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Friday, August 27, 2021

काबुल-धमाके खतरे का संकेत


गुरुवार देर शाम काबुल के अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर हुए दो धमाकों में कम से कम 73 लोगों की मौत हो गई है और 140 लोग घायल हुए हैं। बीबीसी को यह जानकारी अफ़ग़ानिस्तान के स्वास्थ्य अधिकारी ने दी है। पेंटागन के मुताबिक़ इस हमले में 13 अमेरिकी सैनिक मारे गए हैं। 2011 के बाद अमेरिकी सैनिकों पर यह सबसे ख़तरनाक हमला है। विस्फोटों की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट समूह ने ली है। उन्होंने अपने टेलीग्राम चैनल के ज़रिए किया है कि एयरपोर्ट पर हुए हमले के पीछे इस्लामिक स्टेट खुरासान (आईएसके) का हाथ है।

प्राचीन खुरासान मध्य एशिया का एक ऐतिहासिक क्षेत्र था, जिसमें आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान और पूर्वी ईरान के बहुत से भाग शामिल थे। आधुनिक ईरान में ख़ोरासान नाम का एक प्रांत है, जो इस ऐतिहासिक खुरासान इलाक़े का केवल एक भाग है। इस इलाके में सक्रिय इस आतंकी संगठन को इस्लामिक स्टेट खुरासान कहा जाता है।

अफगानिस्तान में चल रहे जबर्दस्त राजनीतिक बदलाव के बीच इस परिघटना के निहितार्थ समझने की जरूरत है। हाल में इस्लामिक स्टेट ने तालिबान को अमेरिका का पिट्ठू बताया था। इस्लामिक स्टेट का कहना है कि अफगानिस्तान में तालिबान शरिया लागू नहीं कर पाएंगे। इसके पहले यह आरोप भी लगाया जाता रहा है कि इस्लामिक स्टेट को अमेरिका ने खड़ा किया है। बहरहाल अब कम से कम दो बातों पर विचार करने की जरूरत होगी। पहले, यह कि अफगानिस्तान से विदेशियों की निकासी पर इस घटना का क्या असर होगा। और दूसरे यह कि क्या तालिबान इस इलाके में स्थिरता कायम करने में सफल होंगे? और क्या वे इस क्षेत्र को आतंकी संगठनों का अभयारण्य बनने से रोक पाएंगे?

रॉयटर्स के अनुसार अमेरिका को अंदेशा है कि इस किस्म के हमले और हो सकते हैं। अमेरिकी सेना यहाँ से 31 अगस्त तक पूरी हट जाने की घोषणा कर चुकी है। दूसरी तरफ तालिबानी व्यवस्था अभी पूरी तरह लागू हो नहीं पाई है। बाजारों में सामान की कमी हो गई है। बैंक-व्यवस्था शुरू हुई है, पर अराजकता है। हजारों-लाखों लोग बेरोजगार हो चुके हैं। ऐसे में इस इलाके में एक और मानवीय त्रासदी खड़ी होने का खतरा है।

 

 

 

 

Thursday, August 26, 2021

तालिबान क्या टिकाऊ साबित होंगे?


तालिबान ने काबुल में प्रवेश जरूर कर लिया है, पर उनकी सरकार पूरी तरह बनी नहीं है। विदेशी सेना और नागरिकों की निकासी अधूरी है। दुनिया ने अभी तय नहीं किया है कि तालिबान-शासन को मान्यता दी जाए या नहीं। भारत से जुड़े मसले भी हैं, जिनपर अभी बात करने का मौका नहीं है, क्योंकि नई सरकार और उसकी नीतियाँ स्पष्ट नहीं हैं। फिलहाल तालिबानी-क्रांति के दूरगामी निहितार्थ को देखने की जरूरत है। 

वैश्विक-प्रतिक्रिया की वजह से तालिबान अपना चेहरा सौम्य बनाने की कोशिश कर रहे हैं। वे कितने सौम्य साबित होंगे, यह अब देखना है। इसके बाद क्या?  वे जो व्यवस्था बनाएंगे, उसमें नया क्या होगा? यह क्रांति तब हुई है, जब सऊदी अरब और खाड़ी के देश आधुनिकता की ओर बढ़ रहे है। क्या तालिबान पहिए को उल्टी दिशा में घुमाएंगे? लड़कियों की पढ़ाई और कामकाज में उनकी भागीदारी का क्या होगा? वैज्ञानिक शिक्षा, मनोरंजन और खेलकूद पर उनकी नीति क्या होगी?

पिछले बीस साल में अफगानिस्तान की करीब बीस फीसदी आबादी नई व्यवस्था की आदी हो गई है। नौजवान नई व्यवस्था में बड़े हुए हैं। तालिबान का क्या आधुनिक-व्यवस्था से मेल सम्भव है? क्या उनकी व्यवस्था टिकाऊ होगी? क्या वे दुनिया को कोई नया सामाजिक-आर्थिक मॉडल देने में सफल होंगे?  दूसरी तरफ सवाल यह भी है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देशों में भी क्या तालिबानी प्रवृत्तियाँ नहीं उभरेंगी?

Monday, August 23, 2021

अहमद मसूद क्या कर पाएंगे पंजशीर घाटी में तालिबान का मुकाबला?

 

अहमद शाह मसूद का बेटा अहमद मसूद
तालिबानी व्यवस्था अच्छी तरह पैर जमाने की कोशिश कर रही है, वहीं कुछ जगहों से प्रतिरोध की खबरें हैं। खासतौर से पंजशीर घाटी को लेकर अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है। तालिबान की तरफ से पहले कहा गया था कि अहमद वली मसूद ने हमसे हाथ मिला लिया है और वे प्रतिरोध नहीं करेंगे, पर आज सुबह खबर थी कि तालिबान ने काफी बड़ा दस्ता पंजशीर घाटी की ओर रवाना किया है।

आज दिन में खबर थी कि तालिबान ने नॉर्दर्न अलायंस के लोगों के हाथों से उन तीन जिलों को छुड़ा लिया है, जिनपर उन्होंने हफ्ते कब्जा कर लिया था। ये जिले हैं बागलान प्रांत के बानो, देह सालेह और पुल-ए-हेसार। तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्ला मुज़ाहिद ने ट्वीट किया कि हमारे सैनिक पंजशीर घाटी के पास बदख्शां, ताखर और अंदराब में जमा हो रहे हैं। दूसरी तरफ़ विरोधी ताक़तों ने तीन सौ तालिबानी लड़ाकों को मार गिराने का दावा किया है। तालिबान ने इस दावे को ग़लत बताया है।

