Saturday, November 16, 2013

बधाई सचिन! इससे पहले कि इन अलंकरणों का पानी उतरे

महात्मा गांधी को भारत रत्न नहीं मिला। किसीको इस बात पर शिकायत नहीं है, क्योंकि गांधी को सरकारी सम्मान की ज़रूरत ही नहीं थी। सरहदी गांधी को हमने सम्मान दिया। नहीं देते तब भी हमारे मन में उनके लिेए वही सम्मान था। हाल में जब भारत रत्न देने के लिेए नियमों को दुरुस्त किया जा रहा था तब यह सम्भावना व्यक्त की गई थी कि शायद यह सचिन तेन्दुलकर को पुरस्कृत करने की तैयारी है। ऐसा नहीं हुआ तो उन्हें राज्यसभा की सदस्यता दे दी गई। हालांकि तब भी काफी लोगों ने याद दिलाया कि हमें हॉकी के जादूगर ध्यानचंद को याद करना चाहिए। कोई बात नहीं महात्मा गांधी की तरह ध्यानचंद को सम्मान के लिए सरकारी अलंकरण की जरूरत नहीं है।

सन 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब अलंकरणों को खत्म करने का फैसला किया गया। मोरारजी देसाई व्यक्तिगत रूप से अलंकरणों के खिलाफ थे। संयोग है कि सन 1991 में मोरारजी को भारत रत्न का ्लंकरण दिया गया। मोरारजी ने उस घोषणा के दिन ही कहा कि मैं ऐसे अलंकरणों के खिलाफ हूँ, पर  आप देना ही चाहते हैं तो मैं क्या कर सकता हूँ। 

सचिन तेन्दुलकर और सीएनआर राव का सम्मान करने पर हमें खुशी है। अपनी प्रतिभाओं पर हमें गर्व करना भी चाहिए। पर लगता है कि सरकार की इच्छा सम्मान करने से ज्यादा उस लोकप्रियता का लाभ लेने में है जो सचिन के संन्यास और मंगलयान के प्रक्षेपण के बाद भारतीय विज्ञान के प्रति विश्वास से उपजी है। मंगलयान तो अभी रास्ते में ही है। सीएनआर राव प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद में हैं। वे काबिल वैज्ञानिक हैं, पर क्या हम अपने काबिल वैज्ञानिकों का सम्मान करते रहते हैं? बहरहाल खुशी है कि हम वैज्ञानिक का सम्मान कर रहे हैं, पर यहां सम्मान करने वालों की सदाशयता पर संदेह है। होमी जहाँगीर भाभा और विक्रम साराभाई को हम क्यों भूल गए? 

नीचे भारत रत्न पाने वालों की सूची है। आप ध्यान से देखें तो पाएंगे कि अलंकरण का रिश्ता राजनीति से भी है।  कुछ बरसों बाद याद आए और कुछ कभी याद ही नहीं आए। दिसम्बर 2011 में सीएनआरआर राव ने कहा था कि डॉ भाभा को भारत रत्न मिलना चाहिए।  डॉ भाभा को भारत रत्न देने की मांग करते हुए मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखूँगा। यह बात उन्होंने तब कही जब सचिन तेंदुलकर को भारत देने की मांग करते हुए मुम्बई क्रिक्रेट असोसिएशन की ओर से पारित प्रस्ताव पर उनसे प्रतिक्रिया माँगी गई।

राव ने कहा, 'यह दुख की बात है कि आज क्रिक्रेट को विज्ञान से अधिक महत्व मिल रहा है। मुझे सचिन को यह सम्मान देने पर विचार करने को लेकर कोई दिक्कत नहीं है लेकिन भाभा के बारे में क्या? हमें इस महान हस्ती को उनके द्वारा दिेए गए व्यापक योगदान को मरणोपरांत भी पहचान देने का शिष्टाचार तो कम से कम होना ही चाहिए।' लगता है कि सरकार को उनकी चिट्ठी मिल गई और उन्हें राव साहब ही सामने नज़र आए जिन्हें सम्मान दे दिया। खुशी है कि  सरकार ने विज्ञान का सम्मान कर दिया। 

