Wednesday, September 3, 2014

बदलती दुनिया की रोशनी में भारत-जापान

नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा को भारत के पुनर्जागरण की नजर से देखा जाना चाहिए। बेशक यह मोदी की राजनीतिक उपलब्धि है, पर उससे ज्यादा यह वैश्विक मंच पर भारत के आगमन की घोषणा है। मोदी ने इक्कीसवीं सदी को एशिया की सदी बताया है। इसमें भारत-जापान रिश्तों की सबसे बड़ी भूमिका होगी। साथ ही इसमें चीन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। मोदी ने क्योटो और वाराणसी के बीच सांस्कृतिक सेतु बनाने की घोषणा करके दोनों देशों के परम्परागत सम्पर्कों को रेखांकित किया है। दोनों देशों के बीच नाभिकीय समझौता फिर भी नहीं हो पाया। अलबत्ता जापान ने कुछ भारतीय कम्पनियों पर लगी पाबंदियाँ हटाने की घोषणा की है। हमें उच्चस्तरीय तकनीक भी चाहिए, जो जापान के पास है। भारत सरकार नए औद्योगिक शहरों को बसाने की योजना बना रही है। हमें इन्फ्रास्ट्रक्चर की कम-खर्च व्यवस्था चाहिए, जिसमें चीन की भूमिका होगी। बहरहाल जापान-यात्रा आर्थिक और सामरिक दोनों प्रकार के सहयोगों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

Sunday, August 31, 2014

भारत-जापान रिश्तों का सूर्योदय

जापान में बौद्ध धर्म चीन और कोरिया के रास्ते गया था। पर सन 723 में बौद्ध भिक्षु बोधिसेन का जापान-प्रवास भारत-जापान रिश्तों में मील का पत्थर है। बोधिसेन आजीवन जापान में रहे। भारत में जापान को लेकर और जापान में भारत के प्रति श्रद्धा का भाव है। बोधिसेन को जापान के सम्राट शोमु ने निमंत्रित किया था। वे अपने साथ संस्कृत का ज्ञान लेकर गए थे और माना जाता है कि बौद्ध भिक्षु कोबो दाइशी ने 47 अक्षरों वाली जापानी अक्षरमाला को संस्कृत की पद्धति पर तैयार किया था। जापान के परम्परागत संगीत पर नृत्य पर भारतीय प्रभाव भी है। पर हम जापानियों को उनकी कर्म-निष्ठा के कारण पहचानते हैं। हाल के वर्षों में चीन ने दुनिया में अपनी धाक कायम की है, पर जापानियों ने उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही अपना सिक्का बुलंद कर रखा है।

अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस समेत तमाम देशों के साथ हमारे रिश्ते रहे हैं, पर दुनिया में एक देश ऐसा है, जिसे लेकर भारतीय जन-मन बेहद भावुक है। हमारे वैदेशिक सम्बन्धों में अनेक ऐसे मौके आए जब जापान ने हमारा विरोध किया, खासतौर से 1998 में एटमी धमाकों के बाद फिर भी हमारे यहाँ जापान की छवि कभी खराब नहीं हुई। आर्थिक प्रगति और पश्चिमी प्रभाव के बाद भी दोनों देशों में परम्परागत मूल्य बचे हैं। दोनों देश देव और असुर को इन्हीं नामों से पहचानते हैं। जापान को हम सोनी, टयोटा, होंडा और सुज़ुकी के कारण भी जानते हैं। दिल्ली की शान मेट्रो के लिए हमें जापान ने आर्थिक मदद दी थी। सुभाष बोस और रासबिहारी बोस जैसे स्वतंत्रता सेनानी भारत-जापान के रिश्तों की कड़ी रहे हैं। जापानी लोग जस्टिस राधा विनोद पाल के मुरीद हैं, जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सुदूर पूर्व के लिए बने मिलिटरी ट्रिब्यूनल के सदस्य जज के रूप में दूसरे जजों के खिलाफ जाकर अकेले जापान के पक्ष में फैसला सुनाया था।

