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Wednesday, January 18, 2023

वैश्विक-घटनाक्रम में भारत की उत्साहवर्धक शुरुआत


 देस-परदेश

भारत की विदेश-नीति के लिहाज से साल की शुरुआत काफी उत्साहवर्धक है. जी-20 और शंघाई सहयोग संगठन की अध्यक्षता के कारण इस साल ऐसी गतिविधियाँ चलेंगी, जिनसे देश का महत्व रेखांकित होगा. इसकी शुरुआत वॉयस ऑफ ग्लोबल-साउथ समिट से हुई है, जिससे आने वाले समय की दिशा का पता लगता है.

यह भी सच है कि पिछले तीन-चार दशक के तेज विकास के बावजूद भारत अभी आर्थिक रूप से अमेरिका या चीन जैसा साधन-संपन्न नहीं है, फिर भी विकसित और विकासशील देशों के बीच सेतु के रूप में उसकी परंपरागत छवि काफी अच्छी है. सीमा पर तनाव के बावजूद भारत और चीन के बीच व्यापार 2022 में बढ़कर 135.98 अरब डॉलर के अबतक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया. इसमें भारत 100 अरब डॉलर से ज्यादा के घाटे में है.

चीन का विकल्प

यह घाटा फौरन दूर हो भी नहीं सकता, क्योंकि वैकल्पिक सप्लाई-चेन अभी तैयार नहीं हैं. कारोबारों को चलाए रखने के लिए हमें इस आयात की जरूरत है. पिछले चार दशक में विश्व की सप्लाई चेन का केंद्र चीन बना है. इसे बदलने में समय लगेगा. अब भारत समेत कुछ देश विकल्प बनने का प्रयास कर रहे हैं. देखते ही देखते दुनिया में मोबाइल फोन का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादन भारत में होने लगा है.

पहले अमेरिका और अब जापान ने चीन को सेमीकंडक्टर सप्लाई पर पाबंदी लगाई है. जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा की पिछले हफ्ते अमेरिका-यात्रा के दौरान चीन को घेरने की रणनीति दिखाई पड़ने लगी है. स्पेस, आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस, इलेक्ट्रिक वेहिकल्स, ऑटोमोबाइल्स, मेडिकल-उपकरणों, कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर शस्त्र-प्रणालियों तक में सेमीकंडक्टर महत्त्वपूर्ण हैं.

Wednesday, December 21, 2022

तवांग-प्रकरण और चीन की वैश्विक-राजनीति

 


देस-परदेश

गत 9 दिसंबर को तवांग के यांग्त्से क्षेत्र में हुई हिंसक भिड़ंत को भारत-चीन रिश्तों के अलावा वैश्विक-संदर्भों में भी देखने की जरूरत है. अक्तूबर के महीने में हुई चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस से दो संदेश निकल कर आए थे. एक, राष्ट्रपति शी चिनफिंग की निजी ताकत में इज़ाफा और उनके नेतृत्व में चीन की आक्रामक मुद्रा. दूसरी तरफ उसके सामने खड़ी मुसीबतें भी कम नहीं हैं, खासतौर से कोविड-19 वहाँ फिर से जाग गया है. 

पिछले साल फरवरी में रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद से विश्व-व्यवस्था को लेकर कुछ बुनियादी धारणाएं ध्वस्त हुई हैं. इनमें सबसे बड़ी धारणा यह थी कि अब देशों के बीच लड़ाइयों का ज़माना नहीं रहा. यूक्रेन के बाद ताइवान को लेकर चीनी गर्जन-तर्जन को देखते हुए सारे सिद्धांत बदल रहे हैं. दक्षिण चीन सागर में चीन संरा समुद्री कानून संधि का खुला उल्लंघन करके विश्व-व्यवस्था को चुनौती दे रहा है.

