आज के इंडियन एक्सप्रेस के पेज 2 पर एक मुस्लिम महिला का चित्र है जो अपने बच्चे को कृष्ण बनाकर ले जा रही है। इस तरह की तस्वीरें हर साल भारतीय मीडिया में प्रकाशित होती रहती हैं। परम्परा से हमारे बीच जो सहिष्णुता है, उसे यों भी हम अपने शादी-विवाहों, पर्वों-त्योहारों और ग़मी-खुशी के तमाम मौकों पर देखते रहते हैं। मुझे याद पड़ता है सत्तर या अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में लखनऊ में इंदिरा गांधी गोल्ड कप हॉकी प्रतियोगिता होती थी। यह अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता थी और इसमें पाकिस्तान की टीम भी खेलती थी। उन दिनों मैने देखा कि पाकिस्तानी खिलाड़ी हज़रतगंज में खरीदारी करते हुए अपने साथ कृष्ण की प्रतिमाएं खरीद कर ले जाते थे। आपको आश्चर्य होगा। भला वे अपने घर में बुत कैसे रखते होंगे? पर मुझे लगता है कि कृष्ण और राम को धार्मिक से ज्यादा सांस्कृतिक अर्थ में देखा जाना चाहिए। इन दिनों बात चल रही है कि इस देश के रहने वालों को हिंदू कहने में क्या गलत है। गलत है या नहीं, पर दुनिया में तमाम जगहों पर हमें हिंदी या हिंदू कहा ही जाता है। हिंदू की धार्मिक पहचान शायद सौ-डेढ़ सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं है। जबके हमारी हिंदू या इंदु के रूप से पहचान हजारों साल पुरानी है। चीनी भाषा में भारत का नाम है इंदु वन और भारतीय को कहते हैं इंदु रन। आज क़मर वहीद नक़वी ने अपने फेसबुक वॉल पर एक तस्वीर लगाई है, जो 2011 के इंडियन एक्सप्रेस में छपी थी। मैने सन 2010 में अपने वॉल पर एक तस्वीर लगाई थी उसे भी इस पोस्ट के साथ लगा रहा हूँ। हो सकता है कि किसी एक मुस्लिम परिवार के दिमाग में बच्चे को कृष्ण बनाने की बात आई हो, पर अलग-अलग साल में अलग-अलग शहरों में ऐसा हो तो अच्छा लगता है।
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आज के इंडियन एक्सप्रेस के पेज 2 पर लगी तस्वीर। नीचे इस तस्वीर को अलग से लगाया है। |
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2011 की एक तस्वीर |
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2010 की तस्वीर |
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भास्कर में प्रकाशित |
नीचे एक आलेख बृजेश शुक्ल का है। इसे पढ़ें। इसे मैने नवभारत टाइम्स के ब्लॉग से लिया है। लखनऊ की संस्कृति में इस सौहार्द के बेहतरीन उदाहरण मिलेंगे, जिन्हें लेखक ने गिनाया है।
नवभारत टाइम्स | Aug 13, 2013, 01.00AM IST
बृजेश शुक्ल।।
पुराने लखनऊ में मेरे एक दोस्त रहते हैं। एक दिन अपना घर दिखाने लगे और मुस्कराकर बोले- यहां से वहां तक आपका ही घर है। लखनवी तहजीब, नफासत, नजाकत, इलमी अदब, वजादारी, मेहमानवाजी, हाजिर जवाबी में लखनऊ का दुनिया में कोई जोड़ नहीं। पिछले तीस सालों में लखनऊ कहां से कहां तक तरतीब और बेतरतीब ढंग से बढ़ा, उससे यह सवाल जरूर उठा कि लखनवियत अब बचेगी या नहीं। लेकिन टुकड़ों में ही सही, लखनवियत आज भी जिंदा है। विकास की अंधी दौड़ में समाज का बड़ा वर्ग 'पहले आप! पहले आप!' की तहजीब को भी नहीं समझ पाया। कुछ लोगों के लिए यह शब्द मजाक का विषय भी बना। लेकिन यकीन मानिए, 'पहले आप! पहले आप!' तो उसी महान संस्कृति के लोग कह सकते हैं, जिसमें कुर्बानी का जज्बा हो, जिसमें मेहमाननवाजी और दूसरों को तरजीह देने की कूवत हो। जो पहले खुद के लिए परेशान है, वह पहले आप बोल ही नहीं सकता।
नवाब आसफुद्दौला
लखनवियत लखनऊ के रस्मोरिवाज में घुली-मिली है। रमजान के दिनों में आप देर रात पुराने लखनऊ की गलियों में घूमिए। चाय की दुकानों में सामने रखे चाय के प्याले की ओर इशारा करते हुए यह कहने वाले आपको बहुत से लोग मिलेंगे- नहीं-नहीं, पहले आप लीजिए। लखनऊ में सन् 1722 में नवाबों का शासन आया और 1857 तक चला। लेकिन लखनवियत पनपी और बढ़ी 1775 से, यानी नवाब आसफुद्दौला के शासनकाल से। नवाब वाजिद अली शाह के समय में तो इस तरह फली-फूली कि लोग इस पर कुर्बान हो गए। वास्तव में लखनवियत तीन बुनियादी मूल्यों पर आधारित है। पहला इंसानियत, दूसरा हक यानी किसी जाति-धर्म का व्यक्ति हो, उसके साथ किसी तरह का भेदभाव न हो। तीसरा बिंदु है धर्मनिरपेक्षता- हर मजहब और मिल्लत की इज्जत करना और उसकी बेहतर चीजों को अपनाना। यहां बहुत से हिंदू एक दिन का रोजा रखते है। मोहर्रम के दिनों में तमाम हिंदू महिलाएं इमामबाडे़ व ताजिये के सामने जाकर मन्नतें मांगती हैं। जी हां, आज भी।
