Sunday, May 5, 2013

राष्ट्रगान के रिकॉर्ड बनाने से ज्यादा मिलकर काम करें

राष्ट्रगान के विश्व रिकॉर्ड बनाने से काम चलता हो तो भारत को सिर्फ चीन ही पछाड़ पाएगा, पर हमारी प्रतियोगिता पाकिस्तान से चल रही है। 6 मई को हमारे यहाँ नया विश्व रिकॉर्ड बनने जा रहा है। पर क्या इस विश्व रिकॉर्ड के बाद हमारा समाज ज्यादा समझदार, विवेकशील और कल्याणकारी हो जाएगा। हमें सबके लिए अच्छी शिक्षा, सबके लिए अच्छा स्वास्थ्य और सुशासन चाहिए। पर हमारे यहाँ एक के बाद एक खुलते घोटाले कुछ और कहानी कहते हैं। ठीक है राष्ट्रगीत गाइए, पर गीतों की भावना को जीवन में भी उतारिए। वर्ना यह सब पाखंड भर साबित होगा। इस विषय में मैने इसके पहले एक पोस्ट लिखी थी, उसे नीचे पढ़ें


25 जनवरी 2012 औरंगाबाद

20 अक्टूबर 2012 लाहौर

केवल राष्ट्र्गान गाने से काम चलता हो तो पाकिस्तान ने गिनीज़ बुक ऑफ रिकॉर्ड्स के अंतर्गत विश्व रिकॉर्ड कायम कर लिया है। शनिवार 20 अक्टूबर को लाहौर के नेशनल हॉकी स्टेडियम में 44,200 लोगों ने एक साथ खड़े होकर देश का राष्ट्रगान गाया। पाकिस्तान के लिए एक उपलब्धि यह भी थी कि उसने इस मामले में भारत का रिकॉर्ड तोड़ा था। 25 जनवरी 2012 को महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर के डिवीज़नल स्पोर्ट्स ग्राउंड में 15,243 लोगों ने एक साथ खड़े होकर वंदे मातरम गाया था। वह कार्यक्रम लोकमत मीडिया कम्पनी ने आयोजित किया था। उसके पहले 14 अगस्त 2011 को पाकिस्तान के कराची शहर में 5,857 लोगों ने एक साथ अपना राष्ट्रगान गाया था। इस रिकॉर्ड को कायम करने के लिए फेसबुक और ट्विटर की मदद ली गई थी।

शनिवार को लाहौर में कायम किए गए विश्व रिकॉर्ड में पाकिस्तान के पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री शाहबाज़ शरीफ भी शामिल थे। राष्ट्रगान और समूहगान हमें एक जुट होने की प्रेरणा देते हैं। हाल में मलाला युसुफज़ई प्रकरण में पाकिस्तान की सिविल सोसायटी ने एकता का परिचय दिया था। इस एकता की दिशा बदहाली और बुराइयों से लड़ने की होनी चाहिए। हम होंगे कामयाब जैसे समूहगान चमत्कारी हो सकते हैं बशर्ते हमारी सामूहिक पहलकदमी में दम हो। सम्भव है कल भारत में कोई इससे भी बड़ी भीड़ से राष्ट्रगान गवाने में कामयाब हो जाए, पर असल बात भावना की है।
राष्ट्रगान के विश्व रिकॉर्ड

छाती पीटने से नहीं होगी राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा


सरबजीत के मामले में भारत सरकार, मीडिया और जनता के जबर्दस्त अंतर्विरोध देखने को मिले हैं। सरबजीत अगस्त 1990 में गिरफ्तार हुआ था और अक्टूबर 1991 में उसे मौत की सजा दी गई थी। इसके बाद यह मामला अदालती प्रक्रियाओं में उलझा रहा और 2006 में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी सजा को बहाल रखा। इस दौरान भारतीय मीडिया ने उसकी सुध नहीं ली। सरबजीत की बहन और गाँव वालों की पहल पर कुछ स्थानीय अखबारों में उसकी खबरें छपती थीं। इसी पहल के सहारे भारतीय संसद में यह मामला पहुँचा और सितम्बर 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के सालाना सम्मेलन के मौके पर पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्ऱफ के सामने इस मसले को रखा।

Friday, May 3, 2013

कांग्रेस की राह के 11 रोड़े


प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

मई 2009 में जब यूपीए-2 की सरकार आई तब लगा था कि देश में स्थिरता का एक दौर आने वाला है.

सरकार के पास सुरक्षित बहुमत है. सहयोगी दल अपेक्षाकृत सौम्य हैं.

इस घटना के कुछ महीने पहले ही मंदी का पहला दौर शुरू हुआ था. हमारी आर्थिक विकास दर 9 प्रतिशत से घटकर 6 प्रतिशत के करीब आ गई थी. पर उस संकट से हम पार हो गए. अन्न के वैश्विक संकट का प्रभाव हमारे देश पर नहीं पड़ा.

नवम्बर 2009 में भारत ने इंटरनेशनल मॉनीटरी फंड से 200 टन सोना खरीदा. इस खरीद का यों तो कोई खास अर्थ नहीं. पर प्रतीक रूप में महत्व है. इस घटना के 18 साल पहले 1991 में जब हमारा विदेशी मुद्रा रिजर्व घटकर दो अरब डॉलर से भी कम हो गया था, हमें अपने पास रखे रिजर्व सोने में से 67 टन सोना बेचना पड़ा था.

इसके अगले साल यानी 2010 तक देश के उत्साह में कमी नहीं थी. एक अप्रैल 2010 को हमने हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार दिया. आर्थिक इंडिकेटर्स भी ठीक थे. पर जून आते-आते हालात बदल गए. और तब से पिछले तीन साल में कांग्रेस की कहानी में बुनियादी पेच पैदा हुए हैं. स्क्रिप्ट भटक गई है.

सबसे बड़ी बात यह कि लालकृष्ण आडवाणी के पराभव के बाद रसातल की ओर जा रही भारतीय जनता पार्टी को नकारात्मक प्रचार का फ़ायदा मिला और कांग्रेस को नुकसान.

