Monday, November 11, 2013

बूढ़ी कांग्रेस को युवा राजनेताओं को बढ़ाने से रोका किसने है?

कांग्रेस का विरोध माने भाजपा का समर्थन ही नहीं है। और भाजपा से विरोध का मतलब कांग्रेस की समर्थन ही नहीं माना जाना चाहिए। हमने हाल के वर्षों में राजनीति को देखने के चश्मे ऐसे बना लिए हैं कि वयक्ति अनुमान लगाने लगा है कि असल बात क्या है। इसके लिए राजनीतिक शिक्षण भी दोषी है। राज माया के पिछले अंक में मैने नरेन्द्र मोदी के बारे में लिखा था। इस बार राहुल गांधी पर लिखा है। देश के राजनीतिक दलों के अनेक दोष सामाजिक दोष भी हैं, पर हमें सबको देखने समझने की कोशिश भी करनी चाहिए।

परिवहन मंत्री ऑस्कर फर्नांडिस ने हाल में अचानक एक रोज कहा, राहुल गांधी के अंदर प्रधानमंत्री बनने के पूरे गुण हैं। उनकी देखा-देखी सुशील कुमार शिंदे, पीसी चाको और सलमान खुर्शीद से लेकर जीके वासन तक सबने एक स्वर में बोलना शुरू कर दिया कि राहुल ही होंगे प्रधानमंत्री। पिछले महीने बीजेपी के भीतर नेतृत्व को लेकर जैसी सनसनी थी वैसी तो नहीं, पर कांग्रेस के भीतर अचानक राहुल समर्थन का आवेश अब नजर आने लगा है। यह आवेश अभी पार्टी के भीतर ही है, बाहर नहीं। राहुल के समर्थन की होड़ में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता। मैक्सिकन वेव की तरह लहरें उठ रहीं हैं और आश्चर्य नहीं कि देखते ही देखते मोहल्ला स्तर तक के नेता राहुल के समर्थन में बयान जारी करने लगें। लगभग उसी अंदाज में जैसे सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी के पक्ष में समर्थन की लहर उठती थी। अचानक कहीं से प्रियंका गांधी का नाम सामने आया कि मोदी के मुकाबले कांग्रेस प्रियंका को सामने ला रही है। यह खबर पार्टी के भीतर से आई या किसी विरोधी न फैलाई, पर पूरे दिन यह मीडिया की सुर्खियों में रही।

Sunday, November 10, 2013

मंगलयान का गरीबी से बैर नहीं

भारत का पहला अंतरग्रहीय अंतरिक्ष यान धरती की कक्षा में स्थापित होने के बाद अपने अगले चरण पूरे कर रहा है। हमसे पहले एशिया के सिर्फ दो देश इस काम को करने की हिम्मत कर पाए हैं और दोनों विफल हुए हैं। सन 1998 में जापान का नोज़ोमी प्रोपल्शन प्रणाली में खराबी और सौर लपटों में उपकरणों के झुलस जाने के कारण मंगल की कक्षा में प्रवेश करने के बजाय आगे निकल गया। इसके बाद सन 2011 में चीन ने अपना यान यिंग्वो-1 रूसी फोबोस-ग्रंट से जोड़कर भेजा। रूसी यान पृथ्वी की कक्षा से बाहर निकल ही नहीं पाया और पिछले साल धरती पर आ गिरा।

भारतीय विज्ञान का शोकेस मंगल अभियान

मंगलयान अभियान के बारे में मीडिया की अपेक्षाकृत बेहतर कवरेज के बावजूद बड़ी संख्या में लोग इसके बारे में काफी कम जानते हैं। जानते भी हैं तो यही कि कब यह धरती की कक्षा से बाहर निकलेगा और किस तरह से मंगल की कक्षा में प्रवेश करेगा। काफी लोगों को यह समझ में नहीं आता कि इस सब की ज़रूरत क्या है। मान लिया हमारे यान ने वहाँ मीथेन होने का पता लगा ही लिया तो इससे हमें क्या मिल जाएगा? हम पता नहीं लगाते तो अमेरिका और रूस वाले लगाते। मंगल के पत्थरों, चट्टानों और ज्वालामुखियों की तस्वीरें लाने के लिए 450 करोड़ फूँक कर क्या मिला? इससे बेहतर होता कि हम कुछ गरीबों के बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम करते। पीने के पानी के बारे में सोचते। भोजन, दवाई का इंतज़ाम करते। यह सवाल भी उन लोगों के मन में आया है, जिन्हें सचिन तेन्दुलकर की हाहाकारी कवरेज से बाहर निकल कर कुछ सोचने-समझने की फुरसत है। भारत के बाहर कुछ लोगों को लगता है कि हमने चीन से प्रतिद्विंदता में यह अभियान भेजा है। देश की राजनीति से जुड़ा पहलू भी है। शायद यूपीए सरकार ने अपनी उपलब्धियाँ गिनाने के लिए मंगलयान भेजा है। पिछले साल जुलाई में इस अभियान को स्वीकृति मिली। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में इसकी घोषणा की और आनन-फानन इसे भेज दिया गया।

