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Sunday, January 31, 2016

छोटे राज्यों की बड़ी राजनीति

आम आदमी पार्टी की निगाहें पंजाब और उत्तराखंड पर हैं। अभी वह दिल्ली में सत्तारूढ़ है। यदि उसे पंजाब और उत्तराखंड में सफलता मिले तो उसे राष्ट्रीय स्तर पर उभरने में बड़ी सफलता भी मिल सकती है। और वहाँ विफल रही तो आने वाले वक्त में दिल्ली से भी वह गायब हो सकती है। उसकी सफलता या विफलता के आधार दो छोटे राज्य बन सकते हैं। वाम मोर्चे की समूची राष्ट्रीय राजनीति अब केरल और त्रिपुरा जैसे दो छोटे राज्यों के सहारे है। कांग्रेस की राजनीति भी अब ज्यादातर छोटे राज्यों के भरोसे है। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों का अपना महत्व है। वे लोकसभा में सीटें दिलाने का काम करते हैं, पर माहौल बनाने में छोटे राज्यों की भूमिका भी है। हाल में केरल और अरुणाचल इसीलिए महत्वपूर्ण बन गए हैं।

Sunday, January 3, 2016

अभी कई तीखे मोड़ आएंगे राष्ट्रीय राजनीति में

भारतीय राज-व्यवस्था, प्रशासन और राजनीति के लिए यह साल बड़ी चुनौतियों से भरा है। उम्मीद है कि इस साल देश की अर्थ-व्यवस्था की संवृद्धि आठ फीसदी की संख्या को या तो छू लेगी या उस दिशा में बढ़ जाएगी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि संसद के बजट सत्र में क्या होता है। पिछले दो सत्रों की विफलता के बाद यह सवाल काफी बड़े रूप में सामने आ रहा है कि भविष्य में संसद की भूमिका क्या होने वाली है। देश के तकरीबन डेढ़ करोड़ नए नौजवानों को हर साल नए रोजगारों की जरूरत है। इसके लिए लगातार पूँजी निवेश की जरूरत होगी साथ ही आर्थिक-प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारना होगा। व्यवस्था की डोर राजनीति के हाथों में है। दुर्भाग्य से राजनीति की डोर संकीर्ण ताकतों के हाथ में रह-रहकर चली जाती है।

Sunday, December 20, 2015

इतनी तेजी में क्यों हैं केजरीवाल?

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने शुक्रवार को ट्वीट किया कि केंद्र सरकार उन सभी विरोधियों के खिलाफ सीबीआई का इस्तेमाल करने जा रही है जो बीजेपी की बात नहीं मानते। ट्वीट में केजरीवाल ने दावा किया कि यह बात उन्हें एक सीबीआई अधिकारी ने बताई है। प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने इन आरोपों को नकारते हुए कहा, केजरीवाल को सीबीआई के अधिकारी का नाम बताना चाहिए और सबूत देने चाहिए, पर नाम कौन बताता है? यह बात सच हो तब भी यह राजनीतिक बयान है। इसका उद्देश्य मोदी विरोधी राजनीति और वोटों को अपनी तरफ खींचना है।

केजरीवाल धीरे-धीरे विपक्षी एकता की राजनीति की अगली कतार में आ गए हैं। इस प्रक्रिया में एक बात तो यह साफ हो रही है कि केजरीवाल ‘नई राजनीति’ की अपनी परिभाषाओं से बाहर आ चुके हैं। वे अपने अंतर्विरोधों को आने वाले समय में किस तरह सुलझाएंगे, इसे देखना होगा। फिलहाल उनकी अगली परीक्षा पंजाब में है। शायद वे असम की वोट-राजनीति में भी शामिल होने की कोशिश करेंगे।

