यह पहला मौका है, जब एमसीडी के चुनावों ने इतने बड़े स्तर पर देशभर का ध्यान अपनी ओर खींचा. वस्तुतः ये नगरपालिका चुनाव की तरह लड़े ही नहीं गए. इनका आयाम राष्ट्रीय था, प्रचार राष्ट्रीय और परिणामों की धमक भी राष्ट्रीय है. सहज रूप से नगर निगम के चुनाव में साज-सफाई और दूसरे नागरिक मसलों को हावी रहना चाहिए था. ऐसा होता तो बीजेपी के लिए जीतना मुश्किल होता, क्योंकि पिछले दस साल से उसका एमसीडी पर कब्जा होने के कारण जनता की नाराजगी स्वाभाविक थी. पर हुआ यह कि दस साल की एंटी इनकम्बैंसी के ताप से बीजेपी को ‘मोदी के जादू’ ने बचा लिया.
एमसीडी चुनाव की ज्यादा बड़ी खबर है आम आदमी पार्टी की पराजय. सन 2012 तक दिल्ली में बीजेपी और कांग्रेस ही दो प्रमुख दल थे. सन 2013 के अंतिम दिनों में हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी एक तीसरी ताकत के रूप में उभरी. पर वह नम्बर एक ताकत नहीं थी. सन 2015 में फिर से हुए चुनाव में वह अभूतपूर्व बहुमत के साथ सामने आई. उस विशाल बहुमत ने ‘आप’ को बजाय ताकत देने के कमजोर कर दिया. एक तरफ जनता के मन में अपेक्षाएं बढ़ी, वहीं पार्टी कार्यकर्ता के मन में सत्ता की मलाई खाने की भूख. पार्टी ने अपने विधायकों को पद देने के लिए 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति की. इससे एक तरफ कानूनी दिक्कतें बढ़ीं, वहीं पंजाब में पार्टी के भीतर मारा-मारी बढ़ी, जहाँ सत्ता मिलने की सम्भावनाएं बन रहीं थीं.
पार्टी को विश्वास था कि वह पंजाब और गोवा में चुनाव जीतेगी और दिल्ली में एमसीडी का चुनाव भी जीत लेगी, जिससे वह राष्ट्रीय स्तर पर ‘नई ताकत’ बनकर उभरेगी. ऐसा नहीं हुआ. इसके बाद राजौरी गार्डन विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में पार्टी के प्रत्याशी की जमानत जब्त हुई. इसके बाद एमसीडी के चुनाव में पराजय व्यक्तिगत रूप से अरविन्द केजरीवाल के लिए बुरी खबर लेकर आई है. इन परिणामों को इसीलिए दो तरीके से देख सकते हैं. मोदी की जीत और दूसरे अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी की हार.
काफी विश्लेषक मानते हैं कि एमसीडी में बीजेपी को काम की वजह से नहीं ‘मोदी के जादू’ की वजह से जीत मिली है. सवाल है कि इस जादू ने सन 2015 के विधानसभा चुनाव में काम नहीं किया, जबकि मोदी की अपील उस वक्त आज से कम नहीं थी? इसकी वजह यह है कि उस वक्त अरविन्द केजरीवाल की ‘नई राजनीति’ मोदी के जादू पर भारी पड़ रही थी. वोटर को समझ में आता था कि इन्हें भी एक मौका देकर देखना चाहिए. उसने इन्हें मौका दिया और दो साल तक इनके तौर-तरीकों को देखा. दिल्ली के उसी वोटर ने आज उसे जबर्दस्त झटका दिया है.
‘आप’ इस हार को स्वीकार करना नहीं चाहती. वह इसके लिए ईवीएम को दोष दे रही है. यह बात गले नहीं उतरती. आखिर 2015 के चुनाव में भी तो ईवीएम मशीनें थीं. पार्टी इसे मुद्दा बनाने जा रही है. इससे उसकी अलोकप्रियता बढ़ेगी. मतदान के दो-तीन दिन पहले अखबारों में प्रकाशित इंटरव्यू में केजरीवाल ने कहा था, ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हुई तो हमें 272 में 200 से ज्यादा सीटें मिलेंगी. परिणाम आने के पहले ही उन्होंने अपने अंदेशे को जाहिर करके अपनी कमजोरी को जाहिर कर दिया.
परिणाम आने के एक दिन पहले केजरीवाल का एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें उन्होंने कहा, ‘अब अगर हम बुधवार को हारते हैं... नतीजे वैसे ही रहते हैं जैसे कि बीती रात बताए गए हैं, तो हम ईंट से ईंट बजा देंगे... आम आदमी पार्टी आंदोलन की उपज है, इसलिए पार्टी वापस अपनी जड़ों की ओर लौटने से हिचकिचाएगी नहीं.’ पार्टी जिस स्वच्छ छवि और ‘नैतिक आभा मंडल’ के साथ दिल्ली में जीतकर आई थी, वही उसपर भारी पड़ा. नैतिकता और शुचिता की जो अपेक्षाएं वोटर ने उससे रखीं, वे पूरी नहीं हो पाईं. उसका दिल्ली से बाहर निकलकर राष्ट्रीय राजनीति में तेजी से हस्तक्षेप करना भी बचकाना साबित हुआ. समझ में नहीं आता कि अब वे किसकी ईंट बजाएंगे?
