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Sunday, October 11, 2015

'चुनाव ही चुनाव' का शोर भी ठीक नहीं

हम बेतहाशा चुनावबाजी के शिकार हैं। लगातार चुनाव के जुमले हम पर हावी हैं। इसे पूरी तरह दोषी न भी माने, पर राजनीति ने भी हमारे सामाजिक जीवन में जहर घोला है। दादरी कांड पर पहले तो नरेंद्र मोदी खामोश रहे, फिर बोले कि राजनेताओं के भाषणों पर ध्यान न दें। उनका मतलब क्या है पता नहीं, पर इतना जाहिर है कि चुनावी दौर के भाषणों के पीछे संजीदगी नहीं होती। केवल फायदा उठाने की इच्छा होती है। इस संजीदगी को खत्म करने में मोदी-पार्टी की बड़ी भूमिका है। पर ऐसा नहीं कि दूसरी पार्टियाँ सामाजिक अंतर्विरोधों का फायदा न उठाती हों। सामाजिक जीवन में जहर घोलने में इस चुनावबाजी की भी भूमिका है। भूमिका न भी हो तब भी सामाजिक शिक्षण विहीन राजनीति का इतना विस्तार क्या ठीक है?

Sunday, October 4, 2015

कालेधन के प्राण कहाँ बसते हैं?

कर अपवंचना रोकने या काले धन को सामने लाने की मुहिम केवल भारत की मुहिम नहीं है, बल्कि वैश्विक अभियान है। इसका उद्देश्य कराधान को सुनिश्चित और प्रभावी बनाना है। भारत सरकार ने देश में काला धन कानून लागू करने के पहले जो अनुपालन खिड़की छोड़ी थी उसका उत्साहवर्धक परिणाम सामने नहीं आया है। चूंकि इस योजना में माफी की व्यवस्था नहीं थी इसलिए बहुत अच्छे परिणामों की आशा भी नहीं थी। कुल मिलाकर 638 लोगों ने 3,770 करोड़ रुपए (58 करोड़ डॉलर) विदेशी संपत्ति की घोषणा की। यह राशि अनुमान से काफी कम है। हालांकि विदेश में जमा काले धन के बारे में कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है, लेकिन गैर-सरकारी अनुमान है कि यह राशि 466 अरब डॉलर से लेकर 1,400 अरब डॉलर तक हो सकती है। 

इस योजना के परिणामों को देखने से लगता है कि काले धन को सामने लाने की चालू कोशिशें ज्यादा सफल होने वाली नहीं हैं। इसके लिए कोई ज्यादा व्यावहारिक नीति अपनानी होगी। इस बार की योजना सन 1997 की माफी योजना जैसी नहीं थी, जिसमें जुर्माने और आपराधिक कार्रवाई से लोगों को मुक्त कर दिया गया था। उस योजना में सरकार को 10,000 करोड़ रुपए की प्राप्ति हुई थी। पर उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि भविष्य में माफी की कोई योजना शुरू नहीं की जाएगी। इसबार की योजना में जुर्माने की व्यवस्था भी थी। पश्चिमी देशों में इस प्रकार की योजनाओं का चलन हैं, जिनमें राजस्व बढ़ाने के तरीके शामिल होते हैं साथ ही ऐसी व्यवस्था होती है, जिससे अपनी आय स्वतः घोषित करने की प्रवृत्ति बढ़े।

Tuesday, September 22, 2015

नेताजी को लेकर इतनी ‘गोपनीयता’ ठीक नहीं


हो सकता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लेकर जो संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं वे निर्मूल साबित हों, पर यह बात समझ में नहीं आती कि सत्तर साल बाद अब वे कौन से रहस्य हैं जिनके सामने आने से हमारे रिश्ते दूसरे देशों से बिगड़ जाएंगे। पारदर्शिता का तकाजा है कि गोपनीयता के वर्ष तय होने चाहिए। तीस-चालीस या पचास साल क्या इतिहास पर पर्दा डालने के लिए काफी नहीं होते? यदि ऐसा रहा तो दुनिया का इतिहास लिखना मुश्किल हो जाएगा। दूसरी ओर अतिशय गोपनीयता कई तरह की अफवाहों को जन्म देती है, जो हमारे हित में नहीं है।

