Friday, January 7, 2022

गिटहब और बुल्ली बाई विवाद क्या है?


बुल्ली बाई विवाद के दौरान बार-बार इंटरनेट प्लेटफॉर्म गिटहब (GitHub) का नाम आता है। पिछले साल सुल्ली डील्स का जिक्र जब हुआ था, तब भी इसका नाम आया था। आज के मिंट में इसके बारे में बताया गया है।

बुल्ली बाई विवाद

बुल्ली बाई एक सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन है, जो ऑनलाइन नीलामी को सिम्युलेट करती है। यानी नीलामी जैसी परिस्थितियाँ बनाती हैं। दूसरे एप्स की तरह यह गूगल या एपल एप स्टोर पर यह उपलब्ध नहीं है। इसे कोड रिपोज़िटरी और सॉफ्टवेयर कोलैबरेशन प्लेटफॉर्म पर, जिसका नाम गिटहब है, होस्ट किया गया है। इसमें 100 से ज्यादा मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरों का इस्तेमाल किया गया है, जो इंटरनेट से हासिल की गई हैं। इसमें इन्हें नीलामी में बोली लगाकर बेचने का नाटक किया गया है। यह नीलामी वस्तुतः फर्जी है। इसमें इस्तेमाल हुए बुल्ली और सुल्ली शब्द अपमानजनक हैं।

गिटहब क्या है?

गिटहब सबसे बड़ा कोड रिपोज़िटरी और सॉफ्टवेयर कोलैबरेशन प्लेटफॉर्म है, जिसका इस्तेमाल डेवलपर, स्टार्टअप, बल्कि कई बार बड़ी टेक्नोलॉजी कम्पनियाँ भी करती हैं, ताकि किसी एप को विकसित करने में कोडिंग से जुड़े लोगों की मदद ली जा सके। माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन, मेटा प्लेटफॉर्म इनकॉरपोरेट (फेसबुक) और गूगल एलएलसी भी अपने कोड गिटहब पर उपलब्ध कराते हैं, ताकि दूसरे लोग चाहें, तो उनका इस्तेमाल कर लें। माइक्रोसॉफ्ट ने 2018 में गिटहब को 7.5 अरब डॉलर की कीमत देकर खरीदा था। इस प्लेटफॉर्म पर गूगल के एंड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम के सोर्स कोड भी उपलब्ध हैं। फेसबुक के एंड्रॉयड और आईओएस एप्स के सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट किट्स भी यहाँ उपलब्ध हैं।

Thursday, January 6, 2022

पंजाब में कांग्रेस का सिरदर्द बने सिद्धू


पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू अपनी ही पार्टी की सरकार के लिए समस्या बन गए हैं। राज्य में कांग्रेस की सरकार अपने ही प्रदेश अध्यक्ष के जुबानी हमलों का सामना कर रही है।

 नवजोत सिंह सिद्धू को जब से पंजाब कांग्रेस का प्रमुख बनाया गया है, तब से पार्टी के भीतर का विवाद बढ़ता ही जा रहा है। पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए मुश्किल स्थिति हो गई है कि वे अपनी वफ़ादारी मुख्यमंत्री के नेतृत्व के साथ रखें या प्रदेश अध्यक्ष के साथ।

 अंग्रेज़ी अख़बार हिन्दू ने इस ख़बर को प्रमुखता से जगह दी है। अख़बार ने लिखा है कि मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी लगातार मज़बूती से कांग्रेस का एजेंडा रख रहे हैं, जबकि सिद्धू लगातार अलग-अलग मुद्दों पर सरकार को कोस रहे हैं। सिद्धू 2015 में 'गुरु ग्रंथ साहिब' के अपमान और उससे जुड़ी हिंसा के साथ ड्रग्स के मुद्दे पर अपनी सरकार को लगातार घेर रहे हैं।

 अख़बार ने में लिखा है कि सिद्धू लगातार उन मुद्दों को उठा रहे हैं, जिनसे सिख वोटों को लामबंद किया जा सके। पार्टी के भीतर आमराय यह बन रही है कि सिख मुद्दों को हद से ज़्यादा उठाने के कारण कांग्रेस हिन्दू वोट बैंक के ठोस समर्थन को खो सकती है।

Wednesday, January 5, 2022

चीनी धौंसपट्टी और प्रचार की रणनीति


चीन के साथ पूर्वी लद्दाख में गतिरोध के दो साल और 13 दौर की बातचीत के बाद भी कोई मामला जस का तस है। समाधान आसान नहीं लगता। चीन पर  महाशक्ति बनने का नशा सवार है और भारत उसकी धौंसपट्टी में आएगा नहीं। चीन विस्तारवादी आक्रामक रणनीति पर चल रहा है, दूसरी तरफ वह घिरता भी जा रहा है, क्योंकि उसके मित्रों की संख्या सीमित है। तीन-चार दशक की तेज आर्थिक प्रगति के कारण उसके पास अच्छी पूँजी है, पर अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी है। वास्तविक-युद्ध से वह घबराता है।

