Sunday, June 23, 2019

चुनाव-प्रणाली पर विमर्श से भागते क्यों हैं?


एक देश, एक चुनाव व्यवस्था लागू होगी या नहीं, कहना मुश्किल है, पर विरोधी दलों के रुख से लगता है कि वे इस विचार पर बहस भी नहीं चाहते हैं। यह बात समझ में नहीं आती है। वे सरकार के साथ बैठकर बात भी नहीं करेंगे, भले ही विषय कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो। कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने इस विषय पर विचार के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार क्यों किया, यह समझ में नहीं आया। वे इस व्यवस्था के पक्ष में नहीं हैं, तो इस बात को बैठक में जोरदार तरीके से उठाएं। यों भी यह दो दिन में लागू होने वाली बात नहीं है। भारी बहुमत के बावजूद सरकार को कानूनी बदलावों को करते-कराते दस साल लग जाएंगे।
संसद की स्थायी समिति, विधि आयोग और चुनाव आयोग ने इसे भी चुनाव-सुधारों का एक कारक माना है, तो कोई वजह तो होगी। आपकी राय इसके विपरीत है, तो उसे उचित फोरम पर रखना चाहिए। चुनाव से जुड़े कई मसले हैं। सरकार और पार्टियों का खर्च एक मसला है, पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव होने से सामाजिक नकारात्मकता पैदा होती है, आचार संहिता लागू होने के कारण कई तरह के काम रुके रहते हैं, सुरक्षाबलों की तैनाती आसान होती है वगैरह। इन बातों के दूसरे पहलू भी हैं, उनपर बात तभी होगी, जब आप बैठेंगे।

Tuesday, June 18, 2019

‘फायरब्रैंड छवि’ बनी ममता की दुश्मन


Image result for mamata banerjeeपश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की फायरब्रैंड छवि खुद उनकी ही दुश्मन बन गई है. हाल में हुए लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को लगे धक्के से उबारने की कोशिश में उन्होंने कुछ ऐसी बातें कह दीं है जिनसे वे गहरे संकट में फँस गईं हैं. उनकी कर्ण-कटु वाणी ने देशभर के डॉक्टरों को उनके खिलाफ कर दिया है. हालांकि ममता को अब नरम पड़ना पड़ा है, पर वे हालात को काबू कर पाने में विफल साबित हुई हैं. इस पूरे मामले को राजनीतिक और साम्प्रदायिक रंग देने से उनकी छवि को धक्का लगा है. इन पंक्तियों प्रकाशित होने तक यह आंदोलन वापस हो भी सकता है, पर इस दौरान जो सवाल उठे हैं, उनके जवाब जरूरी हैं.   
कोलकाता से शुरु हुए इस आंदोलन ने देखते ही देखते राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन का रूप ले लिया. दिल्ली के एम्स जैसे अस्पतालों से कन्याकुमारी तक धुर दक्षिण के डॉक्टर तक विरोध का झंडा लेकर बाहर निकल आए हैं. डॉक्टरों के मन में अपनी असुरक्षा को लेकर डर बैठा हुआ है, वह एकसाथ निकला है. इस डर को दूर करने की जरूरत है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने सोमवार को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है. सम्भव है कि इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक स्थितियाँ सुधर जाएं, पर हालात का इस कदर बिगड़ जाना बड़ी बीमारी की तरफ इशारा कर रहा है. इस बीमारी का इलाज होना चाहिए.

Sunday, June 16, 2019

नई चुनौतियाँ और उम्मीदें


मोदी-सरकार पहले से ज्यादा ताकत के साथ जीतकर आई है, जिसके कारण उसके हौसले बुलंद हैं और सरकारी घोषणाओं में आत्मविश्वास झलक रहा है। बावजूद इसके चुनौतियाँ पिछली बार से ज्यादा बड़ी हैं। अर्थव्यवस्था सुस्ती पकड़ रही है। बैंकिंग की दुर्दशा, स्वदेशी पूँजी निवेश में कमी, बढ़ती बेरोजगारी और आर्थिक संवृद्धि में अपेक्षित तेजी नहीं आ पाने के कारण ये चिंताएं हैं। सरकार को राजनीतिक दृष्टि से लोकप्रियता बढ़ाने वाले फैसले भी करने हैं और आर्थिक-सुधार के कड़वे उपाय भी। पहली कैबिनेट बैठक में, मोदी सरकार ने सभी किसानों को कवर करने के लिए पीएम-किसान योजना के विस्तार को मंजूरी दी है, जिन्हें प्रति वर्ष 6,000 रुपये की वित्तीय सहायता मिलेगी। 
पिछली सरकार ने आयुष्मान भारत और किसानों को छह हजार रुपये सालाना देने के जो फैसले किए थे, वे राजनीतिक दृष्टि से उपयोगी हैं, पर नई वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के सामने राजकोषीय घाटे की चुनौती पेश करेंगे। सरकार के एजेंडा में सबसे महत्वपूर्ण चार-पाँच बातें इस प्रकार हैं-1. गाँवों और किसानों की बदहाली पर ध्यान, 2. बेरोजगारी को दूर करने के लिए बड़े उपाय, 3. आर्थिक सुधारों को गति प्रदान करना, 4. राम मंदिर और कश्मीर जैसे सवालों क स्थायी समाधान, 5. दुनिया के सामने नए स्वरूप में उपस्थित हो रहे शीत-युद्ध के बीच अपनी विदेश-नीति का निर्धारण। दूसरी तमाम बातें भी हैं, जिनका एक-दूसरे से रिश्ता है।
प्रधानमंत्री ने किर्गिस्तान की राजधानी बिश्केक में हुए एससीओ शिखर सम्मेलन में साफ संकेत दिया कि यह नया भारत है, हमें पुराने नजरिए से नहीं देखा जाए। एक लिहाज से सरकार का पहला नीति-वक्तव्य बिश्केक से आया है। पर नई सरकार के इरादों और योजनाओं की झलक नई मंत्रिपरिषद से मिली है। अर्थव्यवस्था की सुस्ती दूर करने और रोजगार बढ़ाने के इरादे से प्रधानमंत्री ने दो नई कैबिनेट समितियों का गठन किया है। इन दोनों समितियों के अध्यक्ष वे खुद हैं। ये समितियां रोजगार सृजन और निवेश बढ़ाने के उपाय बताएंगी। पहली समिति विकास दर और निवेश पर है और दूसरी, रोजगार-कौशल विकास पर।

Saturday, June 15, 2019

बंगाल में हिंसा माने राजनीति, राजनीति माने हिंसा!


पश्चिम बंगाल के चुनावों में हिंसा पहले भी होती रही है, पर इसबार चुनाव के बाद भी हिंसा जारी है। चुनाव परिणाम आने के बाद कम से कम 15 लोगों की मौत की पुष्ट खबरें हैं। ज्यादातर राजनीतिक मौतें हैं। इस हिंसा के कारणों का विश्लेषण करना सरल काम नहीं है, पर इस राज्य की पिछले सात-दशक के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो यह स्पष्ट है कि इस राज्य में हिंसा का नाम राजनीति और राजनीति के मायने हिंसा हैं। सन 2011 में जब अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को जबर्दस्त जीत दिलाकर जब ममता बनर्जी सत्ता के घोड़े पर सवार हुईं थीं, तब उनका ध्येय-वाक्य था पोरीबोर्तन। आज उनके विरोधी इस ध्येय-वाक्य से लैस होकर उनके घर के दरवाजे पर खड़े हैं। बंगाल की हिंसा के पीछे एक बड़ा कारण है यहाँ के निवासियों की निराशा। सत्ताधारियों की विफलता।
देश में आधुनिक राजनीतिक-प्रशासनिक और शैक्षिक संस्थाओं का सबसे पहले जन्म बंगाल में हुआ। पर साठ और सत्तर के दशक में इसी बंगाल में नक्सलबाड़ी ने देश का ध्यान खींचा था। उसके केन्द्र में हिंसा थी। बंगाल की वर्तमान हिंसा की जड़ों में उस वामपंथी हिंसा की क्रिया-प्रतिक्रियाएं ही हैं।
ममता की हिंसा
ममता बनर्जी स्वयं हिंसा के इस पुष्पक विमान पर सवार होकर आईं थीं। उन्होंने सीपीएम की हिंसा पर काबू पाने में सफलता प्राप्त की थी। उसका आगाज़ सिंगुर के आंदोलन में हुआ था। सीपीएम ने राज्य की बुनियादी समस्याओं के समाधान की दिशा में राज्य के औद्योगीकरण का जो रास्ता खोजा था, ममता बनर्जी ने उसके छिद्रों के सहारे सत्ता के गलियारों में प्रवेश कर लिया था। आज उनके विरोधी उनके ही औजारों को हाथ में लिए खड़े हैं। सिंगुर में ही उनका राजनीतिक आधार कमजोर होता नजर आ रहा है। हाल में उन्होंने पार्टी की एक आंतरिक बैठक में कहा कि लोकसभा चुनाव में सिंगुर की हार शर्मनाक है। हमने सिंगुर को खो दिया। सिंगुर, हुगली लोकसभा सीट का हिस्सा है। वहाँ इसबार बीजेपी की लॉकेट चटर्जी ने जीत दर्ज की है।

Monday, June 10, 2019

संवेदना-शून्य समाज में एक बच्ची की हत्या


यह हत्या हमारे समाज के मुँह पर तमाचा है. आश्चर्य इस बात पर है कि अलीगढ़ ज़िले के टप्पल तहसील क्षेत्र में ढाई साल की बच्ची के अपहरण और बेहद क्रूर तरीके से की गई हत्या को लेकर जिस किस्म का रोष देश भर में होना चाहिए था, वह गायब है. कहाँ गईं हमारी संवेदनाएं? पिछले साल जम्मू-कश्मीर के कठुआ क्षेत्र में हुई इसी किस्म की एक हत्या के बाद देश भर में जैसी प्रतिक्रिया हुई थी, उसका दशमांश भी इसबार देखने में नहीं आया. बेशक वह घटना भी इतनी ही निन्दनीय थी. फर्क केवल इतना था कि उस मामले को उठाने वाले लोग इसके राजनीतिक पहलू को लेकर ज्यादा संवेदनशील थे. इस मामले में वह संवेदनशीलता अनुपस्थित है. यानी कि हमारी संवेदनाएं राजनीति से निर्धारित होती हैं.
अलीगढ़ पुलिस के मुताबिक, 'पोस्टमार्टम से लगता है कि बच्ची का रेप नहीं हुआ है. बच्ची के परिवार ने आरोप लगाया था कि उसकी आँख निकाली गई थी, पर ऐसा नहीं हुआ. लेकिन उसका शरीर बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हुआ है.' इसे लेकर मीडिया में कई तरह की बातें उछली हैं. खासतौर से सोशल मीडिया में अफवाहों की बाढ़ है. पर यह भी सच है कि सोशल मीडिया के कारण ही सरकार और प्रशासन ने इस तरफ ध्यान दिया है. पुलिस ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट का हवाला देते हुए सोशल मीडिया की अफवाहों को शांत किया है, पर अपराध के पीछे के कारणों पर रोशनी नहीं डाली जा सकी है.