Sunday, August 24, 2014

अनायास नहीं है नियंत्रण रेखा पर घमासान

जम्मू-कश्मीर की नियंत्रण रेखा से जो खबरें आ रहीं है वे चिंता का विषय बनती जा रही हैं। शुक्र और शनिवार की आधी रात के बाद से अर्निया और रघुवीर सिंह पुरा सेक्टर में जबर्दस्त गोलाबारी चल रही है। इसमें कम से कम दो नागरिकों के मरने और छह लोगों के घायल होने की खबरें है। पाकिस्तानी सुरक्षा बलों ने भारत की 22 सीमा चौकियों और 13 गाँवों पर जबर्दस्त गोलाबारी की है। पुंछ जिले के हमीरपुर सब सेक्टर में भी गोलाबारी हुई है। उधर पाकिस्तानी मीडिया ने भी सियालकोट क्षेत्र में भारतीय सेनाओं की और से की गई गोलाबारी का जिक्र किया है और खबर दी है कि उनके दो नागरिक मारे गए हैं और छह घायल हुए हैं। मरने वालों में एक महिला भी है।
सन 2003 का समझौता होने के पहले नियंत्रण रेखा पर भारी तोपखाने से गोलाबारी होती रहती थी। इससे सीमा के दोनों और के गाँवों का जीवन नरक बन गया था। क्या कोई ताकत उस नरक की वापसी चाहती है? चाहती है तो क्यों? बताया जाता है कि सन 2003 के बाद से यह सबसे जबर्दस्त गोलाबारी है। भारतीय सुरक्षा बलों ने इस इलाके की बस्तियों से तकरीबन 3000 लोगों को हटाकर सुरक्षित स्थानों तक पहुँचा दिया है। अगस्त के महीने में नियंत्रण रेखा के उल्लंघन की बीस से ज्यादा वारदात हो चुकी हैं। अंदेशा इस बात का है कि यह गोलाबारी खतरनाक स्तर तक न पहुँच जाए।
सुरंग किसलिए?
भारतीय सुरक्षा बलों ने इस बीच एक सुरंग का पता लगाया है जो सीमा के उस पार से इस पार आई है। इसका मतलब यह है कि पाकिस्तान की और से घुसपैठ की कोशिशें खत्म नहीं हुईं हैं। आमतौर पर सर्दियों के पहले घुसपैठ कराई जाती है। बर्फबारी के बाद घुसपैठ कराना मुश्किल हो जता है। दो-एक मामले ऐसे भी होते हैं जिनमें कोई नागरिक रास्ता भटक जाए या कोई जानवर सीमा पार कर जाए, पर उतने पर भारी गोलाबारी नहीं होती। आमतौर पर फायरिंग कवर घुसपैठ करने वालों को दिया जाता है ताकि उसकी आड़ में वे सीमा पार कर जाएं। अंदेशा इस बात का है कि पाकिस्तान के भीतर एक तबका ऐसा है जो अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी का इंतज़ार कर रहा है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में वहाबी ताकत पुनर्गठित हो रही है। कहीं यह उसकी आहट तो नहीं?

Saturday, August 23, 2014

कश्मीर को लेकर क्या कोई नई लकीर खींचना चाहते हैं मोदी?

पाकिस्तान के साथ 25 अगस्त को होने वाली सचिव स्तर की वार्ता अचानक रद्द होने के बाद दो तरह की बातें दिमाग में आती हैं। पहली यह कि भारत ने जल्दबाज़ी की है। या फिर मोदी सरकार इन रिश्तों का कोई नया बेंचमार्क कायम करना चाहती है। दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त के साथ शब्बीर शाह की बैठक के मामले को कांग्रेस ने उछाला। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे दिन भर दिखाया। सरकार इन बातों से घबरा गई। पाकिस्तानी राजनीति में चल रहे टकराव को लेकर वह पहले ही असमंजस में थी। पर क्या भारत सरकार ने बगैर सोचे जल्दबाज़ी में यह फैसला किया होगा? भारत सरकार हुर्रियत नेताओं के साथ पाकिस्तानी नेतृत्व की मुलाकातों की आलोचना करती रही है। औपचारिक विरोध दर्ज भी हुआ, पर बैठकें रद्द नहीं हुईं। जब हम दक्षिण एशिया में विकास और बदलाव की बात करते हैं तब कश्मीर जैसे मसलों को उनपर हावी नहीं होना चाहिए। भारत-पाकिस्तान रिश्तों को अब कश्मीर से हटकर भी देखा जाना चाहिए।