हाल में तीन घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिनसे चीन की भारत से जुड़ी रणनीति पर रोशनी पड़ती है। अरुणाचल प्रदेश की 15 जगहों के चीन ने नए नामों की घोषणा की है। दूसरे नए साल पर चीनी सेना का एक ध्वजारोहण, जिसके बारे में दावा किया गया है कि वह गलवान घाटी में किया गया था। तीसरे पैंगोंग त्सो पर चीनी सेना ने एक पुल बनाना शुरू किया है, जिसके बन जाने पर आवागमन में आसानी होगी।  

मानसिक-प्रचार

इन तीनों में केवल पुल का सामरिक महत्व है। शेष दो बातें मानसिक-प्रचार का हिस्सा हैं, जिनका कोई मतलब नहीं है। चीनी प्रचार-तंत्र भारत की आंतरिक राजनीति का लाभ उठाता है। गलवान के कथित ध्वजारोहण की खबर मिलते ही कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने ट्वीट किया-गलवान पर हमारा तिरंगा ही अच्छा लगता है। चीन को जवाब देना होगा। मोदी जी, चुप्पी तोड़ो!’ इस ट्वीट के बाद कुछ और लोगों ने ट्वीट किए, यह जाने बगैर कि यह ध्वजारोहण कहाँ हुआ था और इसका वीडियो जारी करने के पीछे चीन का उद्देश्य क्या है।

चीन हमारे अंतर्विरोधों से खेलता है और हमारे लोग उसकी इच्छा पूरी करते हैं। सामान्यतः रक्षा और विदेश-नीति को राजनीति का विषय बनाना अनुचित है, पर राजनीति समय के साथ बदल चुकी है। भारत-चीन विवाद यों भी बहुत जटिल हैं। 1962 के पहले और बाद की स्थिति को लेकर तमाम बातें अस्पष्ट हैं। ऐसे मसले यूपीए के दौर में उठते रहे हैं। पूर्व विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष श्याम सरन ने सन 2013 में कहा था कि चीन ने 640 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया है। सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया और तत्कालीन रक्षामंत्री एके एंटनी ने संसद में इसकी सफाई दे दी। श्याम शरण ने भी अपनी बात वापस ले ली, पर यह सवाल तो बना ही रहा कि किस गलतफहमी में उन्होंने कब्जे की बात कही थी।

Tuesday, January 4, 2022

उत्तर प्रदेश में चुनावी सफलता का सूत्र है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

सीएसडीएस के प्रोफेसर संजय कुमार के अनुसार उत्तर प्रदेश के चुनाव में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। आज के मिंट में प्रकाशित उनकी रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण राजनीतिक फसल काटने का अच्छा जरिया है। एक पार्टी हिंदू वोट को हथियाने का प्रयास करती है तो दूसरी पार्टी मुसलमानों के वोटर को लुभाती है। राज्य में मुस्लिम आबादी 19.3 फीसदी है।

हालांकि मुस्लिम आबादी प्रदेश के सभी हिस्सों में उपस्थित है, पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड में उसकी उपस्थिति सबसे अच्छी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 32 फीसदी और रूहेलखंड की 35 फीसदी आबादी मुसलमानों की है। राज्य की कुल 403 सीटों में से 30 सीटें ऐसी हैं, जहाँ 40 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी है। इसके बाद 43 सीटें ऐसी हैं, जहाँ 30-40 फीसदी आबादी मुस्लिम है।

बीजेपी की दिलचस्पी बहुसंख्यक हिंदू वोटर को अपनी तरफ खींचने की होती है, तो समाजवादी पार्टी की दिलचस्पी मुस्लिम वोट को हासिल करने की होती है। पार्टी की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि मुसलमान किसका साथ देते हैं।

सीएसडीएस के चुनाव बाद के सर्वेक्षणों से प्राप्त डेटा का अध्ययन करने से निष्कर्ष प्राप्त हुआ कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में और 2017 के विधानसभा चुनाव में हिंदुओं के कुल वोटों में से आधे भारतीय जनता पार्टी के खाते में गए। जिन सीटों पर बीजेपी की हार हुई, उनमें भी हिंदुओं के वोट भारी संख्या में बीजेपी को मिले।

इसके विपरीत समाजवादी पार्टी को मुस्लिम वोट बड़ी संख्या में मिले। जिन क्षेत्रों में मुसलमानों के वोट कांग्रेस, बसपा और सपा के बीच बँटे, वहाँ भी सपा को सबसे ज्यादा मुस्लिम वोट मिले। 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब मुस्लिम वोटरों ने सपा का साथ दिया, फिर भी पार्टी को भारी अंतर से पराजय का सामना करना पड़ा।

