फेंकू, लपकू, पप्पू
और चप्पू के इस दौर में संजीदा बातें मसखरी की शिकार हो रहीं हैं. चुनाव करीब आने के
साथ राजनीतिक ताकतों की रस्सा-कसी बढ़ रही है. वार और पलटवार के इस दौर में नरेन्द्र
मोदी के अमेरिकी वीज़ा प्रकरण ने ध्यान खींचा है. कैलीफोर्निया के ‘फोरेंसिक डाक्यूमेंट एक्जामिनर’ विभाग ने साफ किया कि चिट्ठी
पर दस्तखत असली हैं यानी ‘कट एंड पेस्ट’ नहीं हैं. कुछ सांसदों ने
कहा था कि इस पर हमारे दस्तखत नहीं हैं. सीताराम येचुरी का कहना था कि कट एंड पेस्ट
भी हो सकता है. इस चिट्ठी के अंतिम पन्ने पर सिर्फ दो दस्तखत हैं, बाकी 63 दस्तखत अलग
पन्नों पर हैं. इसलिए संदेह अस्वाभाविक नहीं. पर दस्तखतों के असली न होने की शिकायत
सिर्फ एक सांसद ने की थी. आम शिकायत यह है कि हमने तो कोई और चिट्ठी देखकर दस्तखत किए
थे, इस पर नहीं. यह मामला संसद के आगामी सत्र में उठाया जा सकता है.
नरेन्द्र मोदी भारत के ध्रुवीकारी नेताओं में सबसे आगे हैं, इसे मान लिया जाना चाहिए. उनका समर्थन और विरोध लगभग समान आक्रामक अंदाज़ में होता है. इस वजह से उन्हें ख़बरों में बने रहने के लिए अब कुछ नहीं करना पड़ता.
ख़बरों को उनकी तलाश रहती है. इसमें आक्रामक समर्थकों से ज़्यादा उनके आक्रामक विरोधियों की भूमिका होती है.
दूसरी बात यह कि उनसे जुड़ी हर बात घूम फिर कर सन 2002 पर जाती है. रॉयटर्स के रॉस कॉल्विन और श्रुति गोत्तीपति का पहला सवाल इसी से जुड़ा था. वे जानना चाहते थे कि नरेन्द्र मोदी को क्या घटनाक्रम पर कोई पछतावा है.
पिल्ले का रूपक
मोदी का वही जवाब था जो अब तक देते रहे हैं. उनका कहना था, "फ्रस्टेशन तब आएगा जब मैने कोई ग़लती की होगी. मैंने कुछ ग़लत किया ही नहीं."