Sunday, December 13, 2015

उल्टी भी पड़ सकती है कांग्रेसी आक्रामकता


सन 2014 के चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस के सामने मुख्यधारा में फिर से वापस आने की चुनौती है। जिस तरह सन 1977 की पराजय के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी वापसी की थी। पार्टी उसी लाइन पर भारतीय जनता पार्टी को लगातार दबाव में लाने की कोशिश कर रही है। पार्टी की इसी छापामार राजनीति का नमूना संसद के मॉनसून सत्र में देखने को मिला. संयोग से उसके बाद बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को उम्मीद से ज्यादा सीटें मिलीं। इस दौरान राहुल गांधी के तेवरों में भी तेजी आई है।

संसद के इस सत्र में भी कांग्रेस मोल-भाव की मुद्रा में है। पिछले हफ्ते दिल्ली हाईकोर्ट ने नेशनल हैरल्ड के मामले में जो फैसला सुनाया है, उसने राष्ट्रीय राजनीति का ध्यान खींचा है। सहज भाव से कांग्रेस पहले रोज से ही इस मामले में बजाय रक्षात्मक होने के आक्रामक है। देखना होगा कि क्या पार्टी इस आक्रामकता को बरकरार रख सकती है। क्या सन 2016 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को कमोबेश सफलता मिलेगी?


पहली नजर में हैरल्ड मामले में कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया न तो संतुलित है और न सुविचारित। इसके कानूनी और राजनीतिक पहलुओं पर सोचे समझे बगैर पार्टी ने पहले दिन से जो रुख अपनाया है, वह कांग्रेस के पुराने दिनों की याद दिलाता है, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ तनिक सी बात सामने आने पर भी देशभर में रैलियाँ होने लगती थीं। पार्टी को गलतफहमी है कि संसद से सड़क तक हंगामा करने से उसकी वापसी हो जाएगी। पार्टी का अदालती प्रक्रिया को लेकर रवैया खतरनाक है। देश भूला नहीं है कि सन 1975 का आपातकाल इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के कारण लागू हुआ था। संयोग से सोनिया गांधी ने ‘इंदिरा की बहू हूँ’ कहकर उसकी पुष्टि भी कर दी। यह एक सामान्य मामला है तो उन्हें अदालत में दोषी ठहराया ही नहीं जा सकता। जब वे दोषी हैं नहीं तो कोई उनको फँसा कैसे देगा?

Sunday, November 29, 2015

मोदी क्या कर पाएंगे समावेशी राजनीति?

संसद के शीत सत्र के पहले दो दिन की विशेष चर्चा और शुक्रवार की शाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की मुलाकात के बाद दो बातें स्पष्ट हुईं हैं। एक, भारतीय जनता पार्टी को व्यापक जनाधार बनाने के लिए अपनी रणनीति में सुधार करना होगा। इस रणनीति का आंशिक असर है कि शीत सत्र से उम्मीदें बढ़ गईं हैं। शुक्रवार को संसद में नरेन्द्र मोदी ने इस बात का संकेत दिया कि वे आमराय बनाकर काम करना पसंद करेंगे। उन्होंने देश की बहुल संस्कृति को भी बार-बार याद किया।

देखना होगा कि क्या भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में कोई गुणात्मक बदलाव आने वाला है या नहीं। पार्टी को अटल बिहारी वाजपेयी के अनुभव का लाभ उठाना चाहिए। संसद में मोदी के अपेक्षाकृत संतुलित बयान और शाम को सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के साथ विचार-विमर्श से अच्छे संकेत जरूर मिले हैं, फिर भी कहना मुश्किल है कि संसद का यह सत्र कामयाब होगा। अलबत्ता उम्मीद बँधी है। देशवासी चाहते हैं कि संसदीय कर्म संजीदगी से सम्पादित किया जाना चाहिए। मॉनसून सत्र का पूरी तरह धुल जाना अच्छी बात नहीं थी।