भारत रत्नों की सूची

1.Chakravarti Rajgopalachari
1954
Independence activist, last Governor-General
2.Sir C. V. Raman
1954
Physicist
3.Sarvepalli Radhakrishnan
1954
Philosopher, India's First Vice President (1952-1962), and India's Second President(1962-1967)
4.Bhagwan Das
1955
Independence activist, author
5.Mokshagundam Visvesvarayya
1955
Civil engineer, Diwan of Mysore
6.Jawaharlal Nehru
1955
Independence activist, author, first Prime Minister
7.Govind Ballabh Pant
1957
Independence activist, Chief Minister of Uttar Pradesh, Home Minister
8.Dhondo Keshav Karve
1958
Educator, social reformer
9.Bidhan Chandra Roy
1961
Physician, Chief Minister of West Bengal
10.Purushottam Das Tandon
1961
Independence activist, educator
11.Rajendra Prasad
1962
Independence activist, jurist, first President
12.Zakir Hussain
1963
Independence activist, Scholar, third President
13.Pandurang Vaman Kane
1963
Indologist and Sanskrit scholar
14.Lal Bahadur Shastri
1966
Posthumous, independence activist, second Prime Minister
15.Indira Gandhi
1971
Third Prime Minister
16.V. V. Giri
1975
Trade unionist and fourth President
17.K. Kamaraj
1976
Posthumous, independence activist, Chief Minister of Tamil Nadu State
18.Mother Teresa
1980
Catholic nun, founder of the Missionaries of Charity
19.Vinoba Bhave
1983
Posthumous, social reformer, independence activist
20.Khan Abdul Ghaffar Khan
1987
First non-citizen, independence activist
21.M. G. Ramachandran
1988
Posthumous, film actor, Chief Minister of Tamil Nadu
22.B. R. Ambedkar
1990
Posthumous, chief architect of the Indian Constitution, politician, economist, and scholar
23.Nelson Mandela
1990
Second non-citizen and non-Indian recipient, Leader of the Anti-Apartheid movement
24.Rajiv Gandhi
1991
Posthumous, Sixth Prime Minister
25.Vallabhbhai Patel
1991
Posthumous, independence activist, first Home Minister
26.Morarji Desai
1991
Independence activist, fourth Prime Minister
27.Abul Kalam Azad
1992
Posthumous, independence activist, first Minister of Education
28.J. R. D. Tata
1992
Industrialist and philanthropist
29.Satyajit Ray
1992
Bengali Filmmaker
30.A. P. J. Abdul Kalam
1997
Aeronautical Engineer,11th President of India
31.Gulzarilal Nanda
1997
Independence activist, interim Prime Minister
32.Aruna Asaf Ali
1997
Posthumous, independence activist
33.M. S. Subbulakshmi
1998
Carnatic classical singer
34.Chidambaram Subramaniam
1998
Independence activist, Minister of Agriculture
35.Jayaprakash Narayan
1999
Posthumous, independence activist and politician
36.Ravi Shankar
1999
Sitar player
37.Amartya Sen
1999
Economist
38.Gopinath Bordoloi
1999
Posthumous, independence activist, Chief Minister of Assam
39.Lata Mangeshkar
2001
Playback singer
40.Bismillah Khan
2001
Hindustani classical shehnai player
41.Bhimsen Joshi



Monday, November 11, 2013

विधान सभा चुनाव के दाँव और पेच

पाँच राज्यों के विधान सभा चुनाव 204 के लोकसभा चुनावों की सम्भावनाओं के दरवाज़े खोलेंगे। इन चुनावों के बाबत कुछ महत्वपूर्ण जानकारी विविध स्रोतों से जमा करके यहाँ दे रहा हूँ ताकि यदि आप एक जगह काफी चाजें पढ़ना चाहें तो पढ़ लें। सबके लिंक साथ में दिए हैं। 

मोदी जीते तो क्या होगा?


द हिन्दू पिछले कुछ समय से खबरों में है। खासतौर से उसकी कारोबारी संरचना और सम्पादक के रूप में सिद्धार्थ वगदराजन का नियुक्ति को लेकर यह अखबार चर्चा में रहा। नरेन्द्र मोदी की खबरों के प्रकाशन को लेकर प्रबंधन को अपने सम्पादक से शिकायत थी। वैचारिक स्तर पर हिन्दू के दो लेख महत्वपूर्ण रहे हैं। पहला विद्या सुब्रह्मण्यम का लेख था जिसमें कहा गया था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर से हटाई गई पाबंदी सशर्त थी। उस लेख के जबाव में एस गुरुमूर्ति ने लेख लिखा। फिर उसका विद्या सुब्रह्मण्यम ने जबाव दिया।  


इधर 6 नवम्बर को हिन्दू में एन राम का नरेन्द्र मोदी को लेकर लेख छपा। मोदी जीते तो बहुत गलत होगा। इस लेख में गुजरात के 2002 के दंगों को मोदी के लिए कलंक बताया गया है। साथ ही भाजपा के साम्प्रदायिक एजेंडा को खतरनाक बताया गया है। उन्होंने इसके अलावा तीसरी शक्ति के रूप में उभरते साम्प्रदायिकता विरोधी मोर्चे का जिक्र भी किया है।  अलबत्ता एन राम ने कहा है कि मोदी को लोकप्रियता मिल रही है। इस लेख का जबाव भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने दिया है। दोनों लेखों के कुछ महत्वपूर्ण अंश यहाँ दे रहा हूँ, साथ ही इनका लिंक है ताकि आप पूरे लेख पढ़ सकें। नीचे रास्वसं पर बहस से जुड़े लेखों का लिंक भी मिलेगा। एन राम कहते हैं :-


Narendra Modi and why 2002 cannot go away

... It does not require much psephology to see that this significant change in the mood of voters is in inverse proportion to the move towards junk stock status that the Congress has managed to achieve after being at the head of a coalition for nearly a decade. The ruling party has managed this through the bankruptcy of its socio-economic policies and its unmatched levels of corruption. Every public opinion poll that matters puts Mr. Modi and his party in the lead, with some surveys suggesting that the National Democratic Alliance, which at this point has only three constituents — the BJP, the Shiv Sena, and the Shiromani Akali Dal — could win more than 190 of the 272 seats needed to constitute a Lok Sabha majority. No wonder the Congress wants opinion polls proscribed.

It is this unbreakable genetic connection between 2002 and the present that makes it clear that a Modi prime ministership would be disastrous for democratic and secular India — where the Constitution’s most important commandment, that nobody is more or less equal than anyone else, can be honoured in principle as well as in practice.

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

इसके जवाब में प्रकाश जावडेकर ने लिखा है :-

People want to move on, want good governance

First, the real issue is: what was the response of the Gujarat government during the 2002 riots? No doubt, several invaluable lives were lost and properties destroyed in the riots. But to charge the Gujarat administration and police with having shown complicity with the rioters is nothing but crude propaganda. As we all know, the Godhra train carnage in which 59 kar sevaks were brutally burnt down sparked the riots on the morning of February 27. As the trouble broke out, a 70,000-strong police force was deployed to control the situation. The Gujarat government also promptly sought the Army’s help the very same day. Even as the Army was to be mobilised from the border areas (which was done overnight), on the second day itself (February 2002 was a 28-day month), the first flag march of the Army contingent took place in the wee hours of March 1 and The Hindu itself had reported it. Can you recount any riots in the country where 170 rioters got killed in police firing? Had the Gujarat Police and administration shown complicity with the rioters, could such police action have been expected? Therefore, one should not allow the truth to get suppressed under the thickness of bias.