अब जब पश्चिम बंगाल सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत कर दिया है, भारत सरकार पर इस बात का दबाव बढ़ेगा कि वह अपनी फाइलों को भी गोपनीयता के दायरे से बाहर लाए। यह बात इसलिए जरूरी लगती है क्योंकि बंगाल की फाइलों की शुरुआती पड़ताल से यह संदेह पुख्ता हो रहा है कि नेताजी का निधन 18 अगस्त 1945 को हुआ भी था या नहीं। फाइलों के 12,744 पृष्ठ पढ़ने और उनका निहितार्थ समझने में समय लगेगा, पर राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि मैंने उसमें से कुछ फाइलें पढ़ीं। उन फाइलों के अनुसार 1945 के बाद नेताजी के जिंदा होने की बात सामने आई है।

Monday, September 7, 2015

नई संस्कृति का फूटता भांडा

शीना बोरा हत्याकांड को आप कई तरीकों से देख सकते हैं। इंद्राणी मुखर्जी के व्यक्तिगत रिश्तों से जुड़ी बातें लोगों का ध्यान सबसे ज्यादा खींच रही हैं। जबकि सबसे कम ध्यान उनपर जाना चाहिए। यह उनका व्यक्तिगत मामला है और इसे उछालने का हमें अधिकार नहीं है। यह केस एक सम्भावित हत्या तक केंद्रित हो तो इसका उस स्तर का महत्व है भी नहीं जितना दिखाया जा रहा है। पर इस सिलसिले में दो और बातें महत्वपूर्ण हैं। एक इस मामले की मीडिया कवरेज। दूसरे इस प्रकरण से जुड़े कारोबारी प्रसंग। इन दोनों को जोड़कर देखा जाए तो यह कहानी हमारी नई संस्कृति की पोल खोलती है।

Monday, August 24, 2015

पूर्व सैनिक अधीर क्यों हैं?

वन रैंक, वन पेंशन को लेकर विवाद अनावश्यक रूप से बढ़ता जा रहा है। सरकार को यदि इसे देना ही है तो देरी करने की जरूरत नहीं है। साथ ही पूर्व सैनिकों को भी थोड़ा धैर्य रखना चाहिए। जिस चीज के लिए वे तकरीबन चालीस साल से लड़ाई लड़ रहे हैं, उसे हासिल करने का जब मौका आया है तब कड़वाहट से क्या हासिल होगा? प्रधानमंत्री की इच्छा थी कि स्वतंत्रता दिवस के भाषण में इस घोषणा को शामिल किया जाए, पर अंतिम समय में सहमति नहीं हो पाई। यह बात पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने बताई है, जो इस मामले में मध्यस्थता कर रहे थे। यह तो जाहिर है कि सरकार के मन में इसे लागू करने की इच्छा है।

धरने पर बैठे पूर्व फौजियों ने पहले माना था कि वे अपने विरोध को ज्यादा नहीं बढ़ाएंगे लेकिन भूख हड़ताल पर बैठे लोगों ने आंदोलन वापस लेने से इंकार कर दिया। बल्कि क्रमिक अनशन को आमरण अनशन में बदल दिया। वे कहते हैं कि यह पैसे की लड़ाई नहीं है, बल्कि हमारे सम्मान का मामला है। इस बीच पूर्व सैनिकों के साथ दिल्ली पुलिस ने जो अभद्र व्यवहार किया, उसने आग में घी डालने का काम किया। हम इस तरह सैनिकों का सम्मान करते हैं? कह सकते हैं कि डेढ़ साल से सरकार क्या कर रही थी? पर ऐसा भी नहीं कि वह कन्नी काट रही है।

Sunday, August 9, 2015

कहाँ हो भारत भाग्य विधाता?

