इस बात को शुरू में
ही कहना उचित होगा कि भारत में चुनाव घोषणापत्र भ्रामक हैं। जिस देश में चुनाव
जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और
आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक
महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के दौरान, बल्कि चुनाव के बाद भी पार्टियों
के कार्य और व्यवहार के बारे में इन घोषणापत्रों के आधार पर सवाल किए जा सकते हैं।
उन्हें वायदों की याद दिलाई जा सकती है और लोकमंच पर विमर्श के प्रस्थान-बिन्दु
तैयार किए जा सकते हैं।
कांग्रेस के इसबार
के घोषणापत्र पर सरसरी निगाह डालने से साफ ज़ाहिर होता है कि पार्टी अपने ‘सामाजिक कल्याणवाद’ पर वापस आ रही है। बीजेपी के आक्रामक ‘छद्म राष्ट्रवाद’ के जवाब में कांग्रेस
ने अपनी रणनीति को सामाजिक कल्याण और सम्पदा के वितरण पर केन्द्रित किया है। एक
अरसे से कहा जा रहा था कि पार्टी को अपने राजनीतिक कार्यक्रम के साथ सामने आना
चाहिए। केवल ‘गैर-बीजेपीवाद’ कोई रणनीति नहीं हो सकती। वह नकारात्मक राजनीति है। अच्छी बात यह है
कि कांग्रेस अब अपनी विचारधारा को एक दायरे में बाँधकर पूरी ताकत के साथ मैदान में
उतरी है।