Wednesday, October 19, 2011
Monday, October 17, 2011
स्मारकों से ज्यादा महत्वपूर्ण है स्मृतियों का होना
शायद सन 1979 की बात है। प्रेमचंद के जन्मशती वर्ष की शुरूआत की जा रही थी। लखनऊ दूरदर्शन की एक परिचर्चा में मेरे एक सहचर्चाकार ने सुझाव दिया कि लमही और वाराणसी में प्रेमचंद के घरों को स्मारक बना दिया जाए। सुझाव अच्छा था, पर मेरी राय यह थी कि प्रेमचंद के साहित्य को पढना या पढ़ाया जाना ज्यादा महत्वपूर्ण है। जो समाज अपने लेखकों को पढ़ता नहीं, वह ईंट-पत्थर के स्मारकों का क्या करेगा? स्मारकों के साथ स्मृतियों का होना महत्वपूर्ण है। स्मृतियाँ हर तरह की होती हैं। मीठी भी कड़वी भी।
Sunday, October 16, 2011
गठबंधन राजनीति के नए असमंजसों को जन्म देगा यूपी का चुनाव
उत्तर प्रदेश में गली-गली खुले वोट बैंक उसकी राजनीति को हमेशा असमंजस में रखेंगे। 1967 में पहली बार साझा सरकार बनने के बाद यहाँ साझा सरकारों की कई किस्में सामने आईं, पर एक भी साझा लम्बा नहीं खिंचा। 2007 के यूपी चुनाव परिणाम एक हद तक विस्मयकारी थे। उस विस्मय की ज़मीन प्रदेश की सामाजिक संरचना में थी। पर वह स्थिति आज नहीं है।
अंदेशा है कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के परिणाम किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं देंगे। सन 2007 की चमत्कारिक सोशल इंजीनियरी ने बसपा को जिस तरह की सफलता दी थी उसकी सम्भावना इस बार नहीं है। उत्तर प्रदेश के चुनाव हवा में नहीं सामाजिक ज़मीन पर होते हैं। सामाजिक समीकरण पहले से बता देते हैं कि माहौल क्या है। इस बार का माहौल असमंजस वाला है। और हालात इसी तरह रहे तो 2014 के लोकसभा चुनाव तक यह असमंजस पूरे देश में होगा। अब महत्वपूर्ण हैं चुनाव के बाद के गठबंधन। पिछले साठ साल का उत्तर प्रदेश का चुनाव इतिहास गवाह है कि यहाँ बड़ी संख्या में निर्दलीय या छोटे दलों के सदस्य चुनकर आते हैं, जो गठबंधन की राजनीति को आकार देने में मददगार होते हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड और पंजाब में दो राजनीतिक शक्तियों के बीच सीधा टकराव होगा।Friday, October 14, 2011
अन्ना-पहेली बनाम राष्ट्रीय राजनीति
Monday, October 10, 2011
अन्ना की 'राजनीति' का फैसला वोटर करेगा, उसे फैसला करने दो
अन्ना हज़ारे के लिए बेहतर होगा कि वे अपने आंदोलन को किसी एक राजनीतिक दल के फायदे में जाने से बचाएं। पर इस बारे में क्या कभी किसी को संशय था कि उनका आंदोलन कांग्रेस विरोधी है? खासतौर से जून के आखिरी हफ्ते में जब यूपीए सरकार की ओर से कह दिया गया कि हम कैबिनेट में लोकपाल विधेयक कानून का अपना प्रारूप रखेंगे। सबको पता था कि इस प्रारूप में अन्ना आंदोलन की बुनियादी बातें शामिल नहीं होंगी। रामलीला मैदान में यह आंदोलन किस तरह चला, संसद में इसे लेकर किस प्रकार की बहस हुई और किसने इसे समर्थन दिया और किसने इसका विरोध किया, यह बताने की ज़रूरत नहीं। भाजपा ने इसका मुखर समर्थन किया और कांग्रेस ने दबी ज़ुबान में सीबीआई को इसके अधीन रखने, राज्यों के लिए भी कानून बनाने और सिटीज़ंस चार्टर पर सहमत होने की कोशिश करने का भरोसा दिलाया। भाजपा से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस आंदोलन का समर्थन करने की घोषणा कर दी थी। फिर भी सितम्बर के पहले हफ्ते तक आधिकारिक रूप से यह आंदोलन किसी राजनीतिक दल के साथ नहीं था। और आज भी नहीं है। पर परोक्षतः यह भाजपा के पक्ष में जाएगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि आंदोलन वोटर के सामने सीधे यह सवाल रख रहा है। चुनाव लड़ने के बजाय इस तरीके से चुनाव में हिस्सा लेने में क्या हर्ज़ है? इसका नफा-नुकसान आंदोलन का नेतृत्व समझे।
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