केंद्रीय सूचना
प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इसी हफ्ते एक वेबिनार में बताया कि वकील
प्रशांत भूषण ने अहमदाबाद के एक अस्पताल में हिंदू और मुस्लिम मरीज़ों की अलग
पहचान करने तथा एक महिला के साथ अन्याय को लेकर दो ट्वीट किए थे। जाँच में दोनों
तथ्य ग़लत पाए गए,लेकिन वकील साहब ने ना माफ़ी माँगी ना ट्वीट
हटाया। इस वेबिनार में नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स इंडिया ने फ़ेकन्यूज़ पर
केंद्रित एक रिपोर्ट को भी जारी किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना संक्रमण
के इस कालखंड में कई तरह से फर्जी खबरें जारी की जा रही हैं। बिना पंजीकरण के
हजारों की संख्या में न्यूज वेबसाइट का संचालन किया जा रहा है। स्वतंत्रता की यह
अद्भुत मिसाल है। क्या मान लें कि पत्रकारिता की मर्यादाओं की इतिश्री हो चुकी है?
हिन्दी भाषा और
व्याकरण की शिक्षा के दौरान संदेह अलंकार का उदाहरण दिया जाता है, ‘सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी
है/ सारी ही की नारी है कि
नारी ही की सारी है।’ समझ में नहीं आता कि सच
क्या है। यह सब ऐसे दौर में हो रहा है, जब हम कई तरह के सामाजिक संदेहों से घिरे
हैं। जब हम कोरोना से लड़ने में व्यस्त हैं उसी वक्त कश्मीर में घुसपैठ चल रही है।
उस घुसपैठ के समांतर साइबर स्पेस में भी जबरदस्त घुसपैठ है। एक तरफ देश के
दुश्मनों की घुसपैठ है और दूसरी तरफ देश के भीतर बैठे न्यस्त स्वार्थों की।
संदेहों की भरमार
अजब समय है। तकनीक
का विस्तार हो रहा है। दूसरी तरफ सूचना और अभिव्यक्ति की नैतिकता और मर्यादाओं को
नए सिरे से परिभाषित करने और उन्हें लागू करने के उपकरणों का विकास नहीं हो पाया
है। सवाल है कि फ़ेकन्यूज़ होती ही क्यों हैं? उनका फायदा किसे मिलता है और क्यों? सूचनाएं चाहे वे सांस्कृतिक हों या आर्थिक, खेल
की हों या राजनीति की उनके पीछे किसी के हित जुड़े होते हैं। इन हितों की पहचान
जरूरी है। पत्रकारिता का उद्देश्य सच को सामने लाना था। यह झूठ फैलाने वाली
पत्रकारिता कहाँ से आ गई? पर सवाल है कि सच है क्या? आज के वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें, तो रोचक
परिणाम सामने आएंगे।