इस दौरान कांग्रेस को केवल एक बड़ी राजनीतिक सफलता मिली है. वह है राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर उसके प्रत्याशियों की जीत. इस बात को जानने की कोशिश करें कि वे कौन से बिन्दु हैं जो कांग्रेस को परेशान करते हैं.
पूरा लेख बीबीसी हिन्दी वैबसाइट में पढ़ें

अमेरिका जाने का शौक है तो उसे झेलना भी सीखिए


अमेरिका के हवाई अड्डों से अक्सर भारतीय नेताओं या विशिष्ट व्यक्तियों के अपमान की खबरें आती हैं। अपमान से यहाँ आशय उस सामान्य सुरक्षा जाँच और पूछताछ से है जो 9/11 के बाद से शुरू हुई है। आमतौर पर यह शिकायत विशिष्ट व्यक्तियों या वीआईपी की ओर से आती है। सामान्य व्यक्ति एक तो इसके लिए तैयार रहते हैं, दूसरे उन्हें उस प्रकार का अनुभव नहीं होता जिसका अंदेशा होता है। मसलन एक पाकिस्तानी नागरिक ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि मुझसे तकरीबन 45 मिनट तक पूछताछ की गई, पर किसी वक्त अभद्र शब्दों का इस्तेमाल नहीं हुआ। मेरी पत्नी को मैम और मुझे सर या मिस्टर सिद्दीकी कहकर ही सम्बोधित किया गया। उन्होंने सवाल भी मामूली पूछे, जिनमें मेरा कार्यक्रम क्या है, मैं करता क्या हूँ, अमेरिका क्यों आया हूँ वगैरह थे। दरअसल हमारे देश के नागरिक अपने देश की सुरक्षा एजेंसियों के व्यवहार से इतने घबराए होते हैं कि उन्हें अमेरिकी एजेंसियों के बर्ताव को लेकर अंदेशा बना रहता है।

Monday, April 29, 2013

'नेता' का एजेंडा सेट कर गए मोदी



कर्नाटक में भाजपा ने नरेंद्र मोदी का बेहतर इस्तेमाल जान-बूझकर नहीं किया या यह पार्टी के भीतरी दबाव का परिणाम था? सिर्फ एक रैली से मोदी पार्टी के सर्वमान्य नए राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित नहीं होते.

हाँ, वे प्रादेशिक नेता के बजाय राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रकट ज़रूर हुए हैं. उससे ज्यादा बड़ी बात यह है कि उन्होंने मौका लगते ही ‘ताकतवर नेता’ की ज़रूरत को फिर से राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना दिया है.

पूरा लेख पढ़ें बीबीसी हिन्दी की वैबसाइट पर
और एक पुराना लेख
क्या मोदी की मंच कला राहुल से बेहतर है

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

सतीश आचार्य का कार्टून

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

सीबीआई क्या खुद पहल करेगी?

कोल ब्लॉक आबंटन की स्टेटस रिपोर्ट के मसले में कानून मंत्री और सीबीआई डायरेक्टर दोनों ने मर्यादा का उल्लंघन किया है। पर इस वक्त सीबीआई डायरेक्टर चाहें तो एक बड़े बदलाव के सूत्रधार बन सकते हैं। इस मामले में सच क्या है, उनसे बेहतर कोई नहीं जानता। उन्हें निर्भय होकर सच अदालत और जनता के सामने रखना चाहिए। दूसरे ऐसी परम्परा बननी चाहिए कि भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा तथा अन्य महत्वपूर्ण सेवाओं के अफसरों को सेवानिवृत्ति के बाद कम से कम पाँच साल तक कोई नियुक्ति न मिले। भले ही इसके बदले उन्हें विशेष भत्ता दिया जाए। इससे अफसरों के मन में लोभ-लालच नहीं रहेगा। सत्ता का गलियारा बेहद पेचीदा है। यहाँ के सच उतने सरल नहीं हैं, जितने हम समझते हैं। बहरहाल काफी बातें अदालत के सामने साफ होंगी। रंजीत सिन्हा के हलफनामे में जो नहीं कहा गया है वह सामने आना चाहिएः-
कुछ बातें जो अभी तक विस्मित नहीं करती थीं, शायद वे अब विस्मित करें। कोयला मामले में सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा के अदालत में दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि मामले की स्टेटस रिपोर्ट का ड्राफ्ट कानून मंत्री को दिखाया गया, जिसकी उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी। सीबीआई ने अपनी रपट 8 मार्च को दाखिल की थी। उसके बाद 12 मार्च को अटॉर्नी जनरल जीई वाहनावती ने अदालत से कहा कि हमने इस रपट को देखा नहीं था। इसके बाद अदालत ने सीबीआई के डायरेक्टर को निर्देश दिया कि वे हलफनामा देकर बताएं कि यह रिपोर्ट सरकार को दिखाई गई या नहीं। अदालत ने ऐसा निर्देश क्यों दिया? इसके बाद 13 अप्रेल के अंक में इंडियन एक्सप्रेस ने खबर दी कि सीबीआई डायरेक्टर अदालत में दाखिल होने वाले हलफनामे में इस बात को स्वीकार करेंगे कि रपट सरकार को दिखाई गई थी।

Sunday, April 28, 2013

चीनी रिश्तों की जटिलता को समझिए


भारत और चीन के बीच जितने अच्छे रिश्ते व्यापारिक धरातल पर हैं उतने अच्छे राजनीतिक मसलों में नहीं हैं। लद्दाख का विवाद कोई बड़ी शक्ल ले सके पहले ही इसका हल निकाल लिया जाना चाहए। पर उसके पहले सवाल है कि क्या यह विवाद अनायास खड़ा हो गया है या कोई योजना है। हाल के वर्षों में चीन के व्यवहार में एक खास तरह की तल्खी नज़र आने लगी है। इसे गुरूर भी कह सकते हैं। यह गुरूर केवल भारत के संदर्भ में ही नहीं है। उसके अपने दूसरे पड़ोसियों के संदर्भ में भी है। जापान के साथ एक द्वीप को लेकर उसकी तनातनी काफी बढ़ गई थी। दक्षिण चीन सागर में तेल की खोज को लेकर वियतनाम के साथ उसके रिश्तों में तल्खी आ गई है। संयोग से भारत भी उस विवाद में शामिल है। दक्षिणी चीन सागर में अधिकार को लेकर चीन का वियतनाम, फिलीपींस, ताइवान, ब्रुनेई और मलेशिया के साथ विवाद है। चीन इस पूरे सागर पर अपना दावा जताता है जिसका पड़ोसी देश विरोध करते है। चीन के सबसे अच्छे मित्रों में पाकिस्तान का नाम है। यह इसलिए है कि हमारा पाकिस्तान के साथ विवाद है या पाकिस्तान ने चीन का साथ इसलिए पकड़ा है कि वह भविष्य में भी हमारा प्रतिस्पर्धी रहेगा, कहना मुश्किल है। 

चीनी घुसपैठ गम्भीर है, चिंतनीय नहीं

चीनी के साथ हमारा सीमा विवाद जिस स्तर का है उसके मुकाबले पाकिस्तान के साथ विवाद छोटा है, बावजूद इसके चीन के साथ हमारे रिश्तों में वैसी कड़वाहट नहीं है जैसी पाकिस्तान के साथ है। बुनियादी तौर पर पाकिस्तान का इतिहास 66 साल पुराना है और चीन का कई हजार साल पुराना। वह आज से नहीं हजारों साल से हमारा प्रतिस्पर्धी है। यह प्रतिस्पर्धा पिछले कुछ सौ साल से कम हो गई थी, क्योंकि भारत और चीन दोनों आर्थिक शक्ति नहीं रहे। पर अब स्थिति बदल रही है। बेशक हमारे सीमा विवाद पेचीदा हैं, पर दोनों देश उन्हें निपटाने के लिए लम्बा रास्ता तय करने को तैयार हैं। चीन हमें घेर रहा है या हम चीन की घेराबंदी में शामिल हैं, यह बात दोनों देश समझते हैं। फिर भी लद्दाख में चीनी घुसपैठ किसी बड़े टकराव का कारण नहीं बनेगी। चीन इस वक्त जापान के साथ टकराव में है और भारत से पंगा लेना उसके हित में नहीं। 