Of the total population in Gujarat, Muslims are less than 10 per cent. But 12 per cent of the police personnel in Gujarat are Muslims and 10 per cent of the government jobs are held by Muslims. The economic uplift of Muslims in Gujarat can be gauged from the fact that 18 per cent of the RTO registration of new two-wheelers is by Muslims. Their four-wheeler registration also is higher than their proportion in the overall population.... People want to move on and are yearning for “good governance.” That is why Mr. Modi has caught the popular imagination of every youth, or aged, literate or semi-illiterate people of this country and is working hard to realise it.
पूरा लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

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बूढ़ी कांग्रेस को युवा राजनेताओं को बढ़ाने से रोका किसने है?

कांग्रेस का विरोध माने भाजपा का समर्थन ही नहीं है। और भाजपा से विरोध का मतलब कांग्रेस की समर्थन ही नहीं माना जाना चाहिए। हमने हाल के वर्षों में राजनीति को देखने के चश्मे ऐसे बना लिए हैं कि वयक्ति अनुमान लगाने लगा है कि असल बात क्या है। इसके लिए राजनीतिक शिक्षण भी दोषी है। राज माया के पिछले अंक में मैने नरेन्द्र मोदी के बारे में लिखा था। इस बार राहुल गांधी पर लिखा है। देश के राजनीतिक दलों के अनेक दोष सामाजिक दोष भी हैं, पर हमें सबको देखने समझने की कोशिश भी करनी चाहिए।

परिवहन मंत्री ऑस्कर फर्नांडिस ने हाल में अचानक एक रोज कहा, राहुल गांधी के अंदर प्रधानमंत्री बनने के पूरे गुण हैं। उनकी देखा-देखी सुशील कुमार शिंदे, पीसी चाको और सलमान खुर्शीद से लेकर जीके वासन तक सबने एक स्वर में बोलना शुरू कर दिया कि राहुल ही होंगे प्रधानमंत्री। पिछले महीने बीजेपी के भीतर नेतृत्व को लेकर जैसी सनसनी थी वैसी तो नहीं, पर कांग्रेस के भीतर अचानक राहुल समर्थन का आवेश अब नजर आने लगा है। यह आवेश अभी पार्टी के भीतर ही है, बाहर नहीं। राहुल के समर्थन की होड़ में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता। मैक्सिकन वेव की तरह लहरें उठ रहीं हैं और आश्चर्य नहीं कि देखते ही देखते मोहल्ला स्तर तक के नेता राहुल के समर्थन में बयान जारी करने लगें। लगभग उसी अंदाज में जैसे सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी के पक्ष में समर्थन की लहर उठती थी। अचानक कहीं से प्रियंका गांधी का नाम सामने आया कि मोदी के मुकाबले कांग्रेस प्रियंका को सामने ला रही है। यह खबर पार्टी के भीतर से आई या किसी विरोधी न फैलाई, पर पूरे दिन यह मीडिया की सुर्खियों में रही।

Sunday, November 10, 2013

मंगलयान का गरीबी से बैर नहीं

भारत का पहला अंतरग्रहीय अंतरिक्ष यान धरती की कक्षा में स्थापित होने के बाद अपने अगले चरण पूरे कर रहा है। हमसे पहले एशिया के सिर्फ दो देश इस काम को करने की हिम्मत कर पाए हैं और दोनों विफल हुए हैं। सन 1998 में जापान का नोज़ोमी प्रोपल्शन प्रणाली में खराबी और सौर लपटों में उपकरणों के झुलस जाने के कारण मंगल की कक्षा में प्रवेश करने के बजाय आगे निकल गया। इसके बाद सन 2011 में चीन ने अपना यान यिंग्वो-1 रूसी फोबोस-ग्रंट से जोड़कर भेजा। रूसी यान पृथ्वी की कक्षा से बाहर निकल ही नहीं पाया और पिछले साल धरती पर आ गिरा।

भारतीय विज्ञान का शोकेस मंगल अभियान

मंगलयान अभियान के बारे में मीडिया की अपेक्षाकृत बेहतर कवरेज के बावजूद बड़ी संख्या में लोग इसके बारे में काफी कम जानते हैं। जानते भी हैं तो यही कि कब यह धरती की कक्षा से बाहर निकलेगा और किस तरह से मंगल की कक्षा में प्रवेश करेगा। काफी लोगों को यह समझ में नहीं आता कि इस सब की ज़रूरत क्या है। मान लिया हमारे यान ने वहाँ मीथेन होने का पता लगा ही लिया तो इससे हमें क्या मिल जाएगा? हम पता नहीं लगाते तो अमेरिका और रूस वाले लगाते। मंगल के पत्थरों, चट्टानों और ज्वालामुखियों की तस्वीरें लाने के लिए 450 करोड़ फूँक कर क्या मिला? इससे बेहतर होता कि हम कुछ गरीबों के बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम करते। पीने के पानी के बारे में सोचते। भोजन, दवाई का इंतज़ाम करते। यह सवाल भी उन लोगों के मन में आया है, जिन्हें सचिन तेन्दुलकर की हाहाकारी कवरेज से बाहर निकल कर कुछ सोचने-समझने की फुरसत है। भारत के बाहर कुछ लोगों को लगता है कि हमने चीन से प्रतिद्विंदता में यह अभियान भेजा है। देश की राजनीति से जुड़ा पहलू भी है। शायद यूपीए सरकार ने अपनी उपलब्धियाँ गिनाने के लिए मंगलयान भेजा है। पिछले साल जुलाई में इस अभियान को स्वीकृति मिली। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में इसकी घोषणा की और आनन-फानन इसे भेज दिया गया।