Sunday, November 22, 2015

संसदीय भूमिका पर भी बहस होनी चाहिए

संसद का शीत सत्र इस हफ्ते शुरू होगा। हमारी राजनीति में चुनाव और संसदीय सत्र दो परिघटनाएं राजनीतिक सरगर्मियों से भरी रहती है। दोनों ही गतिविधियाँ देश के जीवन और स्वास्थ्य के साथ गहरा वास्ता रखती हैं। चुनाव और संसदीय कर्म ठीक रहे तो काया पलटते देर नहीं लगेगी। पर दुर्भाग्य से देश की जनता को दोनों मामलों में शिकायत रही है। चुनाव के दौरान सामाजिक अंतर्विरोध और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप चरम सीमा पर होते हैं और संसदीय सत्र के दौरान स्वस्थ बहस पर शोर-शराबा हावी रहता है।

पिछले मॉनसून सत्र में व्यापम घोटाला और ललित मोदी प्रसंग छाया रहा। इस वजह से अनेक सरकारी विधेयक पास नहीं हो पाए। दोनों प्रसंग महत्वपूर्ण थे, पर दोनों मसलों पर बहस नहीं हो पाई। उल्टे पूरे सत्र में संसद का काम ठप रहा। यह पहला मौका नहीं था, जब राजनीति के कारण संसदीय कर्म प्रभावित हुआ हो। अलबत्ता राजनीतिक दलों से उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्हें अपनी राजनीति के साथ-साथ राष्ट्रीय हितों का अंदाज भी होता होगा। इस हफ्ते शीत सत्र शुरू होने के पहले सर्वदलीय बैठक होगी। बेहतर हो कि सभी पार्टियाँ कुछ बुनियादी बातों पर एक राय कायम करें। कांग्रेस के नेता आनन्द शर्मा ने कहा है, ‘विधेयक हमारी प्राथमिकता नहीं है। देश में जो हो रहा है उसे देखना हमारी प्राथमिकता है। संसदीय लोकतंत्र केवल एक या दो विधेयकों तक सीमित नहीं हो सकता।’

Sunday, November 15, 2015

आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक संधि में देर क्यों?

रात में भारतीय मीडिया पर लंदन के वैम्बले स्टेडियम की खबरें छाई थीं तो सुबह पेरिस में आतंकवादी हमलों की खबरें आने लगीं। हालांकि इन दोनों घटनाओं का एक-दूसरे से रिश्ता नहीं, पर एक बात शिद्दत से रेखांकित हुई कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के मार्फत एक वैश्विक संधि के लिए दोनों देशों के प्रयासों को शक्ल देने का समय आ गया है। नरेंद्र मोदी और ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड केमरन ने इस बात का उल्लेख किया कि मुम्बई पर हमला हो या लंदन के धमाके दोनों देश आतंकवाद के खतरे से वाकिफ हैं। इसका मुकाबला करने के लिए दोनों एक-जुट हैं। इस यात्रा के दौरान भारतीय राजनीति से जुड़े सवाल भी उठे हैं। अंदेशा है कि इसका इस्तेमाल भारत विरोधी ताकतें अपने हितों के लिए भी करेंगी। अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस वक्त भारतीय भूमिका को बढ़ाने की जरूरत है। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का पुनर्गठन होना चाहिए साथ ही आतंकवाद से निपटने के लिए वैश्विक संधि होनी चाहिए। पेरिस में सौ से ऊपर लोगों की हत्या आतंकवादी आसानी से करने में इसलिए सफल हो पाए क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई गोलबंदी की शिकार हो रही है। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के पीछे संगठित राजशक्तियाँ भी है।