रघुवीर सहाय की कविता है :-

राष्ट्रगीत में भला कौन वह/ भारत भाग्य विधाता है/ फटा सुथन्ना पहने जिसका/ गुन हरचरना गाता है।

कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं :-

कौन-कौन है वह जन-गण-मन/ अधिनायक वह महाबली/ डरा हुआ मन बेमन जिसका/ बाजा रोज़ बजाता है।

वह भारत भाग्य विधाता इस देश की जनता है। क्या उसे जागी हुई जनता कहना चाहिए? जागने का मतलब आवेश और तैश नहीं है। अभी हम या तो खामोशी देखते हैं या भावावेश से। दोनों ही गलत हैं। सही क्या है, यह सोचने का समय आज है। आप सोचें कि 9 और 15 अगस्त की दो क्रांतियों का क्या हुआ।

अगस्त का यह महीना चालीस के दशक की तीन तारीखों के लिए खासतौर से याद किया जाता है। सन 1942 की 9 अगस्त से शुरू हुआ ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन 15 अगस्त 1945 को अपनी तार्किक परिणति पर पहुँचा था। भारत आज़ाद हुआ। 1942 से 1947 के बीच 1945 के अगस्त की दो तारीखें मानवता के इतिहास की क्रूरतम घटनाओं के लिए याद की जाती हैं। 6 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा शहर पर एटम बम गिराया गया। फिर भी जापान ने हार नहीं मानी तो 9 अगस्त को नगासाकी शहर पर बम गिराया गया। इन दो बमों ने विश्व युद्ध रोक दिया। इस साल दुनिया उस बमबारी की सत्तरवीं सालगिरह मना रही है।

Sunday, August 2, 2015

हम टाइगर और दाऊद को क्यों नहीं ला सकते?

याकूब मेमन की फाँसी के बाद क्या यह मान लें कि मुम्बई सीरियल बम धमाकों से जुड़े अपराधों पर अंतिम रूप से न्याय हो गया है? याकूब मेमन अब जीवित नहीं है, इसलिए इस मामले से जुड़े एक महत्वपूर्ण पात्र से अब भविष्य में पूछताछ सम्भव नहीं। हम अब इस मामले से जुड़े दूसरे महत्वपूर्ण अपराधियों को सज़ा देने की दिशा में क्या करेंगे? क्या हम टाइगर मेमन और दाऊद इब्राहीम को पकड़कर भारत ला सकेंगे? सन 1992-93 में हुए मुम्बई दंगों और उसके बाद के सीरियल धमाकों के बारे में हमारे देश के मीडिया में इतनी जानकारी भरी पड़ी है कि उसे एकसाथ पढ़ना और समझना मुश्किल काम है। फिर तमाम बातें हमारी जानकारी से बाहर हैं। तमाम भेद दाऊद इब्राहीम और टाइगर मेमन के पास हैं। हमें जो जानकारी है, वह सफेद और काले रंगों में है। यानी कुछ लोग साफ अपराधी हैं और कुछ लोग नहीं हैं। पर काफी ‘ग्रे’ बातें छिपी हुई हैं।

Sunday, July 26, 2015

यह गतिरोध किसका हित साधेगा?

देश की जनता विस्मय के साथ यह समझने की कोशिश कर रही है कि किस मुकाम पर आकर राष्ट्रीय-हित और पार्टी-हित एक दूसरे से अलग होते हैं और कहाँ दोनों एक होते हैं। मॉनसून सत्र के पहले चार दिन शोर-गुल में चले गए और लगता नहीं कि आने वाले दिनों में कुछ काम हो पाएगा। यह समझने की जरूरत भी है कि तकरीबन एक साल तक संसदीय मर्यादा कायम रहने और काम-काज सुचारु रहने के बाद भारतीय राजनीति अपनी पुरानी रंगत में वापस क्यों लौटी है? क्या कारण है कि मैं बेईमान तो तू डबल बेईमान जैसा तर्क राजनीतिक ढाल बनकर सामने आ रहा है?

Sunday, July 19, 2015

‘डायपर-छवि’ से क्या बाहर आ पाएंगे राहुल?

