नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा को भारत के पुनर्जागरण की नजर
से देखा जाना चाहिए। बेशक यह मोदी की राजनीतिक उपलब्धि है, पर उससे ज्यादा यह ‘वैश्विक मंच पर भारत के आगमन’ की घोषणा है। मोदी ने इक्कीसवीं सदी को एशिया की सदी बताया है। इसमें
भारत-जापान रिश्तों की सबसे बड़ी भूमिका होगी। साथ ही इसमें चीन एक महत्वपूर्ण
भूमिका निभाएगा। मोदी ने क्योटो और वाराणसी के बीच सांस्कृतिक सेतु बनाने की घोषणा
करके दोनों देशों के परम्परागत सम्पर्कों को रेखांकित किया है। दोनों देशों के बीच
नाभिकीय समझौता फिर भी नहीं हो पाया। अलबत्ता जापान ने कुछ भारतीय कम्पनियों पर
लगी पाबंदियाँ हटाने की घोषणा की है। हमें उच्चस्तरीय तकनीक भी चाहिए, जो जापान के
पास है। भारत सरकार नए औद्योगिक शहरों को बसाने की योजना बना रही है। हमें इन्फ्रास्ट्रक्चर
की कम-खर्च व्यवस्था चाहिए, जिसमें चीन की भूमिका होगी। बहरहाल जापान-यात्रा आर्थिक
और सामरिक दोनों प्रकार के सहयोगों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
लोकसभा में नेता विपक्ष के पद और राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति और बर्ख़ास्तगी का सवाल पहले भी सुप्रीम कोर्ट में उठा है.
इसी के साथ इन सवालों के इर्द-गिर्द देश की क्लिक करेंलोकतांत्रिक संस्थाओं पर विमर्श एक नई शक्ल में शुरू हुआ है. सरकार भले ही फिलहाल राज्यपालों को बदल दे, पर आने वाले वक्त में यह काम आसान नहीं रहेगा.
दिल्ली में नरेंद्र मोदी की सरकार के बनने के बाद पहली खबरें थी कि अब राज्यपालों की बारी है. पहले भी ऐसा ही होता रहा है. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को काम देने के लिए राज्यपाल का पद सबसे उचित माना जाता है.
पढ़िए विश्लेषण
इसके बाद ख़बर आई कि क्लिक करेंछह राज्यपालों को सलाह दी गई है कि वे अपने इस्तीफ़े दे दें. कुछ ने इस्तीफ़े दिए और कुछ ने आना-कानी की. ताज़ा मामला महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल के शंकरनारायणन का है, जिनका तबादला मिज़ोरम कर दिया गया था.
उन्होंने वहां जाने की बजाय इस्तीफा देना उचित समझा. हाल में कमला बेनीवाल वहीं लाने के बाद हटाई गईं थीं. इस मायने में मिज़ोरम काला पानी साबित हो रहा है.
इस बीच, केरल की राज्यपाल शीला दीक्षित ने भी मिज़ोरम तबादला किए जाने की खबरों के बीच इस्तीफा दे दिया है. सोमवार को गृहमंत्री से उनकी मुलाकात के बाद उनके इस्तीफे से जुड़ी अटकलें शुरू हो गई थीं.
हालांकि कुछ क्लिक करेंसियासी हलकों में माना जा रहा था कि वे लड़ने के मूड में हैं, लेकिन आख़िरकार उन्होंने इस्तीफे का रास्ता चुना. मौजूदा परिदृश्य में राज्यपाल का पद राजनीति की ज़बर्दस्त जकड़ में है.
विवादों का लम्बा इतिहास
राज्यपालों की राजनीतिक भूमिका को लेकर क्लिक करेंभारतीय इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं. लंबे अरसे तक राजभवन राजनीति के अखाड़े बने रहे. अगस्त, 1984 में एनटी रामाराव की सरकार को आंध्रप्रदेश के राज्यपाल रामलाल की सिफ़ारिश पर बर्ख़ास्त किया गया.
उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी, झारखंड में सिब्ते रज़ी, बिहार में बूटा सिंह, कर्नाटक में हंसराज भारद्वाज और गुजरात में कमला बेनीवाल के फ़ैसले राजनीतिक विवाद के कारण बने.
अनेक मामलों में क्लिक करेंसुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों की भूमिका की आलोचना भी की है. जब राजनेता-राज्यपाल का मुकाबला दूसरी रंगत के मुख्यमंत्री से होता है तब परिस्थितियाँ बिगड़ती हैं.
सन 1994 में तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जे जयललिता और राज्यपाल एम चेन्ना रेड्डी के बीच टकराव का नुकसान प्रशासनिक व्यवस्था को उठाना पड़ा था. हाल में बिहार और झारखंड में विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच टकराव देखा गया.