राजनेता वही सफल है जो सामाजिक जीवन की विसंगतियों को समझता
हो और दो विपरीत ताकतों और हालात के बीच से रास्ता निकालना जानता हो। ममता बनर्जी की
छवि जुनूनी,
लड़ाका और विघ्नसंतोषी की है। संसद से सड़क तक उनके किस्से ही
किस्से हैं। पिछले साल रेल बजट पेश करने के बाद दिनेश त्रिवेदी को उन्होंने जिस तरह
से हटाया, उसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। उनकी तुलना जयललिता, मायावती और उमा भारती से की जाती है। कई बार इंदिरा गांधी से भी। मूलतः वे स्ट्रीट
फाइटर हैं। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने वाम मोर्चा के 34 साल पुराने
मजबूत गढ़ को गिरा कर दिखा दिया। पर लगता है कि वे गिराना जानती हैं, बनाना नहीं। इन
दिनों बंगाल में अचानक उनकी सरकार के खिलाफ आक्रोश भड़क उठा है। सीपीएम की छात्र शाखा
एसएफआई के नेता सुदीप्तो गुप्ता की मौत इस गुस्से का ट्रिगर पॉइंट है। यह सच है कि
वे कोरी हवाबाजी से नहीं उभरी हैं। उनके जीवन में सादगी, ईमानदारी और साहस है। वे फाइटर
के साथ-साथ मुख्यमंत्री भी हैं और सात-आठ मंत्रालयों का काम सम्हालती हैं। यह बात उनकी
जीवन शैली से मेल नहीं खाती। फाइलों में समय खपाना उनका शगल नहीं है। उन्होंने सिर्फ
अपने बलबूते एक पार्टी खड़ी कर दी, यह बात उन्हें महत्वपूर्ण
बनाती है, पर इसी कारण से उनका पूरा संगठन व्यक्ति केन्द्रित बन गया है।
Sunday, April 7, 2013
Monday, April 1, 2013
विचार और सिद्धांत की अनदेखी करती राजनीति
पिछले बुधवार
को तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास करके माँग की कि केंद्र सरकार श्रीलंका के
साथ मित्र राष्ट्र जैसा व्यवहार बंद करे। इसके पहले यूपीए-2 को समर्थन दे रही पार्टी
डीएमके ने केन्द्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया। तमिलनाडु में श्रीलंका को लेकर पिछले
तीन दशक से उबाल है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि श्रीलंका के खिलाड़ी वहाँ खेल न पाए हों।
या भारतीय टीम के तमिल खिलाड़ियों को श्रीलंका में कोई परेशानी हुई हो। पर तमिलनाडु
में अब श्रीलंका के पर्यटकों का ही नहीं खिलाड़ियों का प्रवेश भी मुश्किल हो गया है।
मुख्यमंत्री जयललिता ने हाल में श्रीलंकाई एथलीटों का राज्य में प्रवेश रोक दिय़ा।
पिछले साल सितम्बर में उन्होंने श्रीलंकाई छात्रों को चेन्नई में दोस्ताना फुटबाल मैच
खेलने की अनुमति नहीं दी थी। और अब आईपीएल के मैचों में श्रीलंका के खिलाड़ी चेन्नई
में खेले जा रहे मैचों में नहीं खेल पाएंगे। दूसरी ओर जब तक ममता बनर्जी की पार्टी
यूपीए में शामिल थी केन्द्र सरकार की नीतियों को लागू कर पाना मुश्किल हो गया था। खासतौर
से विदेश नीति के मामले में ममता ने भी उसी तरह के अड़ंगे लगाने शुरू कर दिए थे जैसे
आज तमिलनाडु की राजनीति लगा रही है। ममता बनर्जी ने पहले तीस्ता पर, फिर एफडीआई, फिर रेलमंत्री,
फिर एनसीटीसी और फिर राष्ट्रपति प्रत्याशी पर हठी रुख अख्तियार
करके कांग्रेस को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया था, जहाँ से पीछे हटने का रास्ता नहीं बचा था। और अंततः दोस्ती खत्म हो गई।
Tuesday, March 26, 2013
राजनीति में साल भर चलती है होली
पिछला हफ्ता राजनीतिक तूफानों
का था तो अगला हफ्ता होली का होगा। संसद के बजट सत्र का इंटरवल चल है। अब 22 अप्रेल
को फिर शुरू होगा, जो 10 मई तक चलेगा। पिछले हफ्ते डीएमके, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस
के बीच के रिश्तों ने अचानक मोड़ ले लिया। किसी की मंशा सरकार गिराने की नहीं है, पर
