Monday, June 1, 2015

क्रॉसफायरिंग में फँसी नौकरशाही

आईएएस अधिकारियों के केंद्रीय सेवाओं से जुड़े संगठन ने पिछले हफ्ते 25 मई को अपनी बैठक करके दिल्ली प्रशासन से जुड़े कुछ अधिकारियों के साथ किए गए असम्मानजनक व्यवहार की निन्दा की है। एसोसिएशन का निवेदन है कि उन्हें अपने कार्य के निर्वाह के लिए स्वतंत्र, निष्पक्ष और सम्माननीय माहौल मिलना चाहिए। एसोसिएशन ने जिन तीन मसलों पर ध्यान दिलाया है उनमें से पहला मसला दिल्ली में उप-राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों के अधिकार को लेकर पैदा हुए भ्रम के कारण उपजा है। इस दौरान अफसरों की पोस्टिंग का सवाल ही नहीं खड़ा हुआ, अफसरों की ईमानदारी को लेकर राजनीतिक बयानबाज़ी भी हुई, जो साफ-साफ चरित्र हत्या थी।


हम अभी तक राजनीति में बे-सिर-पैर के आरोप लगते देखते रहे हैं। प्रशासनिक क्षेत्र अछूता था। पर अब इसमें भी सीमा को लांघ दिया गया। यह बात ज्यादा बड़ी चिंता का विषय है। दूसरा मसला है आईएएस काडर नियम 1954 का उल्लंघन और तीसरे सिविल सर्विसेज बोर्ड का गठन न हो पाना। आईएएस अधिकारियों की बैठकें होती रहती हैं और मसले उठते रहते हैं, पर इस बार बड़ी संख्या में अधिकारी मर्माहत हैं।

अधिकारियों ने राष्ट्रपति से गुहार की है, जो उनकी नियुक्ति करते हैं। उन्हें इस बात पर आपत्ति है कि आईएएस काडर के पदों पर गैर-काडर अधिकारियों की नियुक्ति की जा रही है, जो आईएएस काडर नियम 1954 का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट के अलावा कई राज्यों के हाईकोर्ट इस बात को रेखांकित कर चुके हैं कि ये नियम सांविधानिक व्यवस्था के अनुसार बने हैं और किसी भी राज्य सरकार को इनके साथ छेड़छाड़ का अधिकार नहीं है। शिकायत केवल दिल्ली की ही नहीं है। उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ से भी शिकायतें मिलीं हैं।

दिल्ली में अधिकारों का झगड़ा खड़ा ही न हो पाता यदि इस मसले को राष्ट्रपति के पास भेजने के बाद उनकी व्यवस्था की प्रतीक्षा की जाती। पर अंततः राष्ट्रपति की व्यवस्था का मतलब केंद्र सरकार की व्यवस्था है। वहाँ से व्यवस्था आने के बाद अगला मंच न्यायपालिका है, जो सांविधानिक व्यवस्था का सर्वोच्च मंच है। दिल्ली में विवाद का मूल विषय है इसका पूर्ण राज्य न होना। देश की राजधानी होने के नाते उसे पूर्ण राज्य बनाना बेहद मुश्किल और जोखिमों से भरा काम है।

देश की ज्यादातर समस्याओं का महा-संगम राजनीति में होता है। सांविधानिक मशीनरी में राजनीतिक वर्ग पर किसी का नियंत्रण नहीं है। यह बात तब नजर आई जब लोकपाल विधेयक के खिलाफ सारे राजनीतिक दल एक साथ आ गए थे। इसी तरह सीबीआई को स्वतंत्र बनाने में किसी भी राजनीतिक दल की दिलचस्पी नहीं है। आम आदमी पार्टी से जुड़े लोग तब इस बात को रेखांकित कर रहे थे। आज वे अपनी पार्टी बनाकर ले आए हैं और राजनीति को 'राजनीति' के रूप में ही आगे बढ़ा रहे हैं। या तो यह उनका दोष है या राजनीति की स्वाभाविक करवट है। 

