Monday, March 18, 2013

उदीयमान भारत के अंतर्विरोध


जवाहर लाल के कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की स्थिति काफी अच्छी थी। गुट निरपेक्ष देशों के नेताओं टीटो-नासर और नेहरू की वृहत्त्रयी ने जो आभा मंडल बनाया था, वह भावनात्मक ज्यादा था। उसके पीछे व्यावहारिक शक्ति नहीं थी। सन 1962 में चीन के साथ हुई लड़ाई में नेहरू का वह आभा मंडल अचानक पिघल गया। उसके बाद सन 1971 में इंदिरा गांधी ने अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय देते हुए एक ताकतवर भारत की परिकल्पना पेश की। हालांकि उसी दौर में भारत के अंदरूनी अंतर्विरोध भी उभरे। सन 1973 का आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव अस्सी के दशक में पंजाब आंदोलन और अंततः इंदिरा गांधी की हत्या का कारण भी बना। उन्हीं दिनों मंडल और कमंडल के दो बड़े आंदोलनों ने हमारे सामाजिक अंतर्विरोधों को खोला। पाकिस्तान में उसी दौरान ज़िया-उल-हक ने कट्टरता की फसल को बोना शुरू कर दिया। सन 1971 के आहत पाकिस्तान का निशाना कश्मीर था, जहाँ अस्सी के उतरते दशक में हिंसक आंदोलन शुरू हो गया। और जिसमें पाकिस्तान की सबसे बड़ी भूमिका थी।

