अफग़ानिस्तान में शांति स्थापना के लिए सरकार और तालिबान के बीच बातचीत दोहा में चल रही है। पहली बार दोनों पक्ष दोहा में आमने-सामने हैं। इस वार्ता के दौरान यह बात भी स्पष्ट होगी कि देश की जनता का जुड़ाव किस पक्ष के साथ कितना है। पिछले चार दशकों में यह देश लगातार एक के बाद अलग-अलग ढंग की राज-व्यवस्थाओं को देखता रहा है। कोई भी पूरी तरह सफल नहीं हुई है। इन व्यवस्थाओं में राजतंत्र से लेकर कम्युनिस्ट तंत्र और कठोर इस्लामिक शासन से लेकर वर्तमान अमेरिका-परस्त व्यवस्था शामिल है, जो अपेक्षाकृत आधुनिक है, पर उसका भी जनता के साथ पूरा जुड़ाव नहीं है। इसमें भी तमाम झोल हैं।
पिछले साल हुए
राष्ट्रपति पद के चुनाव के बाद अशरफ गनी के जीतने की घोषणा हुई, पर अब्दुल्ला
अब्दुल्ला ने खुद को राष्ट्रपति घोषित कर दिया। अंततः उनके साथ समझौता करना पड़ा
और अब्दुल्ला अब्दुल्ला अब राष्ट्रीय सुलह-समझौता परिषद के अध्यक्ष हैं और इस
वार्ता में सरकारी पक्ष का नेतृत्व कर रहे हैं। इस सरकार का देश के ग्रामीण इलाकों
पर नियंत्रण नहीं है। तालिबान का असर बेहतर है। उनके बीच भी कई प्रकार के कबायली
ग्रुप हैं।
अमेरिकी पलायन
पिछले दो दशक से अमेरिका और यूरोप के देश काबुल सरकार का सहारा बने हुए थे, पर वे अब खुद भागने की जुगत में हैं। कहना मुश्किल है कि विदेशी सेना की वापसी के बाद की व्यवस्था कैसी होगी, पर अच्छी बात यह है कि सभी पक्षों के पास पिछले चार दशक की खूंरेज़ी के दुष्प्रभाव का अनुभव है। सभी पक्ष ज्यादा समझदार और व्यावहारिक हैं।