पिछले बीसेक साल से दिल्ली में व्यवस्था चल ही रही थी। आज ये बुनियादी सवाल क्यों उठे? निश्चित रूप से इसके पीछे कोई राजनीति है। हमारी सांविधानिक व्यवस्था में जिसने भी चुनाव के चक्रव्यूह को पार कर लिया, वह महारथी है। इसी राजनीति के इर्द-गिर्द तमाम किस्म के न्यस्त-स्वार्थ विचरण करते हैं। राजनीति पर काबू पाने का एकमात्र तरीका चुनाव है। चुनाव पाँच साल बाद आते हैं। रोजमर्रा व्यवस्था को चलाने वाली नौकरशाही भी या तो इसी राजनीति के शिकंजे में है या उसका इससे गठजोड़ है। वह मुक्त होती तो शायद व्यवस्था बेहतर होती। उसे मुक्त कराना बेहद मुश्किल प्रतिज्ञा है।

दिल्ली में मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के बीच अधिकारों का विवाद व्यक्तिगत अहं की लड़ाई न होकर राजनीतिक संकट की एक झलक भर है। केंद्र सरकार की अधिसूचना हो या उसके खिलाफ दिल्ली विधान सभा का प्रस्ताव दोनों के राजनीतिक संदेश हैं। उप-राज्यपाल के साथ यदि केवल अहं की लड़ाई होती तो यह निपट गया होता। इसमें अंतर्निहित राजनीति भी एक हद तक ठीक थी, पर नौकरशाही पर मोर्चा खोलने से तस्वीर का बदनुमा चेहरा सामने आया है।

बेशक अधिकारों का विवाद सुप्रीम कोर्ट में आ जाने के बाद कुछ बातें स्पष्ट होंगी। इस बात की सांविधानिक-व्याख्या होगी कि प्रशासनिक सेवाओं पर किसका नियंत्रण है। पर इससे नौकरशाही के दुरुपयोग की शिकायत खत्म नहीं होने वाली है। दिल्ली में इधर जो कुछ हुआ, वह ज्यादातर राज्यों में होता रहता है। दिल्ली में मतभेद केवल इस बात पर है कि कुल्हाड़ी किसके हाथ में है।

लम्बे अरसे से देश की माँग है कि देश की सम्पूर्ण प्रशासनिक मशीनरी को अपने रास्ते पर चलने का मौका दिया जाए तभी व्यवस्था पटरी पर चलेगी। दिल्ली सरकार इस आधार पर अपने अधिकारों का सवाल उठा रही है कि उसके पास भारी जनादेश है। संयोग से इस पार्टी से जुड़े लोग चार साल पहले जनादेश प्राप्त सरकारों के खिलाफ झंडा बुलंद कर रहे थे और राजनीति को काजल की कोठरी साबित कर रहे थे।

प्रशासनिक व्यवस्था में तमाम दोष हैं और भ्रष्टाचार की नदी उसके बीच से ही बहती है। उसे ठीक करने का तरीका भी तो सोचना होगा। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन सा राजनीतिक दल सत्ता पर प्रभावी है। पर हमारे यहाँ राजनीतिक सत्ता का रंग बदलते ही प्रशासनिक शक्लो-सूरत बदल जाती हैं। जबकि काम व्यवस्था को करना था। यह भी सही है कि राजनीतिक सत्ता को अपने भरोसेमंद अफसर चाहिए, पर जिस तरह से एकमुश्त तबादले होते हैं, वे व्यवस्था की कमज़ोरी को बताते हैं। इसे रोकने के लिए बड़े स्तर पर प्रशासनिक सुधार की जरूरत है।

दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग के अनुसार, ‘समृद्धि और समानता हासिल करने की कोशिश में प्रशासन एक कमजोर कड़ी है।’ शायद प्रशासनिक सुधार के पहले हमें राजनीतिक सुधार भी चाहिए। दिल्ली में विवाद के पीछे असली कारण राजनीतिक हैं। राजनीतिक गोलाबारी में प्रशासनिक मशीनरी के घिर जाने के बाद हालात खराब हो गए हैं। सरकारी अफसर जनता के बीच से चुनकर नहीं आते, पर वे हमारी संविधानिक व्यवस्था का अंग हैं। उनके चयन, प्रशिक्षण और कार्य-संचालन की एक सुपरिभाषित प्रणाली है। उसमें कहीं कोई खामी है तो उसे प्रशासनिक तरीके से ही हल किया जाना चाहिए। राजनीतिक बयानबाज़ी और रैलियों का विषय इन्हें नहीं बनाया जाना चाहिए।

