दिल्ली सरकार से हटाए गए कपिल मिश्रा आम आदमी पार्टी के गले की हड्डी साबित हो रहे हैं. पिछले दसेक दिनों में वे पार्टी और व्यक्तिगत रूप से अरविंद केजरीवाल पर आरोपों की झड़ी लगा रहे हैं. और केजरीवाल उन्हें सुन रहे हैं.
आश्चर्य इन आरोपों पर नहीं है. आरोप लगाने से केजरीवाल बेईमान साबित नहीं हो जाते हैं. सवाल है कि केजरीवाल खामोश क्यों हैं? क्या वे इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि कपिल मिश्रा का सारा गोला-बारूद खत्म हो जाए? या उन्हें राजनीति में किसी नए मोड़ का इंतजार है?
मोदी सरकार के तीन साल पूरे हुए जा रहे हैं। सरकार के कामकाज पर निगाह डालने के साथ यह जानना भी जरूरी है कि इस दौरान विपक्ष की क्या भूमिका रही। पिछले तीन साल में मोदी सरकार के खिलाफ चले आंदोलनों, संसद में हुई बहसों और अलग-अलग राज्यों में हुए चुनावों के परिणामों पर नजर डालें तो यह स्पष्ट होता है कि विरोध या तो जनता की अपेक्षाओं से खुद को जोड़ नहीं पाया या सत्ताधारी दल के प्रचार और प्रभाव के सामने फीका पड़ गया। कुल मिलाकर वह बिखरा-बिखरा रहा।
सरकार और विरोधी दलों के पास अभी दो साल और हैं। सवाल है कि क्या अब कोई चमत्कार सम्भव है? सरकार-विरोधी एक मित्र का कहना है कि सन 1984 में विशाल बहुमत से जीतकर आई राजीव गांधी की सरकार 1989 के चुनाव में पराजित हो गई। उन्हें यकीन है कि सन 2018 में ऐसा कुछ होगा कि कहानी पलट जाएगी। मोदी सरकार को लगातार मिलती सफलताओं के बाद विरोधी दलों की रणनीति अब एकसाथ मिलकर भाजपा-विरोधी ‘महागठबंधन’ जैसा कुछ बनाने की है।
सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें कश्मीरी आतंकवादी दो पुलिस मुखबिरों को यातनाएं दे रहे हैं। साफ है कि इस वीडियो का उद्देश्य पुलिस की नौकरी के लिए कतारें लगाने वाले नौजवानों को डराना है। शुक्रवार की शाम यह वीडियो भारतीय चैनलों में बार-बार दिखाया जा रहा था। ऐसे तमाम वीडियो वायरल हो रहे हैं जो दर्शकों के मन में जुगुप्सा, नफरत और डर पैदा करते हैं। सोशल मीडिया में मॉडरेशन नहीं होता। इन्हें वायरल होने से रोका भी नहीं जा सकता। पर मुख्यधारा का मीडिया इनके प्रभाव का विस्तार क्यों करना चाहता है?
