Wednesday, May 27, 2020

संदेहों के घेरे में सच!


केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इसी हफ्ते एक वेबिनार में बताया कि वकील प्रशांत भूषण ने अहमदाबाद के एक अस्पताल में हिंदू और मुस्लिम मरीज़ों की अलग पहचान करने तथा एक महिला के साथ अन्याय को लेकर दो ट्वीट किए थे। जाँच में दोनों तथ्य ग़लत पाए गए,लेकिन वकील साहब ने ना माफ़ी माँगी ना ट्वीट हटाया। इस वेबिनार में नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स इंडिया ने फ़ेकन्यूज़ पर केंद्रित एक रिपोर्ट को भी जारी किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना संक्रमण के इस कालखंड में कई तरह से फर्जी खबरें जारी की जा रही हैं। बिना पंजीकरण के हजारों की संख्या में न्यूज वेबसाइट का संचालन किया जा रहा है। स्वतंत्रता की यह अद्भुत मिसाल है। क्या मान लें कि पत्रकारिता की मर्यादाओं की इतिश्री हो चुकी है?
हिन्दी भाषा और व्याकरण की शिक्षा के दौरान संदेह अलंकार का उदाहरण दिया जाता है, सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है/ सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है। समझ में नहीं आता कि सच क्या है। यह सब ऐसे दौर में हो रहा है, जब हम कई तरह के सामाजिक संदेहों से घिरे हैं। जब हम कोरोना से लड़ने में व्यस्त हैं उसी वक्त कश्मीर में घुसपैठ चल रही है। उस घुसपैठ के समांतर साइबर स्पेस में भी जबरदस्त घुसपैठ है। एक तरफ देश के दुश्मनों की घुसपैठ है और दूसरी तरफ देश के भीतर बैठे न्यस्त स्वार्थों की।
संदेहों की भरमार
अजब समय है। तकनीक का विस्तार हो रहा है। दूसरी तरफ सूचना और अभिव्यक्ति की नैतिकता और मर्यादाओं को नए सिरे से परिभाषित करने और उन्हें लागू करने के उपकरणों का विकास नहीं हो पाया है। सवाल है कि फ़ेकन्यूज़ होती ही क्यों हैं? उनका फायदा किसे मिलता है और क्यों? सूचनाएं चाहे वे सांस्कृतिक हों या आर्थिक, खेल की हों या राजनीति की उनके पीछे किसी के हित जुड़े होते हैं। इन हितों की पहचान जरूरी है। पत्रकारिता का उद्देश्य सच को सामने लाना था। यह झूठ फैलाने वाली पत्रकारिता कहाँ से आ गई? पर सवाल है कि सच है क्या? आज के वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें, तो रोचक परिणाम सामने आएंगे।

Monday, May 25, 2020

नेपाल के साथ ‘कालापानी विवाद’ के चीनी निहितार्थ


जिस समय देश कोरोना वायरस से लड़ाई लड़ रहा है, उसके सामने आर्थिक मंदी और दूसरी तरफ राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति से जुड़े कुछ बड़े सवाल खड़े हो रहे हैं। अगले कुछ महीनों में भारत-अमेरिका और चीन के सम्बंधों को लेकर कुछ और विवाद सामने आएं तो विस्मय नहीं होना चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन की भूमिका को लेकर कुछ झगड़े खड़े हो ही चुके हैं। इनके समांतर अफगानिस्तान में तालिबान के साथ हुए समझौते के निहितार्थ भी सामने आएंगे। इसमें भी चीन और रूस की भूमिका है, जो अभी नजर नहीं आ रही है। भारत के संदर्भ में कश्मीर की स्थिति को देखते हुए यह समझौता बेहद महत्वपूर्ण है।

इसी रोशनी में हमें नेपाल के साथ कालापानी को लेकर खड़े हुए झगड़े को भी देखना चाहिए। यह बात इन दिनों नेपाल की राजनीति में जबर्दस्त ऊँचाइयों को छू रही है। भारत की विदेश नीति के लिहाज से मोदी सरकार की नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी के लिए यह गम्भीर चुनौती है। सन 2015 के बाद से भारत के नेपाल के साथ रिश्ते लगातार डगमग डोल हैं। कोविड-19 की परिघटना ने वैश्विक मंच पर जो धक्का पहुँचाया है, उसके कारण चीन ने हाल में अपनी गतिविधियों को बढ़ा दिया है।

Sunday, May 24, 2020

प्रवासी कामगारों की चुनौती


मई के पहले-दूसरे सप्ताह तक जो लड़ाई निर्णायक रूप से जीती हुई लगती थी, उसे लेकर पिछले दस दिनों से अचानक चिंताजनक खबरें आ रही हैं। गत 1 मई को महाराष्ट्र में संक्रमण के 11 हजार से कुछ ऊपर मामले थे, जो 22 मई को 44 हजार से ऊपर हो गए। दिल्ली में साढ़े तीन हजार मामले करीब साढ़े 12 हजार हो गए, तमिलनाडु में ढाई हजार मामले पन्द्रह हजार को छूने लगे, मध्य प्रदेश में 2715 से बढ़कर 6170 और पश्चिम बंगाल में 795 से बढ़कर 3332 हो गए। एक मई को 24 घंटे में पूरे देश में 2396 नए केस दर्ज हुए थे, जबकि 22 मई को 24 घंटे के भीतर 6,088 नए मामले आए।