मार्च 1993 में हुर्रियत की स्थापना के बाद से पाकिस्तान सरकार और हुर्रियत के बीच लगातार संवाद चलता रहा है। मई 1995 में पाकिस्तानी राष्ट्रपति फारूक लेघारी जब दक्षेस बैठक के लिए दिल्ली आए तो इनसे मिले। सन 2001 में जब परवेज़ मुशर्रफ आगरा शिखर सम्मेलन के लिए आए तब मिले, अप्रैल 2005 में वे फिर मिले। अप्रैल 2007 में दिल्ली आए पाक प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज इनसे मिले। कई मौकों पर इनकी पाकिस्तानी नेताओं से मुलाकात होती रहती है। हुर्रियत नेता 23 मार्च को होने वाले पाकिस्तान दिवस में शामिल होने के लिए दिल्ली आते हैं। 15 अप्रैल 2005 को भारतीय विदेश सचिव श्याम सरन से सवाल किया गया था कि दिल्ली में भारतीय प्रधानमंत्री से मिलने से पहले हुर्रियत नेताओं से राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ की मुलाक़ात पर भारत को क्या कोई समस्या है? उन्होंने कहाहम लोकतांत्रिक देश हैं। हमें इस तरह की मुलाक़ातों से कोई दिक़्क़त नहीं।”

सोमवार की सुबह विदेश सचिव सुजाता सिंह ने पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित को आगाह कर दिया था कि वे अलगाववादी नेताओं से न मिलें, वरना 25 अगस्त की बैठक रद्द कर दी जाएगी। इसके बावजूद उच्चायुक्त का अलगाववादियों से मिलना जितना विस्मयकारी है उतना ही विस्मयकारी है बैठक का रद्द होना। तब क्या माना जाए कि भारत सरकार ने जल्दबाज़ी में फैसला नहीं किया है, बल्कि मोदी सरकार पाकिस्तान के रिश्तों में कोई नई लक्ष्मण रेखा खींचना चाहती है।

अलगाववादियों के मुलाकात करने या न करने से इस मसले में कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क तब पड़ेगा जब हम अपने प्रकट सिद्धांत से हटें। भारत सरकार 1972 के शिमला समझौते की भावना के अनुरूप ही अब कश्मीर पर कोई समझौता करना चाहती है। सन 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की यात्रा के बाद जारी लाहौर घोषणापत्र में यह बात कही गई है। सन 2001 और 2005 में परवेज़ मुशर्रफ के साथ बातचीत के बाद दोनों देश इस दिशा में काफी आगे बढ़ गए थे। यूपीए सरकार ने पाकिस्तान के साथ कम्पोज़िट बातचीत की जो प्रक्रिया शुरू की है उसमें कश्मीर मसले को किनारे रखा गया है। उसमें व्यापारिक सम्पर्क, रेल और सड़क, नदियों के पानी से जुड़े विवाद, सांस्कृतिक, सामुदायिक और वैज्ञानिक-तकनीकी सहयोग तथा वीज़ा और पारगमन के मसले बातचीत में शामिल हैं। इस सारे मामलों में अब तक काफी प्रगति हो जाती, पर 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई में हुए हमले ने तमाम शांति प्रक्रियाओं पर विराम लगा दिया। इन रिश्तों की अब एक बड़ी शर्त यह है कि मुम्बई पर हमले के दोषियों को जल्द से जल्द सज़ा मिले।  

अपने शपथ ग्रहण समारोह को दक्षिण एशिया सम्मेलन में तबदील करके नरेन्द्र मोदी ने जो शुरुआत की थी उसकी तार्किक परिणति 25 अगस्त की बैठक थी, जो भावी बैठकों की तैयारी की योजना बनाने के लिए थी। यह बैठक भारत की पहल पर हो रही थी। सुजाता सिंह ने अपनी तरफ से बातचीत का कार्यक्रम बनाया था। नवाज शरीफ की यात्रा से बातचीत के दरवाज़े खुले थे। अब दरवाजे बंद होते नज़र आ रहे हैं। खासकर ऐसे समय में जब नवाज़ शरीफ़ आंतरिक राजनीति में घिरे हैं। बातचीत से पहले हुर्रियत नेताओं और पाकिस्तानी उच्चायुक्त की मुलाक़ात की परम्परा को वे तोड़ते तो देश की राजनीति में उनकी फज़ीहत होती। पाकिस्तान में कोई भी राजनीतिक नेता खुले आम यह कहने की हिम्मत नहीं रखता कि हुर्रियत नेताओं से संवाद नहीं करेंगे।