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उद्भव के बाद से भारतीय समाचार-विचार की दुनिया सनसनीखेज हो गई है। सोशल मीडिया का तड़का लगने से इसमें कई नए आयाम पैदा हुए हैं। सायबर मीडिया की नई साइटें खुलने के बाद समाचार-विचार का इंद्रधनुषी विस्तार भी देखने को मिल रहा है। इसमें एक तरफ संजीदगी है, वहीं खतरनाक और गैर-जिम्मेदाराना मीडिया की नई शक्ल भी उभर रही है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 24 घंटे, हर रोज और हर वक्त कुछ न कुछ सनसनीखेज चाहिए।
लोकसभा चुनाव जीतने भर से किसी राजनीतिक दल का देशभर पर वर्चस्व स्थापित नहीं हो जाता। सन 1977, 1989 और 1996-97 और उसके बाद 1998-2004 तक किसी न किसी रूप में गैर-कांग्रेसी सरकारें दिल्ली की गद्दी पर बैठीं, पर राष्ट्रीय राजनीति पर कांग्रेस का वर्चस्व एक हद तक बना रहा। इसकी वजह थी राज्यों की विधानसभाओं पर कांग्रेस की पकड़। इस पकड़ के कारण राज्यसभा में भी कांग्रेस का वर्चस्व बना रहा। यानी विपक्ष में रहकर भी कांग्रेस प्रभावशाली बनी रही। पर अब वह स्थिति नहीं है।
पिछले तीन साल में केवल संसद और सड़क पर ही नहीं, देश के गाँवों और गलियों तक में विपक्ष की ताकत घटी है। राजनीतिक प्रभुत्व की बात है तो बीजेपी फिलहाल सफल है। पिछले तीन साल में उसने अपनी स्थिति बेहतर बनाई है। जबकि विपक्ष में बिखराव नजर आ रहा है। नोटबंदी के बाद से यह बिखराव और स्पष्ट हुआ है। अभी तक कांग्रेस राज्यसभा में अपनी बेहतर स्थिति के कारण एक सीमा तक प्रतिरोध कर पाती थी, यह स्थिति अब बदल रही है। अगले साल राज्यसभा के चुनाव के बाद स्थितियों में गुणात्मक बदलाव आ जाएगा।
अंदेशा सही साबित हो रहा है. लगातार दो-तीन हारों ने आम आदमी पार्टी के दबे-छिपे अंतर्विरोधों को खोलना शुरू कर दिया है. अमानतुल्ला खान को पार्टी की राजनीतिक मामलों की कमेटी से हटाने के बाद वह तपिश जो भीतर थी, वह बाहर आने लगी है.
पार्टी के 37 विधायकों ने मुख्यमंत्री और पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल को चिट्ठी लिखकर माँग की है कि अमानतुल्ला को पार्टी से बाहर किया जाए.
इस चिट्ठी से साबित होता है कि पार्टी के भीतर कुमार विश्वास का दबदबा है. शायद इसी वजह से उनकी कड़वी बातों को पार्टी ने सहन किया.
कुमार विश्वास जिन बातों को उठा रहे हैं, वे आम आदमी पार्टी के अंतर्विरोधों की तरफ इशारा करती हैं. पार्टी में 'सॉफ्ट राष्ट्रवादी' से लेकर 'अति-वामपंथी' हर तरह के तत्व हैं. कांग्रेस की तरह. यह उसकी अच्छाई है कि उसकी वैचारिक दिशा खुली है. और यही उसकी खराबी भी है.
लगता नहीं कि अंतर्विरोधी तत्वों को जोड़कर रखने वाली समझदारी वह विकसित कर पाई है. पार्टी ने भाजपा-विरोधी स्पेस को हासिल करने के लिए ऐसी शब्दावली को अपनाया, जो भाजपा-विरोधी है.
सर्जिकल स्ट्राइक के बाद अरविंद केजरीवाल ने भी घुमा-फिराकर मोदी सरकार से सबूत माँगे थे.
कौन हैं विरोधी ताकतें ?
अन्ना हजारे का आंदोलन जब चल रहा था तब मंच से 'वंदे मातरम' का नारा भी लगता था, जो अब कांग्रेस के मंच से भी नहीं लगता. पर जैसे-जैसे आम आदमी पार्टी का विस्तार हुआ, उसकी राष्ट्रवादी राजनीति सिकुड़ी.
अरविन्द केजरीवाल ने
एक बार फिर से माफी माँगी है कि हमने जनता के मिज़ाज को ठीक से नहीं समझा। आम आदमी
पार्टी जितनी तेजी से उभरी थी, उससे भी ज्यादा तेजी के साथ उसका ह्रास होने लगा
है। पिछले डेढ़-दो महीनों में उसे जिस तरह से सिलसिलेवार हार का सामना करना पड़
रहा है, वह आश्चर्यजनक है। राजनीतिक दलों की चुनाव में हार कोई अनहोनी नहीं है।
ऐसा होता रहता है, पर जिस पार्टी का आधार ही नहीं बन पाया हो, उसका तेज पराभव
ध्यान खींचता है। सम्भव है पार्टी इस झटके को बर्दाश्त कर ले और फिर से मैदान में
आ जाए। पर इस वक्त उसपर संकट भारी है। दो साल पहले दिल्ली के जिस मध्यवर्ग ने उसे
अभूतपूर्व जनादेश दिया था, उसने हाथ खींच लिया और ऐसी पटखनी दी है कि उसे
बिलबिलाने तक का मौका नहीं मिल रहा है।
युद्धों में पराजित होने के बाद वापिस लौटती सेना के सिपाही अक्सर आपस में लड़ते-मरते हैं. आम आदमी पार्टी के साथ भी ऐसा ही हो तो विस्मय नहीं होगा. एमसीडी चुनाव में मिली हार के बाद पार्टी के नेता-कवि कुमार विश्वास ने कहा है कि हमारे चुनाव हारने का कारण ईवीएम नहीं बल्कि, लोगों से संवाद की कमी है.