समाचार एजेंसी एएफपी ने तालिबान की ओर से किए गए दावा के जानकारी देते हुए बताया है कि तालिबान के लड़ाके पंजशीर में आगे बढ़ रहे हैं। बीबीसी उर्दू सेवा ने तालिबान सूत्रों के हवाले से बताया है कि तालिबानी कमांडर कारी फ़सीहुद्दीन इन दस्तों का नेतृत्व कर रहे हैं।

उधर पंजशीर घाटी में अहमद मसूद के सैनिकों ने मोर्चेबंदी कर ली है। इसके एक दिन पहले तालिबान की अलमाराह सूचना सेवा ने दावा किया था कि सैनिकों तालिबानी सैनिक पंजशीर की ओर गए हैं। ज़बीउल्ला मुज़ाहिद ने दावा किया कि दक्षिणी अफगानिस्तान से उत्तर की ओर जाने वाले मुख्य हाईवे पर सलांग दर्रा खुला हुआ है और दुश्मन की सेना पंजशीर घाटी में घिरी हुई है। बहरहाल इस इलाके से किसी लड़ाई की खबर नहीं है।

Sunday, August 22, 2021

अफगानिस्तान में ‘प्रतिक्रांति’


हालांकि अफगानिस्तान में तालिबानी व्यवस्था पैर जमा चुकी है, वहीं देश के कई शहरों से प्रतिरोध की खबरें हैं। उधर अंतरिम व्यवस्था के लिए दोहा में बातचीत चल रही है, जिसमें तालिबान और पुरानी व्यवस्था से जुड़े नेता शामिल हैं। विश्व-व्यवस्था ने तालिबान-प्रशासन को मान्यता नहीं दी है। भारत ने कहा है कि जब लोकतांत्रिक-ब्लॉक कोई फैसला करेगा, तब हम भी निर्णय करेंगे। लोकतांत्रिक-ब्लॉक का अर्थ है अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जापान। डर है कि कहीं अफगानिस्तान से नए शीतयुद्ध की शुरुआत न हो।  

तालिबान अपने चेहरे को सौम्य बनाने का प्रयास कर रहे हैं, पर उनका यकीन नहीं किया जा सकता। वे वैश्विक-मान्यता चाहते हैं, पर दुनिया को मानवाधिकार की चिंता है। अफ़ग़ानिस्तान में पहले के मुक़ाबले ज़्यादा लड़कियाँ पढ़ने जा रही है,  नौकरी कर रही हैं। वे डॉक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक हैं। क्या तालिबान इन्हें बुर्का पहना कर दोबारा घर में बैठाएंगे? इस सवाल का जवाब कोई नहीं जानता। ऐसा लग रहा है कि बीस साल से ज्यादा समय तक लड़ाई लड़ने के बाद अमेरिका ने उसी तालिबान को सत्ता सौंप दी, जिसके विरुद्ध उसने लड़ाई लड़ी थी। देश के आधुनिकीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह एक झटके में खत्म हो गई है। खासतौर से स्त्रियाँ, अल्पसंख्यक, मानवाधिकार कार्यकर्ता और नई दृष्टि से देखने वाले नौजवान असमंजस में हैं।

सेना क्यों हारी?

पिछले बीस साल में अफगान सेना ने एयर-पावर, इंटेलिजेंस, लॉजिस्टिक्स, प्लानिंग और दूसरे महत्वपूर्ण मामलों में अमेरिकी समर्थन के सहारे काम करना सीखा था। अब उसी सेना की वापसी से वह बुरी तरह हतोत्साहित थी। राष्ट्रपति अशरफ ग़नी को उम्मीद थी कि बाइडेन कुछ भरोसा पैदा करेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। अमेरिकी सेना के साथ सहयोगी देशों के आठ हजार सैनिक और अठारह हजार ठेके के कर्मी भी चले गए, जिनसे अफगान सेना हवाई कार्रवाई और लॉजिस्टिक्स में मदद लेती थी। हाल के महीनों में अफगान सेना देश के दूर-दराज चौकियों तक खाद्य सामग्री और जरूरी चीजें भी नहीं पहुँचा पा रही थी। चूंकि कहानी साफ दिखाई पड़ रही थी, इसलिए उन्होंने निरुद्देश्य जान देने के बजाय हथियार डालने में ही भलाई समझी। मनोबल गिराने के बाद किसी सेना से लड़ाई की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

बाइडेन ने अफगान सेना की जो संख्या बताई, वह भी वह भी सही नहीं थी। वॉशिंगटन पोस्ट के अफगान पेपर्स प्रोजेक्ट में सेना और पुलिसकर्मियों की संख्या 3,52,000 दर्ज है, जबकि अफगान सरकार ने 2,54,000 की पुष्टि की। कमांडरों ने फर्जी सैनिकों की भरती कर ली और उन सैनिकों के हिस्से का वेतन मिल-बाँटकर खा लिया। इस भ्रष्टाचार को रोकने में अमेरिका ने दिलचस्पी नहीं दिखाई।

Saturday, August 21, 2021

भारतीय विदेश-नीति की विफलता

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने अफगानिस्तान के घटनाक्रम को लेकर भारतीय विदेश-नीति के बारे में कहा है कि कई साल से हम सबके मन में यह सवाल घुमड़ता रहा था कि क्या अफगानिस्तान लंबे समय से चले आ रहे संकट के दौर से निकल पाएगा और क्या वहां स्थिर सरकार देने की दिशा में किए जा रहे अथक प्रयास आगे भी जारी रहेंगे? यूपीए सरकार के दौरान हमने नए संसद भवन, स्कूलों-जैसे अहम संस्थानों के पुनर्निर्माण के अतिरिक्त सलमा बांध-जैसी विकास परियोजनाओं पर भारी धनराशि खर्च की। अब सब कुछ तालिबान के हाथ में है और लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करने के प्रयास छिन्न-भिन्न हो गए हैं। हम पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई जैसे अपने दोस्तों की खैरियत के लिए फिक्रमंद ही हो सकते हैं जो अपने परिवार के साथ, जिसमें छोटी-छोटी बच्चियां भी हैं, काबुल में ही रह रहे हैं। मैं मानकर चलता हूं कि सरकार ने हमारे नागरिकों के साथ-साथ भारत से दोस्ती निभाने वाले अफगानों को वहां से सुरक्षित निकालने के लिए पर्याप्त राजनीतिक उपाय बचाकर रखे होंगे।