Sunday, November 1, 2015

हाशिए पर जाने वाली है कांग्रेस

बिहार में चुनाव अब अंतिम दौर में है। परिणाम चाहे जो हो, उसका राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा असर होने वाला है। भारतीय जनता पार्टी के भीतर नेतृत्व को लेकर असमंजस और भाजपा-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन की सम्भावनाएं इस पार या उस पार लगेंगी। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सामने आ रहे हैं। ममता बनर्जी ने समर्थन किया ही है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। महागठबंधन जीता तो श्रेय किसे मिलेगा? कांग्रेस को, राहुल गांधी को या लालू और नीतीश को? बिहार से आश्चर्यजनक खबरें मिल रहीं हैं कि कांग्रेसी प्रत्याशी लालू-नीतीश की मदद चाहते हैं सोनिया-राहुल की नहीं। परिणाम आने के बाद लालू-नीतीश को अफसोस होगा कि कांग्रेस को इतनी सीटें दी ही क्यों थीं। इस परिणाम की गूँज संसद के शीत सत्र में भी सुनाई पड़ेगी।  जीएसटी, भूमि अधिग्रहण तथा आर्थिक उदारीकरण से जुड़े कानूनों की दिशा का पता भी इससे लगेगा। जब तक राज्यसभा में कांग्रेस की उपस्थिति है वह खबरों में रहेगी, पर उसके बाद?

Sunday, October 25, 2015

लंगड़ाकर क्यों चलती है हमारी राज-व्यवस्था?

अमेरिका का छोटा सा संविधान है, भारत के संविधान का चौथाई भी नहीं। पर वहाँ की राजनीतिक-प्रशासनिक पिछले सवा दो सौ साल से भी ज्यादा समय से बगैर विघ्न-बाधा के चल रही है। संविधान सभा में जब बहस चल रही थी तब डॉ भीमराव आम्बेडकर ने कहा था कि राजनीति जिम्मेदार हो तो खराब से खराब सांविधानिक व्यवस्था भी सही रास्ते पर चलती है, पर यदि राजनीति में खोट हो तो अच्छे से अच्छा संविधान भी गाड़ी को सही रास्ते पर चलाने की गारंटी नहीं दे सकता। पिछले 68 साल में भारतीय सांविधानिक व्यवस्था ने कई मोड़ लिए। इसमें दो राय नहीं कि हमारे पास दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान है। पर संविधान से ज्यादा महत्वपूर्ण है वह राजनीतिक संस्कृति जो व्यवस्था का निर्वाह करती है। ऐसी व्यवस्था में शासन के सभी अंगों के बीच समन्वय और संतुलन होता है। हमारे यहाँ इनके बीच अकसर टकराव पैदा हो जाता है। 

हाल में संविधान में संशोधन करके बनाए गए न्यायिक नियुक्ति आयोग या एनजेएसी कानून को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली के बयान से जो खलिश पैदा हो गई थी उसे शुक्रवार को उन्होंने दूर करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि उनका आशय न्यायपालिका और संसद के बीच किसी प्रकार के टकराव की वकालत करना नहीं था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूरी तरह पालन होगा। एनजेएसी की समाप्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति वाली कॉलेजियम व्यवस्था बहाल हो गई है। बावजूद इसके यह बहस अब फिर से चलेगी। पर सवाल केवल न्यायिक प्रणाली में सुधार का ही नहीं है।

Sunday, October 11, 2015

'चुनाव ही चुनाव' का शोर भी ठीक नहीं

हम बेतहाशा चुनावबाजी के शिकार हैं। लगातार चुनाव के जुमले हम पर हावी हैं। इसे पूरी तरह दोषी न भी माने, पर राजनीति ने भी हमारे सामाजिक जीवन में जहर घोला है। दादरी कांड पर पहले तो नरेंद्र मोदी खामोश रहे, फिर बोले कि राजनेताओं के भाषणों पर ध्यान न दें। उनका मतलब क्या है पता नहीं, पर इतना जाहिर है कि चुनावी दौर के भाषणों के पीछे संजीदगी नहीं होती। केवल फायदा उठाने की इच्छा होती है। इस संजीदगी को खत्म करने में मोदी-पार्टी की बड़ी भूमिका है। पर ऐसा नहीं कि दूसरी पार्टियाँ सामाजिक अंतर्विरोधों का फायदा न उठाती हों। सामाजिक जीवन में जहर घोलने में इस चुनावबाजी की भी भूमिका है। भूमिका न भी हो तब भी सामाजिक शिक्षण विहीन राजनीति का इतना विस्तार क्या ठीक है?