उन्होंने यह भी कहा है कि पार्टी में कई फैसले बंद कमरों में किए गए जिस वजह से एमसीडी चुनाव में सही प्रत्याशियों का चयन नहीं हो पाया. उन्होंने यह भी कहा कि सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर पीएम नरेंद्र मोदी पर निशाना नहीं साधना चाहिए था.
अभी यह कहना मुश्किल है कि कुमार विश्वास की ये बातें पार्टी के भीतर की स्वस्थ बहस को व्यक्त करती हैं या व्यक्तिगत कड़वाहट को. अरविन्द केजरीवाल ने पार्टी के नए पार्षदों और विधायकों की बैठक में 'अंतर-मंथन' का इशारा भी किया है. उधर नेताओं की अंतर्विरोधी बातें सामने आ रहीं हैं और संशय भी. पार्टी तय नहीं कर पाई है कि क्या बातें कमरे के अंदर तय होनी चाहिए और क्या बाहर.
अचानक ईवीएम को लेकर पार्टी के रुख में बदलाव है. उसकी विचार-प्रक्रिया में यह अचानक-तत्व ही विस्मयकारी है. लगता है विचार सड़क पर होता है और फैसले कमरे के भीतर. महत्वपूर्ण है उसकी विचार-मंथन प्रक्रिया. पार्टी के इतिहास में विचार-मंथन के दो बड़े मौके इसके पहले आए हैं. एक, लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद और दूसरा 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारी विजय के बाद. पार्टी की पहली बड़ी टूट उस शानदार जीत के बाद ही हुई थी. और उसका कारण था विचार-मंथन का प्रक्रिया-दोष.
कुमार विश्वास ने माना कि ईवीएम की गड़बड़ी एक मुद्दा हो सकता है लेकिन इसे उठाने का सही मंच कोर्ट और चुनाव आयोग है, जहां जाकर हम अपनी आपत्ति दर्ज कराएं. सवाल है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में हार का सामना कर रही मायावती के बयान के फौरन बाद आम आदमी पार्टी ने भी अचानक इस मसले को क्यों उठाया? क्या इस बात पर विचार किया था कि देश के मध्यवर्ग की प्रतिक्रिया क्या है? और यह भी कि यह आरोप मोदी सरकार पर नहीं, चुनाव आयोग पर है, जिसकी छवि अच्छी है.
यह पहला मौका है, जब एमसीडी के चुनावों ने इतने बड़े स्तर पर देशभर का ध्यान अपनी ओर खींचा. वस्तुतः ये नगरपालिका चुनाव की तरह लड़े ही नहीं गए. इनका आयाम राष्ट्रीय था, प्रचार राष्ट्रीय और परिणामों की धमक भी राष्ट्रीय है. सहज रूप से नगर निगम के चुनाव में साज-सफाई और दूसरे नागरिक मसलों को हावी रहना चाहिए था. ऐसा होता तो बीजेपी के लिए जीतना मुश्किल होता, क्योंकि पिछले दस साल से उसका एमसीडी पर कब्जा होने के कारण जनता की नाराजगी स्वाभाविक थी. पर हुआ यह कि दस साल की एंटी इनकम्बैंसी के ताप से बीजेपी को ‘मोदी के जादू’ ने बचा लिया. एमसीडी चुनाव की ज्यादा बड़ी खबर है आम आदमी पार्टी की पराजय. सन 2012 तक दिल्ली में बीजेपी और कांग्रेस ही दो प्रमुख दल थे. सन 2013 के अंतिम दिनों में हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी एक तीसरी ताकत के रूप में उभरी. पर वह नम्बर एक ताकत नहीं थी. सन 2015 में फिर से हुए चुनाव में वह अभूतपूर्व बहुमत के साथ सामने आई. उस विशाल बहुमत ने ‘आप’ को बजाय ताकत देने के कमजोर कर दिया. एक तरफ जनता के मन में अपेक्षाएं बढ़ी, वहीं पार्टी कार्यकर्ता के मन में सत्ता की मलाई खाने की भूख. पार्टी ने अपने विधायकों को पद देने के लिए 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति की. इससे एक तरफ कानूनी दिक्कतें बढ़ीं, वहीं पंजाब में पार्टी के भीतर मारा-मारी बढ़ी, जहाँ सत्ता मिलने की सम्भावनाएं बन रहीं थीं.
