मुजफ्फरनगर की घटना के बाद कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। हिंसा में
मरने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। इसके घाव काफी गहरे हैं और काफी देर तक इस इलाके
को तकलीफ देते रहेंगे। ज्यादा भयावह है घर छोड़कर भागने वालों की बड़ी संख्या। चालीस-पचास
हजार या इससे भी ज्यादा लोगों को घरों से भागना पड़ा। वे वापस आ भी जाएंगे तो उनके
मन में गहरी दहशत होगी। जिस भाई-चारे और भरोसे के सहारे वे अपने को सुरक्षित पाते थे
वह खत्म हो गया है। यह भरोसा सामाजिक ताना-बाना प्रदान करता है। दुनिया की बड़ी से
बड़ी प्रशासनिक मशीनरी इसकी गारंटी नहीं दे सकती। आग प्रशासनिक नासमझी से लगी और राजनीतिक
स्वार्थों ने इसे भड़काया। इसे ठीक करने की जिम्मेदारी इन दोनों पर है। पर आने वाले
वक्त के राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए यह सम्भव नहीं लगता। इसे ठीक करने के लिए भी
उन्हीं खाप पंचायतों की जरूरत होगी, जिन्हें कई समस्याओं का दोषी माना जाता है। उन्हें
याद दिलाया जाना चाहिए कि वे जिस साझा परम्परा के प्रतिनिधि हैं उसका संवल है एक-दूसरे
पर विश्वास। सामाजिक बदलाव और आधुनिकीकरण के रास्ते पर जाने के लिए इन पंचायतों के
भीतर विमर्श की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए। इसकी जिम्मेदारी नौजवान पीढ़ी को अपने
ऊपर लेनी चाहिए।
दुर्भाग्य से इस समय हमारा राष्ट्रीय विमर्श इस बात पर केन्द्रित
है कि क्या जाटों का झुकाव भाजपा की ओर बढ़ेगा या क्या मुसलमान सपा का साथ छोड़ेंगे
या क्या बसपा इसका फायदा उठाएगी। हमारे सोच-विचार का यही तरीका है। पर विचार इस बात
पर होना चाहिए कि उस ताने-बाने को पुनर्स्थापित कैसे किया जाए जो शहरों में तमाम साम्प्रदायिक
फसादों के बावजूद गाँवों में बचा रहा। और जो इस बार की हिंसा में तार-तार हो गया है।
इतनी बड़ी संख्या में गाँवों से पलायन हमारे सामाजिक जीवन की नई घटना है।
बहरहाल 27 अगस्त को मुजफ्पऱनगर के कवाल गाँव में एक छोटी सी
घटना के बाद युवकों के बीच संघर्ष हुआ, जिसमें पहले एक की मौत हुई, फिर भीड़ ने दो
युवकों को पीट-पीटकर मार डाला। इस घटना से स्वाभाविक रूप से आसपास के इलाकों में दहशत
फैली होगी। पर ऐसा नहीं था कि दूर-दूर के गाँवों में हिंसा फैलती। प्रशासन को इस घटना
की संवेदनशीलता का अनुमान था इसलिए उसने फौरन कार्रवाई करने की ठानी। नासमझी, अनुभवहीनता
या अब तक के चलन को देखते हुए उसने वह किया जो नहीं किया जाना चाहिए था। घटना के कुछ
समय बाद ही जिले के एसएसपी और जिलाधिकारी को हटा दिया गया। उस रोज इस इलाके में बड़े
स्तर की सामूहिक हिंसा नहीं हुई थी। समझदार लोग बात की गम्भीरता को समझते थे और शायद
समझाने-बुझाने पर चीजें ठीक रास्ते पर आ जातीं। पर प्रशासन के शीर्ष पर बड़ा बदलाव
हो गया। नए अफसर नए थे, वे कुछ समझ और कर पाते कि हालात बिगड़ने लगे। मीडिया की कवरेज
पर यकीन करें तो तकरीबन हर दल के नेताओं ने मामले को सुलझाने के बजाय भावनाओं का दोहन
करने की कोशिश की। उनकी कोशिश होनी चाहिए थी कि समस्या को साम्प्रदायिक रूप न लेने
देते। पर हुआ इसके विपरीत। अफवाहों का एक दौर चला। लोगों का खून खौलाने वाली बातें
हुईं।
पहले ऐसा लगता था कि साम्प्रदायिक हिंसा के बीज शहरों में बोए