Sunday, October 4, 2015

कालेधन के प्राण कहाँ बसते हैं?

कर अपवंचना रोकने या काले धन को सामने लाने की मुहिम केवल भारत की मुहिम नहीं है, बल्कि वैश्विक अभियान है। इसका उद्देश्य कराधान को सुनिश्चित और प्रभावी बनाना है। भारत सरकार ने देश में काला धन कानून लागू करने के पहले जो अनुपालन खिड़की छोड़ी थी उसका उत्साहवर्धक परिणाम सामने नहीं आया है। चूंकि इस योजना में माफी की व्यवस्था नहीं थी इसलिए बहुत अच्छे परिणामों की आशा भी नहीं थी। कुल मिलाकर 638 लोगों ने 3,770 करोड़ रुपए (58 करोड़ डॉलर) विदेशी संपत्ति की घोषणा की। यह राशि अनुमान से काफी कम है। हालांकि विदेश में जमा काले धन के बारे में कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है, लेकिन गैर-सरकारी अनुमान है कि यह राशि 466 अरब डॉलर से लेकर 1,400 अरब डॉलर तक हो सकती है। 

इस योजना के परिणामों को देखने से लगता है कि काले धन को सामने लाने की चालू कोशिशें ज्यादा सफल होने वाली नहीं हैं। इसके लिए कोई ज्यादा व्यावहारिक नीति अपनानी होगी। इस बार की योजना सन 1997 की माफी योजना जैसी नहीं थी, जिसमें जुर्माने और आपराधिक कार्रवाई से लोगों को मुक्त कर दिया गया था। उस योजना में सरकार को 10,000 करोड़ रुपए की प्राप्ति हुई थी। पर उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि भविष्य में माफी की कोई योजना शुरू नहीं की जाएगी। इसबार की योजना में जुर्माने की व्यवस्था भी थी। पश्चिमी देशों में इस प्रकार की योजनाओं का चलन हैं, जिनमें राजस्व बढ़ाने के तरीके शामिल होते हैं साथ ही ऐसी व्यवस्था होती है, जिससे अपनी आय स्वतः घोषित करने की प्रवृत्ति बढ़े।

Tuesday, September 22, 2015

नेताजी को लेकर इतनी ‘गोपनीयता’ ठीक नहीं


हो सकता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लेकर जो संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं वे निर्मूल साबित हों, पर यह बात समझ में नहीं आती कि सत्तर साल बाद अब वे कौन से रहस्य हैं जिनके सामने आने से हमारे रिश्ते दूसरे देशों से बिगड़ जाएंगे। पारदर्शिता का तकाजा है कि गोपनीयता के वर्ष तय होने चाहिए। तीस-चालीस या पचास साल क्या इतिहास पर पर्दा डालने के लिए काफी नहीं होते? यदि ऐसा रहा तो दुनिया का इतिहास लिखना मुश्किल हो जाएगा। दूसरी ओर अतिशय गोपनीयता कई तरह की अफवाहों को जन्म देती है, जो हमारे हित में नहीं है।

अब जब पश्चिम बंगाल सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत कर दिया है, भारत सरकार पर इस बात का दबाव बढ़ेगा कि वह अपनी फाइलों को भी गोपनीयता के दायरे से बाहर लाए। यह बात इसलिए जरूरी लगती है क्योंकि बंगाल की फाइलों की शुरुआती पड़ताल से यह संदेह पुख्ता हो रहा है कि नेताजी का निधन 18 अगस्त 1945 को हुआ भी था या नहीं। फाइलों के 12,744 पृष्ठ पढ़ने और उनका निहितार्थ समझने में समय लगेगा, पर राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि मैंने उसमें से कुछ फाइलें पढ़ीं। उन फाइलों के अनुसार 1945 के बाद नेताजी के जिंदा होने की बात सामने आई है।