मतदान के दो-तीन दिन पहले अखबारों में प्रकाशित इंटरव्यू में केजरीवाल ने कहा था, "ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हुई तो हमें 272 में 200 से ज़्यादा सीटें मिलेंगी."
केजरीवाल की बातों में यकीन नहीं बोल रहा है. पंजाब और गोवा में मिली हार से उनका मनोबल पहले से ही टूटा हुआ है.
एमसीडी की हार अब पार्टी के भीतर की कसमसाहट को बढ़ाएगी.
परिणाम आने के एक दिन पहले सोशल मीडिया पर केजरीवाल का एक वीडियो वायरल हुआ था.
इसमें उन्होंने कहा, "अब अगर हम बुधवार को हारते हैं... नतीजे वैसे ही रहते हैं जैसे कि बीती रात बताए गए हैं, तो हम ईंट से ईंट बजा देंगे... आम आदमी पार्टी आंदोलन की उपज है, इसलिए पार्टी वापस अपनी जड़ों की ओर लौटने से हिचकिचाएगी नहीं."
यह पहला मौक़ा है, जब एमसीडी के चुनावों ने इतने बड़े स्तर पर देशभर का ध्यान अपनी ओर खींचा है. वजह है इसमें शामिल तीन प्रमुख दलों की भूमिका. तीनों पर राष्ट्रीय वोटर की निगाहें हैं.
सहज रूप से नगर निगम के चुनाव में साज-सफाई और दूसरे नागरिक मसलों को हावी रहना चाहिए था, पर प्रचार में राजनीतिक नारेबाज़ी का ज़ोर रहा.
सवाल तीन हैं. क्या एमसीडी की इनकम्बैंसी के ताप से बीजेपी को 'मोदी का जादू' बचा ले जाएगा? क्या 'आप' की धाक बदस्तूर है? और क्या कांग्रेस की वापसी होगी?
नतीजे जो भी हों विलक्षण होंगे, क्योंकि दिल्ली का वोटर देश के सबसे समझदार वोटरों में शुमार होता है.
साल 2012 में जिस वक़्त एमसीडी को तीन टुकड़ों में बाँटा जा रहा था, तब दिल्ली में शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी. उस वक्त विभाजन के पीछे प्रशासनिक कारणों के अलावा राजनीतिक हित भी नजर आ रहे थे.
कांग्रेस को लगता था कि इस तरह से एमसीडी पर क़ाबिज होने के विकल्प बढ़ जाएंगे. पर कांग्रेस को उसका लाभ कभी नहीं मिला.
एमसीडी के साल 1997 से 2012 तक के चार में से तीन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत हुई है.
साल 2002 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब एमसीडी की 134 में से 107 सीटें कांग्रेस ने जीत कर पहला करारा राजनीतिक संदेश दिया था. उस चुनाव में बीजेपी को केवल 17 सीटें मिलीं थीं.
उसके पहले 1997 के चुनाव में बीजेपी को 79 और कांग्रेस को 45 सीटें मिलीं थीं. साल 2007 के चुनाव में कुल सीटों की संख्या बढ़कर 272 हो गई.