Tuesday, April 23, 2013

हमारी निष्क्रियता हमारे पाखंड


 इन सवालों को हिन्दू या मुसलमानों के सवाल मानकर हम किसी एक तरफ खड़े हो सकते हैं पर हमें व्यावहारिक उत्तर चाहिए। टोपी पहन कर किसी एक समुदाय को और टीका लगाकर किसी दूसरे को खुश करने की राजनीति खतरनाक है। इसीलिए कश्मीरी पंडितों के जीवन-मरण के सवाल को हम साम्प्रदायिक मानते हैं और मुसलमानों की आर्थिक बदहाली को छिपाकर उनके भावनात्मक मसलों को उठाते हैं। इतिहास का पहिया उल्टा घुमाया नहीं जा सकता पर यदि आज हमारे सामने 1947 पर वापस जाने का विकल्प हो तो लाखों मुसलमान भी अपने घरों को छोड़कर जाना नहीं चाहेंगे। विभाजन ने हमें बांटा ही नहीं, राजनीतिक पाखंडों से भी लैस कर दिया है। यह खतरनाक है।
बड़ी संख्या में हिन्दू परिवार पाकिस्तान छोड़कर भागना चाहते हैं। बांग्लादेश में 1971 के अपराधियों को लेकर आंदोलन चल रहा है। और रिफ्यूजी कैम्पों में रह रहे कश्मीरी पंडित सवाल पूछ रहे हैं कि क्या हमारा भी कोई देश है। पिछले महीने राज्यसभा में गृह राज्यमंत्री आरपीएन सिंह ने स्वीकार किया कि घाटी में रहने वाले पंडितों को एक पत्र मिला है कि वे कश्मीर छोड़कर चले जाएं। घाटी में रहने वाले पंडितों की संख्या अब बेहद मामूली है। कुल मिलाकर चार हजार के आसपास। पर 1947 में उनकी संख्या डेढ़ से दो लाख के बीच थी। यानी कुल आबादी की 15 फीसदी के आसपास। 1947 की आज़ादी उनके लिए मौत का संदेश लेकर आई थी। सन 1948 के फसादों और 1950 के भूमि सुधारों के बाद तकरीबन एक लाख पंडित कश्मीर छोड़कर चले गए। उनपर असली आफत आई 1989 के बाद। 14 सितंबर, 1989 को चरमपंथियों ने भारतीय जनता पार्टी के राज्य सचिव टिक्का लाल टपलू की हत्या की। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट के नेता मक़बूल बट को मौत की सज़ा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या उसके डेढ़ महीने बाद हुई। फिर 13 फ़रवरी, 1990 को श्रीनगर के टेलीविज़न केंद्र के निदेशक लासा कौल की हत्या हुई। तकरीबन चार लाख पंडित उस दौरान बेघरबार हुए या मारे गए। ये लोग आज शरणार्थी शिविरों में निहायत अमानवीय स्थितियों में रह रहे हैं। पंडितों को जितनी शिकायत आतंकवादियों से है उतनी भारतीय राजव्यवस्था से भी है।

Monday, April 22, 2013

गूगल का अर्थ डे डूडल

आज 22 अप्रेल है पृथ्वी दिवस। हम धीरे-धीरे महसूस कर रहे हैं अपनी धरती के महत्व को। इंटरनेट सर्च इंजन गूगल ने अपने लोगो का रचनात्मक इस्तेमाल जानकारी बढ़ाने के लिए किया है। आज उसका डूडल धरती के क्रिया-कलाप की जानकारी बड़े रोचक अंदाज़ में देता है। गूगल डूडल के बारे में मैं पहले भी लिखता आया हूँ। आपने भी ध्यान दिया होगा कि गूगल बड़े रोचक ढंग से इसका इस्तेमाल कर रहा है। मैने नीचे अपनी कुछ पुरानी पोस्ट के लिंक भी दिए हैं, जिनमें इस बात को रेखांकित किया था।  कुछ लोगों ने गूगल की तर्ज पर लोगो बनाने शुरू कर कर दिए हैं।लोगूगल ऐसी ही साइट है। 

गूगल ने उगाया अपना डूडल
सन 2012 का गूगल डूडल एनीमेटेड था। पर गूगल ने इस एनीमेशन को कम्प्यूटर पर तैयार करने के बजाय अच्छी तरह उगाया था। उस उगाने का रोचक विवरण पढ़ें यहाँ





डूडल का आयडिया कहाँ से आया और कैसे विकसित हुआ यहाँ पढ़ें

गूगल डूडल्स
डूडल फॉर गूगल प्रतियोगिता
गूगल पर अनंत पै
गूगल लोगो के बारे में पढ़ें विकीपीडिया में

ब्रेक के बाद... और अब वक्त है राजनीतिक घमासान का


बजट सत्र का उत्तरार्ध शुरू होने के ठीक पहले मुलायम सिंह ने माँग की है कि यूपीए सरकार को चलते रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। उधर मायावती ने लोकसभा के 39 प्रत्याशियों की सूची जारी की है। दोनों पार्टियाँ चाहेंगी तो चुनाव के नगाड़े बजने लगेंगे। उधर टूजी मामले पर बनी जेपीसी की रपट कांग्रेस और डीएमके के बाकी बचे सद्भाव को खत्म करने जा रही है।  कोयला मामले में सीबीआई की रपट में हस्तक्षेप करने का मामला कांग्रेस के गले में हड्डी बन जाएगा। संसद का यह सत्र 10 मई को खत्म होगा। तब तक कर्नाटक के चुनाव परिणाम सामने आ जाएंगे। भाजपा के भीतर नरेन्द्र मोदी को लेकर जो भीतरी द्वंद चल रहा है वह भी इस चुनाव परिणाम के बाद किसी तार्किक परिणति तक पहुँचेगा।  राजनीति का रथ एकबार फिर से ढलान पर उतरने जा रहा है। 

Sunday, April 21, 2013

पाकिस्तानी न्यायपालिका में इतनी हिम्मत कहाँ से आई?

परवेज़ मुशर्रफ को पाकिस्तान की एक अदालत ने गिरफ्तार करके दो हफ्ते के लिए हिरासत में भेज दिया है। पाकिस्तान में किसी पूर्व सेनाध्यक्ष और वह भी मुशर्रफ जैसे तानाशाह को जेल भेज देना अभूतपूर्व बात है। इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मुशर्रफ पाकिस्तान क्यों लौटे और इस मामले की तार्किक परिणति क्या होगी, इसे समझने के लिए थोड़ा इंतज़ार करना होगा। इसमे दो राय नहीं कि मुशर्रफ ने नवाज़ शरीफ का तख्ता पलटा। पर इसमें भी दो राय नहीं कि उन्होंने नवाज शरीफ को जिन्दा बाहर जाने दिया। और यही नहीं मुशर्रफ ने ही नवाज शरीफ को देश में वापस भी आने दिया। यह सब क्या सेना की कमज़ोर पड़ती और नागरिक शासन की बेहतर होती स्थिति का संकेत है? ऐसा है तो पीपीपी की गठबंधन सरकार के एक प्रधानमंत्री को इस्तीफा क्यों देना पड़ता? क्यों देश के राजदूत हुसेन हक्कानी की चिट्ठी को लेकर देश की अदालत ने बजाय नागरिक सरकार के सेना के नजरिए को तरज़ीह दी? पाकिस्तान की न्यायपालिका न्यायप्रिय है तो वह मुम्बई पर हमले के जिम्मेदार लोगों को सज़ा देने में हिचक रही है? क्या वजह है कि हाफिज़ सईद अदालती क्लीन चिट के सहारे खुले आम घूम रहे हैं? बहरहाल पाकिस्तान बड़े बदलाव के दौर से गुज़र रहा है। और उसके बारे में कोई भी राय बनाने के पहले अगले महीने हो रहे चुनाव और उसके बाद के घटनाक्रम को गौर से देखना होगा।

पप्पू बनाम फेकू यानी ट्विटरगढ़ की जंग


इस महीने चार अप्रेल को राहुल गांधी के सीआईआई भाषण के बाद ट्विटर पर पप्पूसीआईआई के नाम से कुछ हैंडल तैयार हो गए। इसके बाद 8 अप्रेल को नरेन्द्र मोदी की फिक्की वार्ता के बाद फेकूइंडिया जैसे कुछ हैंडल तैयार हो गए। पप्पू और फेकू का संग्राम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँच गया और तमाम अंतरराष्ट्रीय वैबसाइटों पर पप्पू और फेकू का मतलब बताने वालों की लाइन लगी रही। ट्विटर से फेसबुक पर और फेसबुक से ब्लॉगों पर राजनीतिक घमासान शुरू हो गया है। लगता है अगली चुनावी लड़ाई सोशल मीडिया पर ही लड़ी जाएगी। वोटरों, लेखकों और पत्रकारों के नज़रिए से देखें तो ऐसा ही लगता है। पर राजनेता शायद अभी इसके लिए तैयार नहीं हैं।

Monday, April 15, 2013

सज़ा नहीं हत्या है फाँसी


मौत की सज़ा क्या सोची-समझी ऐसी हत्या नहीं है, जिसकी तुलना हम किसी भी सुविचारित अपराध से नहीं कर सकते? तुलना करनी ही है तो यह उस अपराधी को दी गई सजा है, जिसने अपने शिकार को पहले से बता दिया हो कि मैं फलां तारीख को तुझे मौत की नींद सुला दूँगा। और उसका शिकार महीनों तक उस हत्यारे की दया पर जीता हो। ऐसे वहशी सामान्य जीवन में नहीं मिलते। -अल्बेर कामू

इस साल हम फ्रांसीसी साहित्यकार पत्रकार अल्बेयर कामू की जन्मशती मना रहे हैं। कामू का जन्म फ्रांसीसी उपनिवेश अल्जीरिया में हुआ था। वहीं उनकी शुरूआती पढ़ाई भी हुई। सन 1957 में कामू को नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उसी साल कामू और आर्थर कोस्लर ने मिलकर मौत की सजा के खिलाफ एक लम्बा निबंध लिखा। यह निबंध मनुष्य की प्रकृति का विवेचन करता है। अलबेयर कामू मानवाधिकारों को लेकर बेहद संवेदनशील थे। वामपंथी झुकाव के बावज़ूद उन्हें वामपंथियों की आलोचना का विषय बनना पड़ा। व्यष्टि और समष्टि की इस दुविधा के कारण उन्होंने बहुत से मित्रों को दुश्मन बना लिया। मानवाधिकार को लेकर उन्होंने सोवियत रूस, पोलैंड और जर्मनी की सरकारों के कई निर्णयों की खुलकर आलोचना की। जब कामू लिख ही रहे थे तभी 1954 में अल्जीरिया का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो गया। यहाँ कामू की दुविधाएं सामने आईं। बहरहाल विचार का वह अलग विषय है। मृत्युदंड पर अपने निबंध की शुरूआत कामू एक व्यक्ति की सरेआम गर्दन काटे जाने के प्रसंग से करते हैं, जिसे उनके पिता देखकर आए थे। उस व्यक्ति को एक परिवार की हत्या के कारण मौत की सजा दी गई थी। उसने महिलाओं-बच्चों समेत परिवार के सभी लोगों को मार डाला था। जब पिता इस सजा को देखकर वापस आए तो वे बेहद व्यथित थे। उनके मन में मारे गए बच्चों की छवि नहीं थी बल्कि वह शरीर था, जिसकी गर्दन काटने के लिए उसे एक बोर्ड से नीचे गिराया गया था। कामू ने लिखा राजव्यवस्था के हाथों हुई यह नई हत्या मेरे पिता के मन पर भयानक तरीके से हावी रही। राजव्यवस्था ने एक खराबी के जवाब में दूसरी खराबी को जन्म दिया। यह मान लिया गया कि सजा पाने वाले ने समाज से किए गए अपने अपराध की कीमत चुका दी और न्याय हो गया। यह सामाजिक प्रतिशोध है।

अगले चुनाव के बाद खुलेगी राजनीतिक सिद्धांतप्रियता की पोल


जिस वक्त गुजरात में दंगे हो रहे थे और नरेन्द्र मोदी उन दंगों की आँच में अपनी राजनीति की रोटियाँ सेक रहे थे उसके डेढ़ साल बाद बना था जनता दल युनाइटेड। अपनी विचारधारा के अनुसार नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव किसी की नरेन्द्र मोदी की रीति-नीति से सहमति नहीं थी। नीतीश कुमार उस वक्त केन्द्र सरकार में मंत्री थे। वे आसानी से इस्तीफा दे सकते थे। शायद उन्होंने उस वक्त नहीं नरेन्द्र मोदी की महत्ता पर विचार नहीं किया। सवाल नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने या न बनने का नहीं। प्रत्याशी बनने का है। उनके प्रत्याशी बनने की सम्भावना को लेकर पैदा हुई सरगर्मी फिलहाल ठंडी पड़ गई है।

Sunday, April 14, 2013

नीतीश के लिए आसान नहीं है एनडीए से अलगाव की डगर


फिलहाल जेडीयू ने भारतीय जनता पार्टी से प्रधानमंत्री पद के अपने प्रत्याशी का नाम घोषित करने का दबाव न डालने का फैसला किया है। पर यदि दबाव डाला भी होता तो यह एक टैक्टिकल कदम होता। दीर्घकालीन रणनीति नहीं। यह धारणा गलत है कि बिहार में एनडीए टूटने की शुरूआत हो गई है। सम्भव था कि जेडीयू कहती, अपने प्रधानमंत्री-प्रत्याशी का नाम बताओ। और भाजपा कहती कि हम कोई प्रत्याशी तय नहीं कर रहे हैं। नरेन्द्र मोदी का पार्टी के संसदीय बोर्ड में आना या प्रचार में उतरना प्रधानमंत्री पद की दावेदारी तो नहीं है। बहरहाल यह सब होने की नौबत नहीं आई। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने नीतीश कुमार और शरद यादव से फोन पर बात की कि भाई अभी किसी किस्म का दबाव मत डालो। यह न आप के लिए ठीक होगा और न हमारे लिए। और बात बन गई।

Friday, April 12, 2013

बेकाबू क्यों हो रहा है उत्तर कोरिया?



जब हम विश्व समुदाय की बात करते हैं तो इसका एक मतलब होता है अमेरिका और उसके दोस्त। और जब हम उद्दंड या दुष्ट देश यानी रोग स्टेट्स कहते हैं तो उसका मतलब होता है उत्तर कोरिया, ईरान और सीरिया और एक हद तक वेनेजुएला। सन 1990 के दशक से दुनिया को शीत-युद्ध से भले मुक्ति मिल गई, पर अमेरिका और इन उद्दंड देशों के बीच तनातनी का नया दौर शुरू हो गया है। अमेरिका का कहना है कि उत्तर कोरिया किसी भी वक्त दक्षिण कोरिया या प्रशांत महासागर में स्थित अमेरिकी अड्डों पर मिसाइलों से हमला कर सकता है। सुदूर पूर्व पर नज़र रखने वालों का कहना है कि उत्तर कोरिया हमला नहीं करेगा। परमाणु बम का प्रहार करने की स्थिति में वह नहीं है। उसके पास एटमी ताकत है ज़रूर, पर डिलीवरी की व्यवस्था नहीं है। हो सकता है वह किसी मिसाइल का परीक्षण करे या एटमी धमाका। अलबत्ता यह विस्मय की बात है कि सायबर गाँव में तब्दील होती दुनिया में कोरिया जैसी समस्याएं कायम हैं। दोनों कोरिया एक भाषा, एक संस्कृति, एक राष्ट्र के बावजूद राजनीतिक टकराव के अजब-गजब प्रतीक है।

Monday, April 8, 2013

धा धा धिन्ना, नमो नामो बनाम राग रागा



लालकृष्ण आडवाणी का कहना है कि मैं एक सपने के सहारे राजनीति में सक्रिय हूँ। उधर नरेन्द्र मोदी गुजरात का कर्ज़ चुकाने के बाद भारत माँ का कर्ज़ चुकाने के लिए दिल्ली आना चाहते हैं। दिल्ली का कर्ज़ चुकाने के लिए कम से कम डेढ़ दर्जन सपने सक्रिय हो रहे हैं। ये सपने क्षेत्रीय राजनीति से जुड़े हैं। उन्हें लगता है कि प्रदेश की खूब सेवा कर ली, अब देश-सेवा की घड़ी है। बहरहाल आडवाणी जी के सपने को विजय गोयल कोई रूप देते उसके पहले ही उनकी बातों में ब्रेक लग गया। विजय गोयल के पहले मुलायम सिंह यादव ने आडवाणी जी की प्रशंसा की थी। भला मुलायम सिंह आडवाणी की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? हो सकता है जब दिल्ली की गद्दी का फैसला हो रहा हो तब आडवाणी जी काम आएं। मुलायम सिंह को नरेन्द्र मोदी के मुकाबले वे ज्यादा विश्वसनीय लगते हैं। कुछ और कारण भी हो सकते हैं। मसलन नरेन्द्र मोदी यूपी में प्रचार के लिए आए तो वोटों का ध्रुवीकरण होगा। शायद मुस्लिम वोट फिर से कोई एक रणनीति तैयार करे। और इस रणनीति में कांग्रेस एक बेहतर विकल्प नज़र आए। उधर आडवाणी जी लोहिया की तारीफ कर रहे हैं। क्या वे भी किसी प्रकार की पेशबंदी कर रहे हैं? आपको याद है कि आडवाणी जी ने जिन्ना की तारीफ की थी। उन्हें लगता है कि देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी छवि सौम्य सभी वर्गों के लिए स्वीकृत बनानी होती है। जैसी अटल बिहारी वाजपेयी की थी।

Sunday, April 7, 2013

अलोकप्रियता के ढलान पर ममता की राजनीति

राजनेता वही सफल है जो सामाजिक जीवन की विसंगतियों को समझता हो और दो विपरीत ताकतों और हालात के बीच से रास्ता निकालना जानता हो। ममता बनर्जी की छवि जुनूनी, लड़ाका और विघ्नसंतोषी की है। संसद से सड़क तक उनके किस्से ही किस्से हैं। पिछले साल रेल बजट पेश करने के बाद दिनेश त्रिवेदी को उन्होंने जिस तरह से हटाया, उसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। उनकी तुलना जयललिता, मायावती और उमा भारती से की जाती है। कई बार इंदिरा गांधी से भी। मूलतः वे स्ट्रीट फाइटर हैं। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने वाम मोर्चा के 34 साल पुराने मजबूत गढ़ को गिरा कर दिखा दिया। पर लगता है कि वे गिराना जानती हैं, बनाना नहीं। इन दिनों बंगाल में अचानक उनकी सरकार के खिलाफ आक्रोश भड़क उठा है। सीपीएम की छात्र शाखा एसएफआई के नेता सुदीप्तो गुप्ता की मौत इस गुस्से का ट्रिगर पॉइंट है। यह सच है कि वे कोरी हवाबाजी से नहीं उभरी हैं। उनके जीवन में सादगी, ईमानदारी और साहस है। वे फाइटर के साथ-साथ मुख्यमंत्री भी हैं और सात-आठ मंत्रालयों का काम सम्हालती हैं। यह बात उनकी जीवन शैली से मेल नहीं खाती। फाइलों में समय खपाना उनका शगल नहीं है। उन्होंने सिर्फ अपने बलबूते एक पार्टी खड़ी कर दी, यह बात उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है, पर इसी कारण से उनका पूरा संगठन व्यक्ति केन्द्रित बन गया है।  

Monday, April 1, 2013

विचार और सिद्धांत की अनदेखी करती राजनीति

पिछले बुधवार को तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास करके माँग की कि केंद्र सरकार श्रीलंका के साथ मित्र राष्ट्र जैसा व्यवहार बंद करे। इसके पहले यूपीए-2 को समर्थन दे रही पार्टी डीएमके ने केन्द्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया। तमिलनाडु में श्रीलंका को लेकर पिछले तीन दशक से उबाल है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि श्रीलंका के खिलाड़ी वहाँ खेल न पाए हों। या भारतीय टीम के तमिल खिलाड़ियों को श्रीलंका में कोई परेशानी हुई हो। पर तमिलनाडु में अब श्रीलंका के पर्यटकों का ही नहीं खिलाड़ियों का प्रवेश भी मुश्किल हो गया है। मुख्यमंत्री जयललिता ने हाल में श्रीलंकाई एथलीटों का राज्य में प्रवेश रोक दिय़ा। पिछले साल सितम्बर में उन्होंने श्रीलंकाई छात्रों को चेन्नई में दोस्ताना फुटबाल मैच खेलने की अनुमति नहीं दी थी। और अब आईपीएल के मैचों में श्रीलंका के खिलाड़ी चेन्नई में खेले जा रहे मैचों में नहीं खेल पाएंगे। दूसरी ओर जब तक ममता बनर्जी की पार्टी यूपीए में शामिल थी केन्द्र सरकार की नीतियों को लागू कर पाना मुश्किल हो गया था। खासतौर से विदेश नीति के मामले में ममता ने भी उसी तरह के अड़ंगे लगाने शुरू कर दिए थे जैसे आज तमिलनाडु की राजनीति लगा रही है। ममता बनर्जी ने पहले तीस्ता पर, फिर एफडीआई, फिर रेलमंत्री, फिर एनसीटीसी और फिर राष्ट्रपति प्रत्याशी पर हठी रुख अख्तियार करके कांग्रेस को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया था, जहाँ से पीछे हटने का रास्ता नहीं बचा था। और अंततः दोस्ती खत्म हो गई।

Tuesday, March 26, 2013

राजनीति में साल भर चलती है होली


पिछला हफ्ता राजनीतिक तूफानों का था तो अगला हफ्ता होली का होगा। संसद के बजट सत्र का इंटरवल चल है। अब 22 अप्रेल को फिर शुरू होगा, जो 10 मई तक चलेगा। पिछले हफ्ते डीएमके, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच के रिश्तों ने अचानक मोड़ ले लिया। किसी की मंशा सरकार गिराने की नहीं है, पर लगता है कि अंत का प्रारम्भ हो गया है। किसी को किसी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की ज़रूरत नहीं है। शायद सरकार खुद ही तकरीबन छह महीने पहले चुनाव कराने का प्रस्ताव लेकर आए। पर उसके पहले कुछ बातें साफ हो जाएंगी। एक तो यह कि उदारीकरण के जुड़े कानून संसद के शेष दिनों में पास करा दिए जाएंगे और दूसरे चुनाव पूर्व के गठबंधन भले ही तय न हो पाएं, चुनावोत्तर गठबंधनों की सम्भावनाओं पर गहरा विमर्श हो जाएगा।

Tuesday, March 19, 2013

इच्छाधारी राजनीति


प्रधानमंत्री पद का एक अनार और इच्छाधारी सौ बीमार भारत की इच्छाधारी राजनीति बड़े रोचक दौर में प्रवेश कर रही है। हालांकि अभी लोकसभा चुनाव तकरीबन एक साल दूर है, पर तय होने लगा है कि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी कौन है। दो प्रत्याशी दौड़ में सबसे आगे हैं। नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी। पर कम से कम आधा दर्जन प्रत्याशी और हैं। इनमें नीतीश कुमार, मुलायम सिंह, मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार, जे जयललिता, पी चिदम्बरम, एके एंटनी सहित कुछ नाम और हैं। प्रधानमंत्री बनने की इनकी सम्भावनाओं और कामनाओं के ऐतिहासिक कारण हैं। जुलाई 1979 के पहले कौन कह सकता था कि चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बनेंगे? इसी तरह दिसम्बर 1989 के पहले वीपी सिंह के बारे में, नवम्बर 1990 के पहले चन्द्रशेखर के बारे में, जून 1991 के पहले पीवी नरसिंहराव के बारे में, जून 1996 के पहले एचडी देवेगौडा के बारे में और अप्रेल 1997 के पहले इन्द्र कुमार गुजराल के बारे में कहना मुश्किल था कि वे प्रधानमंत्री बनेंगे, पर बने। वे किसी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं थे। इसी तरह जनवरी 1966 में लाल बहादुर शास्त्री के असामयिक निधन के बाद इंदिरा गांधी के और अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने की परिस्थितियाँ असामान्य थीं। कई बार हालात अचानक मोड़ दे देते हैं और तमाम तैयारियाँ धरी की धरी रह जाती हैं। इसलिए देश की राजनीति में एक तबका ऐसा भी है जो विपरीत राजयोग का इंतज़ार करता रहता है। परिस्थितियाँ बनें और राजतिलक हो।

Monday, March 18, 2013

उदीयमान भारत के अंतर्विरोध


जवाहर लाल के कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की स्थिति काफी अच्छी थी। गुट निरपेक्ष देशों के नेताओं टीटो-नासर और नेहरू की वृहत्त्रयी ने जो आभा मंडल बनाया था, वह भावनात्मक ज्यादा था। उसके पीछे व्यावहारिक शक्ति नहीं थी। सन 1962 में चीन के साथ हुई लड़ाई में नेहरू का वह आभा मंडल अचानक पिघल गया। उसके बाद सन 1971 में इंदिरा गांधी ने अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय देते हुए एक ताकतवर भारत की परिकल्पना पेश की। हालांकि उसी दौर में भारत के अंदरूनी अंतर्विरोध भी उभरे। सन 1973 का आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव अस्सी के दशक में पंजाब आंदोलन और अंततः इंदिरा गांधी की हत्या का कारण भी बना। उन्हीं दिनों मंडल और कमंडल के दो बड़े आंदोलनों ने हमारे सामाजिक अंतर्विरोधों को खोला। पाकिस्तान में उसी दौरान ज़िया-उल-हक ने कट्टरता की फसल को बोना शुरू कर दिया। सन 1971 के आहत पाकिस्तान का निशाना कश्मीर था, जहाँ अस्सी के उतरते दशक में हिंसक आंदोलन शुरू हो गया। और जिसमें पाकिस्तान की सबसे बड़ी भूमिका थी।

Saturday, March 16, 2013

अद्भुत सुनामी बादल




अद्भुत विश्व/ Amazing world



अमेरिका के फ्लोरिडा में इन अद्भुत सुनामी बादलों की ये तस्वीरें एक साल पुरानी हैं। हेलिकॉप्टर पायलट माइक शैफर ने ये तस्वीरें खीचीं थीं। वास्तविक सुनामी में पानी की लहरें इतनी ऊँची उठती हैं। पर यह प्रभाव तब पैदा होता है जब पानी से भरी हवा की तेज लहर अपेक्षाकृत धीमी लहर के ऊपर से गुजरती है। मौसम विज्ञानी डैन शैटरफील्ड ने इस प्रभाव को अपने ब्लॉग में समझाया है। उन्होंने लिखा हैः- Cool air offshore was very nearly at the saturation point, with a temperature near 20ºC and a dew point of about 19.5ºC. The air at this temperature can only hold a certain amount of water vapor, and how much it can hold depends heavily on the temperature. If you add more water into the air, a cloud will form, but you can also get a cloud to form by cooling the air. Drop the temperature, and it can no long hold as much water vapor, so some of it will condense out and a cloud will form.




Friday, March 15, 2013

कश्मीर के बारे में भारतीय संसद का 22 फरवरी 1994 का प्रस्ताव


पाकिस्तानी राजनेताओं को या तो सम्प्रभुता और संसदीय गरिमा की समझ नहीं है  या उन्होंने किसी दीर्घकालीन रणनीति के तहत संसद के माध्यम से प्रस्ताव पास किया है।  उन दिनों जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो बार-बार कह रहीं थीं कि कश्मीर का मसला विभाजन के बाद बचा अधूरा काम है। इस पर भारत के प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने कहा कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की भारत में वापसी ही अधूरा रह गया काम  है। वह समय था जब कश्मीर में हिंसा चरमोत्कर्ष पर थी। बढ़ती हुई आतंकवादी हिंसा के मद्देनज़र भारतीय संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले राज्य के हिस्सों को खाली करना होगा । संकल्प का पाठ इस प्रकार है।



"यह सदन"
पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित शिविरों में आतंकवादियों को प्रशिक्षण प्रदान करने, साथ ही हथियार और धन देकर जम्मू और कश्मीर में विदेशी भाड़े के सैनिकों सहित प्रशिक्षित उग्रवादियों की घुसपैठ में सहायता से सामाजिक सद्भाव को नष्ट करने और तोड़फोड़ के घोषित उद्देश्य की आपूर्ति में पाकिस्तान की भूमिका को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त करता है |

सदन ने दोहराया कि पाकिस्तान में प्रशिक्षित उग्रवादी हत्या, लूट, लोगों को बंधक बनाने और आतंक का वातावरण निर्मित करने जैसे अन्य जघन्य अपराधों में लिप्त हैं;

भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर में विध्वंसक और आतंकवादी गतिविधियों के लिए पाकिस्तान द्वारा जारी समर्थन और प्रोत्साहन की सदन द्रढता से निंदा करता है |

पाकिस्तान अविलम्ब आतंकवादियों को सहयोग करना बंद करे, जोकि शिमला समझौते का उल्लंघन है तथा दोनों देशों के मध्य तनाव का मुख्य कारण तथा पारस्परिक संबंधों के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत मानदंडों के विरुद्ध है| साथ ही सदन ने भारतीय राजनीतिक और लोकतांत्रिक ढांचे और अपने सभी नागरिकों के संविधान प्रदत्त अधिकारों व मानवाधिकारों के संरक्षण करने का विश्वास दिलाया और अपने समर्थन को दोहराया |

पाकिस्तान के भारत-विरोधी अभियान को अस्वीकार कर उसे दुखद रूप में झूठ बताते हुए उसकी निंदा की |
वातावरण दूषित करने और जनमत उत्तेजित करने बाले पाकिस्तान के बेहद उत्तेजक बयानों को गंभीर चिंता विषय मानते हुए उनसे बचने का आग्रह पाकिस्तान से किया |

पाकिस्तान के अवैध कब्जे बाले क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों की दयनीय स्थिति तथा उनके लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित रहने पर चिंता व्यक्त की गई |
भारत के लोगों की ओर से,

मजबूती से कहते हैं कि-

(क) जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग रहा है, है और रहेगा तथा उसे देश के बाकी हिस्सों से अलग करने के किसी भी प्रयास का सभी आवश्यक साधन के द्वारा विरोध किया जाएगा;

(ख) भारत में अपनी एकता, संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के विरुद्ध होने वाले किसी भी आक्रमण का मजबूती से मुकाबला करने की इच्छाशक्ति व क्षमता है

और मांग है कि -

(सी) पाकिस्तान बल पूर्वक कब्जाए हुए भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर क्षेत्रों को खाली करे; और सदन पारित करता है कि -

(d) भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के सभी प्रयासों से सख्ती से निबटा जाए."

प्रस्ताव सर्वसम्मति से अपनाया गया ।
अध्यक्ष महोदय: प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया है।

Tuesday, March 12, 2013

बदलते दौर में पाकिस्तान


पाकिस्तानी प्रधानमंत्री राजा परवेज की अजमेर शरीफ की निजी यात्रा को भारतीय मीडिया ने इस तरीके से कवर किया मानो ओबामा की सरकारी यात्रा हो। प्रायः हर चैनल में एंकर दिन भर यह सवाल पूछते रहे कि पाकिस्तान हमारे फौजियों की गर्दनें काट रहा है और हम उनके प्रधानमंत्री को लंच दे रहे हैं। शायद श्रोताओं और दर्शकों को यह सवाल पसंद आता है। पर पसंद क्यों आता है? इसकी एक वजह यह भी है कि यही मीडिया अपने दर्शकों, पाठकों को चुनींदा जानकारी देता है। यह बात सरहद के दोनों ओर है। इतिहास के क्रूर हाथों ने दोनों देशों को एक-दूसरे का दुश्मन क्यों बनाया और क्या यह दुश्मनी अनंतकाल तक चल सकती है? क्या हम एक-दूसरे के अंदेशों, संदेहों और जानकारियों से परिचित हैं? पाकिस्तान क्या वैसा ही है जैसा हम समझते हैं? और क्या भारत वैसा ही है जैसा पाकिस्तानियों को बताया जाता है?

इटली बनाम भारत!!!

पिछले दिनों जब वेस्टलैंड ऑगस्टा हेलिकॉप्टर की खरीद के मामले में कमीशनखोरी का मामला इटली की अदालत में पहुँचा तो भारत सरकार ने विवरण माँगे तो वहाँ की व्यवस्था ने इनकार कर दिया। संयोग से उन्हीं दिनों इटली के नौसैनिकों का मामला भारतीय अदालतों में चल रहा था। केरल से होता हुआ यह सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। देश की अदालत ने इन कर्मचारियों को अपने देश जाकर वहाँ चुनाव में हिस्सा लेने की छूट भी दे दी। अब इटली के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि भारत में हत्या के आरोपों का सामना कर रहे इटली के नौ‍सैनिक भारत वापस नहीं लौटेंगे। इन सैनिकों पर आरोप है कि एक साल पहले उन्होंने दो भारतीय मछुआरों को गाली मार दी थी। ये सैनिक इटली के एक जहाज़ पर तैनात थे ताकि उसे समुद्री लुटेरों से बचा सकें जबकि नौसैनिकों का कहना है कि उन्होंने हिंद सागर में भारतीय मछुआरों को समुद्री लुटेरे समझ कर उन पर गोलियां चला दीं थी।

Tuesday, March 5, 2013

हम भी छू सकते हैं सूरज और चाँद बशर्ते...