अभी तक माना जा रहा था कि जब दुनिया के सभी देशों का आपसी व्यापार एक-दूसरे से हो रहा है, तब युद्ध की स्थितियाँ बनेंगी नहीं, क्योंकि सब एक-दूसरे पर आश्रित हैं. एक विचार यह भी था कि जब पश्चिमी देशों के साथ चीन की अर्थव्यवस्था काफी जुड़ गई है, तब मार्केट-मुखी चीन इस व्यवस्था को तोड़ना नहीं चाहेगा. पर हो कुछ और रहा है.

एक गलतफहमी यह भी थी कि अमेरिका और पश्चिमी देशों की आर्थिक-पाबंदियों का तोड़ निकाल पाना किसी देश के बस की बात नहीं. उसे भी रूस ने ध्वस्त कर दिया है. परंपराएं टूट रही हैं, भरोसा खत्म हो रहा है. ऐसा लगता है कि जैसे बदहवासी का दौर है.

भारतीय दुविधा

इस लिहाज से भारत को भी अपनी विदेश और रक्षा-नीति पर विचार करना जरूरी हो गया है. आंतरिक राजनीति में जो भी कहा जाए, चीनी आक्रामकता का जवाब फौजी हमले से नहीं दिया जा सकता. इन बातों का निपटारा डिप्लोमैटिक तरीकों से ही होगा. अलबत्ता भारत को अपनी आर्थिक, सैनिक और राजनयिक-शक्ति को बढ़ाना और उसका समझदारी से इस्तेमाल करना होगा. साथ ही वैश्विक-समीकरणों को ठीक से समझना भी होगा.

तवांग-प्रकरण के साथ तीन परिघटनाओं पर ध्यान देने की जरूरत है. एक, भारत के अग्नि-5 मिसाइल का परीक्षण. दो, अमेरिका का रक्षा-बजट, जो 858 अरब डॉलर के साथ इतिहास का सबसे बड़ा सैनिक खर्च तो है ही, साथ ही उससे चीन से मुकाबले की प्रतिध्वनि आ रही है. तीसरी परिघटना है जापान की रक्षा-नीति में बड़ा बदलाव, जिसमें आने वाले समय के खतरनाक संकेत छिपे है.

चुनौतियाँ

यह सब रूस-यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में हो रहा है, जिसका अंत होता अभी दिखाई नहीं पड़ता. इन सब बातों के अलावा उत्तरी कोरिया और पश्चिम एशिया और अफ्रीकी देशों में सक्रिय अल कायदा, बोको हराम और इस्लामिक स्टेट जैसे अतिवादी समूहों की चुनौतियाँ भी हैं.

चीनी अर्थव्यवस्था का विस्तार अंततः उसकी भिड़ंत अमेरिका जैसी ताकतों से कराएगा ही साथ ही ऐसी ताकतों से भी कराएगा, जो वैधानिक-व्यवस्था के दायरे से बाहर हैं. इनमें समुद्री डाकुओं और संगठित अपराध का नेटवर्क शामिल है. थोड़ी देर के लिए लगता है कि दुनिया एकबार फिर से दो ध्रुवीय होने वाली है, पर अब यह आसान नहीं है. इसका कोई नया रूप ही बनेगा और इसमें भारत की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी.

विश्व-व्यवस्था

ज्यादा बड़ी समस्या वैश्विक-व्यवस्था यानी ग्लोबल ऑर्डर से जुड़ी है. आज की विश्व-व्यवस्था की अघोषित धुरी है अमेरिका और उसके पीछे खड़े पश्चिमी देश. इसकी शुरुआत पहले विश्व-युद्ध के बाद से हुई है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने लीग ऑफ नेशंस के मार्फत नई विश्व-व्यवस्था कायम करने का ठेका उठाया. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद गठित संयुक्त राष्ट्र और दूसरी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के पीछे अमेरिका है.