भारतीय राजनीति में इफ्तार पार्टी महत्वपूर्ण राजनीतिक गतिविधि के रूप में अपनी जगह बना चुकी है। इस लिहाज से सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी में मुलायम सिंह और लालू यादव का न जाना और राष्ट्रपति की इफ्तार पार्टी में नरेंद्र मोदी का न जाना बड़ी खबरें हैं। बनते-बिगड़ते रिश्तों और गोलबंदियों की झलक पिछले हफ्ते देखने को मिली। पर शुक्रवार को राहुल गांधी के नरेंद्र मोदी पर वार और भाजपा के पलटवार से अगले हफ्ते की राजनीति का आलम समझ में आने लगा है। साफ है कि कांग्रेस अबकी बार भाजपा पर पूरे वेग से प्रहार करेगी। पर अप्रत्याशित रूप से सरकार ने भी कांग्रेस पर भरपूर ताकत से पलटवार का फैसला किया है। इस लिहाज से संसद का यह सत्र रोचक होने वाला है।

Sunday, July 12, 2015

भारत-पाक पहल के किन्तु-परन्तु

नरेंद्र मोदी की मध्य एशिया  और रूस यात्रा के कई पहलू हैं।  पर इन सबके ऊपर भारी है भारत-पाकिस्तान बातचीत फिर से शुरू होने की खबर।  इधर यह खबर आई और उधऱ पाकिस्तान से खबर मिली है कि ज़की-उर-रहमान लखवी की आवाज़ का नमूना देना सम्भव नहीं होगा। यह बात उनके वकील ने कही है कि दुनिया में कहीं भी आवाज़ का नमूना देने की व्यवस्था नहीं है। भारत और पाकिस्तान में भी नहीं। पाकिस्तान सरकार के एक वरिष्ठ अभियोजक का कहना है कि सरकार अब अदालत के उस फैसले के खिलाफ अपील नहीं करेगी, जिसमें कहा गया था कि आवाज का प्रमाण देने का कानून नहीं है। शायद भारत से भी अब कुछ दूसरी किस्म की आवाज़ें उठेंगी। भारत-पाकिस्तान के बीच शब्दों का संग्राम इतनी तेजी से होता है कि बहुत सी समझदारी की बातें हो ही नहीं पातीं। हमारी दरिद्रता के कारणों में एक यह बात भी शामिल है कि हम बेतरह तैश में रहते हैं। बाहतर हो कि दोनों सरकारों को आपस में समझने का मौका दिया जाए। अभी दोनों प्रधानमंत्री अपने देशों में वापस भी नहीं पहुँचे हैं। बहरहाल रिश्ते सुधरने हैं तो इस बयानबाजी से कुछ नहीं होगा। अलबत्ता पिछले एक साल का घटनाक्रम रोचक है। दोनों तरफ की सरकारें जनता, मीडिया और राजनीति के दबाव में रहती हैं। लगता नहीं कि यह दबाव आसानी से कम हो जाएगा।

रूस के उफा शहर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच मुलाकात के बाद दोनों देशों के बीच संवाद फिर से शुरू होने जा रहा है। यह बात आश्वस्तिकारक है, पर इसके तमाम किन्तु-परन्तु भी हैं। यह भी साफ है कि यह फैसला अनायास नहीं हो गया। इसकी पृष्ठभूमि में कई महीने का होमवर्क और अनौपचारिक संवाद है, जो किसी न किसी स्तर पर चल रहा था। लम्बे अरसे बाद दोनों देशों के बीच पहली बार संगठित और नियोजित बातचीत हुई है, जिसका मंच विदेशी जमीन पर था। इसमें रूस और चीन की भूमिका भी थी।

Sunday, July 5, 2015

तकनीकी क्रांति की सौगात

नरेंद्र मोदी सरकार के ‘डिजिटल इंडिया’ कार्यक्रम की उपयोगिता पर राय देने के पहले यह जानकारी देना उपयोगी होगा कि सरकार प्राथमिक कृषि उत्पादों के लिए एक अखिल भारतीय इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग पोर्टल शुरू करने की कोशिश कर रही है। यह पोर्टल शुरू हुआ तो एक प्रकार से एक अखिल भारतीय मंडी या बाजार की स्थापना हो जाएगी, जिसमें किसान अपनी फसल देश के किसी भी इलाके के खरीदार को बेच सकेगा। ऐसे बाजार का संचालन तकनीक की मदद से सम्भव है। ऐसे बाजार की स्थापना के पहले सरकार को कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) कानून में बदलाव करना होगा।