लगभग डेढ़ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में सिविल सेवा बोर्ड के गठन, अधिकारियों के कार्यकाल की सुरक्षा और लिखित रूप में दिशा-निर्देश देने का सुझाव दिया था। सिविल सेवा बोर्ड पारदर्शिता और मनमानी नियुक्तियों और तबादलों को रोकने के लिए बहुत जरूरी है। उनके कार्यकाल का निर्धारण इसलिए जरूरी है कि वे जिम्मेदारी के साथ काम करें और उसमें बेवजह सियासी दखल न होने पाए। लिखित रूप से दिशा-निर्देश पारदर्शिता के लिहाज से जरूरी हैं।

इस मामले में जनहित याचिका दायर करने वालों में पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम सहित 83 सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी और साथ में 3,000 अन्य व्यक्ति शामिल थे। नौकरशाही के कामकाज में आमूल सुधारों का सुझाव देते हुए न्यायाधीश के एस राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा था कि संसद को एक कानून बनाना चाहिए जो नौकरशाहों की नियुक्ति, तबादले तथा उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई का नियमन कर सके।

इन निर्देशों के बावजूद हरियाणा काडर के आईएएस अधिकारी अशोक खेमका का उनके 23 साल के सेवाकाल में छियालीस बार तबादला हो चुका है। शायद यह संख्या अब तक बढ़ चुकी हो। वे भी अकेले नहीं हैं। ऐसे अनुभवी अफसरों की भी एक सूची है। कर्नाटक काडर के एमएन विजय कुमार, तमिलनाडु काडर के यू सागायम, आंध्र प्रदेश काडर के पूनम मालाकोंडिहा और राजस्थान काडर की मुग्धा सिन्हा के क्रमशः सत्ताईस, बीस, छब्बीस और तेरह बार तबादले हो चुके हैं। कुछ नाम और भी होंगे। यह सूची क्या कहती है? कहीं कोई बात जरूर है। चाहे वह राजनीतिक हस्तक्षेप हो या इन अफसरों की कार्यशैली।

राजनीतिक सत्ता मानती है कि उसके पास जनादेश है। चुनाव जीत लेना राजनेता को कुछ भी करने का अधिकार देता है। बावजूद इसके कि चुनाव प्रणाली जनता की मनोकामनाओं को पूरी तरह व्यक्त नहीं करती। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के पास 70 में से 67 सीटें हैं। तकरीबन 95 फीसदी। पर उसे कुल पड़े वोटों के 54.3 फीसदी वोट ही मिले थे। तकरीबन 46 फीसदी वोट उसके साथ नहीं हैं, पर यह भारी जनादेश है। कौन जाने वोटर ने उन्हें किस उम्मीद से वोट दिया था। अपनी समस्याओं के समाधान लिए या सत्ता से जुड़ी पार्टी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए?

एक तरफ राजनीतिक नेतृत्व में दोष है, वहीं लगभग पूरे देश में उसने नौकरशाही से गठजोड़ कर लिया है। यह व्यवस्था यों भी कई तरह के गठजोड़ों से चलती है। अपराधी और दलाल भी राजनीतिक ताकत हैं। इनमें सबसे कमजोर कड़ी है प्रशासन, जो सबसे महत्वपूर्ण और व्यावहारिक कर्ता है। सारे काम प्रशासन के हाथों ही होते हैं। दिक्कत यह है कि इस प्रशासनिक प्रणाली को चुस्त-दुरुस्त और स्वतंत्र बनाने में कई किस्म के बखेड़े हैं।


पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम ने एक जगह लिखा है कि एक कार्यक्रम को सफल बनाने में शासन का महत्व पाँच प्रतिशत और क्रियान्वयन का 95 प्रतिशत होता है। नीतियों के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी उन सरकारी कर्मचारियों की होती है, जो स्थायी होते हैं। इसलिए नागरिक-सेवाओं की गुणवत्ता, उनके कामकाज और प्रभाव को लेकर प्रशासनिक सुधार के बारे में विचार करना चाहिए। पर दिल्ली में जिस तरह क्रॉसफायरिंग में नौकरशाही को फँसना पड़ा, वह संदेह बढ़ाता है, कम नहीं करता।  
राष्ट्रीय सहारा में सम्मेंपादन के साथ प्रकाशित

2 comments:

  1. प्रशासन को राजनैतिक दाँव पेचों से अलग ही रखा जाये

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  2. वाह ! बहुत सुन्दर

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