उसके पहले उन्नीसवीं सदी में एक और अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मुनरो ने अमेरिका के महाशक्ति बनने की घोषणा कर दी थी. बहरहाल बीसवीं सदी में अमेरिका और उसके साथ वैश्विक-थानेदार बने रहे. पर यह अनंतकाल तक नहीं चलेगा. और जरूरी नहीं कि उसी तौर-तरीके से चले जैसे अभी तक चला आ रहा था. इक्कीसवीं सदी में चीन की महत्वाकांक्षाएं उभर कर सामने आ रही हैं. पर यह राह सरल नहीं है. भारत को किसी का पिछलग्गू बनने के बजाय अपनी स्वतंत्र राह पर चलना है.

Saturday, December 10, 2022

हम कैसे वापस ले सकते हैं अपनी खोई ज़मीन?

 देस-परदेस


कश्मीर की पहेली-3

तीन किस्तों के लेख की दूसरी किस्त पढ़ें यहाँ

इस तरह उलझता गया कश्मीर का मसला

इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है कि हम अपनी खोई ज़मीन वापस कैसे लेंगे. सैनिक हस्तक्षेप आसान नहीं है और उससे जुड़े तमाम जोखिम हैं. बैकरूम डिप्लोमेसी अदृश्य होती है, पर कारगर भी होती है. पिछले 75 वर्षों में वैश्विक स्थिति और भारत की भूमिका में बड़ा बदलाव आया है. यह बात समस्या के समाधान में भूमिका निभाएगी.

पश्चिमी देशों को 1947-48 में डर था कि कहीं सोवियत संघ को अरब सागर तक का रास्ता हासिल नहीं हो जाए. अब उन्हें नज़र आ रहा है कि रूस से जिस रास्ते पर कब्जे का डर था, उसे तो चीन ने हथिया चुका है. शीतयुद्ध के कारण पश्चिमी खेमा हमारे खिलाफ था, पर आज हालात बदले हुए हैं.

चीनी पकड़

अगस्त 2010 में अमेरिका के सेंटर फॉर इंटरनेशनल पॉलिसी के डायरेक्टर सैलिग एस हैरिसन का न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख छपा, जिसमें बताया गया था कि पाकिस्तान अपने अधीन कश्मीर में चीनी सेना के लिए जगह बना रहा है. चीन के सात हजार से ग्यारह हजार फौजी वहाँ तैनात हैं. इस इलाके में सड़कें और सुरंगें बन रहीं हैं, जहाँ पाकिस्तानियों का प्रवेश भी प्रतिबंधित है. यह बात इसके बाद भारत के अखबारों में प्रमुखता से छपी.

चीन ने इस इलाके पर अपनी पकड़ बना ली है. समुद्री रास्ते से पाकिस्तान के ग्वादर नौसैनिक बेस तक चीनी पोत आने में 16 से 25 दिन लगते हैं. गिलगित से सड़क बनने पर यह रास्ता सिर्फ 48 घंटे का रह गया है. इसके अलावा रेल लाइन भी बिछाई जा रही है.

अगस्त 2020 की खबर थी कि कंगाली से जूझ रही तत्कालीन इमरान खान सरकार ने पीओके में रेल लाइन बनाने के लिए 6.8 अरब डॉलर (करीब 21 हजार करोड़ भारतीय रुपये) के बजट को मंजूरी दी. यह रेल लाइन सीपैक का हिस्सा है. साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, चीन ने इस्लामाबाद से शिनजियांग प्रांत के काशगर तक सड़क के एक हिस्से को आम लोगों के लिए खोल दिया है.

दशकों पुरानी परिकल्पना

पाकिस्तान और चीन के बीच आर्थिक गलियारे सीपैक की परिकल्पना 1950 के दशक में ही की गई थी, लेकिन वर्षों तक पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता रहने के कारण इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सका. बासठ की लड़ाई के एक साल बाद ही पाकिस्तान ने कश्मीर की 5,189 किमी जमीन चीन को सौंप दी.