मई 2014 में लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने बजाय आत्ममंथन करने के घोषणा की कि हम बाउंस बैक करेंगे। उस साल नवम्बर के महीने में मोदी सरकार के 6 महीने के कार्यकाल के दौरान विभिन्न मुद्दों पर यू-टर्न लेने का आरोप लगाते हुए बुकलेट जारी की। '6 महीने पार, यू टर्न सरकार' टाइटल वाली इस बुकलेट में विभिन्न मुद्दों पर बीजेपी सरकार की 22 'पलटियों' का जिक्र किया गया था। कांग्रेस को लगता था कि उसने कहीं नारेबाजी में गलती की है। उसके बाद सन 2015 में पार्टी ने आक्रामक होने का फैसला किया। संसद के मॉनसून सत्र में व्यापम और सुषमा स्वराज वगैरह के खिलाफ मोर्चा खोला गया। संसदीय कार्यवाही ठप कर दी गई। उसके बाद से पार्टी की हर कोशिश विफल हो रही है। उसे हाल में एक मात्र सफलता पंजाब में मिली है, पर अकाली-भाजपा सरकार की ‘एंटी इनकम्बैंसी’ को देखते हुए इसे पार्टी नेतृत्व की सफलता नहीं कहा जा सकता।
पिछले साल नवम्बर में की गई नोटबंदी के खिलाफ कांग्रेस और विपक्ष ने हंगामा खड़ा किया, पर वह जनता के मूड को समझने में विफल रहा। सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर कांग्रेसी बयान उल्टे पड़े। अब लालबत्ती हटाने का फैसला तुरुप का पत्ता साबित हो रहा है। भाजपा के बाहर और शायद भीतर भी, मोदी विरोधियों को इंतज़ार है कि एक ऐसी घड़ी आएगी, जब यह विजय रथ धीमा पड़ेगा, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार को सन 2015 में पहले दिल्ली और बाद में बिहार के विधानसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा था। पर इन दो झटकों को छोड़ दें तो और कोई बड़ी विफलता उसे नहीं मिली है। पर उत्तर प्रदेश के परिणामों ने तो गैर-भाजपा विपक्ष के हाथों के तोते उड़ा दिए हैं। उन्हें लगता है कि सन 2019 के चुनाव भी गया बीजेपी की गोद में। हाल में हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद देश के 15 राज्य बीजेपी के झंडे तले आ गए हैं।
प्रमोद जोशीवरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
साल 2015 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की असाधारण जीत नहीं हुई होती तो आज आज दिल्ली नगर निगम के चुनावों का राष्ट्रीय महत्व नहीं होता.
इसी तरह हाल में अगर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में असाधारण जीत नहीं मिली होती तो एमसीडी के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की हार सुनिश्चित मान ली जाती. एंटी इनकम्बैंसी बड़ी गहरी है.
फिर भी यहाँ पार्टी जीत गई तो इसका मतलब है कि काम नहीं मोदी का नाम बोलता है. बीजेपी के पार्षदों के काम से जनता खुश नहीं रही. दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी अंदरूनी तौर पर बुरी तरह हिली हुई है. वह तो वैसे ही सिर झुकाकर हार मानने को तैयार नजर आती है.
पर पंजाब में उसकी सरकार बन जाने के बाद एमसीडी के चुनावों में उसकी उम्मीदें बँध गई हैं. राजौरी गार्डन की हार भी कांग्रेस को जीत जैसी खुशनुमा लगी, क्योंकि वह दूसरे नम्बर पर आ गई.
उसे अब लगता है कि आम आदमी पार्टी की घंटी बज गई है. उसका वोट अब कांग्रेस को मिलेगा. एमसीडी में जीतने वाले के साथ-साथ दूसरे नम्बर पर रहना भी महत्वपूर्ण होगा. हो तो यह भी सकता है कि किसी को पूर्ण बहुमत न मिले?
फटाफट राजनीति
गोवा, पंजाब और राजौरी गार्डन में आम आदमी पार्टी की हार ने टी-20 क्रिकेट जैसी फटाफट राजनीति की झलक दिखाई है. कहाँ तो सन 2015 में उम्मीद से कई गुना बड़ी जीत, और कहाँ जमानत जब्त. आम आदमी पार्टी बड़ी उम्मीदें लेकर एमसीडी चुनाव में उतरी थी, पर पहली सीढ़ी में ही धड़ाम होने का अंदेशा खड़ा हो गया है. चुनाव दो-तरफ़ा नहीं, तीन-तरफ़ा हो गया है.