Monday, September 7, 2015

नई संस्कृति का फूटता भांडा

शीना बोरा हत्याकांड को आप कई तरीकों से देख सकते हैं। इंद्राणी मुखर्जी के व्यक्तिगत रिश्तों से जुड़ी बातें लोगों का ध्यान सबसे ज्यादा खींच रही हैं। जबकि सबसे कम ध्यान उनपर जाना चाहिए। यह उनका व्यक्तिगत मामला है और इसे उछालने का हमें अधिकार नहीं है। यह केस एक सम्भावित हत्या तक केंद्रित हो तो इसका उस स्तर का महत्व है भी नहीं जितना दिखाया जा रहा है। पर इस सिलसिले में दो और बातें महत्वपूर्ण हैं। एक इस मामले की मीडिया कवरेज। दूसरे इस प्रकरण से जुड़े कारोबारी प्रसंग। इन दोनों को जोड़कर देखा जाए तो यह कहानी हमारी नई संस्कृति की पोल खोलती है।

Monday, August 24, 2015

पूर्व सैनिक अधीर क्यों हैं?

वन रैंक, वन पेंशन को लेकर विवाद अनावश्यक रूप से बढ़ता जा रहा है। सरकार को यदि इसे देना ही है तो देरी करने की जरूरत नहीं है। साथ ही पूर्व सैनिकों को भी थोड़ा धैर्य रखना चाहिए। जिस चीज के लिए वे तकरीबन चालीस साल से लड़ाई लड़ रहे हैं, उसे हासिल करने का जब मौका आया है तब कड़वाहट से क्या हासिल होगा? प्रधानमंत्री की इच्छा थी कि स्वतंत्रता दिवस के भाषण में इस घोषणा को शामिल किया जाए, पर अंतिम समय में सहमति नहीं हो पाई। यह बात पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने बताई है, जो इस मामले में मध्यस्थता कर रहे थे। यह तो जाहिर है कि सरकार के मन में इसे लागू करने की इच्छा है।

धरने पर बैठे पूर्व फौजियों ने पहले माना था कि वे अपने विरोध को ज्यादा नहीं बढ़ाएंगे लेकिन भूख हड़ताल पर बैठे लोगों ने आंदोलन वापस लेने से इंकार कर दिया। बल्कि क्रमिक अनशन को आमरण अनशन में बदल दिया। वे कहते हैं कि यह पैसे की लड़ाई नहीं है, बल्कि हमारे सम्मान का मामला है। इस बीच पूर्व सैनिकों के साथ दिल्ली पुलिस ने जो अभद्र व्यवहार किया, उसने आग में घी डालने का काम किया। हम इस तरह सैनिकों का सम्मान करते हैं? कह सकते हैं कि डेढ़ साल से सरकार क्या कर रही थी? पर ऐसा भी नहीं कि वह कन्नी काट रही है।

Sunday, August 9, 2015

कहाँ हो भारत भाग्य विधाता?

रघुवीर सहाय की कविता है :-

राष्ट्रगीत में भला कौन वह/ भारत भाग्य विधाता है/ फटा सुथन्ना पहने जिसका/ गुन हरचरना गाता है।

कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं :-

कौन-कौन है वह जन-गण-मन/ अधिनायक वह महाबली/ डरा हुआ मन बेमन जिसका/ बाजा रोज़ बजाता है।

वह भारत भाग्य विधाता इस देश की जनता है। क्या उसे जागी हुई जनता कहना चाहिए? जागने का मतलब आवेश और तैश नहीं है। अभी हम या तो खामोशी देखते हैं या भावावेश से। दोनों ही गलत हैं। सही क्या है, यह सोचने का समय आज है। आप सोचें कि 9 और 15 अगस्त की दो क्रांतियों का क्या हुआ।