लगता है कि अंत का प्रारम्भ हो गया है। किसी को किसी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने
की ज़रूरत नहीं है। शायद सरकार खुद ही तकरीबन छह महीने पहले चुनाव कराने का प्रस्ताव
लेकर आए। पर उसके पहले कुछ बातें साफ हो जाएंगी। एक तो यह कि उदारीकरण के जुड़े कानून
संसद के शेष दिनों में पास करा दिए जाएंगे और दूसरे चुनाव पूर्व के गठबंधन भले ही तय
न हो पाएं, चुनावोत्तर गठबंधनों की सम्भावनाओं पर गहरा विमर्श हो जाएगा।
Tuesday, March 19, 2013
इच्छाधारी राजनीति
प्रधानमंत्री पद
का एक अनार और ‘इच्छाधारी’ सौ बीमार भारत की इच्छाधारी
राजनीति बड़े रोचक दौर में प्रवेश कर रही है। हालांकि अभी लोकसभा चुनाव तकरीबन एक साल
दूर है, पर तय होने लगा है कि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी कौन है। दो प्रत्याशी दौड़
में सबसे आगे हैं। नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी। पर कम से कम आधा दर्जन प्रत्याशी
और हैं। इनमें नीतीश कुमार, मुलायम सिंह, मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार, जे जयललिता,
पी चिदम्बरम, एके एंटनी सहित कुछ नाम और हैं। प्रधानमंत्री बनने की इनकी सम्भावनाओं
और कामनाओं के ऐतिहासिक कारण हैं। जुलाई 1979 के पहले कौन कह सकता था कि चौधरी चरण
सिंह प्रधानमंत्री बनेंगे? इसी तरह दिसम्बर 1989 के पहले वीपी सिंह के बारे में, नवम्बर 1990 के पहले
चन्द्रशेखर के बारे में, जून 1991 के पहले पीवी नरसिंहराव के बारे में, जून 1996 के
पहले एचडी देवेगौडा के बारे में और अप्रेल 1997 के पहले इन्द्र कुमार गुजराल के बारे
में कहना मुश्किल था कि वे प्रधानमंत्री बनेंगे, पर बने। वे किसी पार्टी के प्रधानमंत्री
पद के दावेदार नहीं थे। इसी तरह जनवरी 1966 में लाल बहादुर शास्त्री के असामयिक निधन
के बाद इंदिरा गांधी के और अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के बाद राजीव गांधी
के प्रधानमंत्री बनने की परिस्थितियाँ असामान्य थीं। कई बार हालात अचानक मोड़ दे देते
हैं और तमाम तैयारियाँ धरी की धरी रह जाती हैं। इसलिए देश की राजनीति में एक तबका ऐसा
भी है जो विपरीत राजयोग का इंतज़ार करता रहता है। परिस्थितियाँ बनें और राजतिलक हो।
Monday, March 18, 2013
उदीयमान भारत के अंतर्विरोध
जवाहर लाल के कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की स्थिति
काफी अच्छी थी। गुट निरपेक्ष देशों के नेताओं टीटो-नासर और नेहरू की वृहत्त्रयी ने
जो आभा मंडल बनाया था, वह भावनात्मक ज्यादा था। उसके पीछे व्यावहारिक शक्ति नहीं थी।
सन 1962 में चीन के साथ हुई लड़ाई में नेहरू का वह आभा मंडल अचानक पिघल गया। उसके बाद
सन 1971 में इंदिरा गांधी ने अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय देते हुए एक ताकतवर भारत
की परिकल्पना पेश की। हालांकि उसी दौर में भारत के अंदरूनी अंतर्विरोध भी उभरे। सन
1973 का आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव अस्सी के दशक में पंजाब आंदोलन और अंततः इंदिरा गांधी
की हत्या का कारण भी बना। उन्हीं दिनों मंडल और कमंडल के दो बड़े आंदोलनों ने हमारे
सामाजिक अंतर्विरोधों को खोला। पाकिस्तान में उसी दौरान ज़िया-उल-हक ने कट्टरता की
फसल को बोना शुरू कर दिया। सन 1971 के आहत पाकिस्तान का निशाना कश्मीर था, जहाँ अस्सी
के उतरते दशक में हिंसक आंदोलन शुरू हो गया। और जिसमें पाकिस्तान की सबसे बड़ी भूमिका
थी।
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