माना जा रहा है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद पाकिस्तानी जेहादी कश्मीर की ओर रुख करेंगे। दूसरी और देश आर्थिक संकटों से घिरा है। जेहादी संस्कृति उसके गले में हड्डी बन गई है। इससे निपटने की जिम्मेदारी पाकिस्तानी राजनीति की है। नवाज़ शरीफ मई में जब भारत आए तो उन्होंने न तो कश्मीर का मुद्दा उठाया था और न ही वे हुर्रियत नेताओं से मिले। पाकिस्तान में उनकी आलोचना भी हुई। हाफिज़ सईद ने खुले आम कहा कि नवाज शरीफ को भारत नहीं जाना चाहिए। कहा जाता है कि पाकिस्तान की सेना नागरिक सरकार पर हावी है। हमें उनके अंतर्विरोधों को समझना होगा।

दो साल पहले भारत सरकार ने पाकिस्तान के निवेशकों पर भारत में लगी रोक हटाई थी। अब पाकिस्तानी निवेशक रक्षा, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष कार्यक्रमों के अलावा अन्य कारोबारों में निवेश कर सकेंगे। यह आर्थिक निर्णय है, पर इसके राजनीतिक पहलू भी हैं। पाकिस्तान में तबका भारत से रिश्ते बनाने में अड़ंगे लगाता है। पर खेल, संगीत और कारोबारी रिश्ते दोनों देशों को जोड़ते भी हैं। पाकिस्तान में अराजक स्थितियों के कारण पूँजी का पलायन हो रहा है। अमेरिका, यूरोप और दुबई जाने के अलावा भारत आना बेहतर होगा। अनेक पाकिस्तानी उद्यमी परिवारों की पृष्ठभूमि स्वतंत्रता से पहले की है। जब तक हमारे आर्थिक हित नहीं मिलेंगे हम एक-दूसरे की स्थिरता के प्रति ज़िम्मेदार नहीं बनेंगे। दोनों देशों के बीच युद्ध की आशंकाओं को दूर करने के लिए आर्थिक पराश्रयता विकसित करनी होगी। दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत होनी चाहिए। सब ठीक रहा तो कभी भारत-पाकिस्तान की संयुक्त कम्पनियाँ बनेंगी।

पाकिस्तान-भारत नहीं दक्षिण एशिया के संदर्भ में सोचें। पिछले दिनों श्रीलंका में हुए सार्क चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ की बैठक में कहा गया कि दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी न होने के कारण व्यापार सम्भावनाओं के 72 फीसदी मौके गँवा दिए जाते हैं। इस इलाके के देशों के बीच 65 से 100 अरब डॉलर तक का व्यापार हो सकता है। ये देश परम्परा से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं। म्यांमार यानी बर्मा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण आसियान में चला गया, अन्यथा यह पूरा क्षेत्र एक आर्थिक ज़ोन के रूप में काम कर सकता है। इसकी परम्परागत कनेक्टिविटी राजनीतिक कारणों से खत्म हो गई है। पाकिस्तान को बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका से जोड़ने में भारत की भूमिका हो सकती है। भारत को अफगानिस्तान से जोड़ने में पाकिस्तान की। पर उसके पहले अपने राजनीतिक अंतर्विरोधों को सुलझाना होगा। इसकी शुरुआत भारत और पाकिस्तान से ही होगी।
DIFFERENT ACTORS, SAME SCRIPT: (clockwise from top left) Pervez Musharraf and Atal Bihari Vajpayee in Agra in 2001; Nawaz Sharif and Narendra Modi in New Delhi in May; Nawaz Sharif and Manmohan Singh in New York in September 2013; and YHouzaf Raza Gilani and Manmohan Singh in Sharm El-Sheikh.
DIFFERENT ACTORS, SAME SCRIPT: (clockwise from top left) Pervez Musharraf and Atal Bihari Vajpayee in Agra in 2001; Nawaz Sharif and Narendra Modi in New Delhi in May; Nawaz Sharif and Manmohan Singh in New York in September 2013; and YHouzaf Raza Gilani and Manmohan Singh in Sharm El-Sheikh.