अगस्त का यह महीना चालीस के दशक की तीन तारीखों के लिए खासतौर से याद किया जाता है। सन 1942 की 9 अगस्त से शुरू हुआ ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन 15 अगस्त 1945 को अपनी तार्किक परिणति पर पहुँचा था। भारत आज़ाद हुआ। 1942 से 1947 के बीच 1945 के अगस्त की दो तारीखें मानवता के इतिहास की क्रूरतम घटनाओं के लिए याद की जाती हैं। 6 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा शहर पर एटम बम गिराया गया। फिर भी जापान ने हार नहीं मानी तो 9 अगस्त को नगासाकी शहर पर बम गिराया गया। इन दो बमों ने विश्व युद्ध रोक दिया। इस साल दुनिया उस बमबारी की सत्तरवीं सालगिरह मना रही है।

Sunday, August 2, 2015

हम टाइगर और दाऊद को क्यों नहीं ला सकते?

याकूब मेमन की फाँसी के बाद क्या यह मान लें कि मुम्बई सीरियल बम धमाकों से जुड़े अपराधों पर अंतिम रूप से न्याय हो गया है? याकूब मेमन अब जीवित नहीं है, इसलिए इस मामले से जुड़े एक महत्वपूर्ण पात्र से अब भविष्य में पूछताछ सम्भव नहीं। हम अब इस मामले से जुड़े दूसरे महत्वपूर्ण अपराधियों को सज़ा देने की दिशा में क्या करेंगे? क्या हम टाइगर मेमन और दाऊद इब्राहीम को पकड़कर भारत ला सकेंगे? सन 1992-93 में हुए मुम्बई दंगों और उसके बाद के सीरियल धमाकों के बारे में हमारे देश के मीडिया में इतनी जानकारी भरी पड़ी है कि उसे एकसाथ पढ़ना और समझना मुश्किल काम है। फिर तमाम बातें हमारी जानकारी से बाहर हैं। तमाम भेद दाऊद इब्राहीम और टाइगर मेमन के पास हैं। हमें जो जानकारी है, वह सफेद और काले रंगों में है। यानी कुछ लोग साफ अपराधी हैं और कुछ लोग नहीं हैं। पर काफी ‘ग्रे’ बातें छिपी हुई हैं।

Sunday, July 26, 2015

यह गतिरोध किसका हित साधेगा?

देश की जनता विस्मय के साथ यह समझने की कोशिश कर रही है कि किस मुकाम पर आकर राष्ट्रीय-हित और पार्टी-हित एक दूसरे से अलग होते हैं और कहाँ दोनों एक होते हैं। मॉनसून सत्र के पहले चार दिन शोर-गुल में चले गए और लगता नहीं कि आने वाले दिनों में कुछ काम हो पाएगा। यह समझने की जरूरत भी है कि तकरीबन एक साल तक संसदीय मर्यादा कायम रहने और काम-काज सुचारु रहने के बाद भारतीय राजनीति अपनी पुरानी रंगत में वापस क्यों लौटी है? क्या कारण है कि मैं बेईमान तो तू डबल बेईमान जैसा तर्क राजनीतिक ढाल बनकर सामने आ रहा है?

Sunday, July 19, 2015

‘डायपर-छवि’ से क्या बाहर आ पाएंगे राहुल?

भारतीय राजनीति में इफ्तार पार्टी महत्वपूर्ण राजनीतिक गतिविधि के रूप में अपनी जगह बना चुकी है। इस लिहाज से सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी में मुलायम सिंह और लालू यादव का न जाना और राष्ट्रपति की इफ्तार पार्टी में नरेंद्र मोदी का न जाना बड़ी खबरें हैं। बनते-बिगड़ते रिश्तों और गोलबंदियों की झलक पिछले हफ्ते देखने को मिली। पर शुक्रवार को राहुल गांधी के नरेंद्र मोदी पर वार और भाजपा के पलटवार से अगले हफ्ते की राजनीति का आलम समझ में आने लगा है। साफ है कि कांग्रेस अबकी बार भाजपा पर पूरे वेग से प्रहार करेगी। पर अप्रत्याशित रूप से सरकार ने भी कांग्रेस पर भरपूर ताकत से पलटवार का फैसला किया है। इस लिहाज से संसद का यह सत्र रोचक होने वाला है।