जोगिया मेला और इंदरसभा
'काजमैन रौजा' लाला जगन्नाथ ने बनवाया था। नवाब आसफुद्दौला के वजीर झाऊलाल ने ठाकुरगंज में इमामबाड़ा और टिकैतराय ने एक मस्जिद बनवाई। अमीनाबाद में पंडिताइन की मस्जिद मशहूर है। अलीगंज के हनुमान मंदिर के शिखर पर चमकने वाला इस्लामी चिन्ह चांद-तारा लखनवियत का प्रतीक है। इस मंदिर की संगेबुनियाद नवाब शुजाउद्दौला की बेगम और नवाब आसफुद्दौला की वालिदा बहूबेगम ने रखी थी। इस आपसी भाईचारे के कारण ही लखनऊ में अमन-चैन रहा। एक बार नवाब आसफुद्दौला का पड़ाव अयोध्या में पड़ा। नवाब साहब को जब तोपों की सलामी दी जा रही थी तभी उनके कानों में घंटा-घड़ियाल की आवाजें पड़ी। नवाब ने हुक्म दिया कि उनका पड़ाव इस पवित्र नगरी से पांच मील दूर डाला जाए, ताकि हिंदुओं को पूजा-पाठ में कोई व्यवधान न पैदा हो। नवाब वाजिद अली शाह हर साल जोगिया मेला लगवाते थे। उन्होंने राधा-कन्हैया और इंदरसभा नाटक लिखे और स्वयं श्रीकृष्ण की भूमिका करते थे।
तबला, खयाल, ठुमरी, सितार की परवरिश लखनऊ में हुई। कथक ने यही जन्म लिया। आदाब लखनवियत का हिस्सा है। जरा नवाबों की सोच तो देखिए। हिंदू नमस्ते कहे, मुसलमान सलाम करे तो एकता के दर्शन कहां। नवाबों ने दोनों वर्गो के लिए आदाब दिया। नजरें और सर थोड़ा झुका हुआ। उंगलियां आगे की ओर झुकी हुईं और हाथ को नीचे से थोड़ा ऊपर ले जाकर धीरे से आदाब कहना। इस लखनवियत में अहंकार नहीं है, संपन्नता का गरूर नहीं है। इस तहजीब की सबसे बड़ी खासियत यही है कि जुबान और व्यवहार से किसी को कष्ट न पहुंचे। कोई बीमार है तो यह नहीं पूछा जायेगा कि सुना आप बीमार है। पूछने वाला यही कह कर बीमार का हाल जान लेगा कि सुना है हुजूर के दुश्मनों की तबीयत नासाज है। लखनवी जुबान उर्दू है। लेकिन बहुत रस में पकी हुई, शहद में डूबी हुई। मुगलिया सल्तनत की जुबान फारसी थी। लेकिन उर्दू दक्षिण में पैदा हुई, दिल्ली में जवान हुई, लखनऊ में दुल्हन बनी और शबाब पाया।
वक्त बदल गया है। दीवारों से लखौरी ईटें गायब हो रही है। इमारतों का आर्किटेक्चर बदल रहा है। लेकिन पुराने लखनऊ की गलियों में आज भी लखनवियत नजर आती है। काजमैन के पास किसी बात को लेकर दो गुटों में तनाव हो गया। पत्रकार पहुंचे तो उन्होंने जानकारी चाही। वहां खड़े एक युवक ने बड़े मीठे लहजे में बताया- जनाब उधर शिया हजरात रहते हैं, इधर अहले सुन्नत हजरात रहते हैं। पत्रकारों ने समझा कि कोई मुस्लिम युवक है, इसी से बात कर ली जाए। नाम पूछा तो पता चला कि वह हिंदू था। लखनऊ की नजाकत, नफासत और मीठी जबान धर्म के आधार पर नहीं बंटी। यह तो एक तहजीब है। लखनऊ की हवाओं में लखनवियत है। गालियों से लेकर मोहब्बत व छेड़खानी तक का अपना अंदाज है। इस तहजीब को जीवन में उतार चुके लोगों की लड़ाइयों का भी तर्जे बयां निराला है- 'अब आप एक लफ्ज भी न बोलिएगा, बाखुदा आपकी शान में गुस्ताखी कर दूंगा।' जवाब आएगा- 'चलो मैं नहीं बोलता अब आप फरमाइए।'
दुनिया में लाजवाब है तू
अब जीवन तेज गति से चल रहा है। किसी के पास समय नहीं बचा। शब्दों में हाय-हलो हावी हो गया है। लेकिन लखनऊ के मामलों पर गहरी जानकारी रखने वाले जाफर अब्दुल्ला कहते हैं- लखनवी जुबान तो हवा का वो झोंका है जो जीवन में रंग भर देता है। दुनिया के किसी भी कोने में यदि आपको अपनी बेगम को ही आप कहने वाले कोई साहब मिल जाएं तो उनसे जरूर पूछिएगा, जनाब क्या आप लखनऊ के हैं? लखनऊ के ही प्रसिद्ध लेखक और इतिहासविद् योगेश प्रवीन की ये लाइनें लखनवियत को बताने के लिए काफी हैं- ये सच है जिंदादिली की कोई किताब है तू। अदब का हुस्नो-हुनर का हसीं शबाब है तू। सरे चमन तेरा जलवा है वो गुलाब है तू। लखनऊ आज भी दुनिया में लाजवाब है तू।