अब यह देखने की जरूरत है कि जिस संस्था के प्रशासन से बीजेपी खुद इतनी असंतुष्ट थी कि उसने अपने किसी भी पुराने पार्षद को टिकट नहीं दिया, उसमें इस गगन-भेदी विजय का मतलब क्या है? यह नीतियों की विजय है या मोदी-विरोध के तौर-तरीकों की पराजय? क्या यह बीजेपी के ‘उन्मादी राष्ट्रवाद’ की जीत है? क्या कश्मीर, पाकिस्तान और माओवादी हिंसा से नाराज जनता की प्रतिक्रिया है? क्या देश की जनता ‘लिबरल राजनीति’ से नाराज है? ऐसा नहीं, तो दूसरी क्या वजह है?
आम आदमी पार्टी के अलावा हमें कांग्रेस पर भी नजर डालनी होगी. दिल्ली ही नहीं दूसरे राज्यों के सीनियर नेता कांग्रेस छोड़कर बीजेपी की शरण ले रहे हैं. यह जहाज के डूबने का संदेश है. दिल्ली में पार्टी के सीनियर नेता नाराज हैं. पार्टी के एक पूर्व अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली एमसीडी चुनाव के ठीक पहले पार्टी छोड़कर बीजेपी में चले गए. चुनाव परिणाम आते ही सबसे पहले पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. अजय माकन राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं. अब कहा यही जाएगा कि एमसीडी की हार के लिए हाई कमान जिम्मेदार नहीं है, पर कब तक ऐसा कहा जाएगा?
एमसीडी के चुनाव में जीत के पीछे हाल में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को मिली जीत का हाथ भी है. इस जीत ने दिल्ली में पार्टी कार्यकर्ताओं के मन में उत्साह की लहर पैदा की है. मोदी सरकार को मिल रही भारी सफलता वोटर की ‘भारी अपेक्षाओं’ की निशानी भी है. बीजेपी-विरोधी अब एकजुट भी होंगे. राष्ट्रीय स्तर पर ‘इन्द्रधनुषी गठबंधन’ की बातें होने लगी हैं. इस साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधान सभाओं के चुनाव भी हैं. बीजेपी की यह सफलता इस साल के अंत में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधान सभा चुनाव पर भी असर डालेगी. फिलहाल ‘मूमेंटम’ उसके साथ है. inext में प्रकाशित
एमसीडी चुनाव की ज्यादा बड़ी खबर है आम आदमी पार्टी की पराजय. सन 2012 तक दिल्ली में बीजेपी और कांग्रेस ही दो प्रमुख दल थे. सन 2013 के अंतिम दिनों में हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी एक तीसरी ताकत के रूप में उभरी. पर वह नम्बर एक ताकत नहीं थी. सन 2015 में फिर से हुए चुनाव में वह अभूतपूर्व बहुमत के साथ सामने आई. उस विशाल बहुमत ने ‘आप’ को बजाय ताकत देने के कमजोर कर दिया. एक तरफ जनता के मन में अपेक्षाएं बढ़ी, वहीं पार्टी कार्यकर्ता के मन में सत्ता की मलाई खाने की भूख. पार्टी ने अपने विधायकों को पद देने के लिए 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति की. इससे एक तरफ कानूनी दिक्कतें बढ़ीं, वहीं पंजाब में पार्टी के भीतर मारा-मारी बढ़ी, जहाँ सत्ता मिलने की सम्भावनाएं बन रहीं थीं.
पार्टी को विश्वास था कि वह पंजाब और गोवा में चुनाव जीतेगी और दिल्ली में एमसीडी का चुनाव भी जीत लेगी, जिससे वह राष्ट्रीय स्तर पर ‘नई ताकत’ बनकर उभरेगी. ऐसा नहीं हुआ. इसके बाद राजौरी गार्डन विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में पार्टी के प्रत्याशी की जमानत जब्त हुई. इसके बाद एमसीडी के चुनाव में पराजय व्यक्तिगत रूप से अरविन्द केजरीवाल के लिए बुरी खबर लेकर आई है. इन परिणामों को इसीलिए दो तरीके से देख सकते हैं. मोदी की जीत और दूसरे अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी की हार.