Thursday, November 7, 2013

स्पेस रिसर्च फिजूलखर्ची नहीं

 मंगलयान के प्रक्षेपण के बाद कुछ सवाल उठे हैं। गरीबों के देश को ऐसी फिजूलखर्ची क्या शोभा देती है? इसके बाद क्या भारत-चीन अंतरिक्ष रेस शुरू होगी? भारत की शान बढ़ेगी? क्या यह यूपीए सरकार की उपलब्धियों को शोकेस करना है? प्रक्षेपण के ठीक पहले व़ॉल स्ट्रीट जरनल ने लिखा, इस सफलता के बाद भारत अंतरग्रहीय अनुसंधान में चीन और जापान को पीछे छोड़ देगा. इकोनॉमिस्ट ने लिखा कि जो देश 80 करोड़ डॉलर (लगभग 5000 करोड़ रुपए) दीवाली के पटाखों पर खर्च कर देता है उसके लिए 7.4 करोड़ डॉलर (450 करोड़ रुपए) का यह एक रॉकेट दीवाली जैसा रोमांच पैदा करेगा. प्रक्षेपण के वक्त सुशील कुमार शिंदे भी यही बात कह रहे थे. पर क्या यह परीक्षण हमारे जीवन में बढ़ती वैज्ञानिकता का प्रतीक है? क्या हम विज्ञान की शिक्षा में अग्रणी देश हैं?   

Wednesday, October 30, 2013

बनता क्यों नहीं तीसरा मोर्चा?

 बुधवार, 30 अक्तूबर, 2013 को 11:22 IST तक के समाचार
तीसरे मोर्चे की संभावनाएं
दिल्ली में बुधवार 30 अक्तूबर को देश के तकरीबन एक दर्जन राजनीतिक दलों के नेता जमा होकर चुनाव के पहले और उसके बाद के राजनीतिक गठबंधन की सम्भावना पर विचार करने जा रहे हैं.
व्यावहारिक रूप से यह तीसरे मोर्चे की तैयारी है, पर बनाने वाले ही कह रहे हैं कि औपचारिक रूप से तीसरा मोर्चा चुनाव के पहले बनेगा नहीं. बन भी गया तो टिकेगा नहीं.
हाल में ममता बनर्जी ने संघीय मोर्चे की पेशकश की थी. यह पेशकश नरेन्द्र मोदी के भूमिका-विस्तार के साथ शुरू हुई. पर वे इस विमर्श में शामिल नहीं होंगी, क्योंकि मेज़बान वामपंथी दल हैं.
राष्ट्रीय परिदृश्य पर कांग्रेस और भाजपा दोनों को लेकर वोटर उत्साहित नहीं है, पर कोई वैकल्पिक राजनीति भी नहीं है. उम्मीद की किरण उस अराजकता और अनिश्चय पर टिकी है जो चुनाव के बाद पैदा होगा.
ऐसा नहीं कि क्लिक करेंतीसरे मोर्चे की कल्पना निरर्थक और निराधार है. देश की सांस्कृतिक बहुलता और सुगठित संघीय व्यवस्था की रचना के लिए इसकी ज़रूरत है.
पर क्या कारण है कि इसके कर्णधार चुनाव में उतरने के पहले एक सुसंगत राजनीतिक कार्यक्रम के साथ चुनाव में उतरना नहीं चाहते?

खतरों से लड़ने वाली राजनीति

ममता बनर्जी
ममता बनर्जी ने संघीय मोर्चे की पेशकश की थी.
हमारी राजनीति को ख़तरों से लड़ने का शौक है. आमतौर पर यह ख़तरों से लड़ती रहती है.
1967 के बाद से गठबंधनों की राजनीति को प्रायः उसके मुहावरे क्लिक करेंवामपंथी पार्टियाँदेती रहीं हैं. गठबंधन राजनीति के फोटो-ऑप्स में पन्द्रह-बीस नेता मंच पर खड़े होकर दोनों हाथ एक-दूसरे से जोड़कर ऊपर की ओर करते हैं तब एक गठबंधन का जन्म होता है. यह गठबंधन किसी ख़तरे से लड़ने के लिए बनता है.
जब तक नेहरू थे तब ख़तरा यह था कि वे नहीं रहे तो क्या होगा? इंदिरा गाँधी का उदय देश की बदलाव विरोधी ताकतों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए हुआ था. संयोग से वे बदलाव विरोधी ताकतें कांग्रेस के भीतर ही थीं, पर प्रतिक्रियावादी थीं. जेपी आंदोलन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ था.

Sunday, October 27, 2013

पाक को भी चुकानी होगी इस तनाव की कीमत

अमेरिका ने आधिकारिक रूप से नवाज़ शरीफ की इस सलाह को खारिज कर दिया कि कश्मीर-मामले में उसे मध्यस्थता करनी चाहिए। अमेरिका का कहना है कि दोनों देशों को आपसी संवाद से इस मसले को सुलझाना चाहिए। अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता जेन पसाकी ने ट्विटर पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा कि हमारे दृष्टिकोण में बदलाव नहीं हुआ है। अमेरिका दोनों देशों के बीच संवाद को बढ़ावा देता रहेगा। उधर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सीमा पर लगातार गोलीबारी को लेकर नवाज़ शरीफ के प्रति अपनी निराशा को व्यक्त किया है। नियंत्रण रेखा पर शांति बनाए रखने के लिए दोनों देशों के बीच सन 2003 में जो समझौता हुआ था, वह पिछले दस साल से अमल में आ रहा था। अब ऐसी क्या बात हुई कि पिछले 10 महीनों से लगातार कुछ न कुछ हो रहा है।