तीन कोने के चुनाव जोखिम भरे होते हैं. पार्टियों का जोड़-घटाना अपने पक्ष में पड़ने वाले वोटों से ज्यादा खिलाफ पड़ने वाले वोटों पर भी निर्भर करता है. अरविंद केजरीवाल ने चुनाव के ठीक पहले दिल्ली के भाजपा-विरोधी वोटरों से अपील की है कि वे अपना वोट कांग्रेस को देकर उसे बरबाद न करें. यह वैसी ही अपील है जैसी उत्तर प्रदेश के मुसलमान वोटरों से की थी कि वे भाजपा को हराना चाहते हैं तो अपना वोट बँटने न दें.
वैश्वीकरण भ्रामक शब्द है. प्राकृतिक रूप से दुनिया एक है, पर हजारों साल के राजनीतिक विकास के कारण हमने सीमा रेखाएं तैयार कर ली हैं. ये रेखाएं राजनीतिक सत्ता और व्यापार के कारण बनी थीं. बाजार का विकास बगैर व्यापार के सम्भव नहीं था. दुनिया का कोई भी देश अपनी सारी जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता. राजनीतिक सीमा रेखाओं को पार करके जैसे ही व्यापारियों ने बाहर जाना शुरू किया, कानूनी बंदिशों ने शक्ल लेनी शुरू कर दी. जिस देश से व्यापारी बाहर जाता है, वहाँ की बंदिशें है, जिस देश से होकर गुजरेगा, वहाँ के बंधन हैं और जहाँ माल बेचेगा वहाँ की सीमाएं हैं. व्यापार केवल माल का ही नहीं होता. सेवाओं, पूँजी, मानव संसाधन और बौद्धिक सम्पदा का भी होता है.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया ने इन सवालों पर सोचना शुरू किया और इन बातों को लेकर लम्बा विमर्श शुरू हुआ. सन 1947 में 23 देशों ने जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड (गैट) पर दस्तखत करके इस वैश्विक वार्ता की पहल की. यह वार्ता 14 अप्रैल 1994 को मोरक्को के मराकेश शहर में पूरी हुई. उसके पहले 1986 से लेकर 1994 गैट के अंतर्गत बहुपक्षीय व्यापार वार्ताएं चलीं, जो लैटिन अमेरिका के उरुग्वाय से शुरू हुईं थीं. इसमें 123 देशों ने हिस्सा लिया और उसके बाद जाकर विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई. पर वैश्वीकरण का काम इतने भर से पूरा नहीं हो गया. इसके बाद सन 2001 से दोहा राउंड शुरू हुआ, जिसे सन 2004 में पूरा हो जाना चाहिए था, और जो अब तक पूरा नहीं हो सका है.
एक ट्रक के पीछे लिखा था, ‘कृपया आम आदमी पार्टी की स्पीड से न चलें...।’ आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली की राजौरी गार्डन विधानसभा सीट पर हुए उप चुनाव का परिणाम खतरनाक संदेश लेकर आया है। पार्टी इस हार पर ज्यादा चर्चा करने से घबरा रही है। उसे डर है कि अगले हफ्ते होने वाले एमसीडी के चुनावों के परिणाम भी ऐसे ही रहे तो लुटिया डूबना तय है। इसके बाद पार्टी का रथ अचानक ढलान पर उतर जाएगा। लगता है कि ‘नई राजनीति’ का यह प्रयोग बहुत जल्दी मिट्टी में मिलने वाला है।
हाल में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा है कि छह महीने में दिल्ली में एक बार फिर विधानसभा चुनाव होंगे। पता नहीं उन्होंने यह बात क्या सोचकर कही थी, पर यह सच भी हो सकती है। आम आदमी पार्टी का उदय जिस तेजी से हुआ था, वह तेजी उसकी दुश्मन साबित हो रही है। जनता ने उससे काफी बड़े मंसूबे बाँध लिए थे। पर पार्टी सामान्य दलों से भी खराब साबित हुई। उसमें वही लोग शामिल हुए जो मुख्यधारा की राजनीति में सफल नहीं हो पाए थे। हालांकि सन 2015 के चुनाव ने पार्टी को 70 में से 67 विधायक दिए थे, पर अब कितने उसके साथ हैं, कहना मुश्किल है।
दिल्ली की राजौरी गार्डन विधानसभा सीट पर हुए उप चुनाव के परिणामों से आम आदमी पार्टी की उलटी गिनती शुरू हो गई है. एमसीडी के चुनाव में यही प्रवृत्ति जारी रही तो माना जाएगा कि ‘नई राजनीति’ का यह प्रयोग बहुत जल्दी मिट्टी में मिल गया.