जा रहे हैं। गाँव अछूते हैं, क्योंकि वहाँ पारम्परिक जीवन कायम है। परम्परा से हमारे
समाज ने सह-जीवन के संस्कार पैदा कर लिए हैं। पर मुजफ्फरनगर की हिंसा के बाद जो नया
संदेश गया है वह भयावह है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में सामाजिक सद्भाव का सैकड़ों
साल पुराना तानाबाना टूटता सा लगता है। इन्हीं गाँवों मे स्वतंत्रता ता संग्राम मिल-जुलकर
लड़ा गया था। किसान आंदोलन में भी इन गाँवों ने एकजुटता दिखाई थी। मुजफ्फरनगर उत्तर
प्रदेश के प्रगतिशील जिलों में से एक है। खेती में सबसे आगे। प्रदेश को गुड़ और चीनी
की मिठास देने वाला इलाका। इस इलाके में जाट और मुसलमान दो प्रमुख सम्प्रदाय हैं। चूंकि
वोट की राजनीति में सामाजिक ताकतों की भूमिका है, इसलिए राजनीतिक दल इनके बीच सक्रिय
हैं और इन समुदायों की परतों का इस्तेमाल करते हैं। पर वह वोट की राजनीति तक सीमित
रहा है।
इलाके के मुसलमानों ने धर्मांतरण से पहले की अपनी पहचान को कायम
रखा है, जिससे समझा जा सकता है कि यह इलाका अपनी परम्पराओं का कितना आदर करता है। मूले,
त्यागी और राजपूत मुसलमानों की तमाम परम्पराएं चलती आ रही हैं। खास बात यह है कि सभी
मिलकर अपने पर्व-त्योहार मनाते रहे हैं। इस अर्थ में हिन्दुओं और मुसलमानों ने कई बार
एक-दूसरे के हितों की लड़ाई लड़ी है। चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत किसानों के सवाल उठाते
थे। पर जब मौका आया तो 1989 में नईमा कांड के खिलाफ भोपा में 40 दिन तक जेल भरो आंदोलन भी उन्होंने चलाया। नईमा की अपहरण के
बाद हत्या कर दी गई थी। संयोग है कि इस बार भी 7 सितम्बर की पंचायत के पहले राकेश टिकैत
ने कहा था कि नईमा कांड की तरह इस आंदोलन को भी बड़े स्तर पर शुरू किया जा सकता है।
जाट समुदाय अपनी पहचान को लेकर संवेदनशील है और अपनी परम्परागत
खाप व्यवस्था को बनाकर रखता है। वह सगोत्र विवाह और नए चाल-चलन को लेकर कई बार कड़े
फैसले भी करता है, पर इसके कारण वह कई प्रकार के सामाजिक दोषों से भी बचा है। इन बातों
के समानांतर इलाके में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है, संचार और परिवहन के आधुनिक
साधन बढ़े हैं और स्त्री शिक्षा बढ़ी है। इन बातों का सामाजिक जीवन पर भी प्रभाव पड़ा
है। बेटी-बहन की रक्षा करना इलाके में प्रतिष्ठा का प्रश्न माना जाता है। इसे लेकर
अक्सर झगड़े होते रहते हैं, पर इस हद तक नहीं होते कि उसकी आग में पूरा इलाका जल जाए।
मुजफ्फरनगर की हिंसा के सिलसिले में कुछ लोगों ने इस बात को
रेखांकित करने की कोशिश की है कहीं एके-47 मिली या उसके कारतूस मिले। यों भी अब्दुल
करीम टुंडा या कुछ और लोगों के नाम से इस शहर की पहचान है, पर यही अकेली वास्तविकता
नहीं है। यह उस अलगाव का लक्षण है, जो हमारे बीच पनप रहा है और जिसे राजनीति प्रश्रय
दे रही है। सच यह है कि बड़ी संख्या में लोग ऐसे हैं, जिनके लिए टुंडा आदर्श नहीं है।
इस इलाके में ऊँची नाक की लड़ाई आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की प्रतिक्रिया है। यह यहाँ
के परम्परागत समाज के भीतर बैठी है वह हिन्दू हो या मुसलमान। इसे दूर करने के लिए आधुनिक
शिक्षा के प्रसार की जरूरत है। उससे पहले राजनीतिक स्वार्थों पर रोक लगनी चाहिए। यह
काम इस इलाके के लोग ही कर सकते हैं।