Saturday, April 6, 2019

कांग्रेस फिर ‘सामाजिक कल्याणवाद’ पर वापस

इस बात को शुरू में ही कहना उचित होगा कि भारत में चुनाव घोषणापत्र भ्रामक हैं। जिस देश में चुनाव जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के दौरान, बल्कि चुनाव के बाद भी पार्टियों के कार्य और व्यवहार के बारे में इन घोषणापत्रों के आधार पर सवाल किए जा सकते हैं। उन्हें वायदों की याद दिलाई जा सकती है और लोकमंच पर विमर्श के प्रस्थान-बिन्दु तैयार किए जा सकते हैं।
कांग्रेस के इसबार के घोषणापत्र पर सरसरी निगाह डालने से साफ ज़ाहिर होता है कि पार्टी अपने सामाजिक कल्याणवाद पर वापस आ रही है। बीजेपी के आक्रामक छद्म राष्ट्रवाद के जवाब में कांग्रेस ने अपनी रणनीति को सामाजिक कल्याण और सम्पदा के वितरण पर केन्द्रित किया है। एक अरसे से कहा जा रहा था कि पार्टी को अपने राजनीतिक कार्यक्रम के साथ सामने आना चाहिए। केवल गैर-बीजेपीवाद कोई रणनीति नहीं हो सकती। वह नकारात्मक राजनीति है। अच्छी बात यह है कि कांग्रेस अब अपनी विचारधारा को एक दायरे में बाँधकर पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरी है।

लोकपाल को लेकर खामोशी क्यों?


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हमारी राजनीति और समाज की प्राथमिकताएं क्या हैं? सन 2011 में इन्हीं दिनों के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो लगता था कि भ्रष्टाचार इस देश की सबसे बड़ी समस्या है और उसका निदान है जन लोकपाल. लोकपाल आंदोलन के विकास और फिर संसद से लोकपाल कानून पास होने की प्रक्रिया पर नजर डालें, तो नजर आता है कि राजनीति और समाज की दिलचस्पी इस मामले में कम होती गई है. अगस्त 2011 में देश की संसद ने असाधारण स्थितियों में विशेष बैठक करके एक मंतव्य पास किया. फिर 22 दिसम्बर को लोकसभा ने इसका कानून पास किया, जो राज्यसभा से पास नहीं हो पाया.

फिर उस कानून की याद दिसम्बर, 2013 में आई. राज्यसभा ने उसे पास किया और 1 जनवरी को उसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिली और 16 जनवरी, 2014 को यह कानून लागू हो गया. सारा काम तेजी से निपटाने के अंदाज में हुआ. उसके पीछे भी राजनीतिक दिखावा ज्यादा था. देश फिर इस कानून को भूल गया. सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के ठीक पहले यह कानून अस्तित्व में आया और अब सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव के ठीक पहले लोकपाल की नियुक्ति हुई है. इसकी नियुक्ति में हुई इतनी देरी पर भी इस दौरान राजनीतिक हलचल नहीं हुई. सुप्रीम कोर्ट में जरूर याचिका दायर की गई और उसकी वजह से ही यह नियुक्ति हो पाई. 

Tuesday, April 2, 2019

राहुल ने क्यों पकड़ी दक्षिण की राह?


तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के तिराहे पर वायनाड काली मिर्च और मसालों की खेती के लिए मशहूर रहा है। यहाँ की हवाएं तीनों राज्यों को प्रभावित करती हैं। भारी मुस्लिम आबादी और केरल में इंडियन मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन होने के कारण कांग्रेस के लिए यह सीट सुरक्षित मानी जाती है। राहुल यहाँ से क्यों खड़े हो रहे हैं, इसे लेकर पर्यवेक्षकों की अलग-अलग राय हैं। कुछ लोगों को लगता है कि अमेठी की जीत से पूरी तरह आश्वस्त नहीं होने के कारण उन्हें यहाँ से भी लड़ाने का फैसला किया गया है। इसके पहले इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी ने भी अपने मुश्किल वक्त में दक्षिण की राह पकड़ी थी।