Monday, August 18, 2014

मॉनसून सत्र तो ठीक गुज़रा, पर भावी टकराव का अंदेशा कायम है

 सोमवार, 18 अगस्त, 2014 को 12:43 IST तक के समाचार
सोलहवीं लोकसभा का पहला बजट सत्र पिछले चार साल का सबसे सकारात्मक सत्र रहा. लोकसभा ही नहीं, संसद के दोनों सदनों ने कम व्यवधान और ज्यादा काम का रिकॉर्ड बनाया.
पन्द्रहवीं लोकसभा के अंतिम सत्र में जितनी क्लिक करेंगहमा-गहमी और शोरगुल देखने को मिली थी, उसके मुकाबले इस बार का सत्र अपेक्षाकृत शांति और सद्भाव के माहौल में गुजरे हैं.
संसदीय कार्यवाही का बेहतर माहौल में चलना क्या संकेत दे रहा है? क्या इससे भविष्य की राजनीति को लेकर कोई संकेत दिख रहा है? क्या लंबे समय से लंबित विधेयकों को सरकार पास कराने की कोशिश करेगी?
इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ने.

पढ़िए विस्तार से

संसद की बैठकें शुरू होने के पहले आशंका व्यक्त की जा रही थी कि बहुमत के चलते कहीं ऐसा न हो कि सरकार विमर्श के बगैर ही अपने फ़ैसले करके उन्हें पास कराने की औपचारिकता भर पूरी करे. फिलहाल ऐसा नहीं लगता. अच्छी बात यह है कि सदन में पहली बार आए सदस्यों में भारी उत्साह नज़र आया और प्रश्नोत्तर काल में भी सुधार हुआ.

हंगामों की विदाई

लोकसभा ने 27 बैठकों में 167 घंटे और राज्यसभा में 142 घंटे काम हुआ. व्यवधान में लोकसभा ने तकरीबन 14 घंटे गंवाए जिसकी भरपाई 28 घंटे से ज़्यादा समय अलग से बैठकर की गई.
क्लिक करेंराज्यसभा में हंगामे के कारण 34 घंटे काम काज नहीं हो सका, लेकिन उसने 38 घंटे अतिरिक्त काम करके उसकी भरपाई की. इसकी तुलना पन्द्रहवीं लोकसभा से करें तो सन 2010 का पूरा शीतकालीन सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया था और 2013 के बजट सत्र के दौरान सिर्फ 19 घंटे 36 मिनट काम हुआ था.
इस सत्र में दोनों सदनों ने न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक और उससे जुड़े संविधान विधेयक को तकरीबन आम सहमति से पास किया, वहीं बीमा विधेयक को राज्यसभा ने प्रवर समिति को सौंप कर गहरी राजनीतिक असहमति का अहसास भी कराया है.
संसद के इस सत्र के शांति-सद्भाव और सहमति-असहमति से जुड़े कुछ सवाल भी उठे हैं, जिनके जवाबों मे भविष्य की राजनीति और प्रशासन की दिशा छिपी है. एक ओर संसदीय सद्भाव वापस हुआ है, वहीं राजनीति में टकराव के कुछ नए मोर्चे खुलते दिखाई पड़ रहे हैं.

आर्थिक उदारीकरण पर टकराव

इंश्योरेंस कानून में संशोधन को लेकर यूपीए और एनडीए के बीच टकराव व्यावहारिक राजनीति का है. सिद्धांततः दोनों पक्ष इंश्योरेंस में विदेशी निवेश को बढ़ाकर 49 फीसदी करना चाहते हैं. यह विधेयक यूपीए सरकार ने ही पेश किया था और पन्द्रहवीं लोकसभा ने इसे पास कर दिया था.
अभी श्रम कानूनों में बदलाव को लेकर राजनीतिक विरोध होगा. यूपीए सरकार भी इन कानूनों को पास कराना चाहती थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में कहा कि दुनिया के देशों से कहें ‘कम एंड मेक इन इंडिया.’
मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में विदेशी निवेश के लिए देश के श्रम कानूनों में बदलाव की बड़ी शर्त है. इससे जुड़े बदलावों को लाने के पहले सरकार को अलोकप्रियता का सामना करने को तैयार होना होगा.
खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के यूपीए सरकार के फ़ैसले को हालांकि मोदी सरकार ने वापस नहीं किया है, पर यह साफ कर दिया है कि इसे हम लागू नहीं करेंगे. डब्ल्यूटीओ में टीएफए करार पर हाथ खींचकर भी सरकार ने कमोबेश ऐसा ही काम किया है.

