Sunday, March 19, 2017

बैसाखियों पर कांग्रेस

गोवा और मणिपुर में कांग्रेस से भाजपा में आए विधायकों को पुरस्कार मिले हैं। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में भी मिलेंगे। दिग्विजय सिंह इसे खरीदना कहते हैं, पर भारतीय राजनीति में यह प्रक्रिया लम्बे अरसे से चल रही है। संयोग से कांग्रेस पार्टी ही इसकी प्रणेता है। देश की राजनीति के ज्यादातर मुहावरे उसके नाम हैं। गोवा में कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका गोवा फॉरवर्ड पार्टी ने दिया है। उसके तीन विधायक भाजपा सरकार के मंत्री बन गए हैं। तीनों कांग्रेस से आए हैं। तीनों के खिलाफ कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी खड़े नहीं किए थे, क्योंकि उसे लगता था कि चुनाव के बाद ये लोग काम आएंगे। ऐसा नहीं हुआ। यह बात केवल गोवा में ही नहीं देशभर में कांग्रेस की दुर्दशा को रेखांकित करती है।

कांग्रेस के महासचिव सीपी जोशी ने कहा है कि बीजेपी को रोकने के लिए अब कांग्रेस कुछ भी करेगी। उनका इशारा है कि पार्टी अब गठबंधनों का सहारा लेगी और कोशिश करेगी कि राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन खड़ा हो। क्या महागठबंधन मृत्यु-शैया पर पड़ी कांग्रेस को जीवनदान देगा? कांग्रेस की जरूरत क्या है बैसाखियाँ या पुनर्जीवन? हाल में फिर से यह माँग दबे-छिपे उठी है कि नेतृत्व में बदलाव होना चाहिए। इसकी पहल मणिशंकर अय्यर ने की है। इसके जवाब में पार्टी की प्रवक्ता सुष्मिता देव ने कहा, हम राहुल के नेतृत्व से खुश हैं। पार्टी के नेताओं को सुझाव देने हैं तो नेतृत्व को दें। कोई बदलाव नहीं चाहिए।
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी अब वही काम करने जा रही है, जो इसके पहले समाजवादी पार्टी ने किया था। दूसरे दलों को खत्म करके अपना विस्तार करना। उत्तराखंड में जब कांग्रेस से बड़ी संख्या में विधायक टूट कर भाजपा में आए थे, तब किसी ने नहीं सोचा था कि हवा का रुख बदल रहा है। बहरहाल चुनाव परिणाम आने के बाद सवाल शिद्दत के साथ फिर उठा है कि कांग्रेस का क्या होगा? परिणाम आने के बाद पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा, सच है कि यूपी और उत्तराखंड में हमारी हार हुई, लेकिन पंजाब, मणिपुर और गोवा में कांग्रेस बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है। जैसे एक व्यक्ति के जीवन में उतार-चढ़ाव आता है, ठीक वैसे ही पार्टियों के जीवन में भी होता है। अब समय आ चुका है कि जब कांग्रेस पार्टी में व्यापक स्तर पर सांगठनिक बदलाव की जरूरत है।
इसके पहले दिग्विजय सिंह ने कहा था कि समय की मांग को समझते हुए अब फैसले करने होंगे। पार्टी को अंदर और बाहर की समस्याओं पर गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है। पर वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने कहा, अब कुछ करने से क्या फायदा? जब करना था तब कुछ नहीं किया। वीरप्पा मोइली ने बड़ी सर्जरी और सत्ता के विकेंद्रीकरण की जरूरत बताई है। साथ में यह भी साफ किया कि यह बात सोनिया गांधी या राहुल गांधी पर लागू नहीं होती है। ज्यादा कड़वी प्रतिक्रिया पूर्व मंत्री किशोर चंद्र देव की है। उन्होंने कहा, राहुल गांधी को दर्जन भर लोगों के चंगुल से बाहर निकलना होगा। मुम्बई में प्रिया दत्त ने कहा, पार्टी ऑटो इम्यून बीमारी से ग्रस्त है। 