Thursday, November 7, 2013

स्पेस रिसर्च फिजूलखर्ची नहीं

 मंगलयान के प्रक्षेपण के बाद कुछ सवाल उठे हैं। गरीबों के देश को ऐसी फिजूलखर्ची क्या शोभा देती है? इसके बाद क्या भारत-चीन अंतरिक्ष रेस शुरू होगी? भारत की शान बढ़ेगी? क्या यह यूपीए सरकार की उपलब्धियों को शोकेस करना है? प्रक्षेपण के ठीक पहले व़ॉल स्ट्रीट जरनल ने लिखा, इस सफलता के बाद भारत अंतरग्रहीय अनुसंधान में चीन और जापान को पीछे छोड़ देगा. इकोनॉमिस्ट ने लिखा कि जो देश 80 करोड़ डॉलर (लगभग 5000 करोड़ रुपए) दीवाली के पटाखों पर खर्च कर देता है उसके लिए 7.4 करोड़ डॉलर (450 करोड़ रुपए) का यह एक रॉकेट दीवाली जैसा रोमांच पैदा करेगा. प्रक्षेपण के वक्त सुशील कुमार शिंदे भी यही बात कह रहे थे. पर क्या यह परीक्षण हमारे जीवन में बढ़ती वैज्ञानिकता का प्रतीक है? क्या हम विज्ञान की शिक्षा में अग्रणी देश हैं?   

Wednesday, October 30, 2013

बनता क्यों नहीं तीसरा मोर्चा?

 बुधवार, 30 अक्तूबर, 2013 को 11:22 IST तक के समाचार
तीसरे मोर्चे की संभावनाएं
दिल्ली में बुधवार 30 अक्तूबर को देश के तकरीबन एक दर्जन राजनीतिक दलों के नेता जमा होकर चुनाव के पहले और उसके बाद के राजनीतिक गठबंधन की सम्भावना पर विचार करने जा रहे हैं.
व्यावहारिक रूप से यह तीसरे मोर्चे की तैयारी है, पर बनाने वाले ही कह रहे हैं कि औपचारिक रूप से तीसरा मोर्चा चुनाव के पहले बनेगा नहीं. बन भी गया तो टिकेगा नहीं.
हाल में ममता बनर्जी ने संघीय मोर्चे की पेशकश की थी. यह पेशकश नरेन्द्र मोदी के भूमिका-विस्तार के साथ शुरू हुई. पर वे इस विमर्श में शामिल नहीं होंगी, क्योंकि मेज़बान वामपंथी दल हैं.
राष्ट्रीय परिदृश्य पर कांग्रेस और भाजपा दोनों को लेकर वोटर उत्साहित नहीं है, पर कोई वैकल्पिक राजनीति भी नहीं है. उम्मीद की किरण उस अराजकता और अनिश्चय पर टिकी है जो चुनाव के बाद पैदा होगा.
ऐसा नहीं कि क्लिक करेंतीसरे मोर्चे की कल्पना निरर्थक और निराधार है. देश की सांस्कृतिक बहुलता और सुगठित संघीय व्यवस्था की रचना के लिए इसकी ज़रूरत है.
पर क्या कारण है कि इसके कर्णधार चुनाव में उतरने के पहले एक सुसंगत राजनीतिक कार्यक्रम के साथ चुनाव में उतरना नहीं चाहते?

खतरों से लड़ने वाली राजनीति

ममता बनर्जी
ममता बनर्जी ने संघीय मोर्चे की पेशकश की थी.
हमारी राजनीति को ख़तरों से लड़ने का शौक है. आमतौर पर यह ख़तरों से लड़ती रहती है.
1967 के बाद से गठबंधनों की राजनीति को प्रायः उसके मुहावरे क्लिक करेंवामपंथी पार्टियाँदेती रहीं हैं. गठबंधन राजनीति के फोटो-ऑप्स में पन्द्रह-बीस नेता मंच पर खड़े होकर दोनों हाथ एक-दूसरे से जोड़कर ऊपर की ओर करते हैं तब एक गठबंधन का जन्म होता है. यह गठबंधन किसी ख़तरे से लड़ने के लिए बनता है.
जब तक नेहरू थे तब ख़तरा यह था कि वे नहीं रहे तो क्या होगा? इंदिरा गाँधी का उदय देश की बदलाव विरोधी ताकतों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए हुआ था. संयोग से वे बदलाव विरोधी ताकतें कांग्रेस के भीतर ही थीं, पर प्रतिक्रियावादी थीं. जेपी आंदोलन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ था.