Sunday, June 28, 2015

भारत को बदनाम करने की पाक-हड़बड़ी

पाकिस्तानी मीडिया में छह पेज का एक दस्तावेज प्रकाशित हुआ है, जो दरअसल ब्रिटेन की पुलिस के सामने दिया गया एक बयान है। इसमें मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट के वरिष्ठ नेता तारिक मीर ने स्वीकार किया है कि भारतीय खुफिया संगठन रॉ ने हमें पैसा दिया और हमारे कार्यकर्ताओं को हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी दी। यह दस्तावेज आज के इंडियन एक्सप्रेस में भी छपा है। इस दस्तावेज को जारी करने वाले ने इसके काफी हिस्सों को छिपाकर केवल कुछ हिस्से ही जारी किए हैं। इतना समझ में आता है कि ये दस्तावेज़ पाकिस्तान सरकार के इशारे पर जारी हुए हैं। इसके दो-तीन दिन पहले बीबीसी टीवी और वैब पर एक खबर प्रसारित हुई थी, जिसमें इसी आशय की जानकारी थी। पाकिस्तानी मीडिया में इस दस्तावेज के अलावा बैंक एकाउंट वगैरह की जानकारी भी छपी है। जब तक इन बातों की पुष्टि नहीं होती, यह कहना मुश्किल है कि जानकारियाँ सही हैं या नहीं। अलबत्ता पाकिस्तान सरकार अपने देश में लोगों को यह समझाने में कामयाब हो रही है कि भारतीय खुफिया संगठन उनके यहाँ गड़बड़ी फैलाने के लिए सक्रिय है। इससे उसके दो काम हो रहे हैं। एक तो भारत बदनाम हो रहा है और दूसरे एमक्यूएम की साख गिर रही है। अभी तक पाकिस्तान के खुफिया अभियानों की जानकारी ज्यादातर मिलती थी। इस बार भारत के बारे में जानकारी सामने आई है। फिलहाल वह पुष्ट नहीं है, पर यह समझने की जरूरत है कि ये बातें इस वक्त क्यों सामने आईं और बीबीसी ने इसे क्यों उठाया, जबकि जानकारियाँ पाकिस्तान सरकार ने उपलब्ध कराईं। बाद में उन आरोपों की पुष्टि नहीं हुई।

Sunday, June 21, 2015

कितना खिंचेगा ‘छोटा मोदी’ प्रकरण?

ललित मोदी प्रकरण ने कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी को अपनी राजनीति ताकत आजमाने का एक मौका दिया है। मोदी को पहली बार इन हालात से गुजरने का मौका मिला है, इसलिए पहले हफ्ते में कुछ अटपटे प्रसंगों के बाद पार्टी संगठन, सरकार और संघ तीनों की एकता कायम हो गई है। कांग्रेस के लिए यह मुँह माँगी मुराद थी, जिसका लाभ उसे तभी मिला माना जाएगा, जब या तो वह राजनीतिक स्तर पर इससे कुछ हासिल करे या संगठन स्तर पर। उसकी सफलता फिलहाल केवल इतनी बात पर निर्भर करेगी कि वह कितने समय तक इस प्रकरण से खेलती रहेगी। राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने गुरुवार को कहा कि अगर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया तो नरेंद्र मोदी के लिए संसद का सामना करना ‘नामुमकिन’ होगा। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने भी तकरीबन इसी आशय का वक्तव्य दिया है।

Sunday, June 14, 2015

विदेश नीति पर राजनीति नहीं

सामान्य धारणा है कि विदेश नीति और सुरक्षा से जुड़े सवालों को संकीर्ण राजनीति का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। विदेश नीति व्यापक फलक पर राष्ट्रीय हितों से जुड़ी होती है, उसका किसी एक पार्टी के हितों से लेना-देना नहीं होता। इसमें राजनीतिक नेतृत्व की सफलता या विफलता का फैसला जनता करती है, पर उसके लिए सही मौका और सही मंच होना चाहिए। यह बात मणिपुर में की गई फौजी कार्रवाई, पाकिस्तान के साथ चल रहे वाक्-युद्ध और भारत-चीन संवाद तथा अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को लेकर उठाए गए सवालों के कारण सामने आई है।  