उप-चुनावों के बाकी परिणाम एक तरफ और दिल्ली की राजौरी गार्डन सीट के परिणाम दूसरी तरफ हैं. जिस तरह से 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम नाटकीय थे, उतने ही विस्मयकारी परिणाम राजौरी गार्डन सीट के हैं.
आम आदमी पार्टी के नेता मनीष सिसौदिया मानते हैं कि यह हार इसलिए हुई, क्योंकि इस इलाके की जनता जरनैल सिंह के छोड़कर जाने से नाराज थी. यानी पार्टी कहना चाहती है कि यह पूरी दिल्ली का मूड नहीं है, केवल राजौरी गार्डन की जनता नाराज है.
हाल में भिंड में ईवीएम मशीन को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ उसके पीछे जो बात सामने आ रही है, वह यह कि एक अखबार की अस्पष्ट खबर के कारण संदेश गया कि ईवीएम का कोई भी बटन दबाया गया तब हर बार कमल की पर्ची बाहर निकली। चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि ऐसा नहीं हुआ था। बात का बतंगड़ बना था। इसके लिए प्रत्यक्षतः वह अखबार भी जिम्मेदार है, जिसने विवाद बढ़ जाने के बावजूद यह स्पष्ट नहीं किया कि उसके संवाददाता ने क्या देखा।
चुनाव आयोग और देश के कुछ राजनीतिक दलों के बीच ईवीएम को लेकर विवाद आगे बढ़े उससे पहले सरकार और सुप्रीम कोर्ट को पहल करके कुछ बातों को स्पष्ट करना चाहिए। जिस तरह न्याय-व्यवस्था की साख को बनाए रखने की जरूरत है, उसी तरह देश की चुनाव प्रणाली का संचालन करने वाली मशीनरी की साख को बनाए रखने की जरूरत है। उसकी मंशा को ही विवाद का विषय बनाने का मतलब है, लोकतंत्र की बुनियाद पर चोट। इस वक्त हो यही रहा है, जनता के मन में यह बात डाली जा रही है कि मशीनों में कोई खराबी है।
पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बाद राष्ट्रीय स्तर पर जिस पार्टी के प्रदर्शन का इंतजार था वह है आम आदमी पार्टी। इंतजार इस बात का था कि पंजाब और गोवा में उसका प्रदर्शन कैसा रहेगा। सन 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उसकी अभूतपूर्व जीत के बाद सम्भावना इस बात की थी कि यह देश के दूसरे इलाकों में भी प्रवेश करेगी। हालांकि बिहार विधानसभा के चुनाव में उसने सीधे हिस्सा नहीं लिया, पर प्रकारांतर से महागठबंधन का साथ दिया। उत्तर प्रदेश में जाने की शुरूआती सम्भावनाएं बनी थीं, पर अंततः उसका इरादा त्याग दिया। इसकी एक वजह यह थी कि वह पंजाब और गोवा से अपनी नजरें हटाना नहीं चाहती थी।
सन 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे पंजाब में अपेक्षाकृत सफलता मिली थी। यदि उस परिणाम को आधार बनाया जाए तो उसे 33 विधानसभा क्षेत्रों में पहला स्थान मिला था। इस दौरान उसने अपना आधार और बेहतर बनाया था। बहरहाल पिछले महीने आए परिणाम उसके लिए अच्छे साबित नहीं हुए। और अब इस महीने होने वाले दिल्ली नगर निगम चुनावों में इस बात की परीक्षा भी होगी कि सन 2015 की जीत का कितना असर अभी बाकी है। पंजाब में उसकी जीत हुई होती तो दिल्ली में उससे उत्साह बढ़ता। ऐसा नहीं हुआ।