Saturday, August 30, 2014

बिहार-प्रयोग के किन्तु-परन्तु

बिहार के विधान सभा उपचुनावों में जीत के बाद जेडीयू के अध्यक्ष शरद यादव ने कहा है कि उन्हें पहले से पता था कि गठबंधन की जीत होगी। अब इस एजेंडे को देश भर में ले जाएंगे। जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस महागठबंधन के नेताओं का कहना है कि जनता ने साबित किया है कि नरेंद्र मोदी के रथ को आसानी से रोका जा सकता है। लालू और नीतीश ने कांग्रेस को साथ लेकर मोर्चा बनाने का जो प्रयोग किया वह अपनी पहली परीक्षा में सफल साबित हुआ। इन परिणामों से यह बात तो साबित हुई कि इन दोनों नेताओं का पिछड़ी जातियों में जनाधार मजबूत है और यह भी कि लोकसभा चुनाव में बिहार में एनडीए को मिली जीत के पीछे बड़ा कारण 'मोदी लहर' के साथ-साथ वोटों का बिखराव भी था। यह बात भी समझ में आती है कि इस प्रयोग को देश भर में ले जाने की कोशिश की जाएगी।

इस गठबंधन में कोई नई बात है तो बस यही कि यह गैर-भाजपा गठबंधन था, गैर-कांग्रेस गठबंधन नहीं। अतीत में यह एक ही जड़ी का नाम होता था। अब तक ऐसा गठबंधन इसलिए नहीं बना कि कांग्रेस, राजद और जेडीयू तीनों तुर्रम खां थे। अब तीनों डरे हुए हैं। अब देखना होगा कि यह गठबंधन अगले साल विधानसभा चुनाव तक रहता भी है या नहीं। बना रहा तो राष्ट्रीय शक्ल लेगा या नहीं। इनकी टोली में कौन से दल शामिल होंगे और क्यों। यह तीसरा मोर्चा है, चौथा है या एनडीए के जवाब में दूसरे मोर्चे की कोई नई अवधारणा है? यह लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की प्राण-रक्षा है या सुविचारित सैद्धांतिक गठबंधन है? क्या सभी या बहुसंख्यक धर्म निरपेक्ष पार्टियाँ शामिल होंगी?

धुरी में कौन है कांग्रेस या जनता परिवार?
इन सवालों के जवाब पाने के पहले एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या जनता दल का गैर-कांग्रेसवाद अब खत्म हो चुका है? लालू प्रसाद का राजद तो लम्बे अरसे से कांग्रेस के साथ गठबंधन करता आ रहा है, पर जेडीयू ने पहली बार किया। इन चुनाव परिणामों के बाद शरद यादव ने दिल्ली के एक अख़बार से कहा कि जनता दल ने कांग्रेस के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी है, पर अब गैर-कांग्रेसवाद का दौर खत्म हो चुका है। क्या अब जनता परिवार के गठबंधनों में कांग्रेस भी शामिल होगी? लालू और नीतीश की पहचान बिहार के बाहर नहीं है। कांग्रेस की पहचान अखिल भारतीय है। अभी तक तीसरे या चौथे मोर्चे की धुरी वाम मोर्चे की पार्टियाँ बनती थीं। क्या अब कांग्रेस इसकी धुरी बनेगी? यह सोचने में कोई खराबी नहीं कि देश की सारी धर्म-निरपेक्ष पार्टियाँ एक छतरी के नीचे आ जाएं, पर यह व्यावहारिक नहीं है। हमें पहले कांग्रेस के भविष्य का अनुमान लगाना होगा। वह किधर जाने वाली है?