ध्रुवीकरण मददगार

एक बात यह भी स्पष्ट हुई है कि जो पार्टियाँ मुस्लिम वोटों के सहारे हैं, वे भी हिंदू वोटों की अनदेखी नहीं कर सकती हैं। सन 2017 के चुनाव में बीजेपी ने उन सब सीटों पर सफलता हासिल की, जहाँ मुसलमान 30 से 40 फीसदी हैं। बीजेपी के पक्ष में हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के कारण दूसरी पार्टियाँ केवल मुस्लिम वोट के सहारे जीत नहीं सकतीं। जिन क्षेत्रों में मुसलमान 40 फीसदी से ज्यादा है, वहाँ बीजेपी नहीं जीत सकती। 2017 में जहाँ बीजेपी ने राज्य में भारी बहुमत हासिल किया, वहीं जिन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी 40 फीसदी से ज्यादा है, वहाँ सपा को जीत मिली। बीजेपी ऐसी 60 फीसदी सीटों पर हारी।

स्विंग वोटर

जबर्दस्त सांप्रदायिक अभियान ऐसे वोटरों को अपनी तरफ खींचने में कामयाब होता है, जो मतदान के एक-दो दिन पहले फैसला करते हैं। स्विंग वोटर किसी पार्टी के वफादार नहीं होते, और वे प्रत्याशी या मुद्दों पर वोट देते हैं। आमतौर पर वे उसे वोट देते हैं, जिसकी जीत नजर आ रही हो। सीएसडीएस सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश में करीब 25 फीसदी स्विंग वोटर हैं।

2014 के लोकसभा चुनाव में 41 फीसदी स्विंग वोटरों ने ऐसे प्रत्याशी को वोट दिया, जो उनकी निगाह में जीतता नजर आ रहा था, जबकि 8 फीसदी ने यह जानते हुए भी वोट दिया कि पार्टी हार जाएगी। जीतने वाली पार्टी के पक्ष में स्विंग मुसलमानों के बीच ज्यादा है। सर्वेक्षण के दौरान आधे से ज्यादा वोटरों ने कहा कि उन्होंने उस प्रत्याशी को वोट दिया, जो हमें लगा कि जीत जाएगा। सांप्रदायिक अभियान का एक उद्देश्य स्विंग वोटर को अपने साथ लाना भी होता है।

 

Monday, January 3, 2022

ओमिक्रॉन की पहेली, कितना खतरनाक?


कोविड-19 के नए वेरिएंट ओमिक्रॉन का असर अब अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, एशिया और यूरोप समेत करीब 100 देशों पर दिखाई पड़ रहा है। अमेरिका की वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर हैल्थ मीट्रिक्स एंड इवैल्युएशन (आईएचएमई) का अनुमान है कि अगले दो महीने में इससे संक्रमित लोगों की संख्या तीन अरब के ऊपर पहुँच जाएगी। यानी कि दुनिया की आधी आबादी से कुछ कम। यह संख्या पिछले दो साल में संक्रमित लोगों की संख्या से कई गुना ज्यादा होगी।

डरावना माहौल

पता नहीं ऐसा होगा या नहीं, पर सामान्य व्यक्ति के मन में इससे डर पैदा होता है। खतरा इतना बड़ा है, तो वैश्विक आवागमन को फौरन क्यों नहीं रोका जा रहा है? इस दौरान दो तरह की बातें सामने आ रही हैं। विशेषज्ञों का एक वर्ग कह रहा है कि ओमिक्रॉन का दुष्प्रभाव इतना कम है कि बहुत से लोगों को पता भी नहीं लगेगा कि वे बीमार हुए थे। दूसरी तरफ ऐसे विशेषज्ञ भी हैं, जो मानते हैं कि इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। यह भी पहले जैसा खतरनाक है।

इस दौरान वैक्सीन कंपनियाँ भी अपने टीकों में बदलाव कर रही हैं, पर वैक्सीन के वितरण में असमानता बदस्तूर है। क्या पिछले दो साल की तबाही से हमने कोई सबक नहीं सीखा है? कोविड-19 का सबक है कि महामारी जितनी देर टिकेगी, उतने म्यूटेंशंस-वेरिएशंस होंगे। वैक्सीनेशन में देरी का मतलब है म्यूटेशंस बढ़ते जाना। इसमें दो राय नहीं कि ओमिक्रॉन का संक्रमण बहुत तेज है। ब्रिटेन में हर दो दिन में इसके केस दुगने हो रहे हैं। इसका आर-रेट 3.5 है।