Thursday, July 19, 2018

संसदीय कर्म की दिशाहीन राजनीति


लोकसभा चुनाव समय से हुए तो संसद के तीन सत्र उसके पहले हो जाएंगे. इन तीनों सत्रों में सत्तापक्ष और विपक्ष की जोर-आजमाइश अपने पूरे उभार पर देखने को मिलेगी. इसका पहला संकेत बुधवार से शुरु हुए मॉनसून सत्र में देखने को मिल रहा है और अभी मिलेगा. इसकी शुरुआत मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस से हुई है. राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद और लोकसभा में कांग्रेस के सदन के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने पार्टी के फैसले का ऐलान करते हुए कहा था कि 15 पार्टियां हमारे साथ हैं. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इसे विचार के लिए स्वीकार कर लिया है. प्रस्ताव पर चर्चा शुक्रवार 20 जुलाई को होगी. लगता है कि यह सत्र ही नहीं अगले चुनाव तक देश की राजनीति इस प्रस्ताव के इर्द-गर्द रहेगी.

इस पहल की केंद्रीय राजनीति जरूर विचारणीय है. यह नोटिस तेदेपा की ओर से दिया गया है और इसके पीछे आंध्र को विशेष राज्य के दर्जे से वंचित किए जाने को महत्वपूर्ण कारण बताया गया है. अविश्वास प्रस्ताव एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है और इसके बहाने देश के सामने खड़े महत्वपूर्ण सवालों पर चर्चा भी होती है. यह नोटिस क्षेत्रीय राजनीति की ओर से दिया गया है. बेहतर होता कि यह राष्ट्रीय सवालों को लेकर आता और कांग्रेस इसे लाती. बेशक सवाल राष्ट्रीय उठेंगे, पर इसकी प्रेरणा क्षेत्रीय राजनीति से आई है. आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा देने से ज्यादा बड़े सवाल हैं अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन में बढ़ती कटुता और मॉब लिंचिंग जैसी अराजकता. बहरहाल इसके पीछे की जो भी राजनीति हो, हमें अच्छी संसदीय बहस का इंतजार करना चाहिए. 

Sunday, July 15, 2018

रास्ते से भटक क्यों रहा है हमारा लोकतंत्र?

लोकतांत्रिक व्यवस्था की पारदर्शिता को लेकर हाल में दो खबरों से दो तरह के निष्कर्ष निकलते हैं। पिछले हफ्ते तरह केन्द्र ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि देश भर में अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण किया जा सकता है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सभी पक्षकारों से कहा कि वे अदालत की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए दिशा निर्देश तैयार करने के बारे में अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल को अपने सुझाव दें। अटार्नी जनरल ने इससे पहले न्यायालय से कहा था कि अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण दुनिया के अनेक देशों में एक स्वीकार्य परंपरा है। शीर्ष अदालत ने न्यायिक कार्यवाही में पारदर्शिता लाने के इरादे से पिछले साल प्रत्येक राज्य की निचली अदालतों और न्यायाधिकरणों में सीसीटीवी लगाने का निर्देश दिया था।

इस खबर के विपरीत  राज्यसभा के निवृत्तमान उप-सभापति पीजे कुरियन ने कहा कि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इससे सदन की छवि खराब होती है। कुरियन का कहना था कि सदन की कार्यवाही के दौरान भले ही पीठासीन अध्यक्ष असंसदीय शब्दों को रिकॉर्ड के बाहर कर देते हों, लेकिन डिजिटल मीडिया के इस दौर में ये बातें आसानी से जनता तक पहुंच जाती हैं। इस वजह से सदन में शालीनता और व्यवस्था कायम रखने की कोशिशें बेमतलब हो जाती हैं। उपरोक्त दोनों बातों को मिलाकर पढ़ें, तो क्या निष्कर्ष निकलता है?

Sunday, July 8, 2018

कैंसर, एक रोग और एक लक्षण


हाल में खबर मिली है कि फिल्म अभिनेत्री सोनाली बेंद्रे कैंसर की बीमारी से जूझ रही हैं। उन्होंने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर इस बारे में जानकारी दी है कि मुझे हाईग्रेड मेटास्टेटिस कैंसर है। उनकी इस पोस्ट के बाद काफी लोग जानना चाहते हैं कि यह कैसा कैंसर है और कितना खतरनाक है। मेटास्टेटिस कैंसर का मतलब यह है कि शरीर में किसी एक जगह कैंसर के सेल मौजूद नहीं हैं। जहां से कैंसर की उत्पत्ति हुई, उससे शरीर के दूसरे अंग में वह फैल चुका है। सोनाली न्यूयॉर्क में अपना इलाज करवा रही हैं। बॉलीवुड एक्टर इरफान खान भी कैंसर से जूझ रहे हैं। वे कुछ महीनों से लंदन में इलाज करा रहे हैं। अमेरिकी कंप्यूटर कंपनी एपल के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स का कैंसर से लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद कुछ साल पहले निधन हो गया।