इस जमीन से होकर चीन के शिनजियांग स्वायत्त क्षेत्र के काशगर शहर से लेकर पाकिस्तान के एबटाबाद तक एक सड़क बनाई गई, जिसे कराकोरम राजमार्ग कहा जाता है. कश्मीर अब सिर्फ भारत और पाकिस्तान के बीच का मसला नहीं है. चीन इसमें तीसरी पार्टी है. और इसीलिए 2019 में उसने 370 के मसले को सुरक्षा परिषद में उठाने की कोशिश की.

सिंगापुर से करार तोड़ा

पाकिस्तान ने सन 2007 में पोर्ट ऑफ सिंगापुर अथॉरिटी के साथ 40 साल तक ग्वादर बंदरगाह के प्रबंध का समझौता किया था. यह समझौता अचानक अक्टूबर 2012 में खत्म करके बंदरगाह चीन के हवाले कर दिया गया. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के गिलगित क्षेत्र में चीन ने सड़क बनाई है, जो उसके शिनजियांग प्रांत को पाकिस्तान से जोड़ती है. यह सड़क ग्वादर तक जाती है.

चीन को अरब सागर तक जाने का जमीनी रास्ता मिल गया है. चीन ने 2014 में इस आर्थिक गलियारे की आधिकारिक रूप से घोषणा की. इसके जरिए चीन ने पाकिस्तान में विभिन्न विकास कार्यों के लिए तब करीब 46 बिलियन डॉलर के निवेश की घोषणा की थी.

Thursday, December 8, 2022

इस तरह उलझता गया कश्मीर का मसला

 देस-परदेस

नेहरू, माउंटबेटन के चीफ ऑफ स्टाफ हेस्टिंग इज़्मे, माउंटबेटन और जिन्ना

कश्मीर की पहेली-2

तीन किस्तों के आलेख की पहली किस्त पढ़ें यहाँ

कैसे और कब होगी पाकिस्तानी कब्जे से ज़मीन की वापसी?

अविभाजित भारत में 562 देशी रजवाड़े थे. कश्मीर भी अंग्रेजी राज के अधीन था, पर उसकी स्थिति एक प्रत्यक्ष उपनिवेश जैसी थी और 15 अगस्त 1947 को वह भी स्वतंत्र हो गया. देशी रजवाड़ों के सामने विकल्प था कि वे भारत को चुनें या पाकिस्तान को.

देश को जिस भारत अधिनियम के तहत स्वतंत्रता मिली थी, उसकी मंशा थी कि कोई भी रियासत स्वतंत्र देश के रूप में न रहे. पर कश्मीर राज के मन में असमंजस था. इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के तहत 15 अगस्त 1947 को जम्मू कश्मीर पर भी अंग्रेज सरकार का आधिपत्य (सुज़रेंटी) समाप्त हो गया.

पाकिस्तान ने कश्मीर के महाराजा को कई तरह से मनाने का प्रयास किया कि वे पकिस्तान में विलय को स्वीकार कर लें. स्वतंत्रता के ठीक पहले जुलाई 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना ने महाराजा को पत्र लिखकर कहा कि उन्हें हर तरह की सुविधा दी जाएगी.

स्टैंडस्टिल समझौता

महाराजा ने भारत और पाकिस्तान के साथ ‘स्टैंडस्टिल समझौते’ की पेशकश की. यानी यथास्थिति बनी रहे. भारत ने इस पेशकश पर कोई फैसला नहीं किया, पर पाकिस्तान ने महाराजा की सरकार के साथ ‘स्टैंडस्टिल समझौता’ कर लिया. इसके बावजूद उसने समझौते का अनुपालन किया नहीं, बल्कि आगे जाकर कश्मीर की नाकेबंदी कर दी और वहाँ पाकिस्तान की ओर से जाने वाली रसद की आपूर्ति रुक गई.

अक्तूबर 1947 में पाकिस्तान सेना की छत्रछाया में कबायली हमलों के बाद 26 अक्तूबर को महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र पर दस्तखत कर दिए. एक दिन बाद दिन भारत के गवर्नर जनरल ने उसे मंजूर भी कर लिया. भारतीय सेना कश्मीर भेजी गई और करीब एक साल तक कश्मीर की लड़ाई चली. भारतीय सेना के हस्तक्षेप के बाद नवम्बर में पाकिस्तानी सेना भी आधिकारिक रूप से बाकायदा इस लड़ाई में शामिल हो गई.