Friday, August 20, 2021

अफगानिस्तान में ‘अमीरात’ और ‘गणतंत्र’ का फर्क

बाईं ओर गणतंत्र का और दाईं ओर अमीरात का ध्वज 

तालिबान-प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद ने घोषणा की है कि अफ़ग़ानिस्तान में चल रही जंग ख़त्म हो गई है, लेकिन किसी अज्ञात स्थान से जारी संदेश में उप-राष्ट्रपति अमीरुल्ला सालेह ने कहा है कि जंग अभी जारी है। इससे पहले, एक फ़्रांसीसी पत्रिका के लिए लिखे गए एक लेख में, शेर-ए-पंजशीर के नाम से मशहूर अफ़ग़ान नेता अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद ने अपने पिता के नक़्शे-क़दम पर तालिबान के ख़िलाफ़ 'जंग की घोषणा' कर दी है। ऐसी घोषणाएं हों या नहीं भी हों, जंग तो यों भी जारी रहेगी। यह जंग आधुनिकता और मध्ययुगीन-प्रवृत्तियों के बीच है।

हालांकि तालिबान ने गत 15 अगस्त को काबुल में प्रवेश कर लिया था, पर उन्होंने 19 अगस्त को अफगानिस्तान में इस्लामी अमीरात की स्थापना की घोषणा की। इस तारीख और इस घोषणा का प्रतीकात्मक महत्व है। 19 अगस्त अफगानिस्तान का राष्ट्रीय स्वतंत्रता है। 19 अगस्त, 1919 को एंग्लो-अफगान संधि के साथ अफगानिस्तान ब्रिटिश-दासता से मुक्त हुआ था। अंग्रेजों और अफगान सेनानियों के बीच तीसरे अफगान-युद्ध के बाद यह संधि हुई थी।

नाम नहीं काम

दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है इस्लामी अमीरात की घोषणा। अभी तक यह देश इस्लामी गणराज्य था, अब अमीरात हो गया। क्या फर्क पड़ा? केवल नाम की बात नहीं है। गणतंत्र का मतलब होता है, जहाँ राष्ट्राध्यक्ष जनता द्वारा चुना जाता है। अमीरात का मतलब है वह व्यवस्था, जिसमें अपारदर्शी तरीके से राष्ट्राध्यक्ष कुर्सी पर बैठते हैं। तालिबानी सूत्र संकेत दे रहे हैं कि अब कोई कौंसिल बनाई जाएगी, जो शासन करेगी और उसके सर्वोच्च नेता होंगे हैबतुल्‍ला अखूंदजदा।

कौन बनाएगा यह कौंसिल, कौन होंगे उसके सदस्य, क्या अफगानिस्तान की जनता से कोई पूछेगा कि क्या होना चाहिए? इन सवालों का अब कोई मतलब नहीं है। तालिबान की वर्तमान व्यवस्था बंदूक के जोर पर आई है। सारे सवालों का जवाब है बंदूक। यानी कि इसे बदलने के लिए भी बंदूक का सहारा लेने में कुछ गलत नहीं। इस बंदूक और अमेरिकी बंदूक में कोई बड़ा फर्क नहीं है, पर सिद्धांततः आधुनिक लोकतांत्रिक-व्यवस्था पारदर्शिता का दावा करती है। वह पारदर्शी है या नहीं, यह सवाल अलग है। 

पारदर्शिता को लेकर उस व्यवस्था से सवाल किए जा सकते हैं, तालिबानी व्यवस्था से नहीं। आधुनिक लोकतंत्रों में उसके लिए संस्थागत व्यवस्था है, जिसका क्रमशः विकास हो रहा। वह व्यवस्था सेक्युलर है यानी धार्मिक नियमों से मुक्त है। कम से कम सिद्धांततः मुक्त है। हमें नहीं पता कि अफगानिस्तान की नई न्याय-व्यस्था कैसी होगी। वर्तमान अदालतों का क्या होगा वगैरह। 

सन 1919 की आजादी के बाद अफगान-अमीरात की स्थापना हुई थी, जिसके अमीर या प्रमुख अमानुल्ला खां थे, जो अंग्रेजों के विरुद्ध चली लड़ाई के नेता भी थे। इन्हीं अमानुल्ला खां ने 1926 में स्वयं को पादशाह या बादशाह घोषित किया और देश का नया नाम अफगान बादशाहत (किंगडम) रखा गया। वह अफगानिस्तान 29 अगस्त 1946 को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना।

स्कर्टधारी लड़कियाँ

बीसवीं सदी के अफगानिस्तान पर नजर डालें, तो पाएंगे कि अपने शुरूआती वर्षों में यह देश अपेक्षाकृत आधुनिक और प्रगतिशील था। हाल में सोशल मीडिया पर पुराने अफगानिस्तान की एक तस्वीर वायरल हुई थी, जिसमें स्कर्ट पहने कुछ लड़कियाँ दिखाई पड़ती हैं। उस तस्वीर के सहारे यह बताने की कोशिश की गई थी कि देखो वह समाज कितना प्रगतिशील था।

इस तस्वीर पर एक सज्जन की प्रतिक्रिया थी कि छोटे कपड़े पहनना प्रगतिशीलता है, तो लड़कियों को नंगे घुमाना महान प्रगतिशीलता होगी। यह उनकी दृष्टि है, पर बात इतनी थी कि एक ऐसा समय था, जब अफगानिस्तान में लड़कियाँ स्कर्ट पहन सकती थीं। स्कर्ट भी शालीन लिबास है। बात नंगे घूमने की नहीं है। जब सामाजिक-वर्जनाएं इतनी कम होंगी, वहाँ नंगे घूमने पर भी आपत्ति नहीं होगी। दुनिया में आज भी कई जगह न्यूडिस्ट कैम्प लगते हैं।

शालीनता की परिभाषाएं सामाजिक-व्यवस्थाएं तय करती हैं, पर उसमें सर्वानुमति, सहमति और जबर्दस्ती के द्वंद्व का समाधान भी होना चाहिए। उसके पहले हमें आधुनिकता को परिभाषित करना होगा। बहरहाल विषयांतर से बचने के लिए बात को मैं अभी अफगानिस्तान पर ही सीमित रखना चाहूँगा। फिलहाल इतना ही कि तमाम तरह की जातीय विविधता और कबायली जीवन-शैली के बावजूद वहाँ कट्टरपंथी हवाएं नहीं चली थीं।

Thursday, August 19, 2021

कितना बदलाव आया है तालिबान में?

