चुनाव घोषणापत्रों का महत्व चुनाव-प्रचार के लिए नारे तैयार करने से
ज्यादा नहीं होता। मतदाताओं का काफी बड़ा हिस्सा जानता भी नहीं कि उसका मतलब क्या
होता है। अलबत्ता इन घोषणापत्रों की कुछ बातें जरूर नारों या जुमलों के रूप में
याद रखी जाती हैं। जिस देश में चुनाव जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल
में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं।
फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के
दौरान, बल्कि बाद में भी पार्टियों के कार्य-व्यवहार को लेकर इनके आधार पर सवाल
किए जाते हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों की पहली नजर इनकी व्यावहारिकता पर जाती है। इसे लागू कैसे कराया
जाएगा? फिर तुलनाएं होती हैं। अभी बीजेपी ने अपना घोषणापत्र जारी नहीं किया है, कांग्रेस ने किया है।
इसपर निगाह डालने से ज़ाहिर होता है कि पार्टी ‘सामाजिक कल्याणवाद’ के अपने उस रुख पर
वापस पर वापस आ रही है, जो सन 2004 में वामपंथी दलों के समर्थन पाने के बाद ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ के रूप में जारी हुआ था। इसकी झलक पिछले साल कांग्रेस महासमिति के
84वें अधिवेशन में मिली थी।