Saturday, October 26, 2013

भावनाओं के भँवर में गोते लगाते राहुल

लगता है कि राहुल गांधी के भाषणों को लिखने वाले या उनके इनपुट्स तय करने वाले तीन-चार दशक पुरानी परम्परा के हिसाब से चल रहे हैं। उन्हें लगता है कि नेता जो बोल देगा उसका तीर सीधे निशाने पर जाकर लगेगा। उसके बाद अहो-अहो कहने वाली मंडली उस बात को आसमान पर पहुँचा देगी। मुज़फ्फरनगर के युवाओं के पाकिस्तानी खुफिया एजेंटों के सम्पर्क में आने वाली बात कह कर राहुल ने नासमझी का परिचय दिया है। नरेन्द्र मोदी के हाथों उनकी फज़ीहत हुई सो अलग किसी दूसरे समझदार व्यक्ति को भी यह बात समझ में नहीं आएगी। उन्हें अपने भाषणों में सावधानी बरतनी होगी।
राहुल गांधी अपने राजनीतिक जीवन के बेहद महत्वपूर्ण मोड़ पर हैं। निर्णायक रूप से उनके सफल या विफल होने में अभी कुछ महीने बाकी हैं, पर अंतर्विरोध उजागर होने लगे हैं। उनकी विश्व-दृष्टि और राजनीतिक मिशन को लेकर सवाल उठे हैं। अपनी पार्टी का भविष्य वे किस रूप में देख रहे हैं और इसमें व्यक्तिगत रूप से वे क्या भूमिका निभाना चाहते हैं? ऐसे समय में जब उन्हें दृढ़-निश्चयी, सुविचारित और सुलझे राजनेता के रूप में सामने आना चाहिए, वे संशयी और उलझे व्यक्ति के रूप में नज़र आ रहे हैं। पहले अपनी माँ, फिर पिता, फिर दादी का ज़िक्र करते वक्त बेशक वे अपनी भावनाओं को व्यक्त कर रहे हैं और इसका उन्हें अधिकार है। पर इससे विसंगति पैदा होती है। उनके परिवार की त्रासदी पर पूरे देश की हमदर्दी है। वे कहते हैं कि उन्होंने मेरे पिता को मारा, मेरी दादी की हत्या की और शायद एक दिन मेरी भी हत्या हो सकती है। ऐसा कहते ही वे अपने पारिवारिक अंतर्विरोधों का पिटारा खोल रहे हैं।

Thursday, October 24, 2013

पाकिस्तान से निपटने का विकल्प क्या है?

जम्मू-कश्मीर में गोलाबारी अब चिंताजनक स्थिति में पहुँच गई है. मंगलवार को पाकिस्तानी सेना ने लाउडस्पीकर पर घोषणा करके केरन सेक्टर के एक आदर्श गाँव में कम्युनिटी हॉल का निर्माण रुकवा दिया. सन 2003 में दोनों देशों ने नियंत्रण रेखा के आसपास के गाँवों में जीने का माहौल बनाने का समझौता किया था. लगता है वह खत्म हो रहा है. पिछले दस महीनों से कड़वाहट बढ़ती जा रही है. जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पाकिस्तान के खिलाफ कड़ी कार्रवाई चाहते हैं. उन्होंने कहा कि यदि पाकिस्तान लाइन ऑफ कंट्रोल पर संघर्ष विराम का उल्लंघन करना जारी रखता है तो केंद्र सरकार को अन्य विकल्पों पर विचार करना चाहिए. विकल्प क्या है? उधर नवाज शरीफ ने अमेरिका से हस्तक्षेप की माँग करके घाव फिर से हरे कर दिए हैं. नवाज शरीफ रिश्तों को बेहतर बनाने की बात करते हैं वहीं भारत को सबसे तरज़ीही मुल्क का दर्ज़ा देने भर को तैयार नहीं हैं. उनका कहना है कि इस मामले पर भारत के चुनाव के बाद बात होगी. क्या मौज़ूदा तनाव का रिश्ता लोकसभा चुनाव से भी जुड़ा है? क्या पाकिस्तान को लगता है कि भारत में सत्ता-परिवर्तन होने वाला है? सत्ता-परिवर्तन हो भी गया तो क्या भारतीय विदेश नीति में कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा?

Wednesday, October 23, 2013

शटडाउन अंकल सैम

प्रसिद्ध पत्रिका इकोनॉमिस्टने लिखा है, आप कल्पना करें कि किसी टैक्सी में बैठे हैं और ड्राइवर तेजी से चलाते हुए एक दीवार की और ले जाए और उससे कुछ इंच पहले रोककर कहे कि तीन महीने बाद भी ऐसा ही करूँगा। अमेरिकी संसद द्वारा अंतिम क्षण में डैट सीलिंग पर समझौता करके फिलहाल सरकार को डिफॉल्ट से बचाए जाने पर टिप्पणी करते हुए पत्रिका ने लिखा है कि इस लड़ाई में सबसे बड़ी हार रिपब्लिकनों की हुई है। डैमोक्रैटिक पार्टी को समझ में आता था कि अंततः इस संकट की जिम्मेदारी रिपब्लिकनों पर जाएगी। उन्होंने हासिल सिर्फ इतना किया कि लाभ पाने वालों की आय की पुष्टि की जाएगी। पर क्या डैमोक्रेटों की जीत इतने भर से है कि बंद सरकार खुल गई और डिफॉल्ट का मौका नहीं आया? वे हासिल सिर्फ इतना कर पाए कि डैट सीलिंग तीन महीने के लिए बढ़ा दी गई। अब तमाशा नए साल पर होगा। यह संकट यों तो अमेरिका का अपना संकट लगता है, पर इसमें भविष्य की कुछ संभावनाएं भी छिपीं हैं। अमेरिकी जीवन की महंगाई हमारे जैसे देशों के लिए अच्छा संदेश लेकर भी आई है। कम से कम स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हम न केवल विश्व स्तरीय है, बल्कि खासे किफायती भी हैं। इसके पहले अमेरिका में आर्थिक प्रश्नों पर मतभेद सरकार के आकार, उसके ख़र्चों और अमीरों पर टैक्स लगाने को लेकर होते थे, पर इस बार ओबामाकेयर का मसला था।

