Thursday, January 12, 2012

बैकरूम पॉलिटिक्स का जवाब है जागरूक वोटिंग

उत्तर प्रदेश के चुनाव का माहौल पिछले छह महीने से बना हुआ है। एक ओर सरकार की घोषणाएं तो दूसरी ओर मंत्रियों की कतार का बाहर होना। सन 2007 के चुनाव के ठीक पहले का माहौल इतना सरगर्म नहीं था। हाँ इतना समझ में आता था कि मुलायम सरकार गई और मायावती की सरकार आई। मुलायम सरकार के पतन का सबसे बड़ा कारण यह माना जाता है कि प्रदेश में आपराधिक तत्वों का बोलबाला था। तब क्या जनता ने अपराध के खिलाफ वोट दिया था?
यह बात शहरों या गाँवों में भी कुछ उन लोगों पर शायद लागू होती हो, जो मसलों और मुद्दों पर वोट देते हैं। पर सच यह है कि उस चुनाव में समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत बढ़ा था। सन 2002 के 25.37 से बढ़कर वह 2007 में 25.43 प्रतिशत हो गया था। फिर भी सीटों की संख्या 143 से घटकर 97 रह गई। वह न तो मुलायम सिंह की हार थी और न गुंडागर्दी की पराजय। वह सीधे-सीधे चुनाव की सोशल इंजीनियरिंग थी।

Monday, January 2, 2012

अंधेर नगरी का लोकतंत्र

नए साल का पहला दिन आराम का दिन था। आज काम का दिन है। हर नया साल चुनौतियों का साल होता है। पर हर साल की चुनौतियाँ गुणधर्म और प्रकृति में अनोखी होती हैं। हर दिन और हर क्षण पहले से फर्क होता है। पर जब हम समय का दायरा बढ़ाते हैं तो उन दायरों की प्रकृति भी परिभाषित होती है। पिछला साल दुनियाभर में स्वतः स्फूर्त जनांदोलनों का साल था। भारत में उतने बड़े आंदोलन नहीं हुए, जितने पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप के देशों में हुए। संकट खत्म नहीं हुआ है, बल्कि और गहरा रहा है। इसके घेरे में अमेरिका भी है, जहाँ इस साल बराक ओबामा को राष्ट्रपति पद के चुनाव में फिर से उतरना है। ओबामा अमेरिका में नई आशा की किरण लेकर आए थे। पर यह उम्मीद जल्द टूट गई। यह साल उम्मीदों की परीक्षाओं का साल है। आर्थिक दृष्टि से भारत, चीन और कुछ अन्य विकासशील देश इस संकट से बाहर हैं। इन देशों में राजनीतिक बदलाव की आहटें हैं। इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक दुनिया के लिए नई परिभाषाएं गढ़ने वाला है। हमारे लिए भी इसमें कुछ संदेश हैं।

Friday, December 30, 2011

मुआ स्वांग खूब रहा

कानून सड़क पर नहीं संसद में बनते हैं। शक्तिशाली लोकपाल विधेयक सर्वसम्मति से पास होगा। देश की संवैधानिक शक्तियों को काम करने दीजिए। राजनीति को बदनाम करने की कोशिशें सफल नहीं होंगी। इस किस्म के तमाम वक्तव्यों के बाद गुरुवार की रात संसद का शीतकालीन सत्र भी समाप्त हो गया। कौन जाने कल क्या होगा, पर हमारा राजनीतिक व्यवस्थापन लोकपाल विधेयक को पास कराने में कामयाब नहीं हो पाया। दूसरी ओर अन्ना मंडली की हवा भी निकल गई। इस ड्रामे के बाद आसानी से कहा जा सकता है कि देश की राजनीतिक शक्तियाँ ऐसा कानून नहीं चाहतीं। और उनपर जनता का दबाव उतना नहीं है जितना ऐसे कानूनों को बनाने के लिए ज़रूरी है। 

लोकपाल बिल को लेकर चले आंदोलन और मुख्यधारा की राजनीति के विवाद और संवाद को भी समझने की जरूरत है। आमतौर पर हम या तो आंदोलन के समर्थक या विरोधी के रूप में सोचते हैं। सामान्य नागरिक यह देखता है कि इसमें मैं कहाँ हूँ। लोकपाल कानून को लेकर संसद में चली बहस से दो-एक बातें उजागर हुईं। सरकार, विपक्ष, अन्ना-मंडली और जनता सभी का रुख इसे लेकर एक सा नहीं है। पर सामान्य विचार बनाने का तरीका भी दूसरा नहीं है। इसके लिए कई प्रकार टकराहटों का इंतजार करना पड़ता है। लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान लोकसभा में वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण था। पता नहीं किसी ने उस पर ध्यान दिया या नहीं। उनका आशय था कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं विकसित होती हैं। हम इस विधेयक को पास हो जाने दें और भविष्य में उसकी भूमिका को सार्थक बनाएं।

Tuesday, December 27, 2011

किसे लगता है 'लोकतंत्र' से डर?