कांग्रेस का अंदरूनी संकट

कांग्रेस पार्टी अभी तक नेतृत्व के संकट से उबर नहीं पाई है. लोकसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व करने वाले राहुल गांधी सदन में पीठे की सीट पर बैठते हैं. इधर 6 अगस्त को अचानक सदन में उन्होंने आक्रामक रुख अपना लिया.
सांप्रदायिक हिंसा पर बहस की मांग को लेकर उन्होंने न सिर्फ अपना रोष प्रकट किया, बल्कि अन्य सांसदों के साथ अध्यक्ष के आसन के क़रीब तक पहुंच गए. उन्होंने अध्यक्ष पर पक्षपात के आरोप भी लगाए.
यह आक्रामकता केवल एक दिन तक सीमित थी. अगले दिन से वे फिर खामोश हो गए. ऐसा माना जा रहा है कि इंश्योरेंस कानून पर पार्टी के भीतर दो राय हैं. लोकसभा में पार्टी यों भी संख्या के लिहाज़ से कमज़ोर है. नेतृत्व का असमंजस उसे और कमज़ोर कर रहा है.

सौहार्द की तस्वीरें भी हमारे बीच हैं

आज के इंडियन एक्सप्रेस के पेज 2 पर एक मुस्लिम महिला का चित्र है जो अपने बच्चे को कृष्ण बनाकर ले जा रही है। इस तरह की तस्वीरें हर साल भारतीय मीडिया में प्रकाशित होती रहती हैं। परम्परा से हमारे बीच जो सहिष्णुता है, उसे यों भी हम अपने शादी-विवाहों, पर्वों-त्योहारों और ग़मी-खुशी के तमाम मौकों पर देखते रहते हैं। मुझे याद पड़ता है सत्तर या अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में लखनऊ में इंदिरा गांधी गोल्ड कप हॉकी प्रतियोगिता होती थी। यह अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता थी और इसमें पाकिस्तान की टीम भी खेलती थी। उन दिनों मैने देखा कि पाकिस्तानी खिलाड़ी हज़रतगंज में खरीदारी करते हुए अपने साथ कृष्ण की प्रतिमाएं खरीद कर ले जाते थे। आपको आश्चर्य होगा। भला वे अपने घर में बुत कैसे रखते होंगे? पर मुझे लगता है कि कृष्ण और राम को धार्मिक से ज्यादा सांस्कृतिक अर्थ में देखा जाना चाहिए।  इन दिनों बात चल रही है कि इस देश के रहने वालों को हिंदू कहने में क्या गलत है। गलत है या नहीं, पर दुनिया में तमाम जगहों पर हमें हिंदी या हिंदू कहा ही जाता है। हिंदू की धार्मिक पहचान शायद सौ-डेढ़ सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं है। जबके हमारी हिंदू या इंदु के रूप से पहचान हजारों साल पुरानी है। चीनी भाषा में भारत का नाम है इंदु वन और भारतीय को कहते हैं इंदु रन। आज क़मर वहीद नक़वी ने अपने फेसबुक वॉल पर एक तस्वीर लगाई है, जो 2011 के इंडियन एक्सप्रेस में छपी थी। मैने सन 2010 में अपने वॉल पर एक तस्वीर लगाई थी उसे भी इस पोस्ट के साथ लगा रहा हूँ। हो सकता है कि किसी एक मुस्लिम परिवार के दिमाग में बच्चे को कृष्ण बनाने की बात आई हो, पर अलग-अलग साल में अलग-अलग शहरों में ऐसा हो तो अच्छा लगता है।
आज के इंडियन एक्सप्रेस के पेज 2 पर लगी तस्वीर। नीचे इस तस्वीर को अलग से लगाया है। 

2011 की एक तस्वीर

2010 की तस्वीर




भास्कर में प्रकाशित

नीचे एक आलेख बृजेश शुक्ल का है। इसे पढ़ें। इसे मैने नवभारत टाइम्स के ब्लॉग से लिया है। लखनऊ की संस्कृति में इस सौहार्द के बेहतरीन उदाहरण मिलेंगे, जिन्हें लेखक ने गिनाया है। 


