा रहे हैं.
व्यावहारिक रूप से यह तीसरे मोर्चे की तैयारी है, पर बनाने वाले ही कह रहे हैं कि औपचारिक रूप से तीसरा मोर्चा चुनाव के पहले बनेगा नहीं. बन भी गया तो टिकेगा नहीं.
हाल में ममता बनर्जी ने संघीय मोर्चे की पेशकश की थी. यह पेशकश नरेन्द्र मोदी के भूमिका-विस्तार के साथ शुरू हुई. पर वे इस विमर्श में शामिल नहीं होंगी, क्योंकि मेज़बान वामपंथी दल हैं.
राष्ट्रीय परिदृश्य पर कांग्रेस और भाजपा दोनों को लेकर वोटर उत्साहित नहीं है, पर कोई वैकल्पिक राजनीति भी नहीं है. उम्मीद की किरण उस अराजकता और अनिश्चय पर टिकी है जो चुनाव के बाद पैदा होगा.
ऐसा नहीं कि क्लिक करेंतीसरे मोर्चे की कल्पना निरर्थक और निराधार है. देश की सांस्कृतिक बहुलता और सुगठित संघीय व्यवस्था की रचना के लिए इसकी ज़रूरत है.
पर क्या कारण है कि इसके कर्णधार चुनाव में उतरने के पहले एक सुसंगत राजनीतिक कार्यक्रम के साथ चुनाव में उतरना नहीं चाहते?
खतरों से लड़ने वाली राजनीति
हमारी राजनीति को ख़तरों से लड़ने का शौक है. आमतौर पर यह ख़तरों से लड़ती रहती है.
1967 के बाद से गठबंधनों की राजनीति को प्रायः उसके मुहावरे क्लिक करेंवामपंथी पार्टियाँदेती रहीं हैं. गठबंधन राजनीति के फोटो-ऑप्स में पन्द्रह-बीस नेता मंच पर खड़े होकर दोनों हाथ एक-दूसरे से जोड़कर ऊपर की ओर करते हैं तब एक गठबंधन का जन्म होता है. यह गठबंधन किसी ख़तरे से लड़ने के लिए बनता है.
जब तक नेहरू थे तब ख़तरा यह था कि वे नहीं रहे तो क्या होगा? इंदिरा गाँधी का उदय देश की बदलाव विरोधी ताकतों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए हुआ था. संयोग से वे बदलाव विरोधी ताकतें कांग्रेस के भीतर ही थीं, पर प्रतिक्रियावादी थीं. जेपी आंदोलन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ था.