गायब होती औरत। बुशरा अलमुतवकील (यमन, जन्म 1969) का यह फोटो
कोलाज 'माँ-बेटी गुड़िया' हिजाब सीरीज-2010 की एक कृति है।
(साभार- म्यूजियम ऑफ फाइन आर्ट्स, बोस्टन) 
 Boushra Almutawakel (Yemen, b. 1969), Mother, Daughter, Doll
 from the Hijab series, 2010. (Courtesy Museum of Fine Arts, Boston)
यह बात बार-बार कही जा रही है कि तालिबान.1 यानी बीस साल पहले वाले तालिबान की तुलना में आज के यानी तालिबान.2 बदले हुए हैं। वे पहले जैसे तालिबान नहीं हैं। आज के इंडियन एक्सप्रेस में एमके भद्रकुमार ने लिखा है कि आज के तालिबान ने अफगानिस्तान के सभी समुदायों के बीच जगह बनाई है, उन्होंने पश्चिम और दोनों तरफ अपने वैदेशिक-रिश्ते बेहतर बनाए हैं और वे अपनी वैधानिकता को लेकर उत्सुक हैं। एमके भद्रकुमार पूर्व राजनयिक हैं और वे वर्तमान सरकार की विदेश-नीति से असहमति रखने वालों में शामिल हैं।

भद्रकुमार के अनुसार अफगानिस्तान में 1992 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सत्ता-परिवर्तन हुआ था, जो लम्बे समय तक चला नहीं। 1996 में अहमद शाह मसूद हटे और बगैर ज्यादा बड़े प्रतिरोध के तालिबान आए। इसबार भी करीब-करीब वैसा ही हो रहा है। अलबत्ता तीन तरह के अंतर दिखाई पड़ रहे हैं। पिछली बार के विपरीत इसबार राज-व्यवस्था बदस्तूर नजर आ रही है। इस बात का अंदाज तालिबान के नाटकीय संवाददाता सम्मेलन को देखने से लगता है।

दूसरे सत्ता का अंतिम रूप क्या होगा, इसका पता लगने में कुछ समय लगेगा। उसके पहले कोई अंतरिम व्यवस्था सामने आएगी। इसका मतलब है कि तालिबान सर्वानुमति को स्वीकार करेंगे।

तीसरे, पिछली दो बार के विपरीत इसबार अंतरराष्ट्रीय समुदाय, खासतौर से आसपास के देश, अंतरिम-व्यवस्था का निर्धारण कर रहे हैं। विजेता तालिबान राष्ट्रीय-सर्वानुमति की दिशा में विश्व-समुदाय की सलाह या निर्देश मानने को तैयार हैं। इस प्रकार से नए शीत-युद्ध का खतरा दूर हो रहा है और बड़ी ताकतें तालिबान को सकारात्मक तरीके से जोड़ पा रही हैं।

भद्रकुमार ने यह भी लिखा है कि भारत का अपने दूतावास को बंद करना समझ में नहीं आता है। भद्रकुमार का निष्कर्ष ऐसा क्यों है, पता नहीं। हमारा दूतावास बंद नहीं हुआ है, केवल स्टाफ वापस बुलाया गया है। बहरहाल वे लिखते हैं कि हमें नई अफगान नीति पर चलने का मौका मिला है, जो अमेरिकी संरक्षण से मुक्त हो। ऐसा शायद इसलिए है, क्योंकि सरकार की ज़ीरो सम दृष्टि है कि पाकिस्तानी जीत मायने भारत की हारपर यह भारत का परम्परागत नज़रिया नहीं है। हमें अफगान-राष्ट्र की अंतर्चेतना, परम्पराओं और संस्कृति तथा भारत के प्रति उनके स्नेह-भाव की जानकारी है।

तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने मुज़ाहिदीन-समूहों (पेशावर सेवन) के साथ फौरन सम्पर्क स्थापित किया था, गो कि वे जानते थे कि इनके पाकिस्तान के साथ करीबी रिश्ते हैं। यह कहना पर्याप्त है कि भारतीय बयानिया (नैरेटिव) में खामियाँ हैं। हम एक पुरानी स्ट्रैटेजिक-डैप्थ की अवधारणा से उलझे हुए हैं और मानते हैं कि तालिबान पाकिस्तानी व्यवस्था के हाथ का खिलौना हैं।

Wednesday, August 18, 2021

तालिबान-सरकार को क्या मान्यता मिलेगी?

तालिबान-प्रवक्ता जबीहुल्ला मुज़ाहिद 
अफगानिस्तान में तालिबान की स्थापना करीब-करीब पूरी हो चुकी है। अब दो सवाल हैं। क्या विश्व-समुदाय उन्हें मान्यता देगा?  इसी से जुड़ा दूसरा सवाल है कि भारत क्या करेगा?  आज के टाइम्स ऑफ इंडिया ने सरकारी सूत्र के हवाले से खबर दी है कि विश्व का लोकतांत्रिक-ब्लॉक जो फैसला करेगा भारत उसके साथ जाएगा। इसका मतलब है कि दुनिया में ब्लॉक बन चुके हैं और जिस शीतयुद्ध की बातें हो रही थीं, वह अफगानिस्तान में अब लड़ा जाएगा।

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच प्रतिद्वंद्विता तो है ही, पर ज्यादा बड़ा टकराव पश्चिमी देशों और रूस के बीच है। इसके अलावा अब चीन भी बड़ा दावेदार है और वह तालिबान के समर्थन में उतर आया है। सोवियत संघ ने 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर धावा बोला था। उसका सामना तब अफ़ग़ान मुजाहिदीन से हुआ था, जिन्हें अमेरिका, ब्रिटेन और पाकिस्तान का समर्थन हासिल था। पिछले दो दिन में तालिबान-विरोधी पुराना नॉर्दर्न अलायंस पंजशीर-प्रतिरोध के नाम से खड़ा हो गया है, जिसके नेता पूर्व उपराष्ट्रपति अमीरुल्ला सालेह हैं, जिनका कहना है कि राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति ही कार्यवाहक राष्ट्रपति होता है। अफगान सेना से जुड़े ताजिक मूल के काफी सैनिक इस समूह में शामिल हो गए हैं।

लोकतांत्रिक-ब्लॉक

सवाल है कि क्या लोकतांत्रिक-ब्लॉक पंजशीर-रेसिस्टेंस को उसी तरह मान्यता देगा, जिस तरह से नब्बे के दशक में बुरहानुद्दीन रब्बानी को मान्यता दी गई थी। ध्यान दें कि अफगानिस्तान में पंजशीर अकेला ऐसा क्षेत्र है, जो तालिबानी नियंत्रण के बाहर है और इस बात की उम्मीद नहीं कि तालिबान उसपर कब्जा कर पाएंगे। पश्चिमी पर्यवेक्षकों का विचार है कि अमेरिका ने गलती की। उसके 3000 सैनिक तालिबान को रोकने के लिए काफी थे। बहरहाल अगले कुछ दिन में तय होगा कि अफगानिस्तान में ऊँट किस करवट बैठने वाला है।

Tuesday, August 17, 2021

अफगान सेना ने इतनी आसानी से हार क्यों मानी?