नवभारत टाइम्स | Aug 13, 2013, 01.00AM IST

बृजेश शुक्ल।।

पुराने लखनऊ में मेरे एक दोस्त रहते हैं। एक दिन अपना घर दिखाने लगे और मुस्कराकर बोले- यहां से वहां तक आपका ही घर है। लखनवी तहजीब, नफासत, नजाकत, इलमी अदब, वजादारी, मेहमानवाजी, हाजिर जवाबी में लखनऊ का दुनिया में कोई जोड़ नहीं। पिछले तीस सालों में लखनऊ कहां से कहां तक तरतीब और बेतरतीब ढंग से बढ़ा, उससे यह सवाल जरूर उठा कि लखनवियत अब बचेगी या नहीं। लेकिन टुकड़ों में ही सही, लखनवियत आज भी जिंदा है। विकास की अंधी दौड़ में समाज का बड़ा वर्ग 'पहले आप! पहले आप!' की तहजीब को भी नहीं समझ पाया। कुछ लोगों के लिए यह शब्द मजाक का विषय भी बना। लेकिन यकीन मानिए, 'पहले आप! पहले आप!' तो उसी महान संस्कृति के लोग कह सकते हैं, जिसमें कुर्बानी का जज्बा हो, जिसमें मेहमाननवाजी और दूसरों को तरजीह देने की कूवत हो। जो पहले खुद के लिए परेशान है, वह पहले आप बोल ही नहीं सकता।

नवाब आसफुद्दौला

लखनवियत लखनऊ के रस्मोरिवाज में घुली-मिली है। रमजान के दिनों में आप देर रात पुराने लखनऊ की गलियों में घूमिए। चाय की दुकानों में सामने रखे चाय के प्याले की ओर इशारा करते हुए यह कहने वाले आपको बहुत से लोग मिलेंगे- नहीं-नहीं, पहले आप लीजिए। लखनऊ में सन् 1722 में नवाबों का शासन आया और 1857 तक चला। लेकिन लखनवियत पनपी और बढ़ी 1775 से, यानी नवाब आसफुद्दौला के शासनकाल से। नवाब वाजिद अली शाह के समय में तो इस तरह फली-फूली कि लोग इस पर कुर्बान हो गए। वास्तव में लखनवियत तीन बुनियादी मूल्यों पर आधारित है। पहला इंसानियत, दूसरा हक यानी किसी जाति-धर्म का व्यक्ति हो, उसके साथ किसी तरह का भेदभाव न हो। तीसरा बिंदु है धर्मनिरपेक्षता- हर मजहब और मिल्लत की इज्जत करना और उसकी बेहतर चीजों को अपनाना। यहां बहुत से हिंदू एक दिन का रोजा रखते है। मोहर्रम के दिनों में तमाम हिंदू महिलाएं इमामबाडे़ व ताजिये के सामने जाकर मन्नतें मांगती हैं। जी हां, आज भी।

जोगिया मेला और इंदरसभा

'काजमैन रौजा' लाला जगन्नाथ ने बनवाया था। नवाब आसफुद्दौला के वजीर झाऊलाल ने ठाकुरगंज में इमामबाड़ा और टिकैतराय ने एक मस्जिद बनवाई। अमीनाबाद में पंडिताइन की मस्जिद मशहूर है। अलीगंज के हनुमान मंदिर के शिखर पर चमकने वाला इस्लामी चिन्ह चांद-तारा लखनवियत का प्रतीक है। इस मंदिर की संगेबुनियाद नवाब शुजाउद्दौला की बेगम और नवाब आसफुद्दौला की वालिदा बहूबेगम ने रखी थी। इस आपसी भाईचारे के कारण ही लखनऊ में अमन-चैन रहा। एक बार नवाब आसफुद्दौला का पड़ाव अयोध्या में पड़ा। नवाब साहब को जब तोपों की सलामी दी जा रही थी तभी उनके कानों में घंटा-घड़ियाल की आवाजें पड़ी। नवाब ने हुक्म दिया कि उनका पड़ाव इस पवित्र नगरी से पांच मील दूर डाला जाए, ताकि हिंदुओं को पूजा-पाठ में कोई व्यवधान न पैदा हो। नवाब वाजिद अली शाह हर साल जोगिया मेला लगवाते थे। उन्होंने राधा-कन्हैया और इंदरसभा नाटक लिखे और स्वयं श्रीकृष्ण की भूमिका करते थे।

