वह तलाश वैश्विक
मंच पर नहीं थी और न मानव-समुदाय उसका लक्ष्य था।
गरीब तो उसके दायरे में ही नहीं थे। उन्हें उच्छिष्ट ही मिलना था। पिछले
साल अप्रेल में विश्व स्वास्थ्य संगठन, कोलीशन फॉर
एपिडेमिक प्रिपेयर्डनेस इनोवेशन (सेपी) और ग्लोबल एलायंस फॉर वैक्सीन एंड
इम्युनाइज़ेशन यानी ‘गावी’ ने गरीब और मध्यम आय के देशों के लिए वैक्सीन की
व्यवस्था करने के कार्यक्रम ‘कोवैक्स’ का जिम्मा लिया। इसके लिए अमीर देशों ने दान दिया, पर
यह कार्यक्रम किस गति से चल रहा है, इसे देखने की फुर्सत उनके पास नहीं है।
अमेरिका ने ढाई
अरब दिए और जर्मनी ने एक अरब डॉलर। यह बड़ी रकम है, पर दूसरी तरफ अमेरिका ने अपनी
कम्पनियों को 12 अरब डॉलर का अनुदान दिया। इतने बड़े अनुदान के बाद भी ये
कम्पनियाँ पेटेंट अधिकार छोड़ने को तैयार नहीं। कम से कम महामारी से लड़ने के लिए
कारोबारी फायदों को छोड़ दो।
गरीबों की
बदकिस्मती
इस साल मार्च तक 10 करोड़ डोज़ कोवैक्स कार्यक्रम को मिलनी थीं, पर अप्रेल तक केवल 3.85 करोड़ डोज़ ही मिलीं। उत्पादन धीमा है और कारोबारी मामले तय नहीं हो पा रहे हैं। जनवरी में ‘गावी’ ने कहा था कि जिन 46 देशों में टीकाकरण शुरू हुआ है, उनमें से 38 उच्च आय वाले देश हैं। अर्थशास्त्री जोसफ स्टिग्लिट्ज़ ने वॉशिंगटन पोस्ट के एक ऑप-एडिट में कहा, कोविड-वैक्सीन को पेटेंट के दायरे में बाँधना अनैतिक और मूर्खता भरा काम होगा।