Sunday, January 19, 2020

शाहीन बाग और दिल्ली का चुनाव


दिल्ली का शाहीन बाग राष्ट्रीय सुर्खियों में है। पिछले महीने की 15 तारीख से वहाँ दिन-रात एक धरना चल रहा है। यह धरना नागरिकता कानून और जामिया मिलिया और अलीगढ़ विवि के छात्रों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई के विरोध में शुरू हुआ था। इसे नागरिकता कानून के खिलाफ सबसे बड़ा शांतिपूर्ण प्रदर्शन बताया जा रहा है। इस आंदोलन के साथ प्रतिरोध से जुड़ी कविताएं, चित्र, नाटक और तमाम तरह की रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ देखने को मिल रही हैं। दूसरी तरफ इस धरने के कारण दिल्ली और नोएडा को जोड़ने वाला महत्वपूर्ण मार्ग बंद है, जिससे बड़ी संख्या में लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। संयोग से दिल्ली विधानसभा के चुनाव नजदीक हैं और लगता नहीं कि यह आंदोलन चुनाव परिणाम आने से पहले खत्म होगा।
यह धरना 14-15 दिसम्बर को इस इलाके में रहने वाली 15-20 महिलाओं ने शुरू किया था। देखते ही देखते यह राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गया है। दिल्ली पुलिस ने पिछले शुक्रवार को प्रदर्शनकारियों से अनुरोध किया कि वे सार्वजनिक हित में इस रास्ते को खाली कर दें, ताकि यातायात शुरू हो सके। यह रास्ता दिल्ली को नोएडा से जोड़ता है। स्कूली बच्चों, रोज कामकाज और दूसरे जरूरी काम के लिए आने-जाने लोगों को परेशानी है। इस क्षेत्र में काफी बड़े शो रूम हैं, जो एक महीने से ज्यादा समय से बंद पड़े हैं। काम करने वाले कर्मचारियों की दिहाड़ी की समस्या खड़ी हो गई है। सरिता विहार रेज़ीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन ने इस रास्ते को खुलवाने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की तो शुक्रवार को अदालत ने दिल्ली पुलिस से कहा कि वह रास्ता बंद होने की समस्या की ओर ध्यान दे।

Thursday, January 16, 2020

क्या अब खुलेंगी कश्मीरी आतंकवाद से जुड़ी विस्मयकारी बातें?


जम्मू कश्मीर में हिज्बुल मुजाहिदीन के दो आतंकवादियों के साथ पुलिस अधिकारी दविंदर सिंह की गिरफ्तारी के बाद कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं. यह गिरफ्तारी ऐसे मौके पर हुई है, जब राज्य की प्रशासनिक और पुलिस व्यवस्था में आमूल परिवर्तन हुआ है. केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते अब राज्य की पुलिस पूरी तरह केंद्र सरकार के अधीन है. क्या यह गिरफ्तारी उस बदलाव के महत्व को को रेखांकित कर रही है, या राज्य पुलिस की उस कार्यकुशलता को बता रही है, जिसे राजनीतिक कारणों से साबित करने का मौका नहीं मिला
कश्मीर के आतंकवाद के साथ जुड़ी कुछ बातें शायद अब सामने आएं. जो हुआ है, उसमें कहीं न कहीं उच्च प्रशासनिक स्तर पर स्वीकृति होगी. यह मामला इतना छोटा नहीं होना चाहिए, जितना अभी नजर आ रहा है. मोटे तौर पर ज़ाहिर हुआ है कि इस डीएसपी के साथ हिज्बुल मुजाहिदीन का सम्पर्क था. यह सम्पर्क क्यों था और क्या इसमें कुछ और लोग भी शामिल थे, इस बात की जाँच होनी चाहिए. क्या वह डबल एजेंट की काम कर रहा था? जाँच आगे बढ़ने पर 13 दिसम्बर, 2001 को संसद पर हुए हमले के बाबत भी कुछ जानकारियाँ सामने आएंगी. 