इंदिरा गाँधी 1977 में रायबरेली से चुनाव हार गई थीं। उन्होंने वापस संसद पहुँचने के लिए कर्नाटक के चिकमंगलूर का रुख किया था। चिकमंगलूर की जीत उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुई थी। उन्होंने धीरे-धीरे अपना खोया जनाधार वापस पा लिया। उन्होंने 1980 का चुनाव आंध्र की मेदक सीट से लड़ा। सोनिया गांधी ने 1999 में पहली बार चुनाव लड़ा, तो उन्होंने अमेठी के साथ-साथ कर्नाटक के बेल्लारी से पर्चा भरा। उनके विदेशी मूल का विवाद हवा में था, इसी संशय में वे बेल्लारी गईं थीं।

Sunday, March 31, 2019

महागठबंधन का स्वप्न-भंग

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पिछले साल 23 मई को बेंगलुरु में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में और फिर इस साल 19 जनवरी को कोलकाता में हुई विरोधी एकता की रैली ‘ब्रिगेड समावेश’ में मंच पर एकसाथ हाथ उठाकर जिन राजनेताओं ने विरोधी एकता की घोषणा की थी, उनकी तस्वीरें देशभर के मीडिया में प्रकाशित हुईं थीं। अब जब चुनाव घोषित हो चुके हैं, तब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस विरोधी-एकता की जमीन पर स्थिति क्या है। कर्नाटक की तस्वीर को प्रस्थान-बिन्दु मानें तो उसमें सोनिया, राहुल, ममता बनर्जी, शरद यादव, अखिलेश यादव, मायावती, तेजस्वी यादव, चन्द्रबाबू नायडू, सीताराम येचुरी, फारुक़ अब्दुल्ला, अजित सिंह, अरविन्द केजरीवाल के अलावा दूसरे कई नेता थे। डीएमके के एमके स्टालिन तूतीकोरन की घटना के कारण आ नहीं पाए थे, पर उनकी जगह कनिमोझी थीं।

उस कार्यक्रम के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव ने अपनी शुभकामनाएं भेजी थीं। ओडिशा के नवीन पटनायक बुलावा भेजे जाने के बावजूद नहीं आए थे। इन सब नामों को गिनाने का तात्पर्य यह है कि पिछले तीन साल से महागठबंधन की जिन गतिविधियों के बारे में खबरें थीं, उनके ये सक्रिय कार्यकर्ता थे। अब जब चुनाव सामने हैं, तो क्या हो रहा है? हाल में बंगाल की एक रैली में राहुल गाँधी ने ममता बनर्जी की आलोचना कर दी। इसके बाद जवाब में ममता ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि राहुल अभी बच्चे हैं। तीन महीने पहले तेलंगाना में हुए चुनाव में तेदेपा और कांग्रेस का गठबंधन था। अब आंध्र में चुनाव हो रहे हैं, पर गठबंधन नहीं है।

Friday, March 29, 2019

एंटी-सैटेलाइट टेस्ट के महत्व को भी समझिए

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एंटी-सैटेलाइट परीक्षण को लेकर कई तरह के सवाल एकसाथ खड़े हुए हैं. काफी सवाल राजनीतिक है, जिनपर अलग से बात होनी चाहिए. यहाँ हम इसके सामरिक और राजनयिक पहलुओं पर बात करेंगे. रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि इसका फैसला सन 2014 में ही कर लिया गया था. सवाल है कि परीक्षण पहले क्यों नहीं किया और अब क्यों किया? इसके दो-तीन कारण हैं. डीआरडीओ को तकनीक विकसित करने की अनुमति देने, धनराशि आवंटित करने और मित्र देशों से विमर्श में भी समय लगता है. रक्षा और राजनीतिक मामलों से जुड़ी कैबिनेट समितियों से अग्रिम स्वीकृतियाँ लेने की जरूरत भी थी. डीआरडीओ का कहना है कि इस प्रोजेक्ट की अनुमति दो साल पहले दी गई थी.

मौसम और धरती की परिक्रमा कर रहे उपग्रहों की स्थिति पर नजर रखने की आवश्यकता भी थी. मौसम का पता महीनों पहले लगाना होता है. यह भी ध्यान रखना था कि अंतरिक्ष में प्रदूषण न होने पाए. चीन ने 2007 में इसका ध्यान नहीं रखा था, जिसके लिए उसकी निन्दा हुई थी. भारत ने निश्चित रूप से अपने सामरिक मित्रों से भी मशविरा किया होगा. इसी वजह से बुधवार को हमारे विदेश मंत्रालय ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट किया और प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में कहा कि हमने इस परीक्षण में वैश्विक नियमों को ध्यान में रखा है.