इस हफ्ते देश में अचानक अभिव्यक्ति की आजादी और उससे जुड़ी बातें हवा में हैं। चैनलों के बीच टीआरपी की लड़ाई इसके केंद्र में है। इस बीच सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी और एक फैसले ने ध्यान खींचा है। अदालत ने गुरुवार को अपनी एक टिप्पणी में कहा कि हाल के समय में बोलने की आजादी के अधिकार का ‘सबसे ज्यादा’ दुरुपयोग हुआ है। मार्च के महीने में लॉकआउट के वक्त तबलीगी जमात के मामले में मीडिया की कवरेज को लेकर दायर हलफनामे को ‘जवाब देने से बचने वाला’ और ‘निर्लज्ज’ बताते हुए न्यायालय ने केंद्र सरकार को आड़े हाथ लिया।
इसी हफ्ते अदालत ने शाहीनबाग आंदोलन से जुड़े एक मामले पर भी अपना फैसला सुनाया है। इन दोनों मामलों को मिलाकर पढ़ें, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आंदोलन की स्वतंत्रता से जुड़ी कुछ बातें स्पष्ट होती हैं। भारतीय संविधान नागरिक को स्वतंत्रताएं प्रदान करता है, तो उनपर कुछ विवेक सम्मत पाबंदियाँ भी लगाता है। हम अक्सर अपनी आजादी का सही अर्थ समझने में असमर्थ होते हैं। समय आ गया है कि अब हम स्वतंत्रता के साथ-साथ उन मर्यादाओं पर भी विचार करें, जिनके बगैर स्वतंत्रताओं का कोई अर्थ नहीं है। स्वतंत्रता और उसपर लागू होने वाली पाबंदियों के संतुलन के बारे में विचार करने की घड़ी अब आ रही है। खासतौर से मीडिया में इस वक्त जो आपसी मारकाट चल रही है, उसे देखते हुए मर्यादाओं और संतुलन के बारे में सोचना ही पड़ेगा। यह मारकाट किसी वैचारिक आधार पर न होकर शुद्ध कारोबारी आधार पर है और पत्रकार अपने मालिकों-प्रबंधकों के इशारे पर कठपुतली जैसा व्यवहार कर रहे हैं, इसलिए इस पूरे व्यवसाय के स्वामित्व से जुड़े प्रश्नों पर भी हमें सोचना चाहिए।