इस सिलसिले में कुछ और बातों पर ध्यान देने की जरूरत है. 1.पुंछ में मुस्लिम आबादी ने बगावत की. 2.गिलगित-बल्तिस्तान में महाराजा की सेना ने बगावत की. सेना में ज्यादातर सैनिक मुसलमान थे और कमांडर अंग्रेज. 3.जम्मू में सांप्रदायिक हिंसा हुई और 4.कश्मीर के अलावा हैदराबाद और जूनागढ़ पर पाकिस्तान की नजरें थी.

Wednesday, December 7, 2022

कैसे और कब होगी पाकिस्तानी कब्जे से ज़मीन की वापसी?

 देस-परदेश

कश्मीर की पहेली-1

पाकिस्तान के नए सेनाध्यक्ष जनरल सैयद आसिम मुनीर ने पिछले शनिवार को कहा कि हमारी सेना पूरी ताक़त के साथ दुश्मन को जवाब देने के लिए तैयार है. पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष के तौर पर यह सामान्य बयान है, पर यह समझने की जरूरत है कि यह बयान क्यों दिया गया है. उन जटिलताओं को समझना चाहिए, जो जम्मू-कश्मीर विवाद से जुड़ी हैं.

गत 29 नवंबर को नया पद संभालने के बाद जनरल मुनीर पहली बार पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के दौरे पर आए थे. वहाँ जाकर उन्होंने कहा कि भारतीय नेतृत्व ने गिलगित-बल्तिस्तान और कश्मीर को लेकर हाल में ग़ैर-जिम्मेदाराना बयान दिए हैं, इसलिए मैं साफ़ करना चाहता हूं कि पाकिस्तान की सेना अपने इलाके के एक-एक इंच की रक्षा करने को तैयार है.

रक्षामंत्री का बयान

पहली नजर में यह बात पाकिस्तानी राजनीति के आंतरिक इस्तेमाल के लिए कही गई है. ऐसे बयान वहाँ से आते ही रहते हैं. यह भी माना जा सकता है कि यह बात हाल में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और सेना की नॉर्दर्न कमांड के अध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल उपेंद्र द्विवेदी के बयानों के जवाब में कही गई है.

उन वक्तव्यों से संदेश गया था कि शायद पाक-अधिकृत कश्मीर को वापस लेने के लिए भारत फौजी कार्रवाई करने का विचार कर रहा है. व्यावहारिक परिस्थितियों को देखते हुए नहीं लगता कि भारत का इरादा सैनिक कार्रवाई करने का है.

यूक्रेन-युद्ध से पैदा हुए घटनाचक्र से भी लगता नहीं कि भारत इस समय युद्ध का जोखिम मोल लेना चाहेगा. वह इस समय जी-20 का अध्यक्ष भी है, इसलिए वैश्विक-शांति को भंग करने की तोहमत भी भारत अपने ऊपर नहीं लेना चाहेगा. पर रक्षामंत्री का बयान भी निराधार नहीं है. उसके पीछे दो कारण नजर आते हैं. एक, डिप्लोमैटिक और दूसरा आंतरिक राजनीति से जुड़ा है.

ताकि सनद रहे

भारत इस बात को रेखांकित करना चाहता है कि कश्मीर विवाद का मतलब है, कश्मीर पर पाकिस्तानी कब्जा. हमें वह ज़मीन वापस चाहिए. यह भी लगता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में पीओके की वापसी को भी बीजेपी एक मुद्दा बना सकती है. 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी हुई थी. इस प्रक्रिया की सहज परिणति है शेष जमीन की वापसी.