पिछले महीने 8 जुलाई को एक अमेरिकी रिपोर्टर ने राष्ट्रपति जो बाइडेन से पूछा, क्या तालिबान का आना तय है? इसपर उन्होंने जवाब दिया, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। अफगानिस्तान के पास तीन लाख बहुत अच्छी तरह प्रशिक्षित और हथियारों से लैस सैनिक हैं। उनकी यह बात करीब एक महीने बाद न केवल पूरी तरह गलत साबित हुई, बल्कि इस तरह समर्पण दुनिया के सैनिक इतिहास की विस्मयकारी घटनाओं में से एक के रूप में दर्ज की जाएगी।  

अमेरिकी थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के विशेषज्ञ मैक्स बूट ने अपने अपने लेख में सवाल किया है कि अमेरिका सरकार ने करीब 83 अरब डॉलर खर्च करके जिस सेना को खड़ा किया था, वह ताश के पत्तों की तरह बिखर क्यों गई? उसने आगे बढ़ते तालिबानियों को रोका क्यों नहीं, उनसे लड़ाई क्यों नहीं लड़ी?

भारी हतोत्साह

बूट ने लिखा है कि इसका जवाब नेपोलियन बोनापार्ट की इस उक्ति में छिपा है, युद्ध में नैतिक और भौतिक के बीच का मुकाबला दस से एक का होता है। पिछले बीस साल में अफगान सेना ने एयर-पावर, इंटेलिजेंस, लॉजिस्टिक्स, प्लानिंग और दूसरे महत्वपूर्ण मामलों में अमेरिकी समर्थन के सहारे काम करना ही सीखा था और अमेरिकी सेना की वापसी के फैसले के कारण वह बुरी तरह हतोत्साहित थी। अफगान स्पेशल फोर्स के एक ऑफिसर ने वॉशिंगटन पोस्ट को बताया कि जब फरवरी 2020 में डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने तालिबान के साथ सेना वापस बुलाने के समझौते पर दस्तखत किए थे, तब अफगानिस्तान के अनेक लोगों के मान लिया कि अब अंत हो रहा है और अफगान सेना को विफल होने के लिए अमेरिका हमारे हाथों से अपना दामन छुड़ा रहा है।  

Monday, August 16, 2021

कौन हैं तालिबान

तालिबानी नेताओं के साथ बैठे मुल्ला अब्दुल ग़नी बारादर

अरबी शब्द तालिब का अर्थ है तलब रखने वाला, खोज करने वाला, जिज्ञासु या विद्यार्थी। अरबी में इसके दो बहुवचन हैं-तुल्लाब और तलबा। भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान में इसका बहुवचन तालिबान बन गया है। मोटा अर्थ है इस्लामी मदरसे के छात्र। अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान खुद को अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात का प्रतिनिधि कहते हैं। नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा था, उस दौर में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ने वाले मुजाहिदीन के कई गुट थे। इनमें सबसे बड़े समूह पश्तून इलाके से थे।

पश्तो-भाषी क्षेत्रों के मदरसों से निकले संगठित समूह की पहचान बनी तालिबान, जो 1994 के आसपास खबरों में आए। तालिबान को बनाने के आरोपों से पाकिस्तान इनकार करता रहा है, पर इसमें  संदेह नहीं कि शुरुआत में तालिबानी पाकिस्तान के मदरसों से निकले थे। इन्हें प्रोत्साहित करने के लिए सऊदी अरब ने धन मुहैया कराया। इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था। चूंकि सोवियत संघ के खिलाफ अभियान में अमेरिका भी शामिल हो गया, इसलिए उसने भी दूसरे मुजाहिदीन समूहों के साथ तालिबान को भी संसाधन, खासतौर से हथियार उपलब्ध कराए।

अफगानिस्तान से सोवियत संघ की वापसी के बाद भी लड़ाई चलती रही और अंततः 1996 में तालिबान काबुल पर काबिज हुए और 2001 तक सत्ता में रहे। इनके शुरुआती नेता मुल्ला उमर थे। सोवियत सैनिकों के जाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान के आम लोग मुजाहिदीन की ज्यादतियों और आपसी संघर्ष से परेशान थे इसलिए पहले पहल तालिबान का स्वागत किया गया। भ्रष्टाचार रोकने, अराजकता पर काबू पाने, सड़कों के निर्माण और कारोबारी ढांचे को तैयार करने और सुविधाएं मुहैया कराने में इनकी भूमिका थी।

तालिबान ने सज़ा देने के इस्लामिक तौर तरीकों को लागू किया। पुरुषों और स्त्रियों के पहनावे और आचार-व्यवहार के नियम बनाए गए। टेलीविजन, संगीत और सिनेमा पर पाबंदी और 10 साल से अधिक उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी गई। उस तालिबान सरकार को केवल सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान ने मान्यता दी थी। 11 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद दुनिया का ध्यान तालिबान पर गया।

अमेरिका पर हमले के मुख्य आरोपी ओसामा बिन लादेन को शरण देने का आरोप तालिबान पर लगा। अमेरिका ने तालिबान से लादेन को सौंपने की माँग की, जिसे तालिबान ने नहीं माना। इसके बाद 7 अक्टूबर, 2001 को अमेरिका के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय सैनिक गठबंधन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया और दिसंबर के पहले सप्ताह में तालिबान का शासन ख़त्म हो गया।

ओसामा बिन लादेन और तालिबान प्रमुख मुल्ला मोहम्मद उमर और उनके साथी अफ़ग़ानिस्तान से निकलने में कामयाब रहे। दोनों पाकिस्तान में छिपे रहे और एबटाबाद के एक मकान रह रहे लादेन को अमेरिकी कमांडो दस्ते ने 2 मई 2011 को हमला करके मार गिराया। इसके बाद अगस्त, 2015 में तालिबान ने स्वीकार किया कि उन्होंने मुल्ला उमर की मौत को दो साल से ज़्यादा समय तक ज़ाहिर नहीं होने दिया। मुल्ला उमर की मौत खराब स्वास्थ्य के कारण पाकिस्तान के एक अस्पताल में हुई थी।