Tuesday, October 22, 2013

सोशल मीडिया का हस्तक्षेप यानी, ठहरो कि जनता आती है

ग्वालियर में राहुल गांधी की रैली खत्म ही हुई थी कि मीनाक्षी लेखी का ट्वीट आ गया माँ की  बीमारी का नाम लेने पर तीन कांग्रेसी सस्पेंड कर दिए गए, अब राहुल गांधी वही कर रहे हैं। उधर दिग्विजय सिंह ने ट्विटर पर नरेन्द्र मोदी को चुनौती दी, मुझसे बहस करो। रंग-बिरंगे ट्वीटों की भरमार है। माना जा रहा है कि सन 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार सोशल मीडिया का असर देखने को मिलेगा। इस साल अप्रेल में 'आयरिस नॉलेज फाउंडेशन और 'इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया' ने 'सोशल मीडिया एंड लोकसभा इलेक्शन्स' शीर्षक से एक अध्ययन प्रकाशित किया था, जिसमें कहा गया था कि भारत की 543 में से 160 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जिनके नतीजों पर सोशल मीडिया का प्रभाव पड़ेगा। सोशल मीडिया का महत्व इसलिए भी है कि चुनाव से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार पर रोक लगने के बाद भी फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग सक्रिय रहेंगे। उनपर रोक की कानूनी व्यवस्था अभी तक नहीं है। दिल्ली में आप के पीछे सोशल मीडिया की ताकत भी है।

Sunday, October 20, 2013

राडिया टेपों की तार्किक परिणति

सुप्रीम कोर्ट ने कॉरपोरेट लॉबीस्ट नीरा राडिया के साथ प्रभावशाली लोगों की बातचीत से जुड़े छह मामलों में आगे जाँच के आदेश देकर इसे तार्किक परिणति तक पहुँचा दिया है। नीरा राडिया की नौकरशाहों, कारोबारियों और नेताओं के साथ रिकार्ड की गई बातचीत के बारे में अदालत ने कहा है कि पहली नजर में इसमें सरकारी अधिकारियों और निजी उद्यमियों की मिलीभगत से किसी गहरी साजिशका पता चलता है। बातचीत से जाहिर होता है कि प्रभावशाली लोग किसी दूसरे मकसद से निजी लाभ उठाने के लिए भ्रष्ट तरीके अपनाते हैं। नीरा राडिया मामला हमारी व्यवस्था के भीतर छिपे भ्रष्ट-आचरण और उसके निराकरण की सामर्थ्य का टेस्ट-केस साबित होगा। अभी तक यह मामला टू-जी के साथ पुछल्ले की तरह जुड़ा था। अब यह पूरी तरह स्वतंत्र मामलों का एक समूह बनेगा। अदालत ने इसके पहले सीबीआई को फटकार लगाई थी कि वह इसे केवल टू-जी से जोड़कर न चले। अब कोर्ट ने मिली-भगत और गहरी साजिश जैसे शब्दों का प्रयोग करके इस मामले को काफी महत्वपूर्ण बना दिया है। सम्भव है कल केवल ये टेप देश के रूपांतरण के सूत्रधार बनें।

Monday, October 14, 2013

इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून अब न्यूयॉर्क टाइम्स बना

अंतरराष्ट्रीय खबरों के लिए दुनिया के सबसे मशहूर अखबार इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून का आज आखिरी अंक प्रकाशित हुआ। कल यानी 15 अक्टूबर से यह नए नाम इंटरनेशनल न्यूयॉर्क टाइम्स नाम से निकलेगा। यह इस अखबार का पहली बार पुनर्नामकरण संस्कार नहीं हुआ ङै। न्यूयॉर्क हैरल्ड नाम के अमेरिकी अखबार ने सन 1887 में जब अपना यूरोप संस्करण शुरू किया तो उसका नाम रखा न्यूयॉर्क हैरल्ड ट्रिब्यून, जो बाद में इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रब्यून बना।  इंटरनेशनल न्यूयॉर्क टाइम्स बनने का मतलब है कि यह अब पूरी तरह न्यूयॉर्क टाइम्स की सम्पत्ति हो गया है। कुछ साल पहले तक यह अखबार वॉशिंगटन पोस्ट के सहयोग से चल रहा था। इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून का एक भारतीय संस्करण हैदराबाद से निकलता था, जिसे डैकन क्रॉनिकल निकालता था। हालांकि भारत से विदेशी प्रकाशन को निकालना सम्भव नहीं है, पर कई प्रकार की जटिल जुगत करके इसे निकाला जा रहा था और इसके सम्पादक एमजे अकबर थे। यह संस्करण कल से नहीं मिलेगा। 

सन 2007 के वीडियो में देखिए किस तरह तैयार होता था इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून

