एक देश, एक चुनाव व्यवस्था लागू होगी
या नहीं, कहना मुश्किल है, पर विरोधी दलों के रुख से लगता है कि वे इस विचार पर
बहस भी नहीं चाहते हैं। यह बात समझ में नहीं आती है। वे सरकार के साथ बैठकर बात भी
नहीं करेंगे, भले ही विषय कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो। कांग्रेस और कुछ अन्य
दलों ने इस विषय पर विचार के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार क्यों किया,
यह समझ में नहीं आया। वे इस व्यवस्था के पक्ष में नहीं हैं, तो इस बात को बैठक में
जोरदार तरीके से उठाएं। यों भी यह दो दिन में लागू होने वाली बात नहीं है। भारी
बहुमत के बावजूद सरकार को कानूनी बदलावों को करते-कराते दस साल लग जाएंगे।
संसद की स्थायी समिति, विधि आयोग और
चुनाव आयोग ने इसे भी चुनाव-सुधारों का एक कारक माना है, तो कोई वजह तो होगी। आपकी
राय इसके विपरीत है, तो उसे उचित फोरम पर रखना चाहिए। चुनाव से जुड़े कई मसले हैं।
सरकार और पार्टियों का खर्च एक मसला है, पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव होने से
सामाजिक नकारात्मकता पैदा होती है, आचार संहिता लागू होने के कारण कई तरह के काम
रुके रहते हैं, सुरक्षाबलों की तैनाती आसान होती है वगैरह। इन बातों के दूसरे पहलू
भी हैं, उनपर बात तभी होगी, जब आप बैठेंगे।