बजट सत्र की शुरूआत करते हुए राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने घोषणा की कि भारत इस साल अपना उपग्रह मंगल ग्रह की ओर भेजेगा। केवल मंगलयान ही नहीं। हमारा चन्द्रयान-2 कार्यक्रम तैयार है। सन 2016 में पहली बार दो भारतीय अंतरिक्ष यात्री स्वदेशी यान में बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा करेंगे। सन 2015 या 16 में हमारा आदित्य-1 प्रोब सूर्य की ओर रवाना होगा। और सन 2020 तक हम चन्द्रमा पर अपना यात्री भेजना चाहते हैं। किसी चीनी यात्री के चन्द्रमा पहुँचने के पाँच साल पहले। देश का हाइपरसोनिक स्पेसक्राफ्ट अब किसी भी समय सामने आ सकता है। अगले दशक के लिए न्यूक्लियर इनर्जी का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम तैयार है। एटमी शक्ति से चलने वाली भारतीय पनडुब्बी अरिहंत नौसेना के बेड़े में शामिल हो चुकी है। हमारा अपना बनाया तेजस विमान तैयार है। युद्धक टैंक अर्जुन-2 दुनिया के सबसे अच्छे टैंकों से भी बेहतर बताया जा रहा है। भारत के डिज़ाइन से तैयार हो रहा है अपना विमानवाहक पोत। हम रूस के साथ मिलकर पाँचवी पीढ़ी का युद्धक विमान विकसित कर रहे हैं। रूस के साथ मिलकर ही बहुउद्देश्यीय माल-वाहक विमान भी हम डिज़ाइन करने जा रहे हैं।

Monday, March 4, 2013

बांग्लादेश का एक और मुक्ति संग्राम


बांग्लादेश में जिस वक्त हिंसा का दौर चल रहा है हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की यात्रा माने रखती है। पर बांग्ला विपक्ष की नेता खालिदा ज़िया ने प्रणव मुखर्जी से मुलाकात को रद्द करके इस आंदोलन को नया रूप दे दिया है। देश में एक ओर जमात-ए-इस्लामी का आंदोलन चल रहा है, वहीं पिछले तीन हफ्ते से ढाका के शाहबाग चौक में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के समर्थक जमा हैं। इस साल के अंत में बांग्लादेश में चुनाव भी होने हैं। शायद इस देश में स्थिरता लाने के पहले इस प्रकार के आंदोलन अनिवार्य हैं। 
भारत के लिए बांग्लादेश प्रतिष्ठा का प्रश्न रहा है। इस देश का जन्म भाषा, संस्कृति, धर्म और राष्ट्रवाद के कुछ बुनियादी सवालों के साथ हुआ था। इन सारे सवालों का रिश्ता भारतीय इतिहास और संस्कृति से है। इन सवालों के जवाब आज भी पूरी तरह नहीं मिले हैं। पश्चिम में पाकिस्तान और पूर्व में बांग्लादेश भारत के अंतर्विरोधों के प्रतीक हैं। संयोग है तीनों देश इस साल चुनाव की देहलीज पर हैं। पाकिस्तान में अगले दो महीने और भारत और बांग्लादेश में अगला एक साल लोकतंत्र की परीक्षा का साल है। इस दौरान इस इलाके की जनता को तय करना है कि उसे आधुनिकता, विकास और संस्कृति का कैसा समन्वय चाहिए। पर बांग्लादेश की हिंसा अलग से हमारा ध्यान खींचती है।
जमात-ए-इस्लामी के नेता दिलावर हुसैन सईदी को मौत की सज़ा सुनाए जाने के बाद बांग्लादेश के अलग-अलग इलाकों में दंगे भड़के हैं। अभी तक बांग्लादेश नेशनल पार्टी ने इस मामले में पहल नहीं की थी, पर शुक्रवार को उसकी नेता खालिदा जिया ने सरकार पर नरसंहार का आरोप लगाकर इसे राजनीतिक रंग दे दिया है। देश के 15 ज़िले हिंसा से प्रभावित हैं। कई शहरों में सत्तारूढ़ अवामी लीग और जमात-ए-इस्लामी कार्यकर्ताओं के बीच टकराव हुए हैं। सन 1971 के बाद से देश में यह सबसे बड़ी हिंसा है। नेआखाली के बेगमगंज में मंदिरों और हिंदू परिवारों पर हमले हुए हैं। जमात-ए-इस्लामी और उसकी छात्र शाखा इस्लामी छात्र शिविर ने मंदिरों को ही नहीं मस्जिदों को भी निशाना बनाया है। बांग्लादेश की शाही मस्जिद कहलाने वाली बैतुल मुकर्रम मस्जिद में कट्टरपंथियों ने तोड़फोड़ की है। यह हिंसा लगभग एक महीने से चल रही है। और इस कट्टरपंथी हिंसा के जवाब में पिछले एक महीने से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी नौजवानों का आंदोलन भी चल रहा है। यह आंदोलन भी देश भर में फैल गया है। देखना यह है कि क्या बांग्लादेश आधुनिकतावाद को अपनी राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बना पाएगा।

Wednesday, February 27, 2013

पवन बंसल का राम भरोसे रेल बजट

रेल किराए या इसी किस्म की लोकलुभावन बातों पर गौर न करें तो भारत के आधुनिकीकरण में रेलवे की भावी भूमिका और अंदेशों का संकेत तो इस बार के रेल बजट में मिलता है, पर जवाब कहीं नहीं मिलता। रेल बजट को लोकलुभावन बनाने का ममता बनर्जी का फ़र्मूला किराया न बढ़ाना था तो पवन बंसल का फ़ॉर्मूला विकास के कार्यों को रोक देने का है। लगता है सरकार ने सारे काम भविष्य पर छोड़ दिए हैं। रेलवे की सबसे बड़ी ज़रूरत है माल ढोने के लिए आधार ढाँचे को तैयार करना, यात्रियों की सुरक्षा और सहूलियतों में इज़ाफा, विद्युतीकरण, आमान परिवर्तन और नई लाइनों का निर्माण। हमें अपने बजट को इसी लिहाज से देखना चाहिए। और यह देखना चाहिए कि सरकार कितना निवेश इन कामों पर करने जा रही है। इसके लिए पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में रेलवे के लिए 5.19 लाख करोड़ रुपए के निवेश की ज़रूरत है। इसमें से आंतरिक साधनों से 1.05 लाख करोड़ की व्यवस्था करने का निश्चय किया गया है। इसमें से केवल 10,000 करोड़ रुपए की व्यवस्था पिछले साल के बजट में की गई थी। यानी 95,000 करोड़ रुपए का इंतज़ाम अगले चार साल पर छोड़ दिया गया। पिछले साल रेलवे का योजनागत व्यय 60,100 करोड़ रुपए था, जो संशोधित कर 52,265 करोड़ रु कर दिया गया। यानी वह व्यवस्था भी नहीं हो पाई। इस साल 63, 363 करोड़ रु की व्यवस्था बजट में की गई है। यानी दो साल में योजनागत व्यय एक लाख 15, 628 करोड़ रु हुआ। यानी अगले तीन साल में 4.04 लाख करोड़ रु की व्यवस्था करनी होगी। यानी अगले तीन साल तक रेलवे को योजनागत व्यय में इस साल के व्यय का तकरीबन ढाई गुना खर्च करना होगा। यह काम लगभग असम्भव है।