लोकसभा चुनाव के समय ऐसा मोर्चा क्यों नहीं बना? शायद ऐसी पिटाई का अंदेशा न नीतीश कुमार को था और न लालू को। जब जान पर बन आई तब इस मोर्चे का विचार आया है। चुनाव के ठीक पहले जिस धर्मनिरपेक्ष मोर्चे को बनाने की कोशिश की गई थी वह विफल रहा, क्योंकि ममता, जयललिता, नवीन पटनायक और मायावती ने इसमें शिरकत नहीं की। क्षेत्रीय दलों में ये चार सबसे प्रभावी दल हैं। बिहार उपचुनावों के परिणाम आने के बाद मुलायम सिंह यादव ने कहा कि हम उत्तर प्रदेश में ऐसे गठबंधन पर विचार कर सकते हैं, पर मायावती ने इसकी सम्भावना को खारिज कर दिया था। पर क्या मुलायम के उस प्रस्ताव पर मायावती पुनर्विचार करेगी जिसमें बसपा-सपा गठबंधन की बात थी? सन 1993 में उत्तर प्रदेश में सफल होने के बाद पिछले 21 साल से ये दोनों दल एक-दूसरे के मुख्य प्रतिस्पर्धी हैं। उनकी प्रतिस्पर्धा के कारणों को भी समझना होगा। इसी तरह क्या कर्नाटक में जनता परिवार कांग्रेस के साथ आएगा? क्या पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, वाम मोर्चा और कांग्रेस एक साथ आएंगे? क्या इस मोर्चे के प्रस्तावकों के पास तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा, असम, हरियाणा, गुजरात और राजस्थान के लिए भी फॉर्मूले है? मुलायम सिंह, मायावती और कांग्रेस तीनों एक भाजपा को हराने के लिए एकजुट क्यों नहीं हो सकते? क्या ममता बनर्जी और वाम दल मिलकर काम कर सकते हैं?

थोड़ा सा इंतज़ार कीजिए
इन सब बातों के पहले उत्तर प्रदेश में तथा कुछ अन्य राज्यों में 13 सितम्बर को होने वाले उपचुनावों के परिणामों का इंतज़ार भी करना होगा। उसके बाद देखें कि झारखंड में विधान सभा चुनाव में महागठबंधन बनता है या नहीं। फिर महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और सम्भवतः दिल्ली के परिणामों पर नज़र डालनी होगा। बिहारी महागठबंधन की गतिविधियों पर निगाह रखनी होगी। यानी इसका नेता कौन? फिलहाल तो झगड़ा नहीं है, पर अगले साल गठबंधन की जीत हुई तो मुख्यमंत्री कौन? राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की अवधारणा तो और भी महत्वाकांक्षी लगती है। फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन बना तो नेतृत्व किसके पास रहेगा? ऐसे कुछ सवाल हैं, जिनके जवाब पेचीदा हैं।

बिहार के चुनाव परिणामों के गम्भीर निष्कर्ष निकालने के पहले दो-तीन बातों को समझ लिया जाना चाहिए। इन दसों सीटों के चुनावों का मुद्दा लोकसभा चुनाव के मुद्दे से फर्क था। उस चुनाव में राष्ट्रीय राजनीति प्रभावी थी, इसमें स्थानीय मसले हावी थे। लोकसभा चुनाव के भारी मतदान के मुकाबले इस चुनाव में मतदान तकरीबन 20 से 25 फीसदी कम हुआ। जो तबका तब नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट देने के लिए निकला था, वह इस बार नहीं निकला। वह विधान सभा चुनाव में भी वोट नहीं देगा ऐसा नहीं कह सकते। जरूरी नहीं कि वह अगली बार भाजपा को ही वोट दे, पर वह महत्वपूर्ण साबित होगा। उसका वोट जाति और धर्म के बाहर जाकर पड़ता है। भाजपा का रूप विधान सभा चुनाव में क्या होगा कहना मुश्किल है। जातीय ध्रुवीकरण की काट में क्या वह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के रास्ते पर जाएगी? उत्तर प्रदेश भाजपा अपेक्षाकृत आक्रामक है और हिन्दुत्व की लाइन पर जा रही है।