काफी विश्लेषक मानते हैं कि एमसीडी में बीजेपी को काम की वजह से नहीं ‘मोदी के जादू’ की वजह से जीत मिली है. सवाल है कि इस जादू ने सन 2015 के विधानसभा चुनाव में काम नहीं किया, जबकि मोदी की अपील उस वक्त आज से कम नहीं थी? इसकी वजह यह है कि उस वक्त अरविन्द केजरीवाल की ‘नई राजनीति’ मोदी के जादू पर भारी पड़ रही थी. वोटर को समझ में आता था कि इन्हें भी एक मौका देकर देखना चाहिए. उसने इन्हें मौका दिया और दो साल तक इनके तौर-तरीकों को देखा. दिल्ली के उसी वोटर ने आज उसे जबर्दस्त झटका दिया है.
‘आप’ इस हार को स्वीकार करना नहीं चाहती. वह इसके लिए ईवीएम को दोष दे रही है. यह बात गले नहीं उतरती. आखिर 2015 के चुनाव में भी तो ईवीएम मशीनें थीं. पार्टी इसे मुद्दा बनाने जा रही है. इससे उसकी अलोकप्रियता बढ़ेगी. मतदान के दो-तीन दिन पहले अखबारों में प्रकाशित इंटरव्यू में केजरीवाल ने कहा था, ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हुई तो हमें 272 में 200 से ज्यादा सीटें मिलेंगी. परिणाम आने के पहले ही उन्होंने अपने अंदेशे को जाहिर करके अपनी कमजोरी को जाहिर कर दिया.
परिणाम आने के एक दिन पहले केजरीवाल का एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें उन्होंने कहा, ‘अब अगर हम बुधवार को हारते हैं... नतीजे वैसे ही रहते हैं जैसे कि बीती रात बताए गए हैं, तो हम ईंट से ईंट बजा देंगे... आम आदमी पार्टी आंदोलन की उपज है, इसलिए पार्टी वापस अपनी जड़ों की ओर लौटने से हिचकिचाएगी नहीं.’ पार्टी जिस स्वच्छ छवि और ‘नैतिक आभा मंडल’ के साथ दिल्ली में जीतकर आई थी, वही उसपर भारी पड़ा. नैतिकता और शुचिता की जो अपेक्षाएं वोटर ने उससे रखीं, वे पूरी नहीं हो पाईं. उसका दिल्ली से बाहर निकलकर राष्ट्रीय राजनीति में तेजी से हस्तक्षेप करना भी बचकाना साबित हुआ. समझ में नहीं आता कि अब वे किसकी ईंट बजाएंगे?
अब यह देखने की जरूरत है कि जिस संस्था के प्रशासन से बीजेपी खुद इतनी असंतुष्ट थी कि उसने अपने किसी भी पुराने पार्षद को टिकट नहीं दिया, उसमें इस गगन-भेदी विजय का मतलब क्या है? यह नीतियों की विजय है या मोदी-विरोध के तौर-तरीकों की पराजय? क्या यह बीजेपी के ‘उन्मादी राष्ट्रवाद’ की जीत है? क्या कश्मीर, पाकिस्तान और माओवादी हिंसा से नाराज जनता की प्रतिक्रिया है? क्या देश की जनता ‘लिबरल राजनीति’ से नाराज है? ऐसा नहीं, तो दूसरी क्या वजह है?
आम आदमी पार्टी के अलावा हमें कांग्रेस पर भी नजर डालनी होगी. दिल्ली ही नहीं दूसरे राज्यों के सीनियर नेता कांग्रेस छोड़कर बीजेपी की शरण ले रहे हैं. यह जहाज के डूबने का संदेश है. दिल्ली में पार्टी के सीनियर नेता नाराज हैं. पार्टी के एक पूर्व अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली एमसीडी चुनाव के ठीक पहले पार्टी छोड़कर बीजेपी में चले गए. चुनाव परिणाम आते ही सबसे पहले पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. अजय माकन राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं. अब कहा यही जाएगा कि एमसीडी की हार के लिए हाई कमान जिम्मेदार नहीं है, पर कब तक ऐसा कहा जाएगा?
एमसीडी के चुनाव में जीत के पीछे हाल में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को मिली जीत का हाथ भी है. इस जीत ने दिल्ली में पार्टी कार्यकर्ताओं के मन में उत्साह की लहर पैदा की है. मोदी सरकार को मिल रही भारी सफलता वोटर की ‘भारी अपेक्षाओं’ की निशानी भी है. बीजेपी-विरोधी अब एकजुट भी होंगे. राष्ट्रीय स्तर पर ‘इन्द्रधनुषी गठबंधन’ की बातें होने लगी हैं. इस साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधान सभाओं के चुनाव भी हैं. बीजेपी की यह सफलता इस साल के अंत में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधान सभा चुनाव पर भी असर डालेगी. फिलहाल ‘मूमेंटम’ उसके साथ है. inext में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment