Tuesday, July 23, 2019

प्रकृति को मत कोसो, प्रबंधकों से पूछो


असम और बिहार के काफी बड़े हिस्से में बाढ़ आई हुई है। बिहार के 12 जिलों के 102 प्रखंडों में बाढ़ का पानी फैला हुआ है, जिससे 66 लाख से ज्यादा की जनसंख्या प्रभावित है। इस साल बारिश देर से हुई है, जिसकी वजह से बाढ़ की खबरें कुछ देर से मिल रही हैं, वर्ना ये खबरें हर साल की हैं। कुछ दिन पहले सूखे की खबरें थीं, बल्कि आज भी हैं। कुछ दिन पहले मुम्बई शहर के लोग गर्मी से परेशान थे। मना रहे थे कि बारिश जल्द से जल्द हो। और जब हुई, तो शहर पानी में डूब गया।
एक टीवी चैनल दिल्ली की खबर दिखा रहा था, जिसमें एक ट्रैक्टर वाला 10-10 रुपये सवारी के रेट से पानी से भरी सड़क पार करा रहा था। देश की राजधानी और कोसी की बाढ़ के दर्द अलग-अलग हैं, पर दर्द है जो खत्म होकर नहीं दे रहा। इस साल समुद्र के किनारे बसे चेन्नई शहर में पीने का पानी खत्म हो गया। स्पेशल ट्रेन से वहाँ पानी भेजा गया। 2015 में वहाँ भारी वर्ष के कारण पूरा शहर पानी में डूब गया था। इस साल गर्मी वहाँ की सवा करोड़ आबादी को पानी का महत्व समझा गई।

Sunday, July 21, 2019

कर्नाटक में गुब्बारा फूटने की घड़ी


कर्नाटक में अब धैर्य की प्रतीक्षा है। सत्तारूढ़ गठबंधन के अंतर्विरोध बढ़ते जा रहे हैं और गुब्बारा किसी भी समय फूट सकता है। पर इस दौरान कुछ सांविधानिक प्रश्नों को उत्तर भी मिलेंगे। बड़ा सवाल दल-बदल कानून को लेकर है, जो अंततः अब और ज्यादा स्पष्ट होगा। यह काम सुप्रीम कोर्ट में ही होगा, पर उसके पहले राजनीतिक अंतर्विरोध खुलेंगे। चुनाव-पूर्व और चुनावोत्तर गठबंधनों की उपादेयता पर भी बातें होंगी। प्रतिनिधि सदनों में सदस्यों की भूमिका राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के रूप में है। यह भूमिका बनी रहेगी, पर सवाल यह तो उठेगा कि दो राजनीतिक दल जो जनता के सामने वोट माँगने गए, तब एक-दूसरे के विरोधी थे। वे अपना विरोध मौका पाते ही कैसे भुला देते हैं?
सन 2006 में जब मधु कोड़ा झारखंड के मुख्यमंत्री बने थे, तबसे यह सवाल खड़ा है कि जनादेश की व्याख्या किस तरह से होगी? यही सवाल अब कर्नाटक में है कि 225 के सदन में 37 सदस्यों का नेता मुख्यमंत्री कैसे बन सकता है? जो लोग इस वक्त बागी विधायकों को लेकर नैतिकता के सवाल उठा रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि राजनीतिक नैतिकता अंतर्विरोधी है। पिछले साल मई के महीने में जब कांग्रेस-जेडीएस सरकार बन रही थी, तब प्रगतिशील विश्लेषक उसे साम्प्रदायिकता के खिलाफ वैचारिक लड़ाई के रूप में देख रहे थे। वे नहीं देख पा रहे थे कि राजनीतिक सत्ता अपने आप में बड़ा प्रलोभन है। उसे किसी भी तरीके से हथियाने का नाम विचारधारा है।