भाजपा को रोका जा सकता है
बिहार के इन परिणामों ने यह साबित किया है कि भाजपा को रोकना मुश्किल काम नहीं है, बशर्ते स्थानीय नेता त्याग करें। किसी ताकत को रोकना एक बात है और एक सुगठित, सुचारु विकल्प कायम करना दूसरा काम है। गठबंधन हमारी ही नहीं दुनिया भर की राजनीति का सत्य बनकर उभरे हैं। सन 2010 में ब्रिटेन में लिबरल डेमोक्रेट और कंजर्वेटिव पार्टियों के बीच अचानक गठबंधन बना, पर दोनों पार्टियों ने काफी पेपरवर्क करके उसे सलीके से औपचारिक रूप दिया। बावजूद इसके वहाँ भी बगावत होती रहती है। सन 2015 में दोनों पार्टियों को अलग-अलग चुनाव लड़ना है इसलिए वहाँ असहमतियाँ दिखाई पड़ने लगी हैं। गठबंधन का लक्ष्य सत्ता को हासिल करना है, उसे सिद्धांत से सजाने का काम राजनीतिक कौशल से जुड़ा है। बिहार में लालू-नीतीश कौशल ने काम किया, पर कब तक और कहाँ तक?
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित

Friday, August 29, 2014

क्या पाकिस्तानी समाज खूनी नसरीन को स्वीकार कर लेगा?

पाकिस्तान में अगले महीने से कॉमिक्स उपन्यास का एक ऐसा चरित्र सामने आने वाला है, जिसे लेकर अंदेशा है कि वहाँ के कट्टरपंथियों का तीखी प्रतिक्रिया होगी। यह पात्र है नसरीन का।  27 साल की नसरीन कॉलेज जाने वाली किसी आम लड़की है। वह कराची की रहने वाली है। कराची की हिंसा की कहानियाँ दूर-दूर तक फैसी है। ऐसा शहर जो जातीय हिंसा का शिकार है। जहां गरीब और कमजोर को इंसाफ नहीं मिलता और रोजाना दर्जनों खून होते हैं। नसरीन एक हाथ में तलवार रखती है तो दूसरे में पिस्तौल। निशाने पर होते हैं आतंकी, ड्रग माफिया और भ्रष्ट लोग। जिन्हें वह बेहद फुर्ती के साथ खत्म करती है।  हाल में दैनिक भास्कर ने नसरीन के बारे में एक समाचार कथा प्रकाशित की है। लाहौर के रहने वाले कलाकार शाहन जैदी ने बनाया है यह नसरीन का किरदार। यह इसी अक्टूबर में कॉमिक्स के रूप में बाजार में जाएगा। फिर टीवी और यूट्यूब पर सीरीज़। शाहन का कहना है कि कराची में जो कुछ हो रहा है उसमें कमजोरों को ताकतवरों से बचाने की कल्पना ही की जा सकती है। मैंने एक ऐसा कैरेक्टर तैयार किया है जो यह समझती है कि इज्जत की रोटी और इज्जत की जिंदगी पर गरीबों और कमजोरों का भी हक है।

लेकिन इस किरदार से मुल्क के कट्‌टरपंथी अभी से खफा हैं। सोशल मीडिया पर तरह-तरह की बातें होने लगी हैं। नसरीन चुस्त और टाइट लिबास जो पहनती है। सवाल उठाया जा रहा है कि वह दुपट्‌टा क्यों नहीं पहनती? उसके हाथ में सिगरेट है। वो मोटरसाइकिल चलाती है और उसने पियरसिंग भी करवाई है। यानी वह हर ऐसा काम करती है, जिसकी पाकिस्तानी मुस्लिम समाज में लड़कियों से उम्मीद नहीं की जाती। 

अच्छी बात यह है कि पाकिस्तान में तालिबान ने औरतों की जिंदगी जिस तरह से मुश्किल बना दी है उसका नसरीन जैसा फिक्शनल कैरेक्टर ही जवाब है। शाहन कहते हैं हमें आनेवाली पाकिस्तानी नस्ल को महफूज बनाना है। जहां लड़कियां, लड़के, मर्द, औरतें एकसाथ खुश रह सकें। 

पाकिस्तान में इससे पहले पिछले साल बुर्का अवेंजर नाम से एक टीवी सीरियल भी चला जिसमें जिया नाम की एक साधारण सी लड़की बुर्का पहने सुपरहीरोइन बन जाती है और अपराधियों को सजा देती है। उसे तख्त कबड्डी नाम की मार्शल आर्ट में महारत हासिल है। टाइम मैगज़ीन ने बुर्का अवेंजर को सन 2013 के सबसे प्रभावशाली काल्पनिक चरित्रों में एक बताया था। 