हालांकि राहुल गांधी केवल दो राज्यों में अपनी हार को स्वीकार कर रहे हैं, पर वास्तव में पाँचों राज्यों में पार्टी कमजोर धरातल पर आई है। सीटों के लिहाज से पंजाब में स्पष्ट बहुमत है और गोवा में सबसे बड़ी पार्टी, पर मत प्रतिशत के लिहाज से पाँचों राज्यों में गिरावट आई है। सबसे दयनीय दशा उत्तर प्रदेश की है, जहाँ उसके पास केवल सात सीटें हैं। पार्टी को केवल 6.3 फीसदी वोट मिले हैं, जो इतिहास का सबसे दयनीय प्रदर्शन है।
कांग्रेस का पराभव सन 2014 के लोकसभा चुनाव के छह महीने पहले से शुरू हो गया था। तबसे कांग्रेस अबतक त्रिपुरा, नगालैंड, दिल्ली, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, जम्मू-कश्मीर, असम और केरल हार चुकी है। उसे केवल अरुणाचल और पुदुच्चेरी में जीत मिली। अरुणाचल की जीत बाद में एक बड़े प्रहसन में तब्दील हो गई। अब इस साल के अंत में हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनाव होने वाले हैं। शायद हिमाचल का किला भी ढहेगा। वहाँ भी आंतरिक विद्रोह है। उसके एक साल बाद कर्नाटक की बारी है। तमिलनाडु में पार्टी डीएमके का साथ छोड़कर अद्रमुक के साथ जाने की तैयारी कर रही है। पता नहीं शशिकला की पार्टी भी बचेगी या नहीं।  
राहुल गांधी ने कहा है कि पार्टी में व्यापक स्तर पर सांगठनिक बदलाव होने चाहिए। कौन करेगा बदलाव? और कहाँ होगा बदलाव? वे खुद पार्टी अध्यक्ष का पद लेने को तैयार नहीं हैं। पार्टी के कुछ नेता प्रियंका को लाने की बात कर रहे हैं। पार्टी गांधी परिवार से बाहर न तो सोच सकती है और न इससे बाहर निकल सकती है। पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रकारांतर से राहुल पर उंगलियाँ उठाते हैं और फिर वापस भी उन्हीं पर आते हैं।
अक्तूबर 2014 में पी चिदंबरम ने कहा था कि सम्भव है कि भविष्य में नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता पार्टी अध्यक्ष बने। पर उन्होंने यह भी कहा कि यह सोनिया गांधी और राहुल को ही तय करना है। क्या पार्टी परिवार से बाहर के किसी नेता को मौका देने पर विचार कर रही है? पिछले साल असम में हार के बाद कई वरिष्ठ नेताओं ने संकेत किया था कि उस हार को टाला जा सकता था। हिमंत विश्व सरमा को बाहर जाने से रोकना चाहिए था। अहमद पटेल और दिग्विजय सिंह चाहते थे कि असम में गोगोई को हटाकर हिमंत विश्व सरमा को उनकी जगह लाया जाए। पर राहुल गांधी ने बात नहीं मानी। तरुण गोगोई अपने बेटे को बढ़ावा देना चाहते थे। बोडो हमारे साथ थे, उन्हें भी बीजेपी के पाले में जाने दिया गया। उत्तराखंड में इतने बड़े स्तर पर बगावत हुई और उसके कारणों को समझने की कोशिश नहीं की गई।
पार्टी में सुनवाई नहीं होती। यह शिकायत तमाम राज्यों के कार्यकर्ताओं को है। पिछले साल अरुणाचल से आए कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने इस बात को खुलकर कहा। पार्टी के भीतर बगावत की खबरें आने के बाद भी केन्द्रीय नेतृत्व बेफिक्र रहा। वहाँ के बागी विधायक करीब तीन हफ्ते तक दिल्ली में पड़े रहे, ताकि राहुल गांधी से उनकी मुलाकात हो जाए। मुलाकात नहीं हुई और बगावत अपनी तार्किक परिणति तक पहुँची और अरुणाचल कांग्रेस के हाथ से गया।
सन 2014 में लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद कांग्रेस ने कहा था कि हम 1977, 1989 और 1996 की पराजयों के बाद भी बाउंस बैक करके आए थे। फिर से वापस आएंगे। कब और कैसे वापस आएंगे भैया?  


हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. सहीं कहां अब कांग्रेस बैसाखियों के साहरे ही रह गई हैं। खुद कुछ करते नहीं दूसरो पर आरोप लगाते हैं , ऐसा आखिर कब तक चलता।

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