Sunday, October 13, 2013

सरकार की ओर से जवाब तो राहुल को भी देना होगा

इंटरनेट पर पप्पू और फेंकू दो सबसे ज्यादा प्रचलित शब्द हैं। जाने-अनजाने भारतीय राजनीति दो नेताओं के इर्द-गिर्द सिमट गई है। परम्परा से भारतीय जनता पार्टी व्यक्ति केन्द्रित पार्टी नहीं है। और कांग्रेस हमेशा व्यक्ति केन्द्रित पार्टी रही है। पर इस बार दोनों अपनी परम्परागत भूमिकाओं से हट गईं हैं। भाजपा का सारा जोर व्यक्तिगत नेतृत्व पर है और कांग्रेस नेतृत्व के इस सीधे टकराव से भागती नजर आती है। सच बात है कि भारतीय चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तरह नहीं होते जहाँ दो राष्ट्रीय नेता आमने-सामने बहस करें। यहाँ संसद का चुनाव होता है, जिसमें पार्टियाँ महत्वपूर्ण होती हैं। और संसदीय दल अपने नेता का चुनाव करते हैं। वास्तव में यह आदर्श स्थिति है। इंदिरा इज़ इंडिया तो कांग्रेस का ही नारा था। सच यह भी है कि लाल बहादुर शास्त्री, पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह तीनों नेताओं को प्रधानमंत्री बनने का मौका तब मिला जब परिवार का कोई नेता तैयार नहीं था। पर आज स्थिति पूरी तरह बदली हुई है।

Thursday, October 10, 2013

अपने लिए कुआं और खाई दोनों खोदे हैं कांग्रेस ने तेलंगाना में

कांग्रेस के लिए खौफनाक अंदेशों का संदेश लेकर आ रहा है तेलंगाना. जैसा कि अंदेशा था इसकी घोषणा पार्टी के लिए सेल्फगोल साबित हुई है. इस तीर को वापस लेने और छोड़ने दोनों हालात में उसे ही घायल होना है. सवाल इतना है कि नुकसान कम से कम कितना हो और कैसे हो? इस गफलत की जिम्मेदारी लेने को पार्टी का कोई नेता तैयार नहीं है. प्रदेश की जनता, उसकी राजनीति और प्रशासन दो धड़ों में बँट चुका है. मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी इस फैसले से खुद को काफी पहले अलग कर चुके हैं. शायद 2014 के चुनाव के पहले यह राज्य बन भी नहीं पाएगा. यानी कि इसे लागू कराने की जिम्मेदारी आने वाली सरकार की होगी.

Sunday, October 6, 2013

चार चुनाव, तीन परीक्षाएं

इसे सेमीफाइनल कहें या कोई और नाम दें, पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव काफी महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं। इनमें नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी और दिल्ली में आप की परीक्षा होगी। सन 2014 के लोकसभा चुनाव में यह तीनों बातें महत्वपूर्ण साबित होंगी। इन पाँचों राज्यों से लोकसभा की 73 सीटें हैं। हालांकि लोकसभा और विधानसभा के मसले अलग होते हैं, पर इस बार लगता है कि विधान सभा चुनावों पर स्थानीय मसलों के मुकाबले केन्द्रीय राजनीति का असर दिखाई पड़ेगा, जैसाकि दिल्ली के पालिका चुनावों में नजर आया था। पांच में फिलहाल तीन राज्य दिल्ली, मिजोरम और राजस्थान कांग्रेस के पास हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ एक दशक से भाजपा के मजबूत किले साबित हो रहे हैं। दोनों पार्टियों में अपनी बचाने और दूसरे की हासिल करने की होड़ है। मिजोरम को छोड़ दें तो शेष चार राज्य हिन्दी भाषी हैं और यहाँ मुकाबले आमने-सामने के हैं। दिल्ली में आप के कारण एक तीसरा फैक्टर जुड़ा है। अन्ना हजारे के आंदोलन की ओट में उभरी आम आदमी पार्टी परम्परागत राजनीतिक दल नहीं है। शहरी मतदाताओं के बीच से उभरी इस पार्टी के तौर-तरीके शहरी हैं। इसने दिल्ली के उपभोक्ताओं, ऑटो चालकों और युवा मतदाताओं की एक टीम तैयार करके घर-घर प्रचार किया है। खासतौर से मोबाइल फोन, सोशल मीडिया तथा काफी हद तक मुख्यधारा के मीडिया की मदद से। हालांकि उसी मीडिया ने बाद में इससे किनारा कर लिया। मिजोरम में कांग्रेस के सामने कोई बड़ा दावेदार नहीं है।

Tuesday, October 1, 2013

क्या यह शुद्धीकरण का श्रीगणेश है?

चारा मामले में लालू यादव के अपराधी घोषित होने के बाद एक सवाल मन में आता है कि क्या राहुल गांधी के दिमाग में कहीं बिहार की भावी राजनीति का नक्शा तो नहीं था? उन्होंने यह सब सोचा हो या न सोचा हो, पर नीतीश कुमार ने राहुल के वक्तव्य का तपाक से स्वागत किया। चारा घोटाले में उनके भी एक सांसद शहीद हुए हैं, पर लालू की शिकस्त उनकी विजय है। अब राजनेताओं का गणित नए सिरे से बनेगा और बिगड़ेगा। सीबीआई की राजनीतिक भूमिका और रंग लाएगी। सुप्रीम कोर्ट का 10 जुलाई का फैसला दुधारी तलवार है, जिससे दोनों ओर की गर्दनें कटेंगी। राहुल गांधी की मंशा न जाने क्या थी, पर निशाने पर मनमोहन सिंह भी आ गए हैं। उनका सीना भी जख्मी है। लालू का मामला एक ओर सुधरती व्यवस्था को लेकर आश्वस्त करता है, वहीं राजनीति में बढ़ने वाले सम्भावित अंतर्विरोधों की ओर इशारा भी कर रहा है।