तमाम दुश्वारियों के बावजूद तालिबान का अस्तित्व बना रहा और उसने धीरे-धीरे खुद को संगठित किया और अंततः सफलता हासिल की। उसे कहाँ से बल मिला, किसने उसकी सहायता की और उसके सूत्रधार कौन हैं, यह जानकारी धीरे-धीरे सामने आएगी। वर्तमान समय में तालिबान के चार शिखर नेताओं के नाम सामने आ रहे हैं, जो इस प्रकार हैं: 1.हिबतुल्‍ला अखुंदज़ादा, 2. मुल्ला बारादर, 3.सिराजुद्दीन हक्कानी और 4.मुल्ला याकूब, जो मुल्ला उमर का बेटा है। इनकी प्रशासनिक संरचना अब सामने आएगी। सत्ता किन तालिबान नेताओं के हाथ में आएगी? इस सवाल के जवाब में जिन दो नामों पर सबसे है ज़्यादा चर्चा है, वे हैं- मुल्ला अब्दुल ग़नी बारादर और हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा।

 

Saturday, August 14, 2021

अफगानिस्तान की तार्किक-परिणति क्या है?


तालिबान की लगातार जीत के बीच अफ़गानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने कहा है हम अफ़ग़ान लोगों पर ‘युद्ध नहीं थोपने’ देंगे। इस बात के कई मतलब निकाले जा सकते हैं। सबसे बड़ा मतलब यह है कि यदि लड़ाई रुकने की गारंटी हो तो अशरफ़ ग़नी अपने पद को छोड़कर किसी दूसरे को सत्ता सौंपने को तैयार हो सकते हैं।   

ग़नी ने कहा, हमने पिछले 20वर्षों में जो हासिल किया है, उसे अब खोने नहीं देंगे। हम अफ़गान लोगों की और हत्या नहीं होने देंगे और न सार्वजनिक संपत्ति को और नष्ट होने देंगे। उनका यह संदेश रिकॉर्डेड था। क्या वे काबुल में हैं या कहीं बाहर? उन्होंने कहा, मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि राष्ट्रपति के तौर पर मेरा ध्यान आगे लोगों की अस्थिरता, हिंसा और विस्थापन रोकने पर होगा।

उन्होंने यह भी कहा कि हम स्थिति को ठीक करने के लिए विचार-विमर्श कर रहे हैं। किससे विचार-विमर्श कर रहे हैं? स्थानीय नेताओं से। स्थानीय नेता क्या इतने समर्थ हैं कि तालिबानी उनकी बात सुनने को तैयार हो जाएंगे? क्या तालिबानी सत्ता में भागीदारी चाहते हैं?

माना जाता है कि तालिबानी इस व्यवस्था को नहीं चाहते, बल्कि शरिया के आधार पर अपनी व्यवस्था लागू करना चाहते हैं? देश की जनता क्या चाहती है? तालिबानी क्यों नहीं सत्ता में शामिल होकर चुनाव लड़ते? कुछ महीने पहले अशरफ़ ग़नी ने कहा था कि मैं इस्तीफा नहीं दूँगा, पर यदि तालिबानी चुनाव लड़ने को तैयार हो जाएं, तो मैं फौरन चुनाव के लिए तैयार हूँ। पर तालिबानी चुनाव की व्यवस्था चाहते ही नहीं।

ऐसा क्यों? यदि तालिबान को लगता है कि वे वर्तमान सरकार से ज्यादा लोकप्रिय हैं और देश की जनता शरिया की व्यवस्था चाहती है, तो उन्हें इस प्रकार के जनमत-संग्रह के लिए तैयार हो जाना चाहिए। क्या देश में ऐसे विषयों पर खुली बहस सम्भव है? कतर में तालिबान प्रवक्ता बार-बार कह रहे हैं कि हम पुराने तालिबान नहीं है, पर अफ़गानिस्तान से जो खबरें आ रहीं हैं, उनसे कुछ और पता लग रहा है। हाल में उन्होंने जिस इलाके पर कब्जा किया, वहाँ के एक बैंक में जाकर वहाँ काम कर रही महिला कर्मचारियों से कहा कि आप घर जाएं और दुबारा काम पर नहीं आएं।

अशरफ ग़नी इस्तीफा देने को तैयार नहीं


अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने शनिवार को देश को संबोधित किया और कहा कि मैं इस्तीफा नहीं दूँगा। इससे पहले सूत्रों के हवाले से खबर आई थी कि उन्होंने अपने इस्तीफे का संदेश रिकॉर्ड कर लिया है जो किसी भी वक्त जारी किया जा सकता है। फिलहाल हालात तालिबान के पक्ष में जाते नजर आ रहे हैं। इस बीच अशरफ ग़नी के नजदीकी सूत्रों का कहना है कि देश में शांति-स्थापना के लिए एक समझौते पर विचार किया जा रहा है। अशरफ ग़नी के पास क्या विकल्प हैं और वे किस तरह से काबुल को बचाएंगे, अभी यह समझ में नहीं आ रहा है। लगता है कि अमेरिका इस मामले में हस्तक्षेप करने को तैयार नहीं है। उधर दोहा में चल रही बातचीत किसी नतीजे के बगैर खत्म हो गई है।

अपने संबोधन में अशरफ गनी ने इस्तीफे का ऐलान नहीं किया। उन्होंने देश को संबोधित करते हुए कहा, 'एक राष्ट्रपति के रूप में मेरा ध्यान लोगों की अस्थिरता, हिंसा और विस्थापन को रोकने पर है।…मौजूदा समय में सुरक्षा और रक्षा बलों को दोबारा संगठित करना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है।'

अशरफ ग़नी ने कहा कि हत्याओं को बढ़ने से रोकने, बीते 20 सालों के हासिल को नुकसान से बचाने, विनाश और लगातार अस्थिरता को रोकने के लिए वह अफगानों पर थोपे गए युद्ध को मंजूरी नहीं देंगे। हम मौजूदा स्थिति को लेकर स्थानीय नेताओं और अंतरराष्ट्रीय भागीदारों से साथ परामर्श कर रहे हैं।

राष्ट्रपति ने अफगान नागरिकों और देश की रक्षा के लिए सेना को उनकी बहादुरी और बलिदान के लिए भी धन्यवाद दिया। उन्होंने लड़ाई में ANDSF का समर्थन करने के लिए देश को धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा कि देश के अंदर और बाहर दोनों जगह व्यापक विचार-विमर्श शुरू हो गया है ताकि आगे अस्थिरता, युद्ध, विनाश और हत्या को रोका जा सके। इन परामर्शों के नतीजे जल्द ही जनता से साझा किए जाएंगे।