Thursday, August 28, 2014

राजनीति ने बनाया राजभवनों को अपना अखाड़ा

 बुधवार, 27 अगस्त, 2014 को 16:51 IST तक के समाचार
भारत की संसद
लोकसभा में नेता विपक्ष के पद और राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति और बर्ख़ास्तगी का सवाल पहले भी सुप्रीम कोर्ट में उठा है.
इसी के साथ इन सवालों के इर्द-गिर्द देश की क्लिक करेंलोकतांत्रिक संस्थाओं पर विमर्श एक नई शक्ल में शुरू हुआ है. सरकार भले ही फिलहाल राज्यपालों को बदल दे, पर आने वाले वक्त में यह काम आसान नहीं रहेगा.
दिल्ली में नरेंद्र मोदी की सरकार के बनने के बाद पहली खबरें थी कि अब राज्यपालों की बारी है. पहले भी ऐसा ही होता रहा है. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को काम देने के लिए राज्यपाल का पद सबसे उचित माना जाता है.

पढ़िए विश्लेषण

इसके बाद ख़बर आई कि क्लिक करेंछह राज्यपालों को सलाह दी गई है कि वे अपने इस्तीफ़े दे दें. कुछ ने इस्तीफ़े दिए और कुछ ने आना-कानी की. ताज़ा मामला महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल के शंकरनारायणन का है, जिनका तबादला मिज़ोरम कर दिया गया था.
मनमोहन सिंह और पृथ्वीराज चौहान के साथ के शंकरनारायण (बीच में)
मनमोहन सिंह और पृथ्वीराज चौहान के साथ के शंकरनारायण (बीच में).
उन्होंने वहां जाने की बजाय इस्तीफा देना उचित समझा. हाल में कमला बेनीवाल वहीं लाने के बाद हटाई गईं थीं. इस मायने में मिज़ोरम काला पानी साबित हो रहा है.
इस बीच, केरल की राज्यपाल शीला दीक्षित ने भी मिज़ोरम तबादला किए जाने की खबरों के बीच इस्तीफा दे दिया है. सोमवार को गृहमंत्री से उनकी मुलाकात के बाद उनके इस्तीफे से जुड़ी अटकलें शुरू हो गई थीं.
हालांकि कुछ क्लिक करेंसियासी हलकों में माना जा रहा था कि वे लड़ने के मूड में हैं, लेकिन आख़िरकार उन्होंने इस्तीफे का रास्ता चुना. मौजूदा परिदृश्य में राज्यपाल का पद राजनीति की ज़बर्दस्त जकड़ में है.

विवादों का लम्बा इतिहास

दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री और केरल की पूर्व राज्यपाल शीला दीक्षित.
राज्यपालों की राजनीतिक भूमिका को लेकर क्लिक करेंभारतीय इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं. लंबे अरसे तक राजभवन राजनीति के अखाड़े बने रहे. अगस्त, 1984 में एनटी रामाराव की सरकार को आंध्रप्रदेश के राज्यपाल रामलाल की सिफ़ारिश पर बर्ख़ास्त किया गया.
उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी, झारखंड में सिब्ते रज़ी, बिहार में बूटा सिंह, कर्नाटक में हंसराज भारद्वाज और गुजरात में कमला बेनीवाल के फ़ैसले राजनीतिक विवाद के कारण बने.
अनेक मामलों में क्लिक करेंसुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों की भूमिका की आलोचना भी की है. जब राजनेता-राज्यपाल का मुकाबला दूसरी रंगत के मुख्यमंत्री से होता है तब परिस्थितियाँ बिगड़ती हैं.
सन 1994 में तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जे जयललिता और राज्यपाल एम चेन्ना रेड्डी के बीच टकराव का नुकसान प्रशासनिक व्यवस्था को उठाना पड़ा था. हाल में बिहार और झारखंड में विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच टकराव देखा गया.