Monday, January 13, 2020

विस्फोटक समय में भारतीय विदेश-नीति के जोखिम


नए साल की शुरुआत बड़ी विस्फोटक हुई है। अमेरिका में यह राष्ट्रपति-चुनाव का साल है। देश की सीनेट को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध लाए गए महाभियोग पर फैसला करना है। अमेरिका और चीन के बीच एक नए आंशिक व्यापार समझौते पर इस महीने की 15 तारीख को दस्तखत होने वाले हैं। बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप इसके बाद चीन की यात्रा भी करेंगे। ब्रिटिश संसद को ब्रेक्जिट से जुड़ा बड़ा फैसला करना है। अचानक पश्चिम एशिया में युद्ध के बादल छाते नजर आ रहे हैं। इन सभी मामलों का असर भारतीय विदेश-नीति पर पड़ेगा। हम क्रॉसफायरिंग के बीच में हैं। पश्चिमी पड़ोसी के साथ हमारे रिश्ते तनावपूर्ण हैं, जिसमें पश्चिम एशिया में होने वाले हरेक घटनाक्रम की भूमिका होती है। संयोग से इन दिनों इस्लामिक देशों के आपसी रिश्तों पर भी बदलाव के बादल घिर रहे हैं।

Sunday, January 12, 2020

जेएनयू की हिंसा से उठते सवाल


जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी कैंपस में हुई हिंसा के मामले में दिल्ली पुलिस ने जो जानकारियाँ दी हैं, उन्हें देखते हुए किसी को भी देश की शिक्षा-व्यवस्था की दुर्दशा पर अफसोस होगा। जरूरी नहीं कि पुलिस की कहानी पर यकीन किया जाए, पर हिंसा में शामिल पक्षों की कहानियों के आधार पर भी कोई धारणा नहीं बनाई जानी चाहिए। लम्बे अरसे से लगातार होते राजनीतिकरण के कारण भारतीय शिक्षा-प्रणाली वैश्विक मीडिया के लिए उपहास का विषय बन गई है। सन 1997 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में हुई हिंसा का भी दुनिया के मीडिया ने इसी तरह उपहास उड़ाया था। सन 1973 में लखनऊ विवि के छात्र आंदोलन के दौरान ही पीएसी का विद्रोह हुआ था। हालांकि तब न तो आज का जैसा मीडिया था और राजनीतिक स्तर पर इतनी गलाकाट प्रतियोगिता थी, जैसी आज है। आज जो हो रहा है वह राजनीतिक विचार-वैषम्य नहीं अराजकता है।

विश्वविद्यालय अध्ययन के केंद्र होते हैं। बेशक छात्रों के सामने देश और समाज के सारे सवाल होते हैं। उनकी सामाजिक जागरूकता की भी जरूरत है, पर यह कैसी जागरूकता है? यह कहानी केवल जेएनयू की ही नहीं है। देश के दूसरे विश्वविद्यालयों से भी जो खबरें आ रही हैं, उनसे संकेत मिलता है कि छात्रों के बीच राजनीति की गहरी पैठ हो गई है। छात्र-नेता जल्द से जल्द राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित करना चाहते हैं। जेएनयू के पूर्व छात्रों में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हैं, लीबिया और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री हैं। तमाम बड़े नेता, राजनयिक, कलाकार और समाजशास्त्री हैं। यह विवि भारत की सर्वोच्च रैंकिंग वाले संस्थानों में से एक है। आज भी यहाँ आला दर्जे का शोध चल रहा है, पर हालात ऐसे ही रहे तो क्या इसकी यह तारीफ शेष रहेगी?

Thursday, January 9, 2020

निर्भया-प्रसंग ने हमारे सामाजिक दोषों को उघाड़ा

निर्भया दुष्कर्म मामले के दोषियों को फाँसी पर लटकाने का दिन और वक्त तय हो गया है. दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने चारों दोषियों के डैथ वारंट जारी कर दिए हैं. आगामी 22 जनवरी की सुबह 7 बजे उन्हें तिहाड़ जेल में फांसी के फंदे पर लटकाया जाएगा. गणतंत्र दिवस के ठीक पहले होने वाली इस परिघटना का संदेश क्या है? इसके बाद अब क्या? क्या यह हमारी न्याय-व्यवस्था की विजय है? या जनमत के दबाव में किया गया फैसला है? कहना मुश्किल है कि उपरोक्त तिथि को फाँसी होगी या नहीं. ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि इस समस्या के मूल में क्या बात है? यह सामान्य अपराध का मामला नहीं है, बल्कि उससे ज्यादा कुछ और है.


इस मामले में अभियुक्तों के पास अभी कुछ रास्ते बचे हैं. कानून विशेषज्ञ मानते हैं कि वे डैथ वारंट के खिलाफ अपील कर सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट में उपचार याचिका दायर कर सकते हैं और राष्ट्रपति के सामने दया याचिका पेश कर सकते हैं. अभियुक्तों के वकील का कहना है कि मीडिया और राजनीति के दबाव के कारण सजा देने की प्रक्रिया में तेजी लाई जा रही है.