Sunday, October 4, 2020

हाथरस से उठते सवाल

हाथरस कांड ने एकसाथ हमारे कई दोषों का पर्दाफाश किया है। शासन-प्रशासन ने इस मामले की सुध तब ली, जब मामला काबू से बाहर हो चुका था। तत्काल कार्रवाई हुई होती, तो इतनी सनसनी पैदा नहीं होती। इस बात की जाँच होनी चाहिए कि पुलिस ने देरी क्यों की। राजनीतिक दलों को जब लगा कि आग अच्छी सुलग रही है, और रोटियाँ सेंकने का निमंत्रण मिल रहा है, तो उन्होंने भी तत्परता से अपना काम किया। उधर टीआरपी की ज्वाला से झुलस रहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने आनन-फानन इसे प्रहसन बना दिया। रिपोर्टरों ने मदारियों की भूमिका निभाई।  

कुल मिलाकर ऐसे समय में जब हम महामारी से जूझ रहे हैं सोशल डिस्टेंसिंग की जमकर छीछालेदर हुई। बलात्कारियों को फाँसी देने और देखते ही गोली मारने के समर्थकों से भी अब सवाल पूछने का समय है। बताएं कि दिल्ली कांड के दोषियों को फाँसी देने और हैदराबाद के बलात्कारियों को गोली मारने के बाद भी यह समस्या जस की तस क्यों है? इस समस्या का समाधान क्या है?

Friday, October 2, 2020

सबके मनभावन फैसला संभव नहीं

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत का फैसला आने के बाद यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है। और यह निष्कर्ष भी नहीं निकलता कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना अपराध नहीं था। पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर-मस्जिद विवाद के जिस दीवानी मुकदमे पर फैसला सुनाया था, उसमें स्पष्ट था कि मस्जिद को गिराया जाना अपराध था। उस अपराध के दोषी कौन थे, यह इस मुकदमे में साबित नहीं हो सका। 

जिन्हें उम्मीद थी कि अदालत कुछ लोगों को दोषी करार देगी, उन्हें निराशा हुई है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी न्याय-व्यवस्था को कोसना शुरू करें। फौजदारी के मुकदमों में दोष सिद्ध करने के लिए पुष्ट साक्ष्यों की जरूरत होती है। यह तो विधि विशेषज्ञ ही बताएंगे कि ऐसे साक्ष्य अदालत के सामने थे या नहीं। जो साक्ष्य थे, उनपर अदालत की राय क्या है वगैरह। अलबत्ता कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि मस्जिद गिरी ही नहीं, मस्जिद थी ही नहीं वगैरह।

Thursday, October 1, 2020

तुर्की-पाकिस्तान और अजरबैजान का नया त्रिकोण!

आर्मीनिया और अजरबैजान की लड़ाई के संदर्भ में भारत की दृष्टि से तीन बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं। पहली है कश्मीर के मसले पर अजरबैजान का भारत-विरोधी रवैया। बावजूद इसके भारत ने संतुलित नीति को अपनाया है। दूसरी है भारत की कश्मीर-नीति को आर्मीनिया का खुला समर्थन और तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात है पाकिस्तान-तुर्की और अजरबैजान का नया उभरता त्रिकोण, जिसके राजनयिक और सामरिक निहितार्थ हैं। इस बीच खबरें हैं कि तुर्की के सहयोग से सीरिया में लड़ रहे पाकिस्तानी आतंकी आर्मीनिया के खिलाफ लड़ने के लिए पहुँच रहे हैं। टेलीफोन वार्तालापों के इंटरसेप्ट से पता लगा है कि पाकिस्तानी सेना भी इसमें सक्रिय है।

पाकिस्तान सरकार ने आधिकारिक रूप से अजरबैजान के प्रति अपने समर्थन की घोषणा की है। पाकिस्तानी विदेश विभाग के प्रवक्ता जाहिद हफीज़ चौधरी ने गत रविवार को कहा कि पाकिस्तान अपने बिरादर देश अजरबैजान का समर्थन करता है और उसके साथ खड़ा है। नागोर्नो-काराबाख के मामले में हम अजरबैजान का समर्थन करते हैं। सोशल मीडिया पर पाकिस्तानी हैंडलों की बातों से लगता है कि जैसे यह पाकिस्तान की अपनी लड़ाई है। पाकिस्तान अकेला देश है, जिसने आर्मीनिया को मान्यता ही नहीं दी है, जबकि अजरबैजान तक उसे मान्यता देता है।

पाकिस्तानी जेहादी भी पहुँचे

ट्विटर और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर जाएं, तो पाकिस्तानी हैंडलों की प्रतिक्रियाओं से लगता है कि जैसे यह पाकिस्तान की लड़ाई है। इतना ही होता तब भी बात थी। अब खबरें हैं कि पाकिस्तानी जेहादी लड़ाके अजरबैजान की ओर से लड़ाई में शामिल होने के लिए मचल रहे हैं। कुछ सूत्रों ने खबरें दी हैं कि गत 22 सितंबर के बाद से पाकिस्तानी लड़ाकों के दस्तों ने अजरबैजान की राजधानी बाकू में पहुँचना शुरू कर दिया है। इन दस्तों का रुख सीरिया से अजरबैजान की तरफ मोड़ा गया है।

