अमेरिका का प्रयोग इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इसमें कम ऊर्जा लगाकर ज्यादा ऊर्जा की प्राप्ति की गई है। पर इसके पहले भी ऐसे प्रयोग होते रहे हैं। इन्हें कृत्रिम सूर्य कह सकते हैं। पिछले साल 30 दिसंबर को चीन ने भी ऐसा प्रयोग करके दिखाया था। चीन के हैफेई में स्थित चीन के इस न्यूक्लियर फ्यूजन रिएक्टर या कृत्रिम सूर्य से 1,056 सेकंड या करीब 17 मिनट तक 7 करोड़ डिग्री सेल्सियस ऊर्जा निकली थी। भारत में भी इस दिशा में काम हो रहा है।
जिज्ञासुओं का प्रश्न होता है कि संलयन
ऊर्जा की खोज किसने कब की? संलयन
ऊर्जा की खोज स्वयं प्रकृति ने की। बिग-बैंग के करीब 10 करोड़ साल बाद, बहुत ही अधिक घनत्व एवं ताप वाले,एक
दैत्याकार गैसीय गोले में, जो कि हाइड्रोजन गैस के बादलों से बना
था, पहली संलयन क्रिया हुई और इस तरह पहले सितारे
का जन्म हुआ। इसके बाद यह प्रक्रिया लगातार चलती रही और लाखों सितारों का जन्म हुआ
और आज भी हो रहा है।
प्राकृतिक ऊर्जा
ब्रह्मांड में संलयन, अन्य
सभी अवस्थाओं (ठोस, द्रव एवं गैस) में सबसे अधिक मात्रा
में पाया जाता है। सौर-परिवार में, जहाँ हम रहते हैं, कुल
द्रव्यमान का लगभग 99.86%, संलयन अवस्था में है। 20वीं सदी की
शुरूआत तक सूर्य की तेज़ चमक और तारों की दिल लुभावनी झिलमिलाहट ऐसे आश्चर्य थे,
जिनकी व्याख्या करना संभव नहीं था। 1920में
एक अंग्रेज वैज्ञानिक आर्थर ऐडिंगटन ने सबसे पहले यह बताया कि तारे अपनी असीमित
ऊर्जा हाइड्रोजन के हीलियम में संलयन द्वारा प्राप्त करते हैं।
ऐडिंगटन का सिद्धांत 1926 में उनकी ‘सितारों की आंतरिक संरचना’ रचना में प्रकाशित हुआ जिसने आधुनिक सैद्धांतिक खगोल भौतिकी की नींव रखी। जिस सिद्धांत एवं विधियों की अवधारणा ऐडिंगटन ने की, उन्हें सही तरीके से एक अन्य वैज्ञानिक हैंस बैथ ने समझाया। 1939 में हैंस बैथ (1906-2005) के ‘प्रोटोन-प्रोटोन चक्र’ सिद्धांत ने इस रहस्य को खोला। बैथ को उनके कार्य 'स्टैलर न्यूक्लियोसिंथेसिस' पर 1967 में नोबेल पुरस्कार मिला।