तबला, खयाल, ठुमरी, सितार की परवरिश लखनऊ में हुई। कथक ने यही जन्म लिया। आदाब लखनवियत का हिस्सा है। जरा नवाबों की सोच तो देखिए। हिंदू नमस्ते कहे, मुसलमान सलाम करे तो एकता के दर्शन कहां। नवाबों ने दोनों वर्गो के लिए आदाब दिया। नजरें और सर थोड़ा झुका हुआ। उंगलियां आगे की ओर झुकी हुईं और हाथ को नीचे से थोड़ा ऊपर ले जाकर धीरे से आदाब कहना। इस लखनवियत में अहंकार नहीं है, संपन्नता का गरूर नहीं है। इस तहजीब की सबसे बड़ी खासियत यही है कि जुबान और व्यवहार से किसी को कष्ट न पहुंचे। कोई बीमार है तो यह नहीं पूछा जायेगा कि सुना आप बीमार है। पूछने वाला यही कह कर बीमार का हाल जान लेगा कि सुना है हुजूर के दुश्मनों की तबीयत नासाज है। लखनवी जुबान उर्दू है। लेकिन बहुत रस में पकी हुई, शहद में डूबी हुई। मुगलिया सल्तनत की जुबान फारसी थी। लेकिन उर्दू दक्षिण में पैदा हुई, दिल्ली में जवान हुई, लखनऊ में दुल्हन बनी और शबाब पाया।

वक्त बदल गया है। दीवारों से लखौरी ईटें गायब हो रही है। इमारतों का आर्किटेक्चर बदल रहा है। लेकिन पुराने लखनऊ की गलियों में आज भी लखनवियत नजर आती है। काजमैन के पास किसी बात को लेकर दो गुटों में तनाव हो गया। पत्रकार पहुंचे तो उन्होंने जानकारी चाही। वहां खड़े एक युवक ने बड़े मीठे लहजे में बताया- जनाब उधर शिया हजरात रहते हैं, इधर अहले सुन्नत हजरात रहते हैं। पत्रकारों ने समझा कि कोई मुस्लिम युवक है, इसी से बात कर ली जाए। नाम पूछा तो पता चला कि वह हिंदू था। लखनऊ की नजाकत, नफासत और मीठी जबान धर्म के आधार पर नहीं बंटी। यह तो एक तहजीब है। लखनऊ की हवाओं में लखनवियत है। गालियों से लेकर मोहब्बत व छेड़खानी तक का अपना अंदाज है। इस तहजीब को जीवन में उतार चुके लोगों की लड़ाइयों का भी तर्जे बयां निराला है- 'अब आप एक लफ्ज भी न बोलिएगा, बाखुदा आपकी शान में गुस्ताखी कर दूंगा।' जवाब आएगा- 'चलो मैं नहीं बोलता अब आप फरमाइए।'

दुनिया में लाजवाब है तू

अब जीवन तेज गति से चल रहा है। किसी के पास समय नहीं बचा। शब्दों में हाय-हलो हावी हो गया है। लेकिन लखनऊ के मामलों पर गहरी जानकारी रखने वाले जाफर अब्दुल्ला कहते हैं- लखनवी जुबान तो हवा का वो झोंका है जो जीवन में रंग भर देता है। दुनिया के किसी भी कोने में यदि आपको अपनी बेगम को ही आप कहने वाले कोई साहब मिल जाएं तो उनसे जरूर पूछिएगा, जनाब क्या आप लखनऊ के हैं? लखनऊ के ही प्रसिद्ध लेखक और इतिहासविद् योगेश प्रवीन की ये लाइनें लखनवियत को बताने के लिए काफी हैं- ये सच है जिंदादिली की कोई किताब है तू। अदब का हुस्नो-हुनर का हसीं शबाब है तू। सरे चमन तेरा जलवा है वो गुलाब है तू। लखनऊ आज भी दुनिया में लाजवाब है तू।