Friday, August 13, 2021

तालिबान सत्ता में आए भी, तो मान्यता नहीं


अफगानिस्तान को लेकर कतर की राजधानी दोहा में दो दिन से चल रही अलग-अलग वार्ताएं भी पूरी हो गईं और उनका परिणाम विश्व-समुदाय की इस उम्मीद के रूप में सामने आया है कि प्रांतीय राजधानियों पर हो रहे हमले फौरन रोके जाएं और बातचीत के जरिए शांति-प्रक्रिया को बढ़ाया जाए। अमेरिका, चीन और कुछ दूसरे देशों के प्रतिनिधियों के बीच हुई वार्ता के बाद जारी बयान में कहा गया है कि अफगानिस्तान में ताकत के जोर पर बनाई गई सरकार को दुनिया का कोई भी देश मान्यता नहीं देगा। इस प्रक्रिया में अफगान सरकार और तालिबान-प्रतिनिधियों से बातचीत भी की गई। एक्सटेंडेड ट्रॉयका की इस बैठक में पाकिस्तान, ईयू और संरा प्रतिनिधि भी शामिल थे।

वार्ता के बाद जारी बयान में कहा गया है कि प्रांतीय राजधानियों पर हमलों और हिंसा को फौरन रोका जाना चाहिए। दोनों पक्षों को बैठकर राजनीतिक-समझौता करना चाहिए। इस वार्ता के दौरान और उसके अलावा बाहर भी अफगानिस्तान सरकार ने कहा है कि हम तालिबान सत्ता में भागीदारी के लिए तैयार हैं। वार्ता में शामिल विश्व-समुदाय के प्रतिनिधियों ने कहा है कि यदि दोनों पक्ष शांतिपूर्ण-समझौते पर राजी होंगे, तब देश के पुनर्निर्माण के लिए सहायता दी जाएगी।

उधर बीबीसी संवाददाता सिकंदर किरमानी ने तालिबान के अधीन-क्षेत्रों का दौरा करने के बाद लिखा है कि तालिबान ने कहा, अगर पश्चिमी संस्कृति नहीं छोड़ी, तो हमें उन्हें मारना होगा। किरमानी ने लिखा है, अंतरराष्ट्रीय सैनिकों की वापसी के बाद से तालिबान हर दिन नए क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर रहे हैं. लेकिन इन सबके बीच जो लोग सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, वो है यहाँ की आम जनता, जो काफ़ी डरी हुई है। हाल के सप्ताहों में लाखों आम अफ़ग़ान नागरिकों ने अपना घर छोड़ दिया है। सैकड़ों लोग या तो मारे गए हैं या घायल हुए हैं।

जर्मन रेडियो के अनुसार एक सुरक्षा सूत्र ने बताया कि पहाड़ियों से घिरी राजधानी काबुल में आने जाने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं। रॉयटर्स एजेंसी से इस सूत्र ने कहा, "इस बात का डर है कि खुदकुश हमलावर शहर के राजनयिक दफ्तरों वाले इलाकों में घुसकर हमला कर सकते हैं ताकि वे लोगों को डरा सकें और सुनिश्चित कर सकें कि जल्द से जल्द सारे लोग चले जाएं।” संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि पिछले एक महीने में एक हजार से ज्यादा आम नागरिकों की मौत हो चुकी है। रेड क्रॉस ने कहा है कि सिर्फ इस महीने में 4,042 घायल लोगों का 15 अस्पतालों में इलाज हुआ है।

Thursday, August 12, 2021

क्या तालिबान की वापसी होगी, अफगान-सरकार को गिरने देगा अमेरिका?

हेरात में तालिबान के खिलाफ तैयार इस्माइल खान के सैनिक  

लगातार तालिबानी बढ़त के बाद अफगान सरकार कुछ हरकत में आई है। उसने तालिबान को सरकार में शामिल होने का निमंत्रण दिया है। वहीं अमेरिकी इंटेलिजेंस के एक अधिकारी के हवाले से खबर है कि तीन महीने के भीतर काबुल सरकार गिर जाएगी। सवाल है कि क्या अमेरिका इस सरकार को गिरने देगा
?  दूसरा सवाल है कि साढ़े तीन लाख सैनिकों वाली अफगान सेना करीब 75 हजार सैनिकों वाली तालिबानी सेना से इतनी आसानी से पराजित क्यों हो रही है? अमेरिका कह रहा है कि तालिबान ने ताकत के जोर पर कब्जा किया तो हम उस सरकार को मान्यता नहीं देंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति ने दुनिया के देशों से अपील भी की है कि वे तालिबान को मान्यता नहीं दें, पर क्या ऐसा सम्भव है? क्या रूस, चीन और पाकिस्तान उसे देर-सबेर मान्यता नहीं देंगे? अशरफ ग़नी की सरकार को गिरने से अमेरिका कैसे रोकेगा और सरकार गिरी तो वह क्या कर लेगा?

अमेरिका ने जिस अफगान सेना को प्रशिक्षण देकर खड़ा किया है, उसके जनरल या तो भाग रहे हैं या तालिबान के सामने समर्पण कर रहे हैं। एक पुरानी रिपोर्ट के अनुसार तालिबान का सालाना बजट डेढ़ अरब डॉलर से ज्यादा का होता है। कहाँ से आता रहा है यह पैसा? बीबीसी के अनुसार तालिबान ने पिछले एक हफ़्ते में अफ़ग़ानिस्तान की 10 प्रांतीय राजधानियों को अपने कब्ज़े में ले लिया है। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार अमेरिकी ख़ुफ़िया रिपोर्ट में बताया गया है कि 90 दिनों के भीतर तालिबान काबुल को अपने नियंत्रण में ले सकता है। क्या तालिबान ऐसे ही आगे बढ़ता रहेगा और अफ़ग़ान सरकार तमाशबीन बनी रहेगी? क्या अफ़ग़ानिस्तान में अशरफ़ ग़नी सरकार को जाना होगा? पिछले बीस वर्षों में बड़ी संख्या में अफगान स्त्रियाँ पढ़-लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और शिक्षक बनी हैं, उनका क्या होगा? क्या देश फिर से उसी मध्ययुगीन अराजकता के दौर में लौट जाएगा? क्या वहाँ के नागरिक यही चाहते हैं?

