Tuesday, July 27, 2010

मीडिया का काम नाटकबाज़ी नहीं


दिल्ली के हंसराज कॉलेज में एक अखबार का फोटोग्राफर पहुँचा। उसने कॉलेज के पुराने छात्रों को जमा किया। फिर उनसे कहा, नए छात्रों की रैगिंग करो। फोटोग्राफी शुरू हो गई। इस बात की जानकारी कॉलेज प्रशासन के पास पहुँची। उन्होंने पुलिस बुला ली। फोटोग्राफी रोकी गई और कैमरा से खींचे गए फोटो डिलीट किए गए। यह जानकारी मीडिया वैबसाइट हूट ने छात्रों के हवाले से दी है। इस जानकारी पर हमें आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि ऐसा होता रहता है।

हाल में बिहार असेम्बली में टकराव हुआ। मीडिया की मौजूदगी में वह सब और ज्यादा हुआ, जो नहीं होना चाहिए। एक महिला विधायक के उत्साह को देखकर लगा कि इस जोश का इस्तेमाल बिहार की समस्याओं के समाधान में लगता तो कितना बड़ा बदलाव सम्भव था। वह उत्साह विधायक का था, पर मीडिया में कुछ खास दृश्यों को जिस तरह बारम्बार दिखाया गया, उससे लगा कि मीडिया के पास भी कुछ है नहीं। उसकी दृष्टि में ऐसा रोज़-रोज़ होता रहे तो बेहतर।

पिछले हफ्ते एक चैनल पर रांची के सज्जन के बारे में खबर आ रही थी, जो आठवीं शादी रचाने जा रहे थे। उन्हें कुछ महिलाओं ने पकड़ लिया। महिलाओं के हाथों उनकी मरम्मत के दृश्य मीडिया के लिए सौगात थे। किसी की पिटाई, रगड़ाई, धुलाई और अपमान हमारे यहाँ चटखारे लेकर देखा जाता है। मीडिया को देखकर व्यक्ति जोश में आ जाता है और आपा भूलकर सब पर छा जाने की कोशिश में लग जाता है। मीडिया के लोग भी उन्हें प्रेरित करते हैं।

कुछ साल बिहार में एक व्यक्ति ने आत्मदाह कर लिया। उस वक्त कहा गया कि उसे पत्रकारों ने प्रेरित किया था। ऐसा ही पंजाब में भी हुआ। अक्सर खबरें बनाने के लिए पत्रकार कुछ नाटक करते हैं, जबकि उनसे उम्मीद की जाती है कि वे सच को सामने लाएंगे। पर होता कुछ और है। मीडिया को देखते ही आंदोलनकारी, बंद के दौरान आगज़नी करते या बाढ़-पीड़ितों की मदद करने गए लोग अपने काम को दूने वेग से करने लगते हैं। पूड़ी के एक पैकेट की जगह चार-चार थमाने लगते हैं। अब तो चलन ही यही है कि आंदोलन बाद में शुरू होता है, पहले मीडिया का इंतज़ाम होता है। सारा आंदोलन पाँच-दस मिनट के मीडिया सेशन में निबट जाता है।

सीबीएसई परीक्षा परिणाम देखने गई लड़कियों के एक ही झुंड, बल्कि अक्सर एक ही लड़की की तस्वीर सभी अखबारों में छपती है। इसे फाइव सेकंड्स फेम यानी पाँच सेकंड की प्रसिद्धि कहते हैं। इसमें ऑब्जेक्टिविटी वगैरह धरी की धरी रह जाती है। आमतौर पर सभी समाचार चैनल समाचार के साथ-साथ सामयिक संदर्भों पर बहस चलाते हैं। इस बहस को चलाने वाले एंकरों का ज़ोर इस बात पर नहीं होता कि तत्व की बात सामने लाई जाय, बल्कि इस बात पर होता है कि उनके बीच संग्राम हो। पत्रकारिता का उद्देश्य क्या है यह तो हर पत्रकार अपने तईं तय कर सकता है। पर इतना सार्वभौमिक रूप से माना जाता है कि हम संदेशवाहक हैं। जैसा हो रहा है, उसकी जानकारी देने वाले। हम इसमें पार्टी नहीं हैं और हमें कोशिश करनी चाहिए कि बातों को तोड़े-मरोड़े बगैर तटस्थता के साथ रखें। 

पुराने वक्त में पत्रकारिता प्रशिक्षण विद्यालय नहीं होते थे। ज्यादातर लोग काम पर आने के बाद चीजों को सीखते थे। रोज़मर्रा बातों से धीरे-धीरे अपने नैतिक दायित्व समझ में आते थे। अब तो पत्रकार मीडिया स्कूलों से आते हैं। उन्हें तो पत्रकारीय आदर्श पढाए जाते हैं। लगता है जल्दबाज़ी में मीडिया अपने कानूनी, सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्वों का ध्यान नहीं रखता। जब रैगिंग होती है तो ज़मीन-आसमान एक कर देता है और जब नहीं होती तब रैगिंग करने वालों के पास जाता है कि भाई ठंडे क्यो पड़ गए। उसके पास नागरिक के व्यक्तिगत अधिकारों को लेकर शायद कोई आचरण संहिता नहीं है। या यों कहें कि किसी किस्म की आचरण संहिता नहीं है।