बाबरी-पटाक्षेप अभी नहीं

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत का फैसला आने के बाद यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है। फैसले से यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना अपराध नहीं था। पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर-मस्जिद विवाद के जिस दीवानी मुकदमे पर फैसला सुनाया था, उसमें स्पष्ट था कि मस्जिद को गिराया जाना अपराध था। उस अपराध के दोषी कौन थे, यह इस मुकदमे में साबित नहीं हो सका। इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी न्याय-व्यवस्था को कोसना शुरू करें। कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि मस्जिद गिरी ही नहीं, मस्जिद थी ही नहीं वगैरह।

हमारी धर्म निरपेक्षता, न्याय-व्यवस्था और प्रशासनिक के साथ यह राजनीति की परीक्षा की घड़ी भी है। मंदिर-मस्जिद विवाद को राजनीति से अलग करके नहीं देखना चाहिए। अभी इसके व्यापक निहितार्थ देखने को मिलेंगे। पर सबसे बड़ा असर सामाजिक जीवन में देखने को मिलेगा। कई बार हम सोचते हैं कि समय बड़े-बड़े घाव भर देता है। पर भावनाओं के मामले में समय घाव भरता नहीं उन्हें कुरेदता है।

Tuesday, September 29, 2020

प्रेरक पत्रकार हैरल्ड इवांस

मैंने अपना पत्रकारिता का जीवन जब शुरू किया, तब लाइब्रेरी में सबसे पहले एडिटिंग एंड डिजाइन शीर्षक से हैरल्ड इवांस की पाँच किताबों का एक सेट देखा था, जिसमें अखबारों के रूपांकन, ले-आउट, डिजाइन के आकर्षक ब्यौरे थे। इसके बाद उनकी कई किताबें देखने को मिलीं, जो या तो सम्पादन, लेखन या डिजाइन से जुड़ी थीं। फिर 1984 में फ्रंट पेज हिस्ट्री देखी। यह अपने आप में एक रोचक प्रयोग था। अखबारों में घटनाओं की रिपोर्टिंग और तस्वीरों के माध्यम से ऐतिहासिक विवरण दिया गया था। उन दिनों हैरल्ड इवांस की ज्यादातर रचनाएं पत्रकारिता के कौशल से जुड़ी हुई थीं। उसी दौरान रूपर्ट मर्डोक के साथ उनकी कहासुनी की खबरें आईं और अंततः लंदन टाइम्स से उनकी विदाई हो गई।

हैरल्ड इवांस ने मेरे जैसे न जाने कितने पत्रकारों को प्रेरित प्रभावित किया। मुझे खुशी तब हुई, जब सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में एमजे अकबर के नेतृत्व में आनंद बाजार पत्रिका समूह ने नई धज का अखबार टेलीग्राफ शुरू किया, तो उसमें इनसाइट नाम से एक पेज भी था, जो शायद संडे टाइम्स के इनसाइट से प्रेरित था। मैं उन दिनों स्वतंत्र भारत में काम करता था। संडे टाइम्स की एक कॉपी पायनियर के दफ्तर में आती थी, जो डॉ सुरेंद्र नाथ घोष के कमरे में रहती थी। हमें पढ़ने को नहीं मिलती थी। इधर-उधर से या ब्रिटिश लाइब्रेरी जाकर पढ़ लेते थे। अक्तूबर 1983 में मैं नवभारत टाइम्स के लखनऊ दफ्तर में आया, तो वहाँ संडे टाइम्स पढ़ने को मिलता था। राजेंद्र माथुर दिल्ली से एक कॉपी भिजवाते थे। पर तबतक हैरल्ड इवांस संडे टाइम्स से हट चुके थे।

हाल में जब उनके निधन की खबर आई, तब लगा कि युग वास्तव में बदल गया है। पत्रकारिता की परिभाषा बदल गई है और उसे संरक्षण देने वालों का नजरिया भी। हैरल्ड इवांस उस परिवर्तन की मध्य-रेखा थे, जिनके 70 वर्षीय करियर में करीब आधा समय खोजी पत्रकारिता को उच्चतम स्तर तक पहुँचाने में लगा। और फिर सत्ता-प्रतिष्ठान की ताकत से लड़ते हुए वह सम्पादक, एक प्रखर लेखक और प्रकाशक बन गया। 92 साल की वय में उन्होंने संसार को अलविदा कहा। इसके पहले उन्होंने न जाने कितने किस्म के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक घोटालों का पर्दाफाश किया, मानवाधिकार की लड़ाइयाँ लड़ीं और मानवीय गरिमा को रेखांकित करने वाली कहानियों को दुनिया के सामने रखा।