सन 1991 के बाद हमारी अर्थ-व्यवस्था ने पलटा खाया। विकास दर में आई तेजी और अमेरिका के साथ बढ़ते रिश्तों ने हमें वैश्विक मंच पर फिर से महत्वपूर्ण बना दिया। और इस वक्त हम बेहद नाज़ुक दौर से गुज़र रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि हमारा महत्व बढ़ा है, पर उसके अंतर्विरोध भी ज़ाहिर हैं, जिनके कारण कई बार हमें लगता है कि हम दब्बू देश हैं। हमें सब घुड़की देते हैं। हम किसी का कुछ नहीं कर सकते। इसके विपरीत भारत पर दादागिरी और सुपर पावर बनने के सपने देखने का आरोप लगता है। सच यह है कि जैसे-जैसे हमारा महत्व बढ़ेगा, ऐसे आरोप बढ़ते जाएंगे और हमारे अंतर्विरोध बढ़ेंगे। दक्षिण एशिया के लगभग सभी देशों की अंदरूनी राजनीति विवादित करती है। भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश इन दिनों चुनाव की राजनीति में भी व्यस्त हैं।
एक साल पहले 15 फरवरी 2012 को हिन्द महासागर में केरल के पास इटली के जहाज एनरिरका लेक्सी से दो इतालवी नौसैनिकों ने गोली चलाकर भारत के दो मछुआरों को मार दिया। केरल पुलिस ने उन दोनों को गिरफ्तार कर लिया तथा जेल भेज दिया। 105 दिन की न्यायिक हिरासत के बाद उन्हें जमानत पर रिहा किया गया, लेकिन मामला चलता रहा। इसके बाद 21 दिसम्बर 2012 को केरल हाई कोर्ट ने दोनों को क्रिसमस मनाने के लिए इटली जाने की इजाजत दे दी। वे अपने समय से कोच्चि वापस आ गए। उधर यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह मामला केरल के क्षेत्राधिकार का नहीं है। 18 जनवरी 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिया कि वह एक विशेष अदालत का गठन करे। इसके साथ ही न्यायालय ने इटली सरकार की ओर से उसके दिल्ली स्थित राजदूत द्वारा दिए गए शपथ पत्र एवं नाविकों को वापस भेजने की गारंटी देने के बाद दोनों को इटली के चुनावों में वोट डालने के लिए घर जाने की इजाजत दे दी। इधर 11 मार्च को इटली ने कहा कि वह इन दोनों नाविकों को जहाज के लिए वापस नहीं भेजेगा क्योंकि मामला अंतरराष्ट्रीय सागर का है इसलिए इसे अंतरराष्ट्रीय अदालत में ही निपटाना चाहिए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इटली के राजदूत डेनियल मेनसिनी के देश से बाहर जाने को रोक रखा है, पर लगता नहीं कि उनपर व्यक्तिगत रूप से कोई कार्रवाई हो सकेगी, क्योंकि राजनयिकों को कानूनी सुरक्षा मिली होती है। पर यह मामला अपने किस्म का अनोखा और अटपटा है। देखना यह है कि इटली के नाविकों ने क्या वास्तव में केरल के मछुआरों को समुद्री डाकू समझा था? और दूसरे यह कि वे अंतरराष्ट्रीय सागर में थे या भारतीय सीमा में? और हम अपनी बात को लेकर आश्वस्त थे तो उन्हें इटली जाने क्यों दिया?
उधर श्रीलंका की नौसेना द्वारा तमिलनाडु के साठ मछुआरों की गिरफ्तारी ने राजनयिक विवाद की शक्ल ले ली थी। हालांकि 34 मछुआरे रिहा हो गए हैं, पर श्रीलंका के साथ टकराव ज़ारी है, खासतौर से संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में श्रीलंका विरोधी प्रस्ताव को लेकर असमंजस बना है। भारत ने पिछली बार भी श्रीलंका के खिलाफ वोट किया था, पर कुछ खास उपबंधों के साथ ताकि श्रीलंका की फजीहत न होने पाए। पर इस बार कुछ दूसरे कारण भी हैं, जो भारत को प्रेरित कर रहे हैं कि वह सख्त रुख अख्तियार करे। पर इसका मतलब होगा श्रीलंका के साथ रिश्ते बिगाड़ना। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर गहरी नाराजगी जाहिर की है। जया ने प्रधानमंत्री से कहा है, 'आप अपनी चुप्पी से श्रीलंका को यह मौका न दें कि वह खुद को ताकतवर समझने लगे और दुनिया भर में भारत के कमजोर होने का संदेश जाए। पिछले साल 18 नवम्बर को श्रीलंका के हम्बनटोटा बन्दरगाह का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री महीन्दा राजपक्षे ने कहा था, चीन और भारत के नेतृत्व में तेजी से विकसित होते एशिया के साथ हमारा देश भी आगे बढ़ेगा। इस वक्तव्य में चीन के साथ भारत का नाम सायास जोड़ा गया था। डेढ़ अरब डॉलर की राशि से विकसित हो रहा हम्बनटोटा बन्दरगाह श्रीलंका और चीन के मैत्री सम्बन्धों की कहानी है। बहरहाल श्रीलंका सरकार के मन में भारत के प्रति बैठा असंतोष छिपा नहीं है।
लगभग यही स्थिति मालदीव में है, जहाँ पिछले साल भारत समर्थक राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद का तख्ता पलट करके ऐसी सरकार आ गई, जो भारत समर्थक नहीं है। इन दिनों बांग्लादेश में हिंसा चल रही है, जिसके पीछे कहीं न कहीं भारत-विरोधियों का हाथ है। यही स्थिति नेपाल में है, जहाँ संवैधानिक गतिरोध चल रहा है। इस गतिरोध का आड़ में भारत-विरोधी ताकतें अपने पैर जमाती जा रहीं हैं। उधर अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी अगले साल शुरू हो जाएगी। भारत-विरोधी ताकतें इसका लाभ उठाते हुए हमें किनारे करने की कोशिश करेंगी। अफगान राष्ट्रपति हमीद करज़ाई यों तो भारत-समर्थक हैं, पर वे इतने ताकतवर नहीं कि अमेरिकी समर्थन के बगैर काम कर सकें।
भारत सरकार में कुछ लोग मानते हैं कि श्रीलंका के साथ रिश्तों में केवल तमिल मुद्दे को ही कसौटी नहीं बनाना चाहिए। क्षेत्रीय व्यापार और सामरिक संतुलन भी महत्वपूर्ण हैं। पर तमिल पार्टियों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण भारत सरकार के सामने असमंजस पैदा हो रहा है। तमिलनाडु में श्रीलंका के पर्यटकों का ही नहीं खिलाड़ियों का प्रवेश भी मुश्किल हो गया है। मुख्यमंत्री जयललिता ने हाल में श्रीलंकाई एथलीटों का राज्य में प्रवेश रोक दिय़ा। पिछले साल सितम्बर में उन्होंने श्रीलंकाई छात्रों को चेन्नई में दोस्ताना फुटबाल मैच खेलने की अनुमति नहीं दी थी। हाल में जब चैनल-4 ने लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण के 12 वर्षीय बेटे की हत्या की वीडियो फुटेज दिखाई तो गुस्सा और भड़का।
पिछले तीन महीने से भारत और पाकिस्तान के रिश्तों कश्मीर में सीआरपी के कैम्प पर हमले के बाद पाकिस्तानी संसद ने जो प्रस्ताव पास किया है वह एक तरह भड़काने की कार्रवाई है। इसके अलावा इसे सन 2001 में भारतीय संसद पर हुए हमले को परोक्ष रूप में उचित ठहराना भी कहा जा सकता है। इस प्रस्ताव के अगले रोज ही भारतीय संसद ने प्रस्ताव पास करके तुर्की-ब-तुर्की जवाब दे दिया, पर लगता है कि दोनों देशों के बीच सम्बन्ध सामान्य बनाने की प्रक्रिया चार कदम पीछे चली जाएगी। लोकसभा की स्पीकर मीरा कुमार ने संसद के निचले सदन में प्रस्ताव रखा कि पाकिस्तान भारत के अंदरूनी मामलों में दखलअंदाज़ी न करे। प्रस्ताव में कहा गया कि जम्मू कश्मीर का पूरा हिस्सा भारत का है और रहेगा और इसमें वह क्षेत्र भी शामिल है जो पाकिस्तान प्रशासित है। इसके पहले 22 फरवरी 1994 को भारतीय संसद ने कश्मीर के बाबत संकल्प पास किया था कि कश्मीर का पाक अधिकृत क्षेत्र भी हमें वापस मिलना चाहिए। उन दिनों वह प्रस्ताव इसलिए भी ज़रूरी था कि पाकिस्तान इसे अंतरराष्ट्रीय प्रश्न बनाने की कोशिश न करे। अब पाकिस्तान में अगले कुछ समय बाद चुनाव होने वाले हैं। कश्मीर वहाँ का बड़ा राजनीतिक मसला है। कहना मुश्किल है कि पाकिस्तानी संसद का यह प्रस्ताव किसी सोची-समझी योजना का अंग है या नहीं। 

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