गत 27 अक्टूबर को श्रीनगर में शौर्य दिवस के मौके पर रक्षामंत्री राजनाथ ने कहा था कि हमारी यात्रा उत्तर की दिशा में जारी है. हम पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को भूले नहीं हैं, बल्कि एक दिन उसे वापस हासिल करके रहेंगे. जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में सर्वांगीण विकास का लक्ष्य पीओके के हिस्से वाले गिलगित-बल्तिस्तान तक पहुंचने के बाद ही हासिल होगा.

Thursday, November 24, 2022

भारत को ही चलानी होगी आतंक-विरोधी वैश्विक मुहिम


 देस-परदेश

वैश्विक-आतंकवाद को लेकर हाल में भारत से जुड़ी कुछ गतिविधियों ने ध्यान खींचा है. भारत ने संरा सुरक्षा परिषद की आतंकवाद-रोधी समिति (सीटीसी) की दिल्ली तथा मुंबई में हुई बैठकों की मेजबानी की. इनके अलावा दिल्ली में गत 18-19 नवंबर को हुआ नो मनी फॉर टेरर सम्मेलन. दोनों कार्यक्रमों का उद्देश्य आतंकवाद के खिलाफ ढीली पड़ती वैश्विक मुहिम की तरफ दुनिया का ध्यान खींचना था. इनका एक निष्कर्ष यह भी है कि इसे तेज करने के लिए अब भारत को आगे आना होगा.

आगामी 15-16 दिसंबर को वैश्विक आतंकवाद विरोधी प्रयासों से जुड़ी चुनौतियों पर संरा सुरक्षा परिषद की एक विशेष ब्रीफिंग की मेजबानी भी भारत करेगा. भारत की पुरजोर कोशिश इस विषय को प्रासंगिक बनाए रखने में होनी चाहिए. बावजूद इसके कि दुनिया ने अब दूसरी तरफ देखना शुरू कर दिया है.

चीन की भूमिका

इस दौरान एक और घटना ऐसी हुई है, जिसपर ध्यान देने की जरूरत है. मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद के बेटे हाफिज तल्हा सईद को संरा सुरक्षा परिषद की प्रतिबंधित आतंकियों की सूची में डालने के प्रस्ताव पर चीन ने फिर रोक लगा दी है. इस मामले में पाकिस्तान को चीन सुरक्षा-कवच उपलब्ध कराता रहा है. पाकिस्तान से चलने वाले कई चरमपंथी संगठनों के कमांडरों को वैश्विक आतंकवादी ठहराए जाने कोशिशों को चीन ने बार-बार रोका है.

मुंबई हमले के संदर्भ में भारत का अनुभव रहा है कि आतंकवाद जैसे मसलों पर विश्व समुदाय की बातें बड़ी-बड़ी होती हैं, पर कार्रवाई करने का मौका जब आता है, तब सब हाथ खींच लेते हैं. काउंटर-टेरर संस्थाएं नख-दंत विहीन साबित हुई हैं. हाल में भारत ने इस बात को रेखांकित करने के लिए जो पहल की हैं, उनपर ध्यान देने की जरूरत है.

नो मनी फॉर टेरर

दिल्ली में हुए नो मनी फॉर टेरर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि जो देश आतंकवाद को बढ़ावा देते हैं, उन्हें इसकी क़ीमत चुकानी चाहिए. गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि अपनी पहचान छिपाने और कट्टरपंथी सामग्री फैलाने के लिए आतंकवादी डार्क नेट का इस्तेमाल कर रहे हैं. क्रिप्टोकरेंसी जैसी आभासी संपत्ति का उपयोग भी बढ़ रहा है.

नो मनी फॉर टेरर सम्मेलन पहली बार 2018 में पेरिस में हुआ था. उसके बाद 2019 में ऑस्ट्रेलिया में आयोजित किया गया था. भारत को इसकी मेजबानी 2020 में करनी थी, लेकिन महामारी के कारण इसे स्थगित कर दिया गया था. इस समूह का कोई स्थायी कार्यालय नहीं है. इसका सचिवालय भी भारत में स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है.