कतर की राजधानी दोहा में आज गुरुवार 12 अगस्त को अमेरिका की पहल पर बैठक हो रही है, जिसमें भारत भी भाग ले रहा है। इसमें इंडोनेशिया और तुर्की भी शामिल हैं। इसके पहले मंगलवार को एक और बैठक हुई थी, जिसमें अमेरिका के अलावा चीन, पाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, ब्रिटेन, संरा और ईयू के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसके बाद बुधवार को रूसी पहले पर ट्रॉयका प्लस यानी चार-पक्षीय सम्मेलन हुआ। चीन, अमेरिका, रूस व पाकिस्तान से आए प्रतिनिधियों ने अफ़गानिस्तान की हालिया स्थिति पर विचार विमर्श किया और शांति-वार्ता के विभिन्न पक्षों से जल्द ही संघर्ष और हिंसा को खत्म कर मूलभूत मुद्दों पर समझौता संपन्न करने की अपील की।

क्या तालिबान मानेंगे?

बातचीत का क्रम जारी है, पर सवाल है कि क्या तालिबान किसी समझौते के लिए तैयार होंगे? इस बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा है कि तालिबान वर्तमान काबुल सरकार के साथ किसी प्रकार का समझौता करने को तैयार नहीं हैं। न्यूज़ चैनल अल-जज़ीरा से अफ़ग़ानिस्तान के गृहमंत्री ने कहा है कि तालिबान को हराने के लिए हमारी सरकार प्लान बी पर काम कर रही है।  गृहमंत्री जनरल अब्दुल सत्तार मिर्ज़ाकवाल ने बुधवार को अल-जज़ीरा से कहा कि तालिबान को पीछे धकेलने के लिए तीन स्तरीय योजना के तहत स्थानीय समूहों को हथियारबंद किया जा रहा है।

Wednesday, August 11, 2021

कुंदूज हवाई अड्डे और वहाँ खड़े एमआई-35 हेलीकॉप्टर पर तालिबान का कब्जा



तालिबान के बढ़ते हमलों को रोकने में नाकाम रहे अफ़ग़ानिस्तान की सेना के प्रमुख जनरल वली मोहम्मद अहमदज़ई को अब्दुल ग़नी सरकार ने बर्खास्‍त कर दिया है। उनकी जगह पर जनरल हैबतुल्‍ला अलीज़ई को अगला सेना प्रमुख नियुक्‍त किया गया है। जनरल वली को ऐसे समय पर बर्खास्‍त किया गया है जब तालिबान आतंकी देश के 65 फीसदी इलाके पर कब्जा कर चुके हैं। अफ़ग़ानिस्तान की एरियाना न्यूज़ ने सेना प्रमुख की बर्खास्तगी की पुष्टि की है। देश के वित्तमंत्री खालिद पायेंदा पहले ही इस्तीफा देकर देश छोड़ चुके हैं। तालिबान ने कुंदूज के हवाई अड्डे पर भी कब्जा कर लिया है, जहाँ खड़ा एक एमआई-35 अटैक हेलीकॉप्टर भी उनके कब्जे में चला गया है। यह हेलीकॉप्टर भारत ने अफगानिस्तान को उपहार में दिया था।  

 उधर दोहा में आज से तीन दिन की एक बैठक शुरू हुई है, जिसमें संरा, कतर, उज्बेकिस्तान और पाकिस्तान भाग ले रहे हैं। इसके अलावा आज ट्रॉयका की बैठक हो रही है, जिसमें रूस, चीन, अमेरिका सदस्य हैं। उनके अलावा इस बैठक में पाकिस्तान भी शामिल है।

इन तनावपूर्ण हालात में राष्‍ट्रपति अशरफ गनी मजार-ए-शरीफ के दौरे पर पहुंचे हैं जहां उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के बूढ़े शेर कहे जाने वाले अब्दुल रशीद दोस्तम से मुलाकात की है। तालिबान ने पहले ही देश के ग्रामीण इलाकों पर कब्जा कर लिया है और अब उसने शहरों पर कब्जा तेज कर दिया है। सुरक्षा बल तालिबानी हमलों के सामने बेबस नजर आ रहे हैं।

तालिबान के खिलाफ विफल क्यों हो रही है अफगानिस्तान की सेना?


पिछले कुछ दिनों में तालिबान ने अफगानिस्तान के सात सूबों की राजधानियों पर कब्जा कर लिया है। उत्तर में कुंदुज, सर-ए-पोल और तालोकान पर तालिबान ने कब्जा कर लिया। ये शहर अपने ही नाम के प्रांतों की राजधानियां हैं। दक्षिण में ईरान की सीमा से लगे निमरोज़ की राजधानी जरांज पर कब्जा कर लिया है। उज्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान सीमा से लगे नोवज्जान प्रांत की राजधानी शबरग़ान पर भी तालिबान का कब्जा हो गया है। मंगलवार की शाम को उत्तर के बागलान प्रांत की राजधानी पुल-ए-खुमरी पर तालिबान का कब्जा हो गया। ईयू के एक प्रवक्ता के अनुसार देश के 65% हिस्से पर या तो तालिबान का कब्जा है या उसके साथ लड़ाई चल रही है।

उधर खबरें यह भी हैं कि अफगान सुरक्षा बलों ने पिछले शुक्रवार को हेरात प्रांत के करुख जिले पर जवाबी कार्रवाई करते हुए फिर से कब्जा कर लिया। तालिबान ने पिछले एक महीने में हेरात प्रांत के एक दर्जन से अधिक जिलों पर कब्जा कर लिया था। हेरात में इस्माइल खान का ताकतवर कबीला सरकार के साथ है। उसने तालिबान को रोक रखा है। फराह प्रांत में अफगान वायुसेना ने तालिबान के ठिकानों पर बम गिराए। अमेरिका के बम वर्षक विमान बी-52 भी इन हवाई हमलों में अफगान सेना की मदद कर रहे हैं। तालिबान ने इन हवाई हमलों को लेकर कहा है, कि इनके माध्यम से आम अफगान लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। उधर अमेरिका का कहना है कि हमारा सैनिक अभियान 31 अगस्त को समाप्त हो जाएगा। उसके बाद देश की रक्षा करने की जिम्मेदारी अफगान सेना की है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि अफगानिस्तान के नेताओं को अपनी भूमि की रक्षा के लिए अब निकल कर आना चाहिए। 

हवाई हमलों के बावजूद तालिबान की रफ्तार थमी नहीं है। इस दौरान सवाल उठाया जा रहा है कि अफगान सेना तालिबान के मुकाबले लड़ क्यों नहीं पा रही है? कहा यह भी जा रहा है कि अमेरिकी सेना को कम से कम एक साल तक और अफगानिस्तान में रहना चाहिए था। कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि अमेरिकी सेना को हटना ही था, तो पहले देश में उन कबीलों के साथ मोर्चा बनाना चाहिए था, जो तालिबान के खिलाफ खड़े हैं।