Saturday, July 20, 2019

बाढ़ और सूखा, दोष प्रकृति का नहीं हमारा है


एक महीने पहले मुम्बई के निवासी गर्मी से परेशान थे. इस साल बारिश भी देर से हुई. इस वजह से मुम्बई में ही नहीं समूचे भारत के उन इलाकों में जहाँ गर्मी पड़ती है, परेशानियाँ बढ़ गईं. समुद्र के किनारे बसे चेन्नई शहर में पीने का पानी खत्म हो गया. स्पेशल ट्रेन से वहाँ पानी भेजा गया. 2015 में चेन्नई में भयानक बाढ़ आई थी. लेकिन इस साल गर्मी में वहाँ की 1.10 करोड़ आबादी पानी की किल्लत से जूझना पड़ा. दुनिया में सबसे ज्यादा वर्षा वाले इलाकों में चेरापूंजी का नाम है. वहाँ पिछले कुछ साल से सर्दियों के मौसम में सूखा पड़ रहा है. दिल्ली और बेंगलुरु में तो अगले कुछ साल में जमीन के नीचे का पानी खत्म होने की चेतावनी दी गई है.
पिछले 18 में से 13 साल देश में वर्षा सामान्य से कम हुई है. देश का करीब 40 फीसदी क्षेत्र सूखा पीड़ित है, यानी करीब 50 करोड़ आबादी इससे प्रभावित होती है. बहरहाल पिछले महीने गर्मी से परेशान मुम्बई शहर बारिश होते ही पानी में डूब गया. यह स्थिति दो साल पहले चेन्नई शहर की हुई थी. देश का काफी बड़ा इलाका या तो सूखा पीड़ित रहता है, या फिर बाढ़ पीड़ित. केवल बाढ़ या केवल सूखे की समस्या नहीं है.

हंगामा है क्यों बरपा…यानी कांग्रेस को हुआ क्या है?


कांग्रेस पार्टी के संकट को दो सतहों पर देखा जा सकता है। राज्यों में उसके कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं। दूसरी तरफ पार्टी केन्द्र में अपने नेतृत्व का फैसला नहीं कर पा रही है। कर्नाटक में सांविधानिक संकट है, पर उसकी पृष्ठभूमि में कांग्रेस का भीतर का असंतोष है। पार्टी छोड़कर भागने वाले ज्यादातर विधायक कांग्रेसी हैं। वे सामान्य विधायक भी नहीं हैं, बल्कि बहुत सीनियर नेता हैं। यह कहना सही नहीं होगा कि वे पैसे के लिए पार्टी छोड़कर भागे हैं। ज्यादातर के पास काफी पैसा है। यह समझने की जरूरत है कि रोशन बेग जैसे कद्दावर नेताओं के मन में संशय पैदा क्यों हुआ। रामलिंगा रेड्डी जैसे वरिष्ठ नेता अपना रुख बदलते रहते हैं, पर इतना साफ है कि उनके मन में पार्टी नेतृत्व को लेकर कोई खलिश जरूर है। कांग्रेस से हमदर्दी रखने वाले विश्लेषकों को भी अब लगने लगा है कि पार्टी ने इच्छा-मृत्यु का वरण कर लिया है।
केवल कर्नाटक की बात नहीं है। इसी गुरुवार को गुजरात में कांग्रेस के पूर्व विधायक अल्पेश ठाकोर और धवल सिंह जाला गुरुवार को भाजपा में शामिल हो गए। दोनों ने राज्यसभा उपचुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवारों के खिलाफ वोट देने के बाद 5 जुलाई को ही विधायक पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। कर्नाटक में कांग्रेस के साथ जेडीएस के विधायकों ने भी इस्तीफे दिए हैं, पर बड़ी संख्या कांग्रेसियों की है। इसके पहले तेलंगाना में कांग्रेस के 18 में से 12 विधायक केसीआर  की पार्टी टीआरएस में शामिल हो गए। ये विधायक दो महीने पहले ही जीतकर आए थे। गोवा में तो पूरी पार्टी भाजपा में चली गई। यह दल-बदल है, पर इसके पीछे के कारणों को भी समझने की जरूरत है। ज्यादातर कार्यकर्ताओं के मन में असुरक्षा का भाव है।
संकट केन्द्र में है
राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद केन्द्र में अराजकता का माहौल है। यह सब लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से शुरू हुआ है, पर वास्तव में इसकी शुरूआत 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ही हो गई थी। पार्टी को उम्मीद थी कि एकबार पराजय का क्रम थमेगा, तो फिर से सफलता मिलने लगेगी। उसकी सारी रणनीति राहुल को स्थापित करने के लिए सही समय के इंतजार पर केन्द्रित थी। वह भी हो गया, पर संकट और गहरा गया। 

Monday, July 15, 2019

न्याय-व्यवस्था को लेकर सवाल क्यों उठ रहे हैं?


अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ समय से न्यायपालिका को लेकर भी निराशा है। उसके भीतर और बाहर से कई तरह के सवाल उठे हैं। अक्सर लगता है कि सरकार नहीं सुप्रीम कोर्ट के हाथ में देश की बागडोर है, पर न्यायिक जवाबदेही और पारदर्शिता के सवाल है। कल्याणकारी व्यवस्था के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ न्याय-व्यवस्था बुनियादी ज़रूरत है। इन तीनों मामलों में मनुष्य को बराबरी से देखना चाहिए। दुर्भाग्य से देश में तीनों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं।
सबसे ज्यादा परेशान कर रही हैं न्याय-व्यवस्था में भ्रष्टाचार की शिकायतें। हाल में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एसएन शुक्ला को हटाने की कार्यवाही शुरू करने का अनुरोध किया है। एक आंतरिक जांच समिति ने उक्त न्यायाधीश को कदाचार का दोषी पाया है। न्यायाधीश को हटाने की एक सांविधानिक प्रक्रिया है। सरकार उस दिशा में कार्यवाही करेगी, पर इस पत्र ने न्यायपालिका के भीतर बैठे भ्रष्टाचार की तरफ देश का ध्यान खींचा है।   
इस दौरान एक और पत्र रोशनी में आया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस रंगनाथ पांडेय ने जजों की नियुक्तियों पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर कहा है कि प्रचलित कसौटी परिवारवाद और जातिवाद से ग्रसित है। उन्होंने लिखा है कि 34 साल के सेवाकाल में मुझे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के ऐसे जजों को देखने का अवसर मिला है, जिनकी कानूनी जानकारी संतोषजनक नहीं है।
सवाल तीन हैं। न्याय-व्यवस्था को राजनीति और सरकारी दबाव से परे किस तरह रखा जाए? जजों की नियुक्ति को पारदर्शी कैसे बनाया जाए? तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि सामान्य व्यक्ति तक न्याय किस तरह से उपलब्ध कराया जाए? इन सवालों के इर्द-गिर्द केवल न्याय-व्यवस्था से जुड़े मसले ही नहीं है, बल्कि देश की सम्पूर्ण व्यवस्था है। प्रशासनिक कुशलता और राजनीतिक ईमानदारी के बगैर हम कुछ भी हासिल नहीं कर पाएंगे।
मुकदमों में देरी क्यों?
नेशनल ज्यूडीशियल डेटा ग्रिड के अनुसार इस हफ्ते 10 जुलाई तक देश की अदालतों में तीन करोड़ बारह लाख से ज्यादा मुकदमे विचाराधीन पड़े थे। इनमें 76,000 से ज्यादा केस 30 साल से ज्यादा पुराने हैं। यह मान लें कि औसतन एक मुकदमे में कम से कम दो या तीन व्यक्ति पक्षकार होते हैं तो देश में करीब 10 करोड़ लोग मुकदमेबाजी के शिकार हैं। यह संख्या लगातार बढ़ रही है।
सामान्य व्यक्ति के नजरिए से देखें तो अदालती चक्करों से बड़ा चक्रव्यूह कुछ नहीं है। एक बार फँस गए, तो बरसों तक बाहर नहीं निकल सकते। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने लोअर कोर्ट में पांच और अपील कोर्ट में दो साल में मुकदमा निबटाने का लक्ष्य रखा था। यह तभी सम्भव है जब प्रक्रियाएं आसान बनाई जाएं। न्याय व्यवस्था का संदर्भ केवल आपराधिक न्याय या दीवानी के मुकदमों तक सीमित नहीं है। व्यक्ति को कारोबार का अधिकार देने और मुक्त वातावरण में अपना धंधा चलाने के लिए भी उपयुक्त न्यायिक संरक्षण की जरूरत है।