पिछले कुछ दिनों में कश्मीर घाटी में हुई
आतंकी-हिंसा में हिंदुओं और सिखों की हत्या के बाद जम्मू-कश्मीर का माहौल फिर से
तनावपूर्ण हो गया है। स्थानीय लोगों के मन में कई सवाल पैदा हो रहे हैं,
वहीं शेष भारत में सवाल पूछा जा रहा है कि राज्य के हालात क्या फिर
से 90 के दशक जैसे होने वाले हैं?
क्या घाटी से बचे-खुचे पंडितों और
सिखों का पलायन शुरू हो जाएगा?
क्या यह हिंसा पाकिस्तान-निर्देशित है?
क्या आतंकवादियों की यह कोई रणनीति है?
इस
हिंसा के पीछे द रेसिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) नामक नई संस्था है,
जिसके पीछे पाकिस्तान के लश्करे तैयबा का हाथ है। इस साल सितंबर तक
जम्मू-कश्मीर में आतंकियों ने दो दर्जन लोगों की हत्याएं की थीं। अब अक्तूबर में
पाँच दिन के भीतर सात लोगों के मारे जाने की खबरें हैं।
सॉफ्ट टार्गेट
नई बात यह है कि ये हमले मासूम नागरिकों पर हुए
हैं। हाल के वर्षों में आतंकवादी ज्यादातर सुरक्षाबलों पर हमले कर रहे थे। हमलों
के दौरान वे मारे भी जाते थे, क्योंकि सुरक्षाबल उन्हें जवाब देते थे,
पर अब वे वृद्धों, स्त्रियों और गरीब कारोबारियों की
हत्याएं कर रहे हैं, जो आत्मरक्षा नहीं कर सकते। ऐसा ही वे
नब्बे के दशक में कर रहे थे, जिसके कारण घाटी से पंडितों का पलायन
हुआ था। हालांकि छत्तीसिंहपुरा की हिंसा को छोड़ दें, तो
सिखों पर अपेक्षाकृत कम हमले हुए हैं। 20 मार्च, 2000
की रात को छत्तीसिंहपुरा में 40-50 आतंकियों ने इस गाँव पर हमला करके 35 सिखों की
हत्या की थी। महत्वपूर्ण यह है कि ये ‘टार्गेटेड किलिंग्स’ हैं। ऐसा नहीं है कि
भीड़ को निशाना बनाया गया है, बल्कि सोच-समझकर हत्या की गई है। इसका
मतलब है कि कोई सोच इसके पीछे काम कर रहा है।
क्या यह माना जाए कि आतंकवादी परास्त हो रहे
हैं और अब वे अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए सॉफ्ट टार्गेट को निशाना बना रहे हैं,
जिसमें जोखिम कम है और दहशत फैलाने की सम्भावनाएं ज्यादा हैं?
जनता के बीच घुसकर कार्रवाई करने के लिए मामूली तमंचों और चाकुओं से
काम चल जाता है। हत्यारे अपनी कार्रवाई करके भागने में सफल हो जाते हैं। यह रणनीति
क्या है और इसके पीछे उद्देश्य क्या हैं, इसे समझने की भी
जरूरत है। क्या वे दहशत फैलाना चाहते हैं, ताकि अल्पसंख्यक
कश्मीर छोड़कर भागें और कानूनी-व्यवस्था में बदलाव के कारण जो नए लोग इस इलाके में
बसना चाहें, तो वे अपना इरादा बदलें?
सम्पत्ति की बंदरबाँट
कश्मीर से पंडितों के पलायन के बाद उनकी
सम्पत्ति पर कब्जे को लेकर बंदरबाँट भी एक कारण हो सकता है। हाल में सरकार ने
कश्मीरी पंडितों की क़ब्ज़ा की गई अचल संपत्तियों पर उन्हें दोबारा अधिकार देने की
कवायद शुरू की थी। अब तक ऐसे लगभग 1,000 मामलों का निपटारा करते हुए संपत्ति को
वापस उनके असली मालिक के हवाले कर दिया गया। हिंसा के पीछे यह भी एक कारण हो सकता
है। इन सब बातों के अलावा ये घटनाएं 'बड़ी सुरक्षा
चूक' भी हैं। जहाँ-जहाँ वारदात हुई, वहाँ से कुछ ही मीटर की दूरी पर या तो सुरक्षा बलों के शिविर थे या
एसएसपी का कार्यालय। सुरक्षा एजेंसियों ने 21 सितंबर को ही अलर्ट जारी किया था और
बड़े हमले की आशंका जताई थी। हमारी खुफिया-व्यवस्था को अब ज्यादा जागरूक होकर काम
करना होगा, क्योंकि हत्यारे छिपने के लिए जगह तलाशते हैं।
यदि जनता के बीच पुलिस की पैठ हो, तो उनका पता लगाना आसान होता है।
सौहार्द पर निशाना
इन हत्याओं से केवल कश्मीर में ही नहीं,
शेष भारत में भी साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ता है। इसीलिए लगता है कि
इसके पीछे पाकिस्तान में बैठे आकाओं की कोई योजना काम कर रही है। टीआरएफ नाम के नए
समूह का नाम अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद से ही सुनाई पड़ा है। टीआरएफ ने गत 2
अक्तूबर को हुई माजिद अहमद गोजरी और मोहम्मद शफी डार की हत्याओं की जिम्मेदारी भी
ली थी। फिर मंगलवार 5 अक्तूबर को तीन अलग-अलग वारदातों में तीन लोगों की हत्या कर
दी। पहले इकबाल पार्क क्षेत्र में श्रीनगर की प्रसिद्ध फार्मेसी के मालिक माखनलाल
बिंदरू की, फिर लाल बाजार क्षेत्र में गोलगप्पे बेचने वाले
वीरेंद्र पासवान की और इसके बाद बांदीपुरा के शाहगुंड इलाके में एक नागरिक मोहम्मद
शफी लोन की हत्या की गई।