आचरण संहिता व्यापक अवधारणा है। अक्सर सरकारें आचरण संहिता के नाम पर मीडिया की आज़ादी पर बंदिशें लगाने की कोशिश करती हैं, इसलिए हम मानते हैं कि मीडिया को अपने लिए खुद ही आचरण संहिता बनानी चाहिए। सामूहिक रूप से देश भर के पत्रकारों ने अपने लिए कोई आचार संहिता नहीं बनाई है। कुछ अखबार अपने कर्मचारियों के लिए गाइड बुक्स बनाते हैं, पर वे भी स्टाइल बुक जैसी हैं। हाल में गठित न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन ने कुछ मोटे दिशा-निर्देश तैयार किए हैं, जो उसकी वैबसाइट पर उपलब्ध हैं। इनकी तुलना में बीबीसी की गाइड लाइन्स को देखें जो काफी विषद हैं। हमारे देश में किसी मीडिया हाउस ने ऐसी व्यवस्था की हो तो इसका मुझे पता नहीं है। अलबत्ता हिन्दू एक ऐसा अखबार है, जिसने एक रीडर्स एडीटर की नियुक्ति की है जो नियमित रूप से अखबार की गलतियों या दूसरी ध्यान देने लायक बातों को प्रकाशित करता है। हाल में हिन्दू के रीडर्स एडीटर एस विश्वनाथन ने अपने पाठकों को जानकारी दी कि 1984 में हिन्दू ने भोपाल त्रासदी को किस तरह कवर किया। अखबार में पाठक के दृष्टिकोण को उभारना भी बाज़ार-व्यवस्था है। राजेन्द्र माथुर जब नवभारत टाइम्स में सम्पादक थे, तब टीएन चतुर्वेदी ओम्बड्समैन बनाए गए थे। पता नहीं आज ऐसा कोई पद वहाँ है या नहीं।

जैसे-जैसे हमारे समाज के अंतर्विरोध खुलते जा रहे हैं, वैसे-वैसे मीडिया की ज़रूरत बढ़ रही है। यह ज़रूरत तात्कालिक खबरें या सूचना देने भर के लिए नहीं है। यह ज़रूरत समूची व्यवस्था से नागरिक को जोड़ने की है। समूचा मीडिया एक जैसा नहीं हो सकता। कुछ की नीतियाँ समाजवादी होंगी, कुछ की दक्षिणपंथी। कांग्रेस समर्थक होंगे, भाजपाई भी। जो भी हो साफ हो। चेहरे पर ऑब्जेक्टिव होने का सर्टिफिकेट लगा हो और काम में छिछोरापन हो तो पाठक निराश होता है।
हम आमतौर पर सारी बातों के लिए बाज़ार-व्यवस्था को दोषी मानते हैं। बाज़ार व्यवस्था का दोष है भी तो इतना कि वह अपने अधिकारों के लिए लड़ना नहीं जानती। पाठक-श्रोता या दर्शक ही तो हमारा बाज़ार है। वह हमें खारिज कर दे तो हम कहाँ जाएंगे। हम अपने पाठक को भूलते जा रहे हैं। नैतिक रूप से हमारी जिम्मेदारी उसके प्रति है और व्यावसायिक रूप से अपने मालिक के प्रति। इधर स्वार्थी तत्व मीडिया पर हावी हैं। ऐसा हमारी कमज़ोर राजनैतिक व्यवस्था के कारण है।

सनसनी, अफवाहबाज़ी और घटियापन को पसंद करने वाला पाठक-वर्ग भी है। उसे शिक्षित करने वाली समाज-व्यवस्था को पुष्ट करने का काम जागरूक मीडिया कर सकता है। हम क्या जागरूक और जिम्मेदार बनना नहीं चाहेंगे? सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था और मीडिया के रिश्तों पर पड़ताल की ज़रूरत आज नहीं तो कल पैदा होगी। कहते हैं चीनी समाज कभी अफीम के नशे में रहता था। आज नहीं है। हमारा नशा भी टूटेगा। 

5 comments:

  1. Anonymous7:44 AM

    aakhir kyo wo hamse dur ho rahe hai www.sakshatkar.com

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  2. आपकी यह प्रस्तुति कल २८-७-२०१० बुधवार को चर्चा मंच पर है....आपके सुझावों का इंतज़ार रहेगा ..


    http://charchamanch.blogspot.com/

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  3. सर, बिल्कुल सही लिखा है आपने। एक बात जो घर कर गई वह यह कि अब सिखे खिसाए पत्रकार आ रहे हैं। पहले ऐसे ही आते थे, फिर भी गलतियां कर रहे हैं। यह गलतियां हैं या जानबूझ कर किया जा रहा है यह भी एक सवाल है। जो सीखी हुई पीढ़ी आ रही है वह जानबूझ कर गलती करती है तो यह बहुत दुखद है और इसके परिणाम भी बहुत घातक आने वाले हैं। सर, आपका भी एक समय था। इसमें कितने महान पत्रकार हुए। किस किसका नाम लूूं। बहुत सारे लोग आज की पीढ़ी के रोल मॉडल हैं पर करते क्या हैं?
    इस पीढ़ी को सुधारना होगा सर नहीं तो गजब हो जाएगा............

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  4. धन्यवाद संगीता जी

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