हॉलीवुड अभिनेत्री जेन फोंडा से लेकर सीएनएन के मशहूर शो के प्रस्तोता लैरी किंग तक इस बीमारी के शिकार हुए हैं। बॉलीवुड के अभिनेता राजेश खन्ना और विनोद खन्ना इसके शिकार थे। हाल में संजय दत्त पर बनी बायोपिक फिल्म संजू में कैंसर से लड़ती नर्गिस दत्त का जिक्र था। संयोग से फिल्म में नर्गिस की भूमिका में फिल्म अभिनेत्री मनीषा कोईराला भी कैंसर से पीड़ित रही हैं। फिल्म निर्देशक अनुराग बसु, अभिनेत्री लीजा रे और मुमताज से लेकर क्रिकेटर युवराज सिंह भी कैंसर से पीड़ित हो चुके हैं। बहुत से मामलों में लोग कैंसर के खिलाफ लड़ाई में जीतकर वापस लौटे हैं, पर यह बीमारी ऐसी है, जिसका नाम सुनते ही दिल काँपता है।

Wednesday, July 4, 2018

सोशल मीडिया की दुधारी तलवार

इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने वॉटसएप और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को आगाह किया है कि वे अफवाहबाज़ी को रोकने में आगे आएं. उनका यह कदम ठीक है, पर व्यावहारिक सच यह है कि वॉटस्एप सिर्फ औजार है. असली जिम्मेदार वे लोग हैं, जो इसका इस्तेमाल नकारात्मक कार्यों के लिए कर रहे हैं. वे अपराधी हैं और इन अफवाहों से प्रेरित-प्रभावित होकर हिंसा पर उतारू उन्मादी भीड़ भी अपराधी है. इस पागलपन को रोकने के लिए सरकार को कड़ा संदेश देना चाहिए. आने वाले समय में तकनीक सामाजिक व्यवस्था को और भी खोलने जा रही है. वह अब सामान्य व्यक्ति को आसानी से और कम खर्च पर भी उपलब्ध होगी. लोकतांत्रिक-व्यवस्था के संचालन और सामाजिक जीवन को पारदर्शी बनाने के लिए इसकी जरूरत भी है, पर व्यक्ति के निजी जीवन और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा भी होनी चाहिए. इसके लिए राज्य और सामाजिक व्यवस्था को सोचना चाहिए. 
चाकू डॉक्टर के हाथ में हो, तो वह जान बचा सकता है. गलत हाथ में हो, तो जान ले लेता है. सोशल मीडिया पर भी यह बात लागू होती है. ग्रामीण इलाकों में चेतना फैलाने और सामाजिक कुरीतियों से लड़ने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं. हाल में खबरें थीं कि कश्मीर के डॉक्टरों का एक समूह वॉट्सएप के जरिए हृदय रोगों की चिकित्सा के लिए आपसी विमर्श का सहारा लेता है. वहीं कश्मीर के आतंकी गिरोह अपनी गतिविधियों को चलाने और किशोरों को भड़काने के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं.
हाल में असम, ओडिशा, गुजरात, त्रिपुरा, बंगाल, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र से खौफनाक आईं हैं. ज्यादातर मामले झूठी खबरों से जुड़े हैं, जिनके फैलने से उत्तेजित भीड़ ने हत्याएं कर दीं. ऐसे मामलों की संख्या भी काफी बड़ी है, जिनमें मौत नहीं हुईं, पर लोगों को पीटा गया. बहुत सी खबरें पुलिस की जानकारी में आईं भी नहीं. जिस तरह सन 2012 में रेप के खिलाफ जनांदोलन खड़ा हुआ था, लिंचिंग के खिलाफ वैसा आंदोलन भी खड़ा नहीं होने वाला. ज्यादातर मरने वाले गरीब लोग हैं.

Sunday, July 1, 2018

'हवा का बदलता रुख' और कांग्रेस


हाल में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के धरने के वक्त विरोधी दलों की एकता के दो रूप एकसाथ देखने को मिले। एक तरफ ममता बनर्जी समेत चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने धरने का समर्थन किया, वहीं कांग्रेस पार्टी ने न केवल उसका विरोध किया, बल्कि सार्वजनिक रूप से अपनी राय को व्यक्त भी किया। इसके बाद फिर से यह सवाल हवा में है कि क्या विरोधी दलों की एकता इतने प्रभावशाली रूप में सम्भव होगी कि वह बीजेपी को अगले चुनाव में पराजित कर सके।

सवाल केवल एकता का नहीं नेतृत्व का भी है। इस एकता के दो ध्रुव नजर आने लगे हैं। एक ध्रुव है कांग्रेस और दूसरे ध्रुव पर ममता बनर्जी के साथ जुड़े कुछ क्षेत्रीय क्षत्रप। दोनों में सीधा टकराव नहीं है, पर अंतर्विरोध है, जो दिल्ली वाले प्रसंग में मुखर हुआ। इसके अलावा कर्नाटक सरकार की कार्यशैली को लेकर भी मीडिया में चिमगोइयाँ चल रहीं हैं। स्थानीय कांग्रेस नेताओं और जेडीएस के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के बीच मतभेद की बातें हवा में हैं। पर लगता है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी कर्नाटक में किसी किस्म की छेड़खानी करने के पक्ष में नहीं है। उधर बिहार से संकेत मिल रहे हैं कि नीतीश कुमार और कांग्रेस पार्टी के बीच किसी स्तर पर संवाद चल रहा है।