Sunday, June 7, 2015

पूर्वोत्तर में अशनि संकेत

मणिपुर के चंदेल जिले में गुरुवार को भारतीय सेना की डोगरा के सैनिकों पर हुआ हमला कोई नया संकेत तो नहीं दे रहा है? पूर्वोत्तर में आतंकी गिरोह एकताबद्ध हो रहे हैं। क्या यह किसी के इशारे पर हो रहा है या हमने इस इलाके के बागी गुटों के साथ राजनीतिक-संवाद कायम करने में देरी कर दी है? नगालैंड में पिछले दो दशक से और मिजोरम में तीन दशक से महत्वपूर्ण गुटों के साथ समझौतों के कारण अपेक्षाकृत शांति चल रही है, पर हाल में एक महत्वपूर्ण गुट के साथ सम्पर्क टूटने और कुछ ग्रुपों के एक साथ आ जाने के कारण स्थिति बदली है। इसमें दो राय नहीं कि म्यांमार, नेपाल और बांग्लादेश में भारत-विरोधी गतिविधियों को हवा मिलती है। ऐसा इन देशों की सरकारों के कारण न होकर वहाँ की सुरक्षा व्यवस्था में बैठे भ्रष्टाचार के कारण भी है।

Sunday, May 31, 2015

दिल्ली दंगल से हासिल क्या हुआ?

तकरीबन दो हफ्ते की जद्दो-जहद के बाद दिल्ली में मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के बीच अधिकारियों का संग्राम अनिर्णीत है। दिल्ली सरकार ने विधान सभा का विशेष सत्र बुलाने, केंद्र की अधिसूचना को फाड़ने और उसके खिलाफ प्रस्ताव पास करने के बाद अंततः स्वीकार कर लिया कि वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति और तबादलों के फैसलों पर उप-राज्यपाल की अनुमति ली जाएगी। यदि एलजी और मुख्यमंत्री के बीच मतभेद होगा तो संस्तुति राष्ट्रपति को भेजी जाएगी। राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह से फैसला करेंगे। यानी कुल मिलाकर जैसा केंद्र सरकार कहेगी वैसा होगा। यह भी लगता है कि अंतिम फैसला आने तक केंद्रीय अधिसूचना जारी रहेगी।

Sunday, May 24, 2015

मोदी का पहला साल

इसे ज्यादातर लोग मोदी सरकार का पहला साल कहने के बजाय 'मोदी का पहला साल' कह रहे हैं। जो मोदी के बुनियादी आलोचक हैं या जो बुनियादी प्रशंसक हैं उनके नजरिए को अलग कर दें तो इस एक साल को 'टुकड़ों में अच्छा और टुकड़ों में खराब' कहा जा सकता है। मोदी के पहले एचडी देवेगौडा ऐसे प्रधानमंत्री थे , जिनके पास केन्द्र सरकार में काम करने का अनुभव नहीं था। देवेगौडा उतने शक्ति सम्पन्न नहीं थे, जितने मोदी हैं। मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने कुछ देशों की यात्रा भी की थी, पर पश्चिमी देशों में उनकी आलोचना होती थी। केवल चीन और जापान में उनका स्वागत हुआ था। पर प्रधानमंत्री के रूप से उन्हें वैदेशिक सम्बन्धों के मामले में ही सफलता ही मिली है। अभी उनकी सरकार के चार साल बाकी हैं। पहले साल में उन्होंने रक्षा खरीद के बाबत काफी बड़ा फैसले किए हैं। इतने बड़े फैसले पिछले दस साल में नहीं हुए थे। इसी तरह योजना आयोग को खत्म करने का बड़ा राजनीतिक फैसला किया। पार्टी संगठन में अमित शाह के मार्फत उनका पूरा नियंत्रण है। दूसरी ओर कुछ वरिष्ठ नेताओं का असंतोष भी जाहिर है।