Sunday, July 12, 2015

भारत-पाक पहल के किन्तु-परन्तु

नरेंद्र मोदी की मध्य एशिया  और रूस यात्रा के कई पहलू हैं।  पर इन सबके ऊपर भारी है भारत-पाकिस्तान बातचीत फिर से शुरू होने की खबर।  इधर यह खबर आई और उधऱ पाकिस्तान से खबर मिली है कि ज़की-उर-रहमान लखवी की आवाज़ का नमूना देना सम्भव नहीं होगा। यह बात उनके वकील ने कही है कि दुनिया में कहीं भी आवाज़ का नमूना देने की व्यवस्था नहीं है। भारत और पाकिस्तान में भी नहीं। पाकिस्तान सरकार के एक वरिष्ठ अभियोजक का कहना है कि सरकार अब अदालत के उस फैसले के खिलाफ अपील नहीं करेगी, जिसमें कहा गया था कि आवाज का प्रमाण देने का कानून नहीं है। शायद भारत से भी अब कुछ दूसरी किस्म की आवाज़ें उठेंगी। भारत-पाकिस्तान के बीच शब्दों का संग्राम इतनी तेजी से होता है कि बहुत सी समझदारी की बातें हो ही नहीं पातीं। हमारी दरिद्रता के कारणों में एक यह बात भी शामिल है कि हम बेतरह तैश में रहते हैं। बाहतर हो कि दोनों सरकारों को आपस में समझने का मौका दिया जाए। अभी दोनों प्रधानमंत्री अपने देशों में वापस भी नहीं पहुँचे हैं। बहरहाल रिश्ते सुधरने हैं तो इस बयानबाजी से कुछ नहीं होगा। अलबत्ता पिछले एक साल का घटनाक्रम रोचक है। दोनों तरफ की सरकारें जनता, मीडिया और राजनीति के दबाव में रहती हैं। लगता नहीं कि यह दबाव आसानी से कम हो जाएगा।

रूस के उफा शहर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच मुलाकात के बाद दोनों देशों के बीच संवाद फिर से शुरू होने जा रहा है। यह बात आश्वस्तिकारक है, पर इसके तमाम किन्तु-परन्तु भी हैं। यह भी साफ है कि यह फैसला अनायास नहीं हो गया। इसकी पृष्ठभूमि में कई महीने का होमवर्क और अनौपचारिक संवाद है, जो किसी न किसी स्तर पर चल रहा था। लम्बे अरसे बाद दोनों देशों के बीच पहली बार संगठित और नियोजित बातचीत हुई है, जिसका मंच विदेशी जमीन पर था। इसमें रूस और चीन की भूमिका भी थी।

Sunday, July 5, 2015

तकनीकी क्रांति की सौगात

नरेंद्र मोदी सरकार के ‘डिजिटल इंडिया’ कार्यक्रम की उपयोगिता पर राय देने के पहले यह जानकारी देना उपयोगी होगा कि सरकार प्राथमिक कृषि उत्पादों के लिए एक अखिल भारतीय इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग पोर्टल शुरू करने की कोशिश कर रही है। यह पोर्टल शुरू हुआ तो एक प्रकार से एक अखिल भारतीय मंडी या बाजार की स्थापना हो जाएगी, जिसमें किसान अपनी फसल देश के किसी भी इलाके के खरीदार को बेच सकेगा। ऐसे बाजार का संचालन तकनीक की मदद से सम्भव है। ऐसे बाजार की स्थापना के पहले सरकार को कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) कानून में बदलाव करना होगा।