चुनाव के इस दौर में राजनीति का रथ गहरे ढलान पर उतर गया है। देखना यह है कि समतल पर पहुँचने के पहले इसके कितने चक्के बचेंगे। पिछले शुक्रवार को राहुल ने जो कुछ कहा उससे उनकी राजनीति का कच्चापन सामने आता है। वे व्यवस्थावादी हैं, यानी सिस्टम की बात करते हैं, व्यक्ति की नहीं। दूसरी नेता के रूप में उन्होंने शासन-व्यवस्था को ढेर कर दिया। वे सत्ता के भीतर हैं या बाहर यह समझ में नहीं आता। शुद्धतावादी हैं या व्यावहारिक राजनीति के क्रमबद्ध सुधार के समर्थक? उन्होंने जो लक्ष्मण रेखा खींची है उसे लाँघना सरकार के लिए मुश्किल होगा। पर लालू इस राहुल रेखा की पहली कैजुअल्टी हैं। इससे बिहार का ही नहीं आने वाले समय की केन्द्रीय राजनीति का गणित बिगड़ेगा। राजनीति का गटर फिर भी साफ नहीं होगा। पिछले तीन साल की उथल-पुथल के बावजूद व्यवस्था-सुधार की सारी बातें पीछे रह गईं हैं। लोकपाल कानून, ह्विसिल ब्लोवर कानून, सिटिजन चार्टर और चुनाव सुधार कहाँ चले गए?

Monday, September 30, 2013

लालू के फैसले के बाद क्या बिहार करवट लेगा?

 सोमवार, 30 सितंबर, 2013 को 09:38 IST तक के समाचार
लालू प्रसाद यादव की आरजेडी पार्टी
पिछले शुक्रवार को दिल्ली के प्रेस क्लब में राहुल गांधी की हैरतभरी घोषणा ने केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए ही असमंजस पैदा नहीं किया, बल्कि उत्तर भारत के महत्वपूर्ण प्रदेश बिहार की राजनीति में उलटफेर के हालात भी पैदा कर दिए हैं.
पिछले एक साल से आरजेडी नेता लालू यादव ने जगह-जगह रैलियाँ करके प्रदेश की राजनीति में न सिर्फ अपनी वापसी के हालात पैदा कर लिए हैं, बल्कि एनडीए से टूटे जेडीयू का राजनीतिक गणित भी बिगाड़ दिया है.
मई में पटना की परिवर्तन रैली और जून में महाराजगंज के लोकसभा चुनाव में प्रभुनाथ सिंह को विजय दिलाकर लालू ने नीतीश कुमार के लिए परेशानी पैदा कर दी थी.
उस वक़्त लालू प्रसाद ने कहा था कि अगले लोकसभा चुनाव में बिहार की सभी 40 सीटों पर आरजेडी की जीत का रास्ता तैयार हो गया है. वह अतिरेक ज़रूर था, पर ग़ैर-वाजिब नहीं. फिलहाल व्यक्तिगत रूप से लालू और संगठन के रूप में उनकी पार्टी की परीक्षा है.

अध्यादेश का क्या होगा?

दाग़ी जनप्रतिनिधियों की सदस्यता बचाने वाला अध्यादेश अधर में है और अब लगता नहीं कि सरकार इस पर राष्ट्रपति के दस्तख़त कराने पर ज़ोर देगी. अगले हफ़्ते इसके पक्ष में फैसला हुआ भी, तो शायद लालू यादव के लिए देर हो चुकी होगी.
लालू यादव
लालू यादव राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी रहे हैं.
अगले हफ़्ते कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य रशीद मसूद से जुड़े मामले में भी सज़ा सुनाई जाएगी. बहरहाल उनके मामले का राजनीतिक निहितार्थ उतना गहरा नहीं है, जितना लालू यादव के मामले का है.
राहुल गांधी के अध्यादेश को फाड़कर फेंक देने का जितना मुखर स्वागत नीतीश कुमार ने किया है, वह ध्यान खींचता है. क्या नीतीश कुमार को इसका कोई दूरगामी परिणाम नज़र आ रहा है?
लालू यादव राजनीतिक विस्मृति में गर्त में गए तो तीन-चार महत्वपूर्ण सवाल सामने आएंगे. बिहार में आरजेडी एक महत्वपूर्ण ताक़त है. 2010 के विधानसभा के चुनाव में जेडीयू ने 115 सीटों पर जीत हासिल की थी.

Sunday, September 29, 2013

सुरक्षा तंत्र के छिद्रों को तो बंद कीजिए

इधर जनरल वीके सिंह और सरकार के बीच नोकझोंक की खबरें गर्म थीं कि जम्मू में फौजी कैम्प पर आतंकी हमले की खबरें सुनाई पड़ीं। इसके दो रोज पहले पेशावर और केन्या के एक मॉल से खूंरेजी की खबरें सुनाई पड़ीं। इन सारी बातों का रिश्ता नहीं है, पर ध्यान से देखें तो है। इन सबके केन्द्र में पाकिस्तान का जेहादी ताना-बाना और हमारी सुरक्षा व्यवस्था के सवाल हैं। इसमें दो राय नहीं कि जनरल वीके सिंह और सरकार के बीच तनातनी किसी बड़े सैद्धांतिक कारण से नहीं थी। यह शुद्ध रूप से सेना के भीतर की गुटबाजी की देन थी। इस मामले को ज्यादा बढ़ावा मिलने के पहले ही खत्म कराने की जिम्मेदारी राजनीतिक नेतृत्व की थी। ऐसा हो नहीं पाया। धीरे-धीरे विवाद ऐसी शक्ल लेता जा रहा है जो देश के हित में नहीं है। जनरल सिंह के इस वक्तव्य को लेकर काफी चर्चा है कि सेना कश्मीर के राजनीतिक नेताओं को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए धन का इस्तेमाल करती थी। इस वक्तव्य पर गौर करें तो इसमें कोई ऐसी बात नहीं थी जो हमारे लिए असमंजस पैदा करे।