मोदी सरकार का एक साल पूरा होने पर जितने जोशो-खरोश के साथ सरकारी समारोह होने वाले हैं, उतने ही जोशो-खरोश के साथ कांग्रेसी आरोप पत्र का इंतज़ार भी है। दोनों को देखने के बाद ही सामान्य पाठक को अपनी राय कायम करनी चाहिए। सरकार के कामकाज का एक साल ही पूरा हो रहा है, पर देखने वाले इसे ‘एक साल बनाम दस साल’ के रूप में देख रहे हैं। ज्यादातर मूल्यांकन व्यक्तिगत रूप से नरेंद्र मोदी तक केंद्रित हैं। पिछले एक साल को देखें तो निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि निराशा और नकारात्मकता का माहौल खत्म हुआ है। पॉलिसी पैरेलिसिस की जगह बड़े फैसलों की घड़ी आई है। हालांकि अर्थ-व्यवस्था में सुधार के संकेत हैं, पर सुधार अभी धीमा है। 

Sunday, May 17, 2015

चीन के साथ संवाद

नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा का महत्वपूर्ण पहलू है कुछ कठोर बातें जो विनम्रता से कही गईं हैं। भारत और चीन के बीच कड़वाहट के दो-तीन प्रमुख कारण हैं। एक है सीमा-विवाद। दूसरा है पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों में भारत की अनदेखी। तीसरे दक्षिण चीन तथा हिन्द महासागर में दोनों देशों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा। चौथा मसला अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का है। भारत लगातार  आतंकवाद को लेकर पाकिस्तानी भूमिका की शिकायत करता रहा है। संयोग से पश्चिम चीन के शेनजियांग प्रांत में इस्लामी कट्टरतावाद सिर उठा रहा है। चीन को इस मामले में व्यवहारिक कदम उठाने होंगे। पाकिस्तानी प्रेरणा से अफगानिस्तान में भी चीन अपनी भूमिका देखने लगा है। यह भूमिका केवल इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण तक सीमित नहीं है, बल्कि अफगान सरकार और तालिबान के बीच मध्यस्थता से भी जुड़ी है।   

Sunday, May 10, 2015

‘अन्याय’ हमारे भीतर है

सलमान खान मामले के बाद अपने संविधान की प्रस्तावना को एकबार फिर से पढ़ने की इच्छा है। इसके अनुसारः-
" हम भारत के लोग, ...समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए...इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
   सलमान खान को सज़ा सुनाए जाने से पहले बड़ी संख्या में लोगों का कहना था हमें अपनी न्याय-व्यवस्था पर पूरा भरोसा है। सज़ा घोषित होते ही उन्होंने कहा, हमारा विश्वास सही साबित हुआ। पर फौरन ज़मानत मिलते ही लोगों का विश्वास डोल गया। फेसबुक पर पनीले आदर्शों से प्रेरित लम्बी बातें फेंकने का सिलसिला शुरू हो गया। निष्कर्ष है कि गरीब के मुकाबले अमीर की जीत होती है। क्या इसे साबित करने की जरूरत है? न्याय-व्यवस्था से गहराई से वाकिफ सलमान के वकीलों ने अपनी योजना तैयार कर रखी थी। इस हुनर के कारण ही वे बड़े वकील हैं, जिसकी लम्बी फीस उन्हें मिलती है। व्यवस्था में जो उपचार सम्भव था, उन्होंने उसे हासिल किया। इसमें गलत क्या किया?

Sunday, May 3, 2015

तबाही का भ्रष्टाचार से भी नाता है

अथर्ववेद कहता है, "धरती माँ, जो कुछ भी तुमसे लूँगा, वह उतना ही होगा जितना तू फिर से पैदा कर सके। तेरी जीवन-शक्ति पर कभी आघात नहीं करूँगा।" मनु स्मृति कहती है, जब पाप बढ़ता है तो धरती काँपने लगती है। प्रकृति हमारी संरक्षक है, पर तभी तक जब तक हम उसका आदर करें। भूकम्प, बाढ़ और सूखा हमारे असंतुलित आचरण की परिणति हैं। अकुशल, अनुशासनहीन, अवैज्ञानिक और अंधविश्वासी समाज प्रकृति के कोप का शिकार बनता है। प्रकृति के करवट लेने से जीव-जगत पर संकट आता है, पर वह हमेशा इतना भयावह नहीं होता। भूकम्प को रोका नहीं जा सकता, पर उससे होने वाले नुकसान को सीमित किया जा सकता है।