30 जनवरी महात्मा गांधी की 64वीं पुण्यतिथि है। पंजाब और उत्तराखंड के वोटरों को ‘शहीद दिवस’ के मौके पर अपने प्रदेशों की विधानसभाओं का चुनाव करने का मौका मिलेगा। क्या इस मौके का कोई प्रतीकात्मक अर्थ भी हो सकता है? हमारे राष्ट्रीय जीवन के सिद्धांतों और व्यवहार में काफी घालमेल है। चुनाव के दौरान सारे छद्म सिद्धांत किनारे होते हैं और सामने होता है सच, वह जैसा भी है। 28 जनवरी से 3 मार्च के बीच 36 दिनों में पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे। एक तरीके से यह 2012 के लोकसभा चुनाव का क्वार्टर फाइनल मैच है। 2013 में कुछ और महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव हैं, जिनसे देश की जनता का मूड पता लगेगा। उसे सेमीफाइनल कहा जा सकता है। क्योंकि वह फाइनल से ठीक पहले का जनमत संग्रह होगा। जनमत संग्रह लोकतंत्र का सबसे पवित्र शब्द है। इसी दौरान तमाम अपवित्रताओं से हमारा सामना होगा।

Saturday, December 24, 2011

एक अदद नौकरी की तलाश में भटकते युवा

युवा आबादी के लिहाज से भारत सबसे बड़ा देश है। इस बदलते देश के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण बात है। इतनी बड़ी युवा आबादी हमारे लिए बहुत उपयोगी है। देश का निर्णाण युवा हाथों से ही होता है। पर क्या हम अपनी इस सम्पदा का इस्तेमाल कर पा रहे हैं? युवा वर्ग चुस्त-दुरुस्त और ठीक से प्रशिक्षित है तो देश की शक्ल बदलने में देर नहीं लगेगी। पर यदि वह कुंठित, हताश और निराश है तो यह खौफनाक है। युवा पत्रकार गिरिजेश कुमार बेरोजगारी को लेकर कुछ सवाल उठा रहे हैं। 

पटना की अमृता बदहवासी में अपना मानसिक संतुलन खोकर बक्सर पहुँच गई। उसकी शिक्षक पात्रता परीक्षा नामक महापरीक्षा खराब चली गई थी। बाद में जी आर पी बक्सर की मदद से उसे उसके परिवार वालों को सौंपा गया। यह खबर अखबार के चौदहवें पन्ने पर बॉटम में एक कॉलम में आई। कुछ अख़बारों ने इसे ज़रुरी भी नहीं समझा। हालाँकि, सवाल यह नहीं है कि इस खबर को किस
पन्ने पर छपना चाहिए, या छपना चाहिए भी या नहीं? सवाल यह है कि रोजगार की एक संभावना युवाओं की मनोदशा को जिस तरह से प्रभावित कर रहा है, वह समाज के लिए कितना हितकर है? शिक्षा जैसी चीज़ अगर पेट पालने का ज़रिया बन जाए तो समाज को शिक्षित करने का मूल उद्देश्य का खोना लाज़िमी है। लेकिन बेरोज़गारी के आलम में वे लोग क्या करें जिनपर पेट और परिवार की जिम्मेदारी है, यह भी बड़ा सवाल है?

विदित हो कि बिहार सरकार ने सरकारी प्राथमिक और मध्य विद्यालयों में शिक्षक नियुक्ति के लिए शिक्षक पात्रता परीक्षा आयोजित की थी। जो क्रमशः 20 और 21 दिसंबर को समाप्त हो गयी। राज्य भर में 1380 परीक्षा केन्द्रों पर आयोजित इस परीक्षा में तक़रीबन 30 लाख परीक्षार्थी शामिल हुए थे।