संवाद-शिल्प में माहिर हैं मोदी

जनता से संवाद करना मोदी को आता है, कम्युनिकेशन स्किल में निपुण हैं मोदी

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने विरोधी की बातों की बेहतरीन पेशबंदी करना जानते हैं। उन्होंने स्वतंत्रता दिवस के भाषण की शुरुआत में कहा, मेरी बात को राजनीति के तराजू में न तोला जाए। यह बात अच्छी तरह समझ कर कही गई थी कि उनकी बातों को राजनीति के तराजू में तोला जाएगा। पर अब जो तोलेगा वह अतिरिक्त जोखिम मोल लेगा। उन्होंने कहा, मैं दिल्ली के लिए आउटसाइडर रहा हूं, पर दो महीने में जो इनसाइडर व्यू लिया तो चौंक गया। ऐसा लगता है कि जैसे एक सरकार के भीतर दर्जनों सरकारें चल रहीं हैं। हरेक की जागीर बनी है। मैंने दीवारें गिराने की कोशिश की है।
यहां यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि भाषण के मंच से तकरीबन तीस साल बाद बुलेट प्रूफ बॉक्स हटा दिया गया। सिर पर परम्परागत पगड़ी, पृष्ठभूमि में पुरानी दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतें, सामने बच्चों की कतारें।
मोदी के संदेश के कथ्य से ज्यादा महत्वपूर्ण है उनकी शैली और मंचकला। उन्हें माहौल बनाना आता है। जनता की भाषा में बोलते हैं। वह भी ऐसी जो समझ में आती है। बाएं और दाएं हाथ की मुद्राएं और चेहरे के हाव-भाव और शब्दों का मॉड्यूलेशन उस नाटकीयता को जन्म देता है, जो उनके भाषण को प्रभावशाली बनाती है। वे अपने शब्दों को इतनी तरह से कहते हैं कि बात सुनने वाले के मन में गहराई तक उतर जाए। उन्होंने कहा, देश को एक रस, एक मन, एक दिशा, एक गति, एक मति हो जाना चाहिए। बार-बार बोलकर उन्होंने सुनने वाले के मन पर ‘एक’ को इतनी गहराई तक उतार दिया कि उसे ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं रह गई।
सामाजिक ऊर्जा को दोहन के तरीकों को नरेंद्र मोदी बेहतर जानते हैं। यह बात लोकसभा चुनाव में हमने देखी। मोदी ने दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में पी2जी2 (प्रो पीपुल, गुड गवर्नेंस), स्किल,स्केल और स्पीड, माउस चार्मर का देश, फाइबर टू फैशन, गुजरात का नमक और आधा भरा गिलास जैसे जुमलों का सहारा लेकर नौजवानों को अपनी बात समझाई थी। यह शब्दावली नौजवानों को फौरन समझ में आती है। गौर करें तो पाएंगे कि मोदी नौजवानों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। गुजरात में मोदी गुजराती में बोलते हैं पर शेष देश में वे हिन्दी में बोलते हैं। वे इन भाषाओं में सहज हैं और इनके मुहावरों को समझते हैं। पर अंग्रेजी का ‘मिनिमम गवर्नमेंट-मैक्सीमम गवर्नेंस’ भी वे उसी सानी से लोगों के मन में डालने में कामयाब हुए हैं।
वे अच्छे स्टोरी टेलर भी हैं। सम्भव है उन पर परम्परागत देशी कथा वाचकों का प्रभाव हो। पर जॉब और सर्विस के बीच के अंतर को उन्होंने एक छोटे से दृष्टांत से समझा दिया। कथा वाचक भी दृष्टांतों की मदद से कहानी आगे बढ़ाते हैं। पिछले साल जब अप्रैल के पहले हफ्ते में सीआईआई की एक गोष्ठी में राहुल गांधी ने अपना दृष्टिकोण देश के सामने रखा। राहुल का वह भाषण बेहद संजीदा था। तब तक देश उन्हें संजीदगी से ही ले रहा था। राहुल के भाषण के चार दिन बाद ही फिक्की की महिला शाखा में नरेंद्र मोदी का भाषण हुआ। उसमें मोदी ने अपनी वाक्पटुता का परिचय दिया। इस भाषण में उन्होंने महिलाओं से जुड़ी कई कहानियां सुनाईं। और फिर जनता ने राहुल और मोदी की तुलना शुरू कर दी। इस तुलना ने मोदी को लगातार फायदा पहुंचाया। मोदी के भाषणों के अनुप्रास अनायास ही अब सबका ध्यान खींचते हैं। यह उनकी व्यक्तिगत देन है या कोई कम्युनिकेशन स्ट्रैटजी है, पर अब सरकारी भाषा बदल गई है।
इस साल जब संसद का सत्र शुरू हो रहा था तब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने अभिभाषण में कहा, नई सरकार 3-डी तकनीक से काम करेगी और देश को नई ऊंचाइयों तक ले जाएगी। यहाँ 3-डी का मतलब था डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी और डिमांड। अपने चुनाव अभियान में हजारों जमीनी और थ्री-डी रैलियों के अलावा चाय पर चर्चा उनकी कम्युनिकेशन रणनीति का हिस्सा ही थीं। सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले शुरुआती राजनेताओं में नरेंद्र मोदी ही थे। उन्होंने राजनीतिक संवाद की जो शैली विकसित की है वह स्वतंत्रता दिवस के भाषण के रूप में अपने सबसे उत्कृष्ट रूप में देखने में आई। एक प्रधानमंत्री अपनी जनता के सामने उसके प्रधान सेवक के रूप में खड़ा था, बगैर बुलेट प्रूफ पर्दे के। यह बात जनता की भावनाओं को गहराई तक छूती है।