इस कहानी का यह एक पहलू है। इसका दूसरा पक्ष भी है। सरकार का कहना है कि राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के कारण कम से कम 14-29 लाख नए केस, 37,000-71,000 मौतें बचा ली गईं। यह संख्या विभिन्न स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा तैयार किए गए गणितीय मॉडल पर आधारित हैं। नीति आयोग में स्वास्थ्य मामलों के सदस्य डॉ वीके पॉल का कहना है कि भारत ने जो रणनीति अपनाई है, वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक मॉडल के रूप में काम कर रही है। सच यह भी है कि कुल संक्रमितों की संख्या के लगभग आधे का ही इलाज चल रहा है। आधे से कुछ कम ठीक भी हुए हैं।  

Friday, May 22, 2020

अखबार के अंत का प्रारम्भ


पिछले साल मैंने फेसबुक पर अपनी एक पोस्ट में लिखा था कि इस साल मैंने अखबारों के कूपन खरीद लिए हैं, पर अगले साल से मैं अखबार लेना बंद कर दूँगा. इन दिनों कोरोना के कारण हमारी सोसायटी में अखबार बंद हुए, तो बंद हो ही गए. शायद मैं अब फिर से अखबारों के कूपन नहीं खरीदूँगा. चूंकि हमें कागज का अखबार पढ़ने की पुरानी आदत है, इसलिए वह काफी सुविधाजनक लगता है. काफी हद तक वह सुविधाजनक है भी.
बहरहाल पिछले एक साल में मैंने इंडियन एक्सप्रेस, बिजनेस स्टैंडर्ड, वॉलस्ट्रीट जरनल, स्क्रॉल, लाइव लॉ, ईटी प्राइम, दैनिक भास्कर ई-पेपर, हिंदू, बिजनेस लाइन, फ्रंटलाइन और स्पोर्ट्स्टार का कम्बाइंड सब्स्क्रिप्शन लिया है. ईपीडब्लू का मैं काफी पहले से ग्राहक हूँ. अब लगता है कि ज्यादातर अखबार अब अपने ई-पेपर का शुल्क लेना शुरू करेंगे. शुल्क से उन्हें कोई बड़ा आर्थिक लाभ नहीं होगा, पर वे इसके सहारे पाठक वर्ग तैयार करेंगे. इसके सहारे वे विज्ञापन बटोरेंगे.
सूखती स्याही
हाल में मीडिया विशेषज्ञ सेवंती नायनन ने कोलकाता के अखबार टेलीग्राफ में एक लेख लिखा था, जिसका आशय कोरोना काल में अचानक आए भारतीय अखबारों के उतार के निहितार्थ का विश्लेषण करना था. सेवंती नायनन का कहना था कि न्यूयॉर्क टाइम्स, फाइनेंशियल टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट और द गार्डियन जैसे अखबारों ने ऑनलाइन सब्स्क्रिप्शन का अच्छा आधार बना लिया है, जो भारतीय अखबार नहीं बना पाए हैं. सेवंती नायनन का कहना है कि भारतीय समाचार उद्योग पहले से ही दिक्कत में चल रहा था, ऐसे में यह नई आपदा परेशानियाँ पैदा कर रही है.

Tuesday, May 19, 2020

सुनो समय क्या कहता है


एक मोटा अनुमान है कि देश में करीब 12 करोड़ प्रवासी मजदूर काम करते हैं. ये सारे मजदूर किसी रोज तय करें कि उन्हें अपने घर वापस जाना चाहिए, तो अनुमान लगाएं कि उन्हें कितना समय लगेगा. हाल में जो रेलगाड़ियाँ चलाई गई हैं, उनमें एकबार में 1200 लोग जाते हैं. ऐसी एक हजार गाड़ियाँ हर रोज चलें, तो इन सबको पहुँचाने में सौ से सवा सौ दिन लगेंगे. ऐसा भी तब होगा, जब एक पॉइंट से चली गाड़ी सीधे मजदूर के घर तक पहुँचाए.

रास्तों और स्टेशनों का व्यापक जाल देशभर में फैला हुआ है. इतने बड़े स्तर पर आबादी का स्थानांतरण आसान काम नहीं है. यह प्रवासन एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और दुनियाभर में चल रही है. भारत के बाहर काम कर रहे लोगों के बारे में तो अभी हमने ज्यादा विचार किया ही नहीं है. कोरोना-दौर में केवल लोगों के परिवहन की बात ही नहीं है. उनके दैहिक अलगाव, स्वास्थ्य और स्वच्छता सम्बद्ध मानकों का पालन भी महत्वपूर्ण है. इस अफरातफरी के कारण संक्रमण बढ़ रहा है.