Monday, July 31, 2023

गतिरोध की असंसदीय-परंपरा

जैसा कि अंदेशा था, संसद के मॉनसून सत्र का पहला हफ्ता शोरगुल और हंगामे की भेंट रहा। इस हंगामे या शोरगुल को क्या मानें, गैर-संसदीय या संसदीय? लंबे अरसे से संसद का हंगामा संसदीय-परंपराओं में शामिल हो गया है और उसे ही संसदीय-कर्म मान लिया गया है। गतिरोध को भी सकारात्मक माना जा सकता है, बशर्ते हालात उसके लिए उपयुक्त हों और जनता उसकी स्वीकृति देती हो। अवरोध लगाना भी राजनीतिक कर्म है, पर उसे सैद्धांतिक-आधार प्रदान करने की जरूरत है। यह कौन सी बात हुई कि सदन एक महत्वपूर्ण विधेयक पर विचार कर रहा है और बहुत से सदस्य हंगामा कर रहे हैं?  किसी मंत्री का महत्वपूर्ण विषय पर वक्तव्य हो रहा है और कुछ सदस्य शोर मचा रहे हैं।

बेशक विरोध व्यक्त करना जरूरी है, पर उसके तौर-तरीकों को परिभाषित करने की जरूरत है। जबसे संसदीय कार्यवाही का टीवी प्रसारण शुरू हुआ है, शोर बढ़ा है। शायद ही कोई इस बात पर ध्यान देता हो कि इस दौरान कौन से विधेयक किस तरह पास हुए, उनपर चर्चा में क्या बातें सामने आईं और सरकार ने उनका क्या जवाब दिया वगैरह। एक ज़माने में अखबारों में संसदीय प्रश्नोत्तर पर लंबे आइटम प्रकाशित हुआ करते थे। अब हंगामे का सबसे पहला शिकार प्रश्नोत्तर होते हैं। आने वाले हफ्तों की तस्वीर भी कुछ ऐसी ही रहने की संभावना है।

पीआरएस की वैबसाइट के अनुसार इस सत्र में अभी तक लोकसभा की उत्पादकता 15 प्रतिशत और राज्यसभा की 33 प्रतिशत रही। शुक्रवार को दोनों सदनों में हंगामा रहा और उसी माहौल में लोकसभा से तीन विधेयकों को भी पारित करवा लिया गया। इस हफ्ते कुल आठ विधेयक पास हुए हैं। गुरुवार को जन विश्वास बिल पास हुआ, जिससे कारोबारियों पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इससे कई कानूनों में बदलाव होगा और छोटी गड़बड़ी के मामले में सजा को कम कर दिया जाएगा। पर अब सारा ध्यान अविश्वास-प्रस्ताव पर केंद्रित होगा, जिसे इस हफ्ते कांग्रेस की ओर से रखा गया है। कहना मुश्किल है कि यह चर्चा विरोधी दलों के पक्ष में जाएगी या उनके पक्ष को कमज़ोर करेगी। जो भी होगा, वह अलग विषय है, पर देश की जनता को राजनीति से वितृष्णा नहीं होनी चाहिए।

लोकतांत्रिक गतिविधियों में दो सबसे महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिनके कारण यह व्यवस्था सफल है। एक, चुनाव और दूसरे संसदीय कर्म। जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और देश के सामने उपस्थित सवालों के जवाब खोजने में दोनों की जबर्दस्त भूमिका है। दुर्भाग्य से दोनों के सामने सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। चुनाव के दौरान सामाजिक-जीवन की विसंगतियाँ भड़काई जाने लगी हैं। लोकतंत्र की तमाम नकारात्मक भूमिकाएं उभर रहीं हैं। समाज को तोड़ने का काम चुनाव करने लगे हैं।

उधर संसदीय-कर्म को लेकर जो सवाल उभरे हैं, वे उससे भी ज्यादा निराश कर रहे हैं। संसदीय गतिरोधों के कारण जनता का विश्वास अपनी व्यवस्था पर से उठ रहा है। सामान्य नागरिक को समझ में नहीं आ रहा है कि इस सर्वोच्च लोकतांत्रिक मंच पर यह सब क्या होने लगा है? सवाल है कि यह सब क्यों होता है? इसके लिए जिम्मेदार सरकार है या विपक्ष? या समूची राजनीति, जिसे संसदीय कर्म की मर्यादा को लेकर किसी प्रकार की चिंता नहीं है?

सिद्धांततः सदन के संचालन की जिम्मेदारी सरकार की है। उसे सभी पक्षों के साथ बात करके इस बात पर सहमति बनानी चाहिए कि किन प्रश्नों पर, कितनी देर विचार होगा। संसद सभी राजनीतिक दलों को अपनी बात देश के सामने रखने का मौका देती है। सरकार की ओर से कहा जाता है कि विरोधी दल गतिरोध पैदा करते हैं।

सदन के संचालन के लिए पीठासीन अधिकारी के पास काफी अधिकार होते हैं। गतिरोध पैदा करने वाले सदस्यों को सदन से बाहर निकालने, यहाँ तक की उनकी सदस्यता निलंबित करने के अधिकार भी पीठासीन अधिकारी के पास हैं। हालात काबू से बाहर हो जाएं, तो इन अधिकारों का इस्तेमाल होना चाहिए। जनता तक गलत संदेश नहीं जाना चाहिए। राजनीति की भी मर्यादा है। उसे मजाक बनने से रोकें। सरकारी नीतियों पर सहमति और असहमति अपनी जगह है। लोकतांत्रिक मूल्यों और राष्ट्रीय हितों की रक्षा की जिम्मेदारी सभी दलों की है।

दुनियाभर की संसदीय परंपराओं ने गतिरोध की एक ‘फिलिबस्टरिंग’ की अवधारणा विकसित की है। इसे सकारात्मक गतिरोध कह सकते हैं। बहस को इतना लम्बा खींचा जाए कि उस पर कोई फ़ैसला ही न हो सके, या प्रतिरोध ज़ोरदार ढंग से दर्ज हो वगैरह। अपने देश में हमने देखा है कि कई राज्यों में जब बड़ी संख्या में विधायक एक पार्टी से टूटकर दूसरी में चले जाते हैं और सरकार के खिलाफ अविश्वास-प्रस्ताव लाए जाते हैं, तब बहस को लंबा खींचने की कोशिश की जाती है। उसके पीछे के कारण समझ में आते हैं, पर बहस होने ही नहीं देना, उचित संसदीय परंपरा नहीं।

यह भी सच है कि संख्या में कम विपक्ष हंगामे को अपना लोकतांत्रिक अधिकार समझता है। अल्पसंख्या में होने के कारण वह शोर के सहारे अपने अस्तित्व को बनाए रखना चाहता है। पर उसकी भी सीमा होनी चाहिए। सन 2015 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने जब कांग्रेस के 44 में से 25 सांसदों को निलंबित करने के लिए नियम 374ए का उपयोग किया, तब कहा गया था कि यह काफी कड़ा फैसला है। हालांकि इसके पहले भी बड़ी संख्या में निलंबन होते रहे थे। बहरहाल उसके बाद से प्रत्येक सत्र के पहले सर्वदलीय बैठक में कुछ सर्वानुमतियाँ बनती हैं और फिर वे टूटती रहती हैं। हमें संसदीय व्यवहार के सर्वमान्य नए मानक तय करने चाहिए। 

भारत में 2011 के दिसंबर महीने में लोकपाल विधेयक लोकसभा से पास होकर जब राज्यसभा में आया तब उस पर लम्बी बहस चली. रात के 12 बजने वाले थे। सदन का शीत सत्र उसी रात खत्म होने वाला था। विधेयक में 187 संशोधन पेश हो चुके थे। एक प्रकार से यह अनौपचारिक फिलिबस्टर ही था।

हमारी संसद में अकसर शोर-गुल होता है, सांसद सदन के फर्श पर बैठ कर पीठासीन अधिकारी के आस-पास नारे लगते हैं। माना जाता है कि शोर भी संसदीय कर्म है। बहस को लम्बा खींचने की फिलिबस्टर की पश्चिमी अवधारणा भारतीय संसदीय बहसों पर लागू नहीं होती। पन्द्रहवीं लोकसभा के अंतिम सत्र में पेपर स्प्रे का इस्तेमाल हुआ, किसी ने चाकू भी निकाला। टीवी पर प्रसारण रोकना पड़ा।

अंततः संसद विमर्श का फोरम है जिसके साथ विरोध-प्रदर्शन चलता है। पर संसद केवल विरोध प्रदर्शन का मंच नहीं है, बल्कि वह हमारे विमर्श का सर्वोच्च मंच है। 13 मई, 2012 को जब उसके 60 वर्ष पूरे हुए थे, तब उसकी एक विशेष सभा हुई। उस सभा में सांसदों ने आत्म-निरीक्षण किया। उन्होंने संसदीय गरिमा को बनाए रखने और कुछ सदस्यों के असंयमित व्यवहार पर और संसद का समय बर्बाद होने पर चिंता जताई और यह संकल्प किया था कि यह गरिमा बनाए रखेंगे। बहस के दौरान ऐसा मंतव्य व्यक्त किया गया कि हर साल कम से कम 100 बैठकें अवश्य हों। यह संकल्प उसके बाद न जाने कितनी बार टूटा है।

जन प्रतिनिधियों को आमने-सामने बैठकर ऐसे प्रश्नों पर विचार करना चाहिए और कुछ बातों पर आमराय बनानी चाहिए। देश की संसद विमर्श का सबसे ऊँचा फोरम है। उसकी मर्यादा और सम्मान बनी रहनी चाहिए और विमर्श की गुणवत्ता का स्तर भी ऊँचा बना रहना चाहिए। देश की जनता यही चाहती है।

कोलकाता